दुर्गादास / अध्याय 5 / प्रेमचन्द

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मुगल सरदार दिलावर खां ऊंचे स्वर से मुगल सिपाहियों को जोश दिलाने के लिए कहने लगा 'नमकहरामी गुनाह है। गुलाम बनकर रहने से मौत बेहतर है। अहले इस्लाम! उन्हें कसम कुरान मजीद की है, जो जीते जी मैदान से भागे।' मुगलों में एक क्षण के लिए फिर जोश पैदा हो गया। लौटकर भूखे बाज की तरह राजपूत सेना पर टूट पड़े। वह समय पास ही था। कि राजपूत्र त्रहि-त्रहि करके भागे; परन्तु बनाई हुई सेना लेकर तुरन्त ही वीर दुर्गादास आ पहुंचा। दोनाें ओर चम-चम बिजली-सी तलवारें चमक रही थी। बाण चल रहे थे। जीत के मारे राजपूत 'हर-हर महादेव' करते हुए आगे बढ़ रहे थे। इतने में किसी अन्यायी मुगल ने वीर दुर्गादास पर पीछे से तलवार का वार किया। ईश्वर की कृपा थी कि गंभीरसिंह ने देख लिया, नहीं तो वीर दुर्गादास की जीवन-लीला यहीं समाप्त हो जाती। गंभीर ने उस दगाबाज को इतने जोर से धाक्का मारा कि वह अपने को किसी प्रकार संभाल न सका और धाड़ाम से पृथ्वी पर गिर पड़ा। गंभीर तुरन्त उसकी छाती पर बैठा। अपनी जान संकट में देख उसने दुर्गादास की दुहाई दी। वाह रे दया वीर! ऐसी नीचता का काम करनेवाले मुगल को भी तुरन्त प्राण-भिक्षा दे दी। जब मुगल सेना ने गंभीर को उस मुगल सरदार की छाती पर चढ़ते देखा तो 'इनायता खां मारा गया' का शोर मच गया। मुगल सिपाही अपने ही घायलों को रौंदते हुए भागने लगी। वीर दुर्गादास चकराया हुआ खड़ा था। यह इनायत कौन? इनको मैंने तो देसुरीगढ़ के द्वार पर मारा था।तब भेद खुला कि इनायत खां एक सिपाही को जिसकी सूरत उसकी सूरत से मिलती थी, अपने कपड़े पहनाकर देसुरी से भाग गया था।यही नकली इनायत खां वहां मारा गया था।।

सहसा ऊपर से दिलावर खां ने ऊंचे स्वर से पुकारकर कहा – ‘ 'दुर्गादास! अगर महासिंह की जान बचाना चाहते हो, तो अभी अपनी सेना किले से बाहर ले जाओ।' दुर्गादास ने ऊपर देखा तो दुष्ट दिलावर खां ने महासिंह के गले में फांसी की रस्सी डाल रखी थी। वीर दुर्गादास की आंखों में आंसू भर आये और तुरन्त ही राजपूत सेना को किले से बाहर निकल जाने की आज्ञा दी। महासिंह ऊपर से दुर्गादास को ललकार कर रहा वीर दुर्गादास! क्यों भूल रहे हो, क्या हमारे प्राण दूसरे राजपूतों के प्राणों से अधिक मूल्यवान है? क्या हमारे प्राण दूसरे राजपूतों के प्राणों से अधिक मूल्यवान है? क्या हमको अमर समझ रखा है? थोड़ी देर के लिए सब ही संसार में आये हैं, एक दिन मरना अवश्य है, इसलिये अपनी विजय को पराजय में न बदलो। महासिंह दुर्गादास को उत्तोजित कर रहा था। और दिलावर गले में पड़ी रस्सी में झटका देने को तैयार खड़ा था।गंभीरसिंह अपने क्रोध को अधिक समय तक दाब न सका; परन्तु इनायत खां को सामने खींच लाया और बोला अच्छा दिलावर खां! यही करना चाहते हो तो करो। हम भी जितने मुगल सरदार हमारे बन्दी हैं, सबको महासिंह के बदले में तुम्हारी ही आंखों के सामने ऐसी बुरी तरह मारेंगे कि पत्थर की आंखें भी रो देंगी। अब तो दिलावर खां के हाथ-पांव फूल गये। गंभीरसिंह को उत्तार न दे सका। वह जानता था।,इनायत खां का राज-दरबार में कितना मान है। यदि इनायत खां महासिंह के बदले में मारा गया, तो मेरी भी कुशल नहीं। तुरन्त महासिंह के गले से रस्सी निकाल फेंकी और बोला वीर दुर्गादास, मैं प्रतिज्ञा करता हूं कि महासिंह को अब किसी प्रकार का कष्ट न पहुंचाया जायेगा और यदि सांयकाल तक बादशाह का कोई आज्ञा पत्र न आया, तो किला आपके अधीन करके सन्धिा कर लूंगा। व्यर्थ के लिये मैं बहुमूल्य रत्नों को मिट्टी में नहीं मिलाना चाहता।

