दुर्गादास / अध्याय 1 / प्रेमचन्द

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जोधपुर के महाराज जसवन्तसिंह की सेना में आशकरण नाम के एक राजपूत सेनापति थे, बड़े सच्चे, वीर, शीलवान् और परमार्थी। उनकी बहादुरी की इतनी धाक थी, कि दुश्मन उनके नाम से कांपते थे। दोनों दयावान् ऐसे थे कि मारवाड़ में कोई अनाथ न था।, जो उनके दरबार से निराश लौटे। जसवन्तसिंह भी उनका :बड़ा आदर-सत्कार करते थे। वीर दुर्गादास उन्हीं के लड़के थे। छोटे का नाम जसकरण था।

सन् 1605 ई., में आशकरण जी उज्जैन की लड़ाई में धोखे से मारे गये। उस समय दुर्गादास केवल पंद्रह वर्ष के थे पर ऐसे होनहार थे,कि जसवन्तसिंह अपने बड़े बेटे पृथ्वीसिंह की तरह इन्हें भी प्यार करने लगे। कुछ दिनों बाद जब महाराज दक्खिन की सूबेदारी पर गये, तो पृथ्वीसिंह को राज्य का भार सौंपा और वीर दुर्गादास को सेनापति बनाकर अपने साथ कर लिया। उस समय दक्खिन में महाराज शिवाजी का साम्राज्य था।मुगलों की उनके सामने एक न चलती थी; इसलिए औरंगजेब ने जसवन्तसिंह को भेजा था।जसवन्तसिंह के पहुंचते ही मार-काट बन्द हो गई। धीरे-धीरे शिवाजी और जसवन्तसिंह में मेल-जोल हो गया। औरंगजेब की इच्छा तो थी कि शिवाजी को परास्त किया जाये। यह इरादा पूरा न हुआ, तो उसने जसवन्तसिंह को वहां से हटा दिया, और कुछ दिनों उन्हें लाहौर में रखकर फिर काबुल भेज दिया। काबुल के मुसलमान इतनी आसानी से दबने वाले नहीं थे। भीषण संग्राम हुआ; जिसमें महाराजा के दो लड़के मारे गये। बुढ़ापे में जसवन्तसिंह को यही गहरी चोट लगी। बहुत दु:खी होकर वहां से पेशावर चले गये।

उन्हीं दिनों अजमेर में बगावत हो गई। औरंगजेब ने पृथ्वीसिंह को विद्रोहियों का दमन करने का हुक्म दिया। पृथ्वीसिंह ने थोड़े दिनों में बगावत को दबा दिया। औरंगजेब यह खबर पाकर बहुत खुश हुआ और पृथ्वीसिंह को पुरस्कार देने के लिए दिल्ली बुलाया। कुछ लोगों का कहना है कि वहां पृथ्वीसिंह को विष से सनी हुई खिलअत पहनाई गई, जिसका नतीजा यह हुआ कि धीरे-धीरे विष उनकी देह में मिल गया और वह थोड़े ही दिनों में संसार से विदा हो गये। यह भी कहा जाता है कि औरंगजेब मारवाड़ पर कब्जा करना चाहता था। और इसलिए जयवन्तसिंह को बार-बार लड़ाईयों पर भेजता रहता था।औरंगजेब की इस अप्रसन्नता का कारण शायद यह हो सकता है, कि जब दिल्ली के तख्त के लिए शाहजादों में लड़ाई हुई; तो जसवन्तसिंह ने दाराशिकोह का साथ दिया था।औरंगजेब ने उनका यह अपराध क्षमा न किया था। और तबसे बराबर उसका बदला लेने की फिक्र में था।खुल्लम-खुल्ला जसवन्तसिंह से लड़ना सारे राजपूताना में आग लगा देना था। इसलिए वह कूटनीति से अपना काम निकालना चाहता था।

