दुर्गा / विवेक मिश्र

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झाँसी में दशहरे की धूम, यूँ तो हर साल ही होती थी, पर इस बार इसका इंतजार नौ साल के ज्ञान को सबसे ज़्यादा था। इतनी श्रद्धा उसके मन में पहले कभी नहीं उमड़ी थी। नवरात्र के नौ के नौ दिन, बिना नागा, वह दुर्गा के दर्शन करने जाता रहा। ये दिन कैसे बीते थे, ज्ञान ही जानता था। आखिरकार आज दशहरा आ ही गया था।

आज वह शाम के इंतजार में सुबह से ही बहुत बेचैन था, पर दिन कटने का नाम ही नहीं ले रहा था। वह सुबह से, गली के नुक्कड़ पर बैठा, लक्ष्मी मंदिर को जाती चौड़ी सड़क को ताक रहा था, जिस पर से शाम होते ही शहर भर में स्थापित दुर्गा की मूर्तियाँ विसर्जन के लिए चल पड़ती थीं। हजारों की भीड़ सड़क के किनारे जमा हो जाती, लोग घरों की छतों पर, दुकानों के आगे बढ़ाए गए दासों पर, दोपहर बाद से ही दुर्गा की शोभायात्रा देखने के लिए जमकर बैठ जाते। दर्शन के इंतजार में बैठे लोग खाते-बतियाते और ढेर सारा कचरा सड़क पर बिखर जाता, जैसे-जैसे शाम होने लगती, गहमा-गहमी और बढ़ जाती। यह भीड़-भड़क्का लगभग वैसा ही होता, जैसा कि ताजिए निकलने पर हुआ करता, फर्क सिर्फ़ हिंदू-मुसलमान का होता, अन्यथा सब एक जैसा, वही भीड़, वही उन्माद, वही कचरा और अंत में कीचड़ से लबालब लक्ष्मी तालाब, जिसमें विसर्जित होती दुर्गा और उसी में सिराए जाते ताजिए.

ताजियों और दुर्गा की मूर्तियों की संख्या लगभग समान अनुपात में, हर साल बढ़ती और छोटा पड़ता जाता, लक्ष्मी तालाब।

आज ज्ञान की आतुरता समय के साथ बढ़ती जा रही थी। वह अम्मा से बार-बार कहता, सड़क पर जाकर दुर्गा देखने के लिए. अम्मा त्यौहार के समय आम दिनों से ज़्यादा व्यस्त होतीं और गुस्से से झिड़क देतीं, "क्या करेगा अभी से जाके, पाँच-साढ़े पाँच से पहले नहीं निकलती दुर्गा जी, अभी बैठा रै चुपचाप और सुन सड़क पर खड़े होकर देखियो, कहीं उनके पीछे-पीछे न चले जइयौ, समझे"।

अम्मा की बात सुन ज्ञान कुछ अनमनस्क-सा बाहर चबूतरे पर, हाथ बाँधकर बैठ जाता और गली में सिमटती धूप की कालीन से समय का अंदाजा लगाने लगता। उसके मन में बार-बार सुनीता की कही बात बिजली-सी कौंधती। वह मन ही मन उसे दोहराता और-और भी ज़्यादा व्याकुल हो उठता। पिछले साल सुनीता के पिताजी ने सुनीता को नई साइकिल लाकर दी थी, पर यह सब यूँ ही नहीं हुआ था। सुनीता ने नौ दिन शक्ति स्वरूपा दुर्गा के दर्शन किए और दुर्गा विसर्जन के दिन मुहल्ले में बैठी दुर्गा की शोभायात्रा के साथ लक्ष्मी तालाब तक जा पहुँची और जब तालाब में दुर्गा जी को विसर्जित किया गया, तो दुर्गा धीरे-धीरे पानी में उतरती गईं, जब डूबती दुर्गा का केवल सिर ही बाहर रह गया, तब सुनीता ने हाथ जोड़ कर दुर्गा से वरदान माँगा, जो उसके घर लौटते ही फलित हुआ। नई साइकिल के रूप में। सुनीता की लाल चमकती साइकिल मुहल्ले भर के बच्चों के लिए, दुर्गा भक्ति से सुनीता को मिला वरदान थी।