वीर दुर्गादास ने दिलावर खां की प्रार्थना स्वीकार कर ली। राजपूत सेना अपनी थकवाट मिटाने के लिए समीप ही के एक पहाड़ी प्रदेश में चली गई, और शोनिंगजी इत्यादि वुद्ध सरदाराें ने घायल राजपूत वीरों को मरहम-पट्टी के लिए राजमहल में भेजा। यहां सब सामग्री इकट्ठी थी और किसी बात की कमी न थी; क्योंकि सरदार केसरीसिंह ने किले पर धावा होने के पहले ही राज भवन पर अपना कब्जा कर लिया था।बस्ती में किसी मुगल का पुतला भी न रह गया। विशिष्ट मुगल सरदारों को केसरीसिंह ने बन्दी बनाकर राज-भवन में कैद कर दिया। बेचारा इनायत खां भी वहीं पहुंच गया। इन सब आवश्यक कामों से छुट्टी पाकर शोनिंग जी वीर दुर्गादास, से मिले। सब सरदार एकत्र होकर दिलावर खां की कही हुई बातों पर विचार करने लगे। दुर्गादास ने कहा – ‘ भाइयो! इस कपटी को दिल्ली से किसी प्रकार की सहायता मिलने की पूर्ण आशा है, इसी कारण इसने सायंकाल तक युद्ध बन्द रखने की प्रार्थना की है, इसलिए मेरा विचार है कि मुगल सेना आने का सब मार्ग पहले ही से रोक दिये जायें और किले में पहुंचने के पहले ही यहीं निपट लिया जाय। मैदान की लड़ाई में सब प्रकार की सुविधा है। वीर दुर्गादास की सलाह सबने पसन्द की और मार्ग के दोनों ओर थोड़ी-थोड़ी राजपूत-सेना पहाड़ी खोहों में छिपा दी गई।

दिन लगभग दो पहर बाकी थी। एक भेदिये ने मुगल सेना के आने के समाचार कहे। दुर्गादास ने प्रसन्न होकर राजपूत वीरों को सजग कर दिया। थोड़ी ही देर में सामने बादशाही झंडा फहराते हुए मुगल सरदार मुहम्मद खां के साथ एक भारी मुसलमानी दल आता दिखाई पड़ा। ज्योंही यह सेना पहाड़ी दर्रे से आई, दुर्गादास ने डंके पर चोट मारी, इधर वीर राजपूत जय-घोष करते हुए अपने शत्रुओं पर टूट पड़े। उधर साहसी वीर गंभीरसिंह और तेजकरण दोनों ने झपटकर बादशाही झंडा नीचे गिराया। एक ने मुहम्मद खां को पकड़ा और दूसरे ने राजपूती झण्डा खड़ा किया।

सरदार पकड़ा गया, तो बादशाही सेना निराश होकर भागने लगी; परन्तु राजपूत वीरों ने वीर दुर्गादास के आज्ञानुसार मुगल सेना को पीछे भागने से रोका; क्योंकि भेदिये ने सत्तार हजार सेना के तीन भागों में आने के समाचार दिये थे। यदि पराजित मुगल सेना पीछे जाती, तो सम्भव था। कि दूसरी आने वाली मुगल सेना सजग रहती, फिर तो वीर दुर्गादास को थोड़े से राजपूत वीरों को लेकर इतनी बड़ी मुगल सेना पर विजय पाना कठिन हो जाता। और हुआ भी ऐसा ही। जब तक पराजित मुगल सेना के हथियार छुड़ाये जायें, और आगे वाले दरर्े तक राजपूत सेना भेजी जाय, कि दूसरा मुसलमानी दल आ गया। इसका सरदार तहब्वर खां बड़ा बहादुर था।अपनी सेना को उत्साहित करता हुआ बड़ी वीरता से लड़ने लगा। उस समय का दृश्य भयानक था।वीर दुर्गादास रक्त से नहाया हुआ था।जसकरण, तेजकरण तथा। गंभीरसिंह का भी ऐसा कोई अंग न था।, जहां गहरा घाव न लगा हो। एक ओर तहब्वर खां, दूसरी ओर वीर दुर्गादास अपने वीरों को उत्तोजित कर रहे थे। एक कुरान मजीद की सौगन्धा देता था।, तो दूसरा बहन-बेटियों की लाज के लिए मर मिटने को कहता था।सारांश यह कि दोनों दल बड़ी वीरता के साथ भीषण युद्ध कर रहे थे। दुर्गादास को घिरा देख, मानसिंह आगे बढ़ा और तहब्वर खां पर अपनी पूरी शक्ति से भाले का प्रहार किया। बेचारा घायल होकर जमीन पर गिरा। साथ ही जसकरण ने दिलावर खां का सर काट लिया। बादशाही झंडा नीचा हुआ। मुगल सेना परास्त हुई और भाग निकली। राजपूतों की जय-धवनि चारों ओर गूंजने लगी। राजपूत इतने प्रसन्नचित्ता थे, जैसे कभी किसी को कुछ परिश्रम ही न करना पड़ा हो। आश्चर्य तो यह था। कि मरण-प्राय घायल भी, उठकर जय-जय वीर दुर्गादास की जय! कहकर नाचने लगे।

