दुर्गा पूजा / जगदीश कश्यप
'अमिय बाबू ? इस बार कितने पर हाथ साफ़ करने का इरादा है ?' गांगुली ने चाय की चुस्की लेते हुए पूछा तो अमिय चटर्जी को गुस्सा आ गया ।
'गांगुली, होश की बात कर ! मेरी समझ में नहीं आता कि तू नास्तिक होते हुए दुर्गा पूजा में इतनी रुचि क्यों रखता है ?'
'साब, अर्थ का सवाल अमिय बाबू !' और चुटकी बजा दी ।
'ये जो वामपंथी सरकार हम लोगों को प्रतिमाह बेरोज़गारी-भत्ता देती है ना, साला ये चायवाला एक ही दिन में हड़प लेता है।'
चाय वाला जानता है कि इन बेरोज़गार युवकों को न तो सरकार से लोन लेकर अपना छोटा-मोटा धंधा चलाने में कोई रुचि है और न ही ये कोई प्रशिक्षण प्राप्त करना चाहते हैं । बस, पूरी दिनचर्या अंतरराष्ट्रीय राजनीति पर बहस करने में खर्च कर देते हैं ।
'चल अमिय, देखते हैं माँ दुर्गा की प्रतिमा कैसी बनी है !'
चलते-चलते अमिय ने कहा, 'बंधु, हम माँ दुर्गा के नाम पर लोगों को तंग करके चंदा क्यों उगाहते हैं ?'
'अरे छोड़ यार, तेरे-मेरे घर की हालत सरकार तो सही कर नहीं देगी । माँ दुर्गा के लिए हम लोग ये सब करते हैं । ये धन्ना सेठ कौन अपनी जेब से चंदा देते हैं... सब नंबर दो का पैसा है । आख़िर माँ-बाप के प्रति हमारा भी तो कुछ कर्तव्य है । चंदा-उगाही से जो कुछ दुर्गा पूजा का आयोजन करते हैं, उसमें से अपनी मेहनत का कुछ बचा लिया तो कौन-सा पाप करते हैं । माँ-पिता के लिए नई धोती और कुर्ते का ही तो जुगाड़ हो पाता है । काश! दुर्गा पूजा का उत्सव सारे साल चले ।'
अमिय ने देखा, माँ की प्रतिमा क्रोध-भरी आँखों से घूर रही थी । उसका दिल धक-धक करने लगा । गांगुली न जाने क्या-क्या कहता रहा, उसे बिलकुल समझ नहीं आया ।