अब ज्ञान के मन में दुर्गा माता का जयकारा गूँजने लगा। वह भागकर गया और अम्मा के सामने खड़ा हो गया। अम्मा समझ गईं, अब वह नहीं रुकेगा। उन्होंने समय को आवाज लगाई, समय ग्यारह साल का था, ज्ञान का बड़ा भाई. दोनों एक दूसरे का हाथ पकड़कर चौड़ी सड़क पर जा पहुँचे। सड़क के दोनों किनारों पर आदमियों की कतारों से, एक दीवार-सी बन गई थी, जिससे आगे पहुँचकर बच्चों का दुर्गा देख पाना मुश्किल था। आसमान में फूल-गुलाल, बताशे फेंके जा रहे थे। ठेलों पर लदे, बड़े-बड़े नगाड़े, जोर-जोर से पीटे जा रहे थे और साथ में गूँज रहा था दुर्गा माँ का जयकारा। अनायास ही इन दिनों में पूरा शहर धार्मिक हो उठता था। गली, मुहल्लों, बाजारों में लाउडस्पीकर सड़क खोदकर लगाई गई बल्लियों पर लटक जाते थे। लाल, नीली, पीली झंडियाँ सुतली पर चिपकाकर बल्लियों और बिजली के खंभों से बाँध दी जातीं।

हरे रंग की झंडियों से परहेज रहता। वह केवल मुसलमानों के त्योहारों में दिखती। किसी ऊँची बिल्डिंग से देखने पर, लगता, जैसे अचानक आई बरसात में जमीन से चींटियाँ निकलकर इधर-उधर भाग रहीं हों।

हजारों लोगों की भीड़ जो सड़कों पर उमड़ती, उनमें सभी लोग धार्मिक हों, ऐसा नहीं लगता क्योंकि धक्का-मुक्की में अक्सर ही कई लोगों की जेब कट जाती, महिलाओं के गले में पड़ी सोने की चेनें खिंच जातीं, कई बच्चे खो जाते, कई खाली घरों में चोरी हो जाती। कुछ प्रेमी युगल उस समय का एवं खाली घरों का अन्यथा प्रयोग करते, जब सारा शहर दुर्गा का जयकारा लगा रहा होता। कुछ लोग जिनकी आस्था शायद थोड़ी कम होती, इस धक्का-मुक्की से तंग आकर, बिना दुर्गा के दर्शन किए ही घर लौट आते। कुछ इसलिए ही जाते कि वहाँ खूब भब्भड़ मची रहती और वे वहाँ मची रेलमपेल का पूरा मजा लेते। महिलाओं से जैसे चाहे टकराते और दाँत-निपोर कर इधर-उधर हो जाते। कुछ लोगों का धक्का सही जगह लग जाता और वह भीड़ में ऐसे सैटल हो जाते, मानो सारे जीवन के सपने यहीं देख डालेंगे।

लोगों के झुंड दुर्गा को काँधों पर उठाए निकलते, कुछ लोग भव्य देवी की मूर्ति को ट्रकों पर ले जाते, उनके पीछे-पीछे कई लोग नाचते-गाते और जयकारा लगाते हुए चलते। कुछ दुकानदार अपनी दुकान से ही दुर्गा पर सिक्के उछाल देते, कुछ सिक्के प्रार्थना सहित दुर्गा के चरणों में गिरते, कुछ नीचे बिखर जाते। उन सिक्कों को बटोरने के लिए, एक अलग तंत्र काम करता, भूखे, चिथड़े लटकाए, मैले-कुचैले बच्चों का, जो सैंकड़ों पैरों के नीचे कुचलने और ठोकरें खाने पर भी हर मूर्ति के नीचे से अठन्नी, चवन्नी उठा लेते। वह धार्मिक न होकर भी इस विशेष धार्मिक पर्व का, बेसब्री से इंतजार करते। कई व्यापारी भिखारियों में हलवा-पूड़ी बटवाते, सो दुर्गा के साथ भिखारी, सेठों का भी जयकारा करते। कई प्रकार के वाद्य यंत्र, घिसे-पिटे रिकार्ड, जयकारों की गूँज, भीड़ की चिल्लपों, रोते-चीखते बच्चे, एक अजीब-सा कोलाहल, जो लाखों झींगुरों के एक साथ बोलने से बने शोर जैसा 'झँइंय्म-झँइंय्म' कानों में बजने लगता।

