दुर्गा सप्तशती से प्रेरित फिल्में / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि :23 सितम्बर 2017
गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर के एक आकल्पन से प्रेरित प्रभात मुखोपाध्याय ने एक कहानी लिखी जो 1899 में 'भारती' नामक पत्रिका में प्रकाशित हुई। दशकों बाद 1960 में सत्यजीत रे ने इस कथा से प्रेरित 'देवी' नामक फिल्म बनाई, जो सामंतवादी कुप्रथाओं के खिलाफ उनका शंखनाद था। अंधविश्वास और कुरीतियों को धर्म का आवरण देकर क्रूरता रची जाती है। कथा में प्रस्तुत जमींदार काली मां के भक्त हैं और घर में स्थापित मंदिर में प्रार्थना करते हैं। प्रार्थना उनकी दिनचर्या का सबसे महत्वपूर्ण व सबसे बड़ा भाग है। इस तरह हर पल काली मां के ध्यान में रमे हुए जमींदार ने स्वप्न में देखा कि उनकी छोटी बहू काली मां का ही साक्षात स्वरूप है। वे तुरंत ही अपनी 18 वर्षीय बहू को ऊंचे स्थान पर बैठा देते हैं और उसे देवी स्वरूप में पूजा जाना प्रारंभ होता है। वह स्त्री सामान्य जीवन जीने के लिए तरस जाती है। उसे देवी स्वरूप के नीचे दबा दिया जाता है। वह पूज्य होते ही सरल जीवन से वंचित कर दी जाती है। यहां तक कि उसके पति को भी निर्देश है कि उसे देवी माने और चरण छुए। वह अपने शयन-कक्ष में भी प्रवेश नहीं कर पाती।
वह अपने जेठ के शिशु को बहुत प्यार करती थी। उसकी खेलने की गेंद उसके कक्ष में आती है तो वह दौड़कर उसे उठाता है परंतु अपनी चाची की ओर नहीं जाता। नन्हे हृदय में भी उसका देवी स्वरूप स्थापित कर दिया गया है। देवी का पति कलकत्ता में नौकरी करता है और वह अपना पता लिखे पचास लिफाफे अपनी पत्नी को दे जाता है कि वह उसे प्रतिदिन एक पत्र लिखे परंतु उसे देवी की तरह स्थापित कर दिए जाने के कारण वह एक भी पत्र नहीं लिख पाती। अब उसका जीवन ही कोरा कागज बन गया है।
कलकत्ता से पति आता है और वह अपनी पत्नी को इस जाल से मुक्त कराना चाहता है परंतु अंधी श्रद्धा की दीवारों में उसकी पत्नी कैद है। स्त्री को कभी शहंशाह ईटों में चुनवा देता है और कभी पूजनीय बनाकर अस्पृश्य कर दिया जाता है। एक अलग संदर्भ में कुमार अंबुज की कविता है 'साध्वियां'- 'उनकी पवित्रता में मातृत्व शामिल नहीं है, संसार के सबसे सुरीले राग में नहीं गूंजेगी उनके हिस्से की पीड़ा... मगर अब वे सिर्फ नदियों की सूखी हुई नहरें हैं या तुलसी की पत्तियां धार्मिक तेज ने सोख लिया है उनके जीवन का मानवीय ताप, वे इतनी पूजनीय हैं कि अस्पृश्य हैं इतनी स्वतंत्र हैं कि एक धार्मिक पुस्तक में कैद हैं, उनका जन्म एक उल्लसित अक्षर की तरह हुआ था और शेष जीवन एक दीप्त वाक्य में बुझ गया'।
बहरहाल, कलकत्ता से उसका पति लौटता है और वह अपनी पत्नी के साथ भागने का प्रयास करता है। वे नदी के किनारे अपनी नाव का इंतजार कर रहे हैं। यहां पत्नी के मन में एक दुविधा का जन्म होता है कि कहीं ऐसा तो नहीं कि वह सचमुच देवी का अवतार है? छवियों का निर्माण इतना घातक हो सकता है। हमारे सभी नेता यह यकीन करने लगे हैं कि वे जनता के भाग्य विधाता है। इस तरह वे अपनी ही बनाई जंजीरों में जकड़े हुए हैं। उनके बोले हुए झूठ और वादाखिलाफी से ही उनकी मांसपेशियां बन गई हैं। हम अभिशप्त हैं च्यूइंग गम की तरह निरंतर चबाए जाने और कूड़ादान में थूके जाने के लिए।
बहरहाल, देवी की प्रतिमाएं जल मेें डाल दी जाती हैं और सत्यजीत रे की सामान्य स्त्री परंतु देवी के रूप में स्थापित पात्र भी जल में ही डूब जाती है। अनेक फिल्मों में इस तरह का संवाद होता है 'अब मुझे दुर्गा रूप धारण करना होगा'। दुर्गा अन्याय के खिलाफ विरोध का प्रतीक मानी गई हैं। सुजॉय घोष की विद्या बालन अभिनीत 'कहानी' का क्लाइमैक्स भी दुर्गा उत्सव के साथ जोड़ा गया है और नायिका खलनायक का वध करती है।
1941-42 में केदार शर्मा ने कलकत्ता में एक फिल्म बनाई थी। दुर्गा की मिट्टी की मूर्तियां बनाने वाले एक कारीगर को मेले में अच्छी कमाई हुई और शाम को वह मौज मस्ती के लिए कोठे पर पहुंचा जहां पहली नजर में उसे इश्क हो गया। वह विवाह करके अपने गांव आया और नई बहू के व्यवहार एवं सेवा भाव से सभी प्रभावित हुए। कुछ वर्ष पश्चात मूर्तिकार का एक मित्र गांव आया और धमकी देने लगा कि सब को बता देगा कि उसकी पत्नी एक कोठेवाली रह चुकी है। वह दुष्ट पैसे ऐंठता रहा। एक बार धन नहीं मिलने पर उसने सच बता दिया। ब वही पास-पड़ोस जो पहले बहू की प्रशंसा करते नहीं थकता था, अब अपना व्यवहार बदल लेता है। अवाम छवियों से किस कदर शासित है कि उस स्त्री का जीना दुश्वार हो जाता है। वह स्त्री अपने पति और पड़ोस में शांति की खातिर एक रात घर छोड़ जाती है। उसके जाने के बाद उसका पति पागल हो जाता है और एक प्रेम-कथा दुखान्त में समाप्त हो जाती है।