दुर्गंध / सुकेश साहनी

Gadya Kosh से
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उस बूढ़े का झुर्रियों-भरा चेहरा आँसुओं से तर है। वह अजय को अपनी बीमार पत्नी की मृत्यु के बारे में बताते हुए बच रही दवाइयाँ और इंजेक्शन वापस ले लेने के लिए कहता है। अजय मेरी ओर देखता है। वह हाल ही में नौकरी पर लगा है, इसलिए निर्णय नहीं ले पाता। मुझे उसकी इस आदत से ख़ुशी होती है। मैं उसकी मदद के लिए उसके पास जाता हूँ। बूढ़े की दवाओं पर निगाह डालते ही मुझे अपनी दुकान का नकली माल-पहचानने में देर नहीं लगती।

"बाबा, माफ़ करो!" मैं कहता हूँ, "बिका हुआ माल वापस नहीं होगा, अगर चाहो तो इसके बदले में दूसरी दवाई दे सकता हूँ।"

बूढ़ा फिर गिड़गिड़ाता है और आशाभरी नज़रों से मेरी ओर ताकता है। अजय भी आंखों ही आंखों में मुझसे बूढ़े की सिफ़ारिश करता है।

"तुमसे कहा न, जाओ। हमें काम करने दो!" मैं सख्ती से कहता हूँ और बूढ़ा सिर झुकाए दुकान से बाहर निकल जाता है।

"सर! उसकी बीवी मर गई है।" अजय को मेरे व्यवहार से ठेस लगती है। "हो सकता है उसे रुपयों की सख्त ज़रूरत हो..."

"अजय, तुम सोचते बहुत हो!" मैं नरमी से कहता हूँ, "हम तुम्हारी तरह सोचने लगे तो कर चुके दुकानदारी!"

वह उदास कदमों से ग्राहकों के लिए दवाइयाँ निकालने लगता है। मैं उसकी परिस्थितियों पर ग़ौर करता हूँ। लंबी बेरोज़गारी के बाद उसे यहाँ नौकरी नसीब हुई और क्षयरोग से पीड़ित पत्नी अस्पताल में पड़ी है। मुझे लगता है, वह जल्दी ही मेरे मुताबिक ढल जाएगा। मैं वापस अपनी कुर्सी पर आ जाता हूँ। "

कोई ग्राहक अजय से कैशमीमो के लिए ज़िद कर रहा है। "देखिए, कैशमीमो अभी छप रहे हैं।" अजय मेरे कहे अनुसार ग्राहक को बताता है।

"आप सादे कागज़ पर ही बनाकर स्टैंप लगा दीजिए।" ग्राहक अभी भी अड़ा हुआ है।

"हमारा टाइम खराब मत करो," मैं उठकर उसके हाथ से दवाएँ छीन लेता हूँ, "जहाँ से तसल्ली हो, वहाँ से खरीद लो!"

"सर!" खरीदार के दुकान से जाते ही अजय मेरी आँखों में झाँकते हुए पूछता है, "क्या हम नकली दवाएँ बेचते हैं?"

"देखो, तुम फिर सोचने लगे,"मैं उसे बड़े प्यार से समझाता हूँ, "जितनी भी सेल तुम्हारे हाथों हो रही है, उसका बीस प्रतिशत तुम्हें तनख्वाह के अलावा मिलेगा। तुम्हारे व्यवहार से हमारी प्रतिदिन की सेल काफ़ी बढ़ गई है। मैं मेहनती लोगों की बहुत कद्र करता हूँ।"

"मैं यह काम नहीं कर पाऊंगा।" पहली बार बिना 'सर' सम्बोधित किए उसके बर्फीले शब्द मेरे कान में पड़ते हैं।

"मैं तुम्हें-तुम्हें अपनी बीमार पत्नी के बारे में तो सोचना चाहिए... " मैं कहता हूँ और फिर अपनी कमज़ोर और फटी-फटी आवाज़ पर ख़ुद ही हैरान रह जाता हूँ।

वह बिना मेरी ओर देखे अपना टिफिन उठाता है और दृढ़ कदमों से दुकान से बाहर निकल जाता है।

मैं हैरानी से उसे जाते हुए देखता रह जाता हूँ। काउंटर पर ग्राहक इकट्ठे हो जाते हैं। अजय का चेहरा मेरी आंखों के आगे से हटाये नहीं हटता। मैं सिर झटककर दवाएँ निकालने लगता हूँ। जल्द ही मैं पसीने से नहा जाता हूँ। पसीने और दवाइयों की मिली-जुली दुर्गन्ध से दिमाग़ भन्ना जाता है। मैं हैरानी में डूब जाता हूँ ऐसी दुर्गन्ध पहले तो कभी महसूस नहीं हुई!

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