इसी सब के बीच ज्ञान, भीड़ में सिर घुसाकर आदमियों से बनी दीवार में छेद करने की कोशिश कर रहा था, पर ऐसा करने पर हरेक बार असफल ही रहता और आगे शायद भीड़ कम हो यह सोचकर आगे बढ़ जाता। कई बार भीड़ में दम घुटने जैसी हालत में पहुँचने पर भी वह दुर्गा के दर्शन करना चाहता और दुर्गा की वह मूर्ति ढ़ूँढ़ता, जिसके आगे नौ दिनों से, वह प्रार्थना कर रहा था। नन्हें ज्ञान के मन-मस्तिष्क में अभी ज्ञान की कोंपलें नहीं फूटी थीं, पर दुर्गा के दर्शन को उमड़ी भीड़ देखकर उसके मन में आस्था की जड़े गहरी हो गई थीं। अक्सर हम वही सच मान बैठते हैं, जो अधिकता में हमें अपने चारों ओर फैला दिखाई देता है।

कई बार बहुमत के साथ होकर, अविवेकी होने से, आत्मज्ञान जाता रहता है। सामूहिक उन्माद का वशीकरण, सोचने समझने की शक्ति क्षीण कर देता है और आस्थाएँ अंधविश्वासों में बदल जाती हैं। यह सब यकायक नहीं होता बल्कि हर व्यक्तित्व पर सिलेसिलेवार माँ के गर्भ से वर्तमान तक सुनी, देखी और अनुभव की जा सकीं घटनाओं की फ़िल्म चढ़ी होती है।

जैसे-जैसे समय बीतता, दुर्गा की मूर्ति ले जा रहे भक्त पीछे रह गई मूर्तियों को लेकर लक्ष्मी तालाब की ओर बड़ी तेजी से भागने लगते। विसर्जन स्थल पर अब रणभूमि जैसे हालात हो जाते। देवी के भक्तों के कई अलग-अलग गुट बन जाते। पहले मेरी, नहीं पहले मेरी की खींचातानी मच जाती। कई बार तो कट्टे-बंदूक चलने की नौबत तक आ जाती।

सौ-ढेड़ सौ मूर्तियाँ निगल चुकने के बाद तालाब का पेट, गले तक भर जाता और बाद में विसर्जित की गई मूर्तियाँ उसके गले में अटक जातीं। आधी पानी में, आधी हवा में। साढ़े छ बजते-बजते शहर के दूसरे हिस्से में बने किले के मैदान में राम की सेना पहुँच जाती और रावण का राम से काठ की तलवारें टकराकर घनघोर युद्ध होता। रावण परास्त होता और फिर शुरू होता आतिशबाजी का मुकाबला। पूरा आसमान रोशनी से भर जाता और फिर धुएँ से। साढ़े छ बजते ही सड़कों के किनारे खड़ी भीड़ बाकी बची रह गई दुर्गा की मूर्तियों को छोड़कर रावण का जलना देखने के लिए, किले के मैदान की तरफ भाग खड़ी होती।

पर भीड़ को काटता हुआ ज्ञान अभी भी तालाब की ओर ही बढ़ रहा था। वह दुर्गा को देखना चाहता था। उसे अम्मा की कही बात याद आ रही थी, 'भगवान अपने भक्तों की परीक्षा लेता है, मुसीबत में ईश्वर का ही सहारा होता है'। ज्ञान के मन में अम्मा की बातें गूँज रही थीं। वह अब भीड़ को चीरकर दुर्गा के दर्शन की कोशिश नहीं कर रहा था, बल्कि भीड़ से अलग सड़क के किनारे-किनारे लक्ष्मी तालाब की ओर चलने लगा था। वह किसी तरह लक्ष्मी तालाब पहुँच ही जाता पर भीड़ दिशा बदलकर किले के मैदान में होने वाली आतिशबाजी देखने उलट पड़ी। नन्हें ज्ञान के मन में भी रावण जलने पर छूटने वाले पटाखों की घ्वनियाँ गूँजने लगीं, पर उसे तो लक्ष्मी तालाब पहुँचना था, सो वह दृढ़ निश्चय कर, दुर्गा में आस्था रख उसी ओर चल पड़ा। परंतु इन दुर्गा के भक्तों को अनायास क्या हुआ? जो दुर्गा विसर्जन के बाद की जाने वाली आरती को बिना देखे ही, किले के मैदान की ओर भाग खड़े हुए, जहाँ आतिशबाजी का मुकाबला चल रहा था। ज्ञान नहीं समझ सका इन्हें क्या चाहिए भक्ति, ईश्वर, वरदान या सिर्फ़ भब्बड़-तमाशा!