पृथ्वीसिंह के मरते ही, औरंगजेब ने मारवाड़ में मुगल सूबेदार को भेज दिया। जयवन्तसिंह तो इधर पेशावर में पड़े हुए थे। औरंगजेब को मारवाड़ पर अधिकार जमाने का अवसर मिल गया। पृथ्वीसिंह का मरना सुनते ही महाराज पर बिजली-सी टूट पड़ी। शोनिंगजी ने महाराज को गिरने से संभाला और धीरे से एक पलंग पर लिटा दिया। थोड़ी देर के उपरान्त, जसवन्तसिंह ने आंखें खोलीं। सामने शोनिंगजी को खड़ा देखा। आंखों में आंसू भरकर बोले भाई! शोनिंगजी! यह प्यारे बेटे के मरने की खबर नहीं आई! यह मेरे लेने को मेरी मौत आई है। आओ, हम अपने मरने के पहले तुमसे कुछ कहना चाहते हैं। शोनिंगजी को लिये महाराज भीतर चले आये और एक लोहे की छोटी सन्दूकची देकर बोले भाई,यह सन्दूकची हम तुम्हें सौंपते हैं। इसकी रखवाली तुम्हें उस समय तक करनी होगी, जब तक कोई राजपूत मारवाड़ को मुगलों के हाथ से छुड़ाकर हमारी गद्दी पर न बैठे। यदि ईश्वर कभी वह दिन दिखाये तो यह उपहार उस राजकुमार को राजगद्दी के समय भेंट करना। उसके पहले तुम या दूसरा कोई इसको खोलकर देखने की इच्छा भी न करे। यदि किसी आपत्ति के कारण तुम इसकी रक्षा न कर सको, तो दूसरे किसी को जैसे मैंने तुमसे कहा है, कहकर सौंप देना।

दूसरे दिन महाराज ने अपने सब सरदारों को बुलवाया और बोले – ‘ भाइयो! औरंगजेब ने हम राजपूतों से अपने बैर का बदला पूरा-पूरा चुका लिया। अब राजवंश में हमारे पीछे कोई भी न रहा, जो हमारी गद्दी पर बैठे। यद्यपि हमारी दो रानियां भाटी और हाड़ी सगर्भा हैं; परन्तु ऐसे खोटे दिनों में क्या आशा की जाये कि उनके लड़का पैदा होगा? लेकिन यदि ईश्वर की कृपा हुई, और हमारी गद्दी का वारिश पैदा हुआ, तो यह कोई अनहोनी बात नहीं कि तुम लोगों की सहायता से औरंगजेब के हाथों से मारवाड़ को छुड़ा लें; इसलिए हमारी अन्तिम आज्ञा है कि अपने राजकुमार के साथ वैसा ही बर्ताव करना, जैसा आज तक हमारे साथ करते आये हो। भाइयो! जो मारवाड़ आज तक औरों की विपत्ति में सहायता करता था।, आज वही अपनी सहायता के लिए दूसरों का मुंह ताक रहा है। आदमी नहीं, समय ही बलवान् होता है! कभी औरंगजेब मुझसे डरता था।आज मैं उससे डरता हूं। अब इस बुढ़ापे में मैं अपने देश के लिए क्या कर सकता हूं? कुछ नहीं।‘

महाराज की आंखों में आंसू उबडबा आये। फिर कुछ न कह सके। थोड़ी देर सभा में सन्नाटा रहा, सभी के चेहरों पर उदासी थी और सभी एक दूसरे का मुंह ताकते रहे। बाद में महाराज भीतर चले गये और सरदार लोग अपने-अपने डेरों पर लौटे। इसके सप्ताह बाद महाराज ने शरीर त्याग दिया। बहादुर राजपूत शोक और पराजय की चोटों को न सह सका। सब रानियां महाराज के साथ सती हो गयीं, केवल भाटी और हाड़ी दो रानियों को सरदारों ने सती होने से रोक लिया। सन् 1678 ई. माघ बदी चार के दिन रानी के बेटा पैदा हुआ। दूसरे ही दिन हाड़ी के भी लड़का हुआ। बड़े का नाम अजीत और छोटे का दलथम्भन रखा गया।