वीर दुर्गादास ने तहब्वर खां से पूछा खां साहब! आपके बादशाह सलामत ने इतनी ही सेना भेजी थी, या और भी? तहब्वर खां ने कहा – ‘महाराज! अभी सरदार अकबर शाह के साथ लगभग बीस हजार मुगल सेना और आती होगी। वीर दुर्गादास ने उस समय दोनों बादशाही झंडे,और तीनों सरदार इनायत खां, मुहम्मद खां और तहब्वर खां को थोड़ी सेना के साथ आगे भेजा। जब अकबर शाह की सेना समीप आई,मानसिंह ने अकबर शाह से मिलकर वीर दुर्गादास का सन्देश कहा – ‘ और दोनों बादशाही झण्डे दिखाये। अकबर शाह बड़ा ही शान्त था।दोनों बादशाही झण्डों और सरदारों को राजपूतों को बन्दी देख अपना झण्डा भी मानसिंह को सौंप दिया और सन्धिा का झण्डा ऊंचा करके वीर दुर्गादास की शरण आया। तब अपनी तलवार दुर्गादास के सामने रख दी। वीर दुर्गादास ने फिर तलवार उठाकर प्रेम से अकबर शाह को दे दी। विजय के बाजे बजने लगे।

दुर्गादास ने दिलवार खां के प्रतिज्ञानुसार किले को अपने अधीन करने और महाराज महासिंह को छुड़ाने के लिए, मानसिंह और गंभीरसिंह को भेजा। इन दोनों को आते देख किले के रक्षकों ने आगे बढकर कुद्बिजयां सौंप दी, परन्तु इन दोनों में कोई भी इस किले में पहले कभी न आया था।, इसलिए एक रक्षक की सहायता से महासिंह के पास पहुंचे। जिस प्रकार किसी डूबने वाले को आधार मिल जाय, और वह दौड़कर उसे पकड़ ले, वैसे ही महाराज ने अपने भतीजे और भानजे को हाथों से पकडकर छाती से लगा लिया। प्रेम के आंसू आंखों में आ गये। गला भर आया। बड़ी कठिनता से बोले बेटा! हमारा प्राण-रक्षक वीर दुर्गादास कुशल से तो है? गंभीरसिंह अपने सरदारों की कुशल के साथ-साथ देसुरी और जोधपुर की विजय-कहा – ‘नी कहने लगे। मानसिंह अपनी बहन लालवा के कमरे में पहुंचा। देखा एक दीपक जल रहा है, और सामने लालवा घुटना टेके पृथ्वी पर बैठी हुई जगत्पिता परमेश्वर से प्रार्थना कर रही है! वह इतनी निमग्न थी कि मानसिंह को अपने कमरे में आते न जाना। मानसिंह थोड़ी देर तक खड़ा रहा, परन्तु लालवा का धयान न टूटा। अन्त में मानसिंह ने पुकारा बहन! आज ईश्वर की कृपा से विजयी वीर दुर्गादास ने मुगलों को पराजित कर जोधपुर की राजश्री अपना ली! आज से अपना प्यारा देश स्वतन्त्रा हुआ! इसको लालवा ने आकाशवाणी समझा; परन्तु जब यह सुना कि मुझको वीर दुर्गादास ने बन्धान मोक्ष के लिए भेजा है, तब आंखें खोल दी और प्यारे भाई मानसिंह को सामने खड़ा देखा। उन्मत्ताों के समान उठ पड़ी, और बोली प्यारे भाई, हमारी लाज बचाने वाला कुशल तो है? संग्राम में कोई गहरा घाव तो नहीं लगा? हमारे प्यारे पिताजी तथा। माता तेजबा तो प्रसन्न हैं? लालवा का यह अन्तिम प्रश्न पूरा भी न हुआ था। कि तेजबा को साथ लिए हुए महाराज महासिंह आ पहुंचे। लालवा को प्यार से छाती लगाकर कारागार के बीते दुखों को भूल गये। महासिंह, गंभीरसिंह के साथ वीर दुर्गादास से मिलने चले; और मानसिंह तेजबा और लालवा को लेकर राज-भवन चला गया।

6

मानसिंह और गंभीरसिंह को किले पर भेजने के पश्चात, वीर दुर्गादास ने चारों मुगल सरदारों को केसरीसिंह के साथ किया और राजमहल के पास वाले कारागार में कैद कर दिया। जोधपुर की रक्षा के लिए भी उचित प्रबन्धा किया। चारों तरफ विश्वासी रक्षकों तथा। गुप्तचरों को नियुक्त किया। सब जरूरी कामों से निपटने के बाद एक छोटी-सी सभा की। राजपूत सरदारों की अनुमति पाकर आस-पास के गांवों में रहने वाले मुगलों को युद्धनीति के अनुसार पकड़कर कैद कर लिया; पर उनके साथ शत्रु का-सा नहीं, मित्र का-सा व्यवहार किया जाता था।! वीर दुर्गादास की मन्शा मुगलों को कष्ट पहुंचाने की न थी। केवल शत्रुओं पर राजपूत कैदियों को छोड़ देने के लिए दबाव डालना था।।

दुर्गादास सदैव अपने देश और जाति की भलाई के लिए कमर कसे तैयार ही रहता था।कोई काम कैसा भी कष्ट साधय क्यों न हो, कभी न हिचकता था।आज उसी साहस और देशभक्ति की बदौलत उसने अमर-कीर्ति प्राप्त की है। मारवाड़ के बच्चे भी वीर दुर्गादास के नाम पर गर्व करते हैं।

जब जोधपुर की जीत का समाचार फैला, तो शत्रु भी मित्र बनकर बधाई देने के लिए इकट्ठा होने लगे और इतनी भीड़ हुई कि जोधपुर में एकत्र जनता समा न सकी; विवश होकर वीर दुर्गादास को जोधपुर के बाहर एक भारी मैदान में सभा करनी पड़ी। पौष की पूर्णिमा के दिन राजप्रसाद से लेकर सभा-मण्डप तक एक तिल रखने की भी जगह न थी। कभी कोई राज-भवन से सभा की ओर जाता था।, तो कोई सभा से राज भवन की ओर लौट आता था।उस समय चलती-फिरती जनता का दृश्य बड़ा ही अपूर्व था।मालूम होता था। कि समुद्र उमड़ पड़ा है। ऐसा कोई न था। जिसको वीर दुर्गादास के दर्शनों की लालसा न हो। स्त्रिायां झरोखों से झांक रही थी। जयधवनि आकाश में गूंज रही थी। और चारों ओर से फूलों की वर्षा हो रही थी। अच्छा हुआ कि वीर दुर्गादास राज-भवन से पैदल ही चला नहीं तो फूलों से दब जाता और बेचारे दर्शकों की लालसा धाूल में मिल जाती; क्योंकि इसमें अधिकांश ऐसे भी थे जो दुर्गादास को पहचानते न थे। वे अपने पास खड़े हुए मनुष्यों से पूछते थे भाई! इनमें वीर दुर्गादास कौन हैं? कोई अपने मित्र की उंगली उठाकर बता रहा था।कोई एक दूसरे से कह रहा था। भाई, मारवाड़ का विजेता,हमारी बहन-बेटियों की लाज की रक्षा करने वाला वीर दुर्गादास इस प्रकार सबको नमस्कार करता हुआ पैदल ही जा रहा है। धान्य है! देखो! इतना बड़ा काम करने पर भी घमण्ड का नाम नहीं, देवता है। मनुष्य नहीं, देवता है। मनुष्य में यह गुण कहां?

जनता धीरे-धीरे दुर्गादास के साथ सभा मण्डल में पहुंची यहां मारवाड़ देश की सभी छोटी-बड़ी रियासतों के सरदार बैठे हुए वीर दुर्गादास के आने की प्रतीक्षा कर रहे थे। देखते ही उठ खड़े हुए और बड़े आदर भाव से वीर दुर्गादास को एक ऊंचे आसन पर ला बिठाया विविधा प्रकार के सुगन्धिात फूलों के गजरे उनके गले में डाले, केसरिया चन्दन का लेप किया। उदयपुर के राणा राजसिंह के पुत्र भीमसिंह ने राजसी पोशाक भेंट की, जो राजा साहब ने दुर्गादास के लिए भेजी थी। दुर्गादास ने राणा साहब का उपहार बड़े सम्मान के साथ लिया, उसे माथे पर चढ़ाकर गद्दी पर रख दिया और जनता के सामने हाथ जोड़कर कहने लगा राजगुरु और प्यारे भाइयो! आज आप लोगों ने हमारा जो कुछ सम्मान किया है,मैं उसके लिए आपका आजीवन आभारी रहूंगा। यद्यपि जो काम मैंने किया है, वह हर एक देशाभिमानी कर सकता था। और मुगलों के अत्याचार से विवश होकर करता भी; परन्तु ईश्वर यह कीर्ति मुझको देना चाहता था।; इसलिए प्रसंग भी वैसा ही आ बना। हमारे पूज्य, वृद्ध सरदार महासिंहजी को मुगलों ने कंटालिया में घेर कर मारना चाहा था।, इनकी रक्षा करने में मेरे हाथों सरदार जोरावर खां का खून हुआ! मुगलों ने उसी खून के बदले में मेरी वृद्ध मां जी की हत्या की, घर-बार लूटा और कल्याणगढ़ फूंक दिया। यद्यपि मैं मुगलों से इसका बदला लेने में असमर्थ था।; परन्तु परमात्मा की कृपा और अपने देश-भाइयो की सहायता से आज इस योग्य हुआ कि जोधपुर में मुगलों को परास्त कर एक महती सभा कर सका। प्यारे भाइयो! इतनी आजादी होते हुए भी, मुझे एक बार और भीषण युद्ध होने की शंका है। क्या मुगल बादशाह आलमगीर अपना अपमान सह सकता है? नहीं, कदापि नहीं। वह एक बार दुनिया के कोने-कोने से अपनी सेना बटोर कर मारवाड़ पर धावा अवश्य करेगा, इसलिए मैं अपने देशवासियों से एक बार और सहायता करने की प्रार्थना करता हूं। यदि आप लोग अपने पूज्य गुरु ब्राह्मणों के यज्ञोपवीत की, अपने मन्दिरों की मूर्तियों की रक्षा चाहते हों, तो हमारा साथ दो, मारो और मर मिटो, 'आजादी या मौत' का प्रण करो। बीज जब तक मिट्टी में नहीं मिलता कभी हरा-भरा होकर फल नहीं लाता। भाइयो! मुझे पहले बड़ी संख्या में सहायता क्यों नहीं मिली! इसका कारण था।, यह था। कि हमारे राजपूत भाई यह समझते थे, कि राजवंश का तो नाश हो गया अब महाराज जसवन्तसिंह की गद्दी का उत्ताराधिकारी कोई रहा नहीं, हम किसके लिए इतने बड़े मुगल बादशाह से बैर करें और अपना सत्यानाश करायें। वे समझते थे दुर्गादास ने मुगलों से जो बैर ठाना है, वह राज्य के लालच से। भाइयो! मैं सर्वान्तर्यामी ईश्वर को साक्षी करके कहता हूं कि न मुझमें राज्य का लोभ था।,न है और न कभी होगा। मेरे बहुत से भाइयों को अभी यह नहीं मालूम कि महाराज जसवन्तसिंह का चिरंजीवी पुत्र अजीतसिंह अभी जीवित है उसका पालन-पोषण गुप्त रीति से हो रहा है। समय आने पर आप लोग राजकुमार का दर्शन करेंगे।