औरंगजेब ने यह हाल सुना तो रानियों को पेशावर से दिल्ली बुला भेजा। सर्दी लग जाने से दलथम्भन तो राह में ही मर गया। और लोग कुशल से दिल्ली जा पहुंचे और रूपसिंह उदावत की हवेली में ठहरे। यह दिल्ली में सबसे बड़ी और सरदारों के लिए सुभीते की जगह थी। दूसरे दिन दुर्गादास कर्णोत, महारानियों के आने की सूचना देने के लिए औरंगजेब के पास गया। बादशाह ने लोकाचार के बाद कहा – ‘ दुर्गादास! देखो बेचारा दलथम्भन तो मर ही गया। अब हमें चाहिए कि अजीत का लालन-पालन होशियारी से करें, जिससे बेचारे जसवन्तसिंह का दुनिया में नाम रह जाय, इसलिए यही अच्छा होगा, कि अजीत को हमारे पास छोड़ दिया जाये। जैसे जसवन्तसिंह का लड़का, वैसे ही हमारा लड़का। हम उसकी स्वयं देखभाल करेंगे। और बड़े होने पर जोधपुर की गद्दी पर उसका राजतिलक कर देंगे। दुर्गादास बादशाह की मंशा ताड़ गया;परन्तु बड़ी नरमी से बोला जहांपनहा! इसमें कोई सन्देह नहीं, अजीत की रक्षा और पालन, जैसा यहां हो सकता है, और कहीं नहीं हो सकता। आप उसके ऊपर इतनी दया रखते हैं, यह उसका सौभाग्य है, पर अजीत अभी तीन महीने का है, और माता के ही दूध पर उसका जीवन है,इसलिए यह अच्छा होगा, कि दूध छूटने पर वह आपकी सेवा में लाया जाय। औरंगजेब ने दुर्गादास की बात मान ली।

वीर दुर्गादास ने लौटकर महारानी तथा। सब राजपूत सरदारों के सामने, बादशाह की बातचीत जैसी-की-तैसी कह सुनाई। सुनते ही सरदारों की आंखें लाल हो गयीं। दुर्गादास ने कहा – ‘ भाइयो! यह समय क्रोध का नहीं, चतराई का है। पहले किसी उपाय से राजकुमार को दिल्ली से हटाया जाय, फिर जैसा होगा, देखा जायेगा। आनन्ददास खेंची, जो सबसे चतुर सरदार था।, सवेरे ही एक सपेरे को लालच देकर लाया और उसकी सांप वाली पिटारी में राजकुमार को छिपाकर दिल्ली से बाहर निकल गया। वहां से आबू की घनी पहाड़ियों के बीच से होकर, मारवाड़ के एक डुगबा नाम के गांव में अपने मित्र जयदेव ब्राह्मण के घर पहुंचा। वहीं छिपे-छिपे राजकुमार का लालन-पालन करने लगा। इधर महारानी की गोद में राजकुमार की जगह दूसरा लड़का रख दिया गया।

एक वर्ष बीत जाने पर, जब औरंगजेब ने देखा, राजपूत अजीत को सीधे -सीधे नहीं देना चाहते, तो उसने जबरदस्ती राजकुमार को लाने के लिए शहर कोतवाल फौलाद को भेजा। उसने दो हजार हथियारबन्द सिपाही लेकर रूपसिंह उदावत की हवेली घेर ली। एकाएक अपने को विपत्ति में पड़ा देख दुर्गादास ने कहा – ‘ भाइयो! राजपूत दूसरों की रक्षा के लिए अपने प्राणों का लालच नहीं करते। हम राजपूत कहला कर राजकुमार के समान पाले हुए बालक को अपने हाथों मौत के मुंह में डालना नहीं चाहते। महारानी ने कहा – ‘ हमारी चिन्ता मत करो, हमारी लाज रखने वाली यह कटारी है। मैं कब की मर चुकी होती यदि यह देखने की लालसा न होती, कि राजपूत अपने देश पर किस वीरता से अपने प्राणों को न्योछावर करते हैं! रूपसिंह ने बालक की रक्षा का भार अपने ऊपर लिया। रानी ने छाती में कटारी मारकर देह त्याग दी। फिर क्या था।?राजपूत वीर निश्चिन्त हो नंगी तलवारें हाथों में ले हर-हर महादेव करते हुए शत्रु सेना पर टूट पड़े। तीन बड़ी मुगल-सेना के सामने दो-ढाई सौ आदमी इसके सिवा और कर ही क्या सकते थे। सब-के-सब वहीं लड़ मरे। शाम तक लड़ाई होती रही। मैदान साफ हो गया तो शहर कोतवाल ने रूपसिंह की हवेली तिल-तिल खोज मारी; परन्तु राजकुमार अजीत का कहीं पता न चला। बेचारे को इतने राजपूतों की हत्या करने पर भी खाली ही हाथ लौटना पड़ा।