वीर दुर्गादास इतना कहकर बैठ गया। जय-धवनि और फूलों की वर्षा हुई। इसके पश्चात महाराज महासिंह जी उठे और जनता को नमस्कार कर बोले भाइयो! वीर दुर्गांदास ने मुगलों से बैर बसाने का जो कारण बताया, वह अक्षरश: सत्य है। दुर्गादास ने मारवाड़ देश अपने लिए नहीें जीता, परन्तु अपने पिता तुल्य राजा जसवन्तसिंह जी का आज्ञा पालन किया। महाराज अपने सरदारों को अपने मरने के दस दिन पहले आज्ञा दे गये थे, कि यदि हाड़ी वा भाटी रानी से ईश्वर की इच्छा से हमारी गद्दी का वारिस जन्मे, तो सब सरदार कार् कत्ताव्य होगा कि मारवाड़ देश को मुगलों से छुड़ाकर राजकुमार को गद्दी पर बिठावें। आज वीर दुर्गादास ने अपनेर् कत्ताव्य का पालन कर दिखाया। अब हम लोगों के लिए उचित है कि जी तोड़कर वीर दुर्गादास की सहायता करें जिसमें वह समय शीघ्र ही आ जाय, कि सब राजपूत अपने राजकुमार को जोधपुर की गद्दी पर बैठे देखें!

जनता एक ही आवाज में बोल उठी हम लोग अपने राजकुमार के लिए तथा। मारवाड़ देश के लिए मर मिटने को तैयार हैं।

महासिंह जी जनता का जोश देखकर अपने राजगुरु जयदेव की ओर देखा। गुरुजी ने वीरों को माघ सुदी पंचमी के दिन युद्ध पर जाने की अनुमति दी। सब सरदारों ने अपनी-अपनी सेना सहित मुहूर्त के एक दिन पहले ही आने की प्रतीज्ञा की। सभा विसर्जित हुई। एकत्र जनता तथा। राजपूत सरदारों ने एक दूसरे से विदा ली और वीर दुर्गादास की बड़ाई करते हुए अपने-अपने घर गये।

बेचारे दुर्गादास का घर तो कहीं रहा ही न था।, इसलिए महासिंह आदि सरदारों को साथ लेकर राजभवन में लौट आया, और घायल राजपूतों तथा। मुगल बन्दियों की देख-रेख में अपने दिन बिताने लगा। वह अपने अधीन कैदियों को कभी दु:ख न देता; वरन् मित्र समान व्यवहार करता था।मुहम्मद खां को तो बहुत मानता था।शत्रु हो अथवा मित्र, किसी की नेकी कभी भूलता न था।क्षमा करने में तो एक ही था।इनायत खां ने दुर्गादास के लिये क्या न उठा रखा था।; परन्तु उसे भी क्षमादान दिया। कभी उन सबको बुलाता और कभी आप ही उनके पास जाता। रात-रात भर उनसे बातें करता रहता। उसके हृदय में मालिन्य का लेश भी न था।।

धीरे-धीरे एक महीना बीता, और चारों ओर से बादलों के समान राजपूत सेनाएं उमड़-घुमड़कर चलने लगीं। जोधपुर में राजपूत वीरों का एक अच्छा जमाव हो गया। बीकानेर और जैसलमेर के सरदारों ने आकर उदयपुर में पड़ाव डाला और जयसिंह के साथ देसुरी आ पहुंचे। माघ सुदी पंचमी के दिन वीर दुर्गादास जोधपुर की एकत्र सेना लेकर ठाकुर जयसिंह से देसुरी में आ मिला। वह चारों मुगल सरदारों को उनकी मुसलमानी सेना सहित अपने साथ लाया था।, क्योंकि बादशाह से बन्दियों की अदला-बदली करनी थी। ये लोग राजपूतों से कुछ ऐसे मिल-जुल गये थे कि कोई देखने वाला इन्हें कदापि कैदी नहीं कह सकता था।परस्पर भाई-चारे का-सा व्यवहार था।एक दूसरे से बड़े प्रेम से मिलता था।, और विश्वास करता था।यह था। संगति का फल, और वीर दुर्गादास का बर्ताव, कि शत्रु भी मित्र बन गये। और समय-समय पर हितकर सलाह भी देने लगे,जिसे दुर्गादास सहर्ष मानता था।आज ही जब देसुरी से सेना के आगे चलने के विषय में सलाह हो रही थी तो मुहम्मद खां ने इसका विरोधा किया। और बात ठीक थी; क्योंकि झुपपुटा हो चुका था।आगे यदि पड़ाव के लिए उचित समय न मिलता, तो बड़ी असुविधा होती। सेना के लिए भोजन और विश्राम जरूरी है। यह सोचकर पड़ाव देसुरी के ही मैदान में रहा। रात हुई। सबने भोजन किया और विश्राम करने लगे। दुर्गादास जरूरी कामों से निपटकर अकबर शाह के डेरे में गया और बैठकर बातचीत करने लगा। बातों में औरंगजेब का प्रसंग छिड़ गया। दुर्गादास ने कहा – ‘ भाई! आप मानें, या न मानें क्योंकि वह आपके पिता हैं, परन्तु मैं तो यही कहूंगा कि औरंगजेब किसी पर विश्वास नहीं करते! देखो उन्होंने राजा जसवन्तसिंह के साथ कैसा कपट व्यवहार किया! उन्हीं के इशारे से काबुल में बलवा हुआ, जिसमें जहरीले कपड़े पहनाकर जान ली। तब धोखे से मारवाड़ को अपने अधीन कर लिया। फिर भी सन्तोष न हुआ। यहां तक कि महाराज का वंश ही नष्ट करने पर उतारू हो गये! दिल्ली में ही, अजीतसिंह के मरवाने के लिए क्या नहीं किया? देखो भाई अकबरशाह! भला कोई अपने मित्र के साथ ऐसा विश्वासघात करता है? अच्छा, मान लो, हम लोग परधार्मी थे; हमारे साथ जो कुछ किया, अच्छा किया; परन्तु क्या तुम्हारे बाबा शाहजहां भी काफिर थे? जिन्हें कारागार में पानी का भी कष्ट दिया। अपने सगे भाइयों तथा। भतीजों से जैसा बर्ताव किया, क्या वह आपसे छिपा है? खैर यह भी सही, वह दूर के थे; परन्तु आप तो उनके बेटे हैं, वे आप ही पर विश्वास नहीं करते। अगर विश्वास करते तो तैवर खां को आपकी देख-रेख के लिए तैनात न करते! अगर आपको यकीन न आये तो तैवर खां के पूछ देखें।