झुटपुटा हो ही चुका था।चारों ओर निर्मल आकाश में तारे छिटकने लगे थे। चन्द्रमा की शीतल किरणें पृथ्वी पर आ-आकर कराहते हुए घायल वीरों को मानो ढाढ़स दे रही थी। सर्द हवा के धीमे झकोरों के लगने से घायल वीरों ने आंखें खोलीं और एक दूसरे के सहारे उठने लगे। इनमें वीर दुर्गादास कर्णोत की दशा दूसरे के देखते कुछ अच्छी थी। चन्द्रमा के प्रकाश में वीर दुर्गादास अपनी ओर के सब राजपूत सरदारों को एक-एक करके देखने लगे। जिस किसी को जीवित पाया, सहारा देकर उठा लाये। ढाई सौ राजपूतों में केवल वीर दुर्गादास कर्णोत, मोकहमसिंह मेडतिया, भोजराज विदावत, रूपसिंह उदावत, महासिंह और दूधोजी चांपावत, इत्यादि इने-गिने सरदार ही जीवित बचे थे। बूढ़े दूधोजी ने कहा – ‘ भाई, चांदनी फीकी पड़ चली। रात आधी से अधिक बीत गई। अब यहां बैठने में भलाई नहीं है। देह तो छिन्न-भिन्न हो चुकी है। बचे-खुचे प्राणों की रक्षा करें। वीर दुर्गादास ने कहा – ‘ अभी ठहरो हम महारानी का शव लिये बिना यहां से जीवित नहीं जाना चाहते। धिक्कार है! हमारे जीते जी ही महारानी का पुनीत शरीर मुगलों के हाथ पड़े।

उन शब्दों में न जाने क्या जादू था।, कि जो दूसरे के सहारे भी न खड़े हो सकते थे, वही महारानी की लोथ लेकर सवेरा होते-होते दिल्ली से पांच-छ: कोस दूर निकल गये और आबू की घनी पहाड़ियों में दाह-क्रिया कर दी। आज की रात यहीं काटी। दूसरे दिन जयदेव ब्राह्मण के घर पहुंचे। राजकुमार को सुखी देखकर अपना पिछला दु:ख भूल गये। दूसरे दिन आनन्ददास खेंची को राजकुमार के लालन-पालन के विषय में सावधान करके एक दूसरे से गले मिले और विदा होकर, अपने-अपने गांवों को चल दिये। राह में जितने छोटे-बड़े गांव मिले, सब में दुर्गादास ने मुगल सिपाहियों के चौकी-था।ने बने देखे। जैसे-तैसे छिपते-छिपाते कल्याणगढ़ पहुंचे। जैसे गाय से दिन भर का बिछड़ा बछड़ा मिलता है,वैसे ही दुर्गादास अपनी माता के चरणों पर गिर पड़ा। बूढ़ी माता ने उठाकर छाती से लगा लिया। दोनों ही की आंखों से प्रेम के आंसू बहने लगे।

इसी समय दुर्गादास का पुत्र तेजकरण और छोटा भाई जसकरण भी आ गये। दोनों ही रूपवान और बलवान थे। जैसे दुर्गादास अपने देश की भलाई के लिए तन, मन, धन न्योछावर किये बैठा था।, वैसे ही जसकरण और तेजकरण भी देश की स्वतन्त्रता के नाम पर बिके हुए थे। बूढ़ी माता भी मुगलों के अत्याचार से दुखी थी। अपने पुत्रों को देश पर मर मिटने के लिए सदैव उसकाया करती थी। पर जब अपने ही बन्धा देश को बरबाद करने पर तुले बैठे हों, तो कोई क्या करे?

जसवन्तसिंह के बड़े भाई अमरसिंह का लड़का इन्द्रसिंह राज्य के लालच में औरंगजेब से मिल गया था।वह चाहता था। कि देश से प्रभावशाली राजपूत सरदारों को राह में बिछे हुए कांटों के समान नष्ट कर दें और बे-खटके मारवाड़ पर राज करे। औरंगजेब को तो यह उपाय सुझाने की देर थी। उसकी ऐसी इच्छा पहले ही से थी। यह बात उसके मन में बैठ गई। मारवाड़ के मुगल सूबेदार के नाम तुरन्त फरमान जारी कर दिया सरदारों को गिरफ्तार कर लो। फिर क्या था।? गांव-गांव भागे हुए सरदारों की खोज होने लगी। कितने प्राण की डर से बादशाह से जा मिले। कुछ इधर-उधर छिप रहे। उनके घर लूट लिये गये। फिर भी न निकले। शोनिंगजी चांपावत ने सरदारों की यह दशा देखी, तो घबरा उठे। ऐसी दशा में महाराज जसवन्तसिंह की दी हुई लोहे की सन्दूकची की रक्षा कैसे करें! इसी चिन्ता में थे, कि वीर दुर्गादास की याद आ गई। तुरन्त ही घोड़ा कसा और अरावली पहाड़ी के तलैटी में बसे हुए कल्याणपुर में जा पहुंचे। शोनिंगजी को आते देख दुर्गादास अगवानी के लिए आगे बढ़ा। दोनों मेल से गले मिले। देश की दशा पर बातें होने लगीं। शोनिंगजी ने कहा – ‘ भाई! यह समय बैठने का नहीं। आलस छोड़ो और हमारे साथ अभी चला। दुर्गादास ने अपनी माता से आज्ञा मांगी और शोनिंगी के साथ चल पड़े। दिन डूबते-डूबते दोनों आवागढ़ कोट में पहुंचे। दुर्गादास मुगल सिपाहियों को इधर-उधर कोट की चौकसी करते देख भीतर जाने में हिचकिचाया। शोनिंगजी ने धीरे से कहा – ‘ यदि देश की भलाई चाहते हो, तो चले जाओ।

दोनों एक अंधेरी कोठरी में जा पहुंचे। शोनिंगजी भीतर से एक छोटी-सी लोहे की सन्दूकची उठा लाये और दुर्गादास के सामने रखकर बोले यह था।ती महाराज जसवन्तसिंह ने अपने मरने के दस दिन पहले हमें सौंपी थी, और कहा – ‘ था। 'जो वीर मारवाड़ को स्वतन्त्रा कर जोधपुर की गद्दी पर बैठेगा, यह उपहार उसी को दिया जाय। उसे छोड़, दूसरा कोई भी यह जानने की इच्छा न करे, कि इसमें क्या है?' भाई! अब मैं इसकी रक्षा नहीं कर सकता। इसलिए तुम्हें सौंपता हूं और यदि मेरी-सी दशा, ईश्वर न करे, कभी तुम्हारी भी हो, तो ऐसा ही करना, जैसा मैं कर रहा हूं। वीर दुर्गादास सब बातों को धयान से सुनता रहा। तब सन्दूकची उठाकर मटके के सहारे कमर में बांधा ली और राम जुहार करता हुआ घोड़े पर सवार हो, सीधी राह छोड़ पगडण्डी पर हो लिया।