अकबरशाह को विश्वास न आया; परन्तु यह बात उसके मन में खटकती रही। आखिर तैवर खां को बुलाने के लिए तुरन्त ही एक चौकीदार भेजा। थोड़ी देर में तैवर खां और जयसिंह शाहजादे के डेरे में आ पहुंचे। वीर दुर्गादास ने बड़े सम्मान से दोनों को आसन दिया। जब दोनों बैठ गये, तो अकबर शाह ने पूछा भाई तैवर खां, मुझे विश्वास है कि तुम कभी झूठ नहीं बोलते; तथा।पि आज ठाकुर जयसिंह और दुर्गादास के सामने तुम्हें कुरान की सौगन्धा देता हूं, कि जो कुछ भी पूछा जाय, उसका उत्तार सत्य ही हो। तैवर खां ने कहा – ‘ पूछिए, आप लोग क्या पूछना चाहते हैं? शाहजादे ने पूछा बादशाह सलामत ने मेरे बारे में कुछ कहा – ‘ था।?

तैवर खां उत्तार देने के पहले कुछ हिचकिचाया, फिर जी कड़ा करके बोला हां, कहा – ‘ तो कुछ न था।; परन्तु मैं आपके सामने कहते डरता हूं।

दुर्गादास ने कहा – ‘ भाई, डर किस बात का? जब कुरान की सौगन्धा दी गई, तोऐसा कौन मूर्ख है, जो तुम्हारे सच बोलने पर क्रोध करे?जो कुछ कहना हो, निडर होकर कहो।

तैवर खां ने कहा – ‘ जब दिल्ली से हम अपना लश्कर लेकर चलने लगे तब बादशाह ने हमें एकान्त में बुलाया और कहा – ‘ देखो तैवर खां! हम दुनिया में तुमसे ज्यादा किसी को प्यार नहीं करते। हम जानते हैं कि तुम मुहम्मद खां की तरह कभी धोखा न दोगे, क्यों? तुमको बादशाही का लालच नहीं। जिसको किसी चीज का लोभ होता है, वही दगा करते हैं। हमको अगर कुछ सन्देह है, तो अकबर शाह पर क्योंकि उसको राज्य का लालच है। सम्भव है कि वह कपटी दुर्गादास की बातों में आ जाय और हमारे साथ वही बर्ताव करे, जो हमने अपने बाप के साथ किया था।, इसलिए तुम्हें होशियार किये देता हूं, कि उसकी नीयत अगर बुरी देखना तो उसी समय तलवार के घाट उतार देना। मैं तुमको सब तरह के अधिकार देता हूं।

इतना कहकर तैवर खां चुप हो गया।

अकबर शाह चिन्तित होकर बोला भाई दुर्गादास! आपका कहना सत्य है। अब्बाजान कहते कुछ हैं, करते कुछ हैं, उनकी मसलहत समझ में नहीं आती।

जयसिंह ने कहा – ‘ अब आप ही कहिए। ऐसे राजा का कौन साथ देना चाहेगा? इससे यह न समझना कि मुसलमान होने के कारण हम लोग शत्रु बन गये। हमने नीति पर चलने वाले बादशाहों के लिए अपने भाइयों के गले पर तलवार चलाई है। आप ही के नामराशि, आपके पूर्वज अकबर तथा। शाहजहां को ठाकुरों ने कब सहायता नहीं दी? वे लोग प्रजा-पालक थे। अपनी प्रजा को पुत्र के समान मानते थे। हिन्दू हो या मुसलमान हो, सबको योग्यता के अनुसार ओहदे देते थे। कभी किसी के धार्म में हस्तक्षेप नहीं करते थे। हम लोग ऐसे बादशाहों के साथी हैं। तुम्हारे पिता-जैसे बादशाह के साथी नहीं, जो मन्दिर तोड़कर मसजिद बनाये, हमारी मूर्तियों को मसजिद की सीढ़ियों में लगाये, तीर्थ यात्रिायों के कर ले और निर्दोष हिन्दुओं पर काफिर कहकर बिना अपराधा के ही अत्याचार करे। आप ही कहिए, यह जुल्म नहीं तो क्या है?

दुर्गादास अगर आप लोग औरंगजेब की करतूतों को दरअसल पाप और जुल्म समझते हो, और उनसे बचना चाहते हों तो जैसे हम कहें,वैसा करने की प्रतीक्षा करें, परन्तु समय पड़ने पर धोखा न देना। हम औरंगजेब को पकड़कर शाहजादे को गद्दी पर बिठा देंगे। इनका जैसा नाम है, वैसा ही बादशाह अकबर के-से गुण भी हैं। यदि ऐसा करना चाहते हों, तो सरदार मुहमद खां को बुला लो, मैं उपाय बताता हूं।

जब तक चौकीदार मुहम्मद खां को बुलाकर लाये, इतनी देर में मन-ही-मन शाहजादा न जाने क्या-क्या सोच गया। मुहम्मत खां के आ जाने के बाद शाहजादे ने कहा – ‘ भाई दुर्गादास! आप जो कुछ करना चाहते हैं, इसमें कोई सन्देह तो नहीं कि इससे बढ़कर कोई उपाय नहीं जिसमें हम दोनों की भलाई हो, परन्तु भाई! राज के लिए मैं ऐसा पाप नहीं कर सकता।

मुहम्मद खां ने कहा – ‘ शाहजादा! अभी आप बालक हैं, राजनीति नहीं जानते। बहुत पापों से बचने के लिए यदि एक पाप किया जाय, तो वह पाप नहीं, पुण्य है। इतना तो आप ही समझ सकते हैं, कि आपके गद्दी पर बैठने के बाद ये जुल्म, जो अभी हो रहे हैं, क्या बन्द न हो जायेंगे? फिर राजपूतों की जो शिकायत है, वह दूर हो जायगी। परस्पर मेल हो जाने पर प्रजा कितने सुख से रहे; इसलिए हमें तो ऐसा करने में कोई पाप नहीं मालूम होता। अब रहा यह कि औरंगजेब ने अपने बाप को कारागार में रखकर बड़ा कष्ट दिया था।, आप ऐसा न करना। चलो, बस हो चुका। अगर आप इतने पर भी राजी नहीं, तो राजकुल में वृथा। ही जन्म लिया था।, कहीं फकीर होते जाके।

तैवर खां ने कहा – ‘ इसमें आपको करना ही क्या है? हम कैदियों की अदला-बदली के बहाने अपनी मुगल-सेना लेकर जायेंगे, और पीछे से राजपूत सेना एकाएकी घावा कर देगी! बादशाह अपनी सेना समझकर हमारी ओर अवश्य भागेगा, बस हमारा काम बन जायगा। बादशाह को पकड़कर वीर दुर्गादास को सौंप देंगे, और आपको शाही तख्त पर बिठा देंगे।

अकबरशाह की नीयत बिगड़ी! संसार में ऐसा कौन है, जो लक्ष्मी का तिरस्कार करे? अब रात भी आधी बीत चुकी थी और सब सरदार भी दुर्गादास की राय पर सहमत थे। बातचीत बन्द हुई, सब लोग अपने-अपने डेरे में विश्राम करने चले गये। शाहजादा अपनी सेज पर पड़ा-पड़ा अपने भविष्य पर विचार करता रहा। सवेरा हुआ और कूच का डंका बजा। सरदारों ने अपनी-अपनी सेनाएं संभाली और बुधावाड़ी के मैदान की तरफ रवाना हुए। यहां से अजमेर केवल डेढ़-दो कोस रह जाता है। लड़ाई के लिए मैदान भी अच्छा था।, और सेना के लिए भी सब प्रकार की सुविधा थी। दुर्गादास ने पड़ाव के लिए यही जगह उचित समझी। इनके दोनों तरफ पहाड़ी प्रदेश था।यहां युद्ध को किसी प्रकार की होने से प्रजा हानि नहीं पहुंच सकती थी। और वीर दुर्गादास का मतलब भी यही था।, नहीं तो आगे ही से बस्ती के बाहर मोर्चाबन्दी क्यों करता? अस्तु,वीर दुर्गादास के आज्ञानुसार पड़ाव यहीं पड़ा। सरदारों ने सेना के भोजन तथा। विश्राम का पूरा प्रबन्धा किया।

शाम को जयसिंह तथा। दुर्गादास आदि मुगल सरदारोें से मिलकर औरंगजेब के लिए जो षडयंत्र रचा गया था।, उस पर विचार करने लगे। दुर्गादास ने कहा – ‘ खां साहब, देखो, धोखा न देना! नहीं तो बेचारे अकबरशाह के अरमान खाक में मिल जायेंगे। अगर धोखा दिया भी,तो हमारा क्या जायेगा? हम तो लड़ाई के लिए घर से निकले ही हैं, जहां एक से निपटना है, वहां दो से सही!

मुहम्मद खां ने कहा – ‘ वाह! हम मुसलमान हैं, बात कहकर बदलते नहीं। आगे बढ़कर पीछे नहीं हटते। फिर यह तो अपने मतलब की बात है। इसी तरह अपनी-अपनी उड़ा रहे थे। अकबरशाह तो इतने प्रसन्न थे, मानो बादशाह ही बने बैठे हैं।

परन्तु यह अभी किसी को नहीं मालूम कि बना बनाया खेल बिगड़ गया। मनुष्य लाख सिर मारे; जो ईश्वर चाहता है, वही होता है। उसके सभी काम विलक्षण हैं, कौन जान सकता है कि कब क्या होगा। चाहे जितनी गुप्त रीति से बातचीत क्यों न की जाय, भेद खुल ही जाता है। बड़े-बड़े लोगों ने कहा – ‘ है कि कान दीवार के भी होते हैं। जब देसुरी में शाहजादे के खेमे में इस पर बातचीत हो रही थी उस समय एक मुगल सिपाही शमशेर बाहर पहरे पर था।वह बात सुन रहा था।यह था। मौलवी; कट्टर मुसलमान। अकबर और शाहजहां को भी काफिर ही कहता था।वह रोजा और नमाज से बढ़कर सबाब हिन्दुओं को दुख देने ही में समझता था।उसने सोचा कि काफिरों ने एक कट्टर मुसलमान बादशाह के विरुद्ध षडयंत्र रचा है, और वह मुझे मालूम हो गया है। अगर मैंने कोई उपाय न किया तो मैं भी खुदावन्द करीम की नजरों में काफिर ही बनूंगा; इसलिए यहां से निकलना चाहिए, देर करने में काम बिगड़ता है। और काम बिगड़ने पर केवल पछतावा ही साथ रहेगा। पछता ही के क्या करूंगा? फिर यहां किसलिए ठहरूं? अगर बच निकला तो एक मुसलमान को काफिरों के पंजे से छुड़ा सकूंगा, और अगर पकड़ा गया, तो इस्लाम के नाम कुरबान हो जाऊं। अस्तु; मौलवी साहब को किसी तरह का कष्ट न उठाना पड़ा। सुगमता से निकल गये, क्योंकि वीर दुर्गादास ने अपने मुगल कैदियों पर कड़ा पहरा न रखा था।दूसरे दिन मौलवी साहब अजमेर पहुंचे और बादशाह से कच्चा चिट्ठा कह सुनाया। औरंगजेब था। बड़ा ही धाूर्त, तुरंत ही एक चिट्ठी अकबरशाह के नाम लिखवाकर एक फकीर को दी, कि इसे दुर्गादास के खेमे में डाल दे। फकीर को इनाम दिया गया। फकीर को कहीं रोक-टोक तो थी नहीं, मांगता-जांचता लश्कर में पहुंचा और अवसर पाकर पत्र दुर्गादास के डेरे में फेंक दिया। दैवयोग से वह पत्र सन्तरी के हाथ लगा, उठाकर दुर्गादास के पास लाया। दुर्गादास ने देखा तो उस पर शाही मुहर थी, और शहजादे के नाम था।खोलकर पढ़ने लगा

'बेटा अकबरशाह! मैं तुम्हारे मुंह पर तुम्हारी बड़ाई नहीं करना चाहता, नहीं तो जितनी बड़ाई की जाय, वह थोड़ी ही है। तुमने काफिरों को फंसाने के लिए अच्छी युक्ति निकाली; मगर देखो, सावधान रहना। दुर्गादास बड़ा ही चालाक है। कहीं काम बिगड़ने न पावे। तैवर खां से सलाह लेते रहना, वह बड़ा पक्का मुसलमान है। बेटा! मैं तुम्हारे पत्र का उत्तार कभी न देता; क्योंकि दूसरे के हाथ में पड़ जाने से काम में बाधा पड़ने का अंदेशा था।; परन्तु फिर यह सोचा कि कदाचित तुम्हें सन्देश बना रहे, कि तुम्हारा पत्र हम तक पहुंचा या नहीं और मैं हो गया या नहीं? इसलिए विवश हुआ।

तुम्हारा पिता।'

यह पत्र पढ़कर दुर्गादास को अकबरशाह पर सन्देह उत्पन्न हो गया। पत्र लिए हुए सीधा जयसिंह के पास पहुंचा। पत्र तो उनके हाथ में दे दिया और पलंग पर बैठकर पापियों के विश्वासघात से होनेवाले परिणाम पर विचार करने लगा। जयसिंह ने पत्र पढ़ा और म्यान से तलवार खींच ली। दुर्गादास ने कहा – ‘ यह क्या? जयसिंह ने कहा – ‘ भाई! आप तो क्षमा के अवतार हैं। किसी ने कैसा ही अपराधा क्यों न किया हो आप क्षमा कर देते हैं, परन्तु मुझमें यह दैवी गुण नहीं। दुष्टों को विश्वासघात का मजा चखाऊंगा। दुर्गादास ने कहा – ‘ भाई! यह राजपूतों का धार्म नहीं। वे हमारे बन्दी हैं, और इसके अतिरिक्त आज तक उनसे हमारा भाई-चारे का बर्ताव रहा। अब आप उन्हें बिना किसी अपराधा के मारना चाहते हैं, यह अनुचित कार्य करने की मेरी इच्छा नहीं।