कीचड़ और दल-दल में बदल चुके, लक्ष्मी तालाब में सूरज धीरे-धीरे उतरने की कोशिश कर रहा था और तालाब के चारों ओर एक सड़ाँध के साथ अँधेरा फैल रहा था। तालाब के उत्तर में बने काली मंदिर में आरती होने लगी थी। भीड़ छँट गई थी और अपने पीछे ऐसा सन्नाटा छोड़ गई थी, जो विसर्जन के घमासान के बाद लक्ष्मी तालाब की दुर्दशा को माप रहा था। मंदिर की घंटियों से उस सन्नाटे में एक कराह-सी तैर रही थी। यह कराह उस तालाब की थी या उसमें डूबी मूर्तियों की कहा नहीं जा सकता था।

उलट दिशा में भागती भीड़ से बचता, टकराता ज्ञान लक्ष्मी तालाब तक पहुँच गया था। तालाब के किनारे का उजाड़ विस्तार और वहाँ की खामोशी डरा देने वाली थी। वह पहले थोड़े असमंजस में था, शायद वहाँ से लौट जाना चाहता था, पर मन में बसी वरदान की लालसा ने उसके निश्चय को दृढ़ता प्रदान की थी। तालाब के किनारे की ओर बढ़ते हुए, उसे एहसास हुआ था कि वह वहाँ अकेला रह गया था। बड़े भाई समय से उसका हाथ तो, बहुत पहले ही छूट चुका था।

ज्ञान तालाब के किनारे बैठकर फूल, गुलाल, बताशों और ढेर सारी पालीथिनों और मूर्तियों की मिट्टी से ढके, तालाब के पानी को देखने लगा। उसके मुहल्ले में स्थापित की गई दुर्गा तो पहले ही पानी में समा चुकी थीं, पर अभी भी अंत में विसर्जित की गई दुर्गा की मूर्ति तालाब में खड़ी थी। दुर्गा का सिंह पानी में डूबा हुआ था, मात्र उसका जीभ बाहर निकाले सिर दिख रहा था। ज्ञान ने अपने चारों ओर देखा, वहाँ कोई न था। वह डर से काँप रहा था। उसे बहुत देर हो चुकी थी, परंतु यहाँ तक आकर वह खाली हाथ वापस नहीं लौटना चाहता था। दुर्गा, सिंह की पीठ पर खड़ी, एक हाथ में तलवार, एक में ढाल और दो हाथों से त्रिशूल थामे, राक्षस का वध कर रहीं थीं। ज्ञान को उस पल का इंतजार था, जब दुर्गा पानी में समाएँ और मात्र उनका शीश बाहर रह जाए, तभी उसे अपनी मनौती कहनी थी, तभी आधी पानी में डूबी एक मानव आकृति को, दुर्गा की मूर्ति की ओर बढ़ता देख ज्ञान के भीतर का भय और कई गुना बड़ गया। उस आकृति के समीप आने पर स्पष्ट हुआ कि कोई विसर्जित दुर्गा की मूर्तियों के वस्त्र, आभूषण, हथियार नोंच-नोंच कर इकट्ठे कर रहा था। आकृति उस अंतिम मूर्ति की ओर भी बढ़ी। उसके बालों में गुलाल भरा था, माथे पर टीका लगा था और गले में लाल चुन्नी बँधी थी। उसने मूर्ति के पास पहुँचकर उसके हाथ से तलवार, ढाल, त्रिशूल खींचकर महिषासुर मर्दनी को निहत्था और असहाय कर दिया था। वह मूर्ति के वस्त्र, आभूषण नोचने लगा। ज्ञान का गला रुँध गया, आस्था टूटने लगी। उसके मन में, शक्तिस्वरूपा, चक्र-त्रिशूल धारिणी का तेज मलीन पड़ने लगा। वह वरदान माँगना भूल गया। वह धीरे-धीरे सुबकने लगा। उसके भीतर खड़ा भक्ति और आस्था का भवन पिघलकर आँसुओं में बह रहा था। एक पल को उसे लगा था कि वह आकृति दुर्गा माँ के कोप से भस्म हो जाएगी, पर वह तो सब कुछ उतारे लिए जा रहा था। ज्ञान का मन बिलख रहा था। वह धीरे-धीरे सुबकने लगा, तभी आकृति ने पलट कर उसे देखा और झल्लाया "कौन है बे... भाग यहाँ से"। भयभीत ज्ञान काँपते पैरों से पलटकर भागना चाहता था, पर उसके पैर जैसे दल-दल में धँस गए थे। वह किसी तरह आगे बढ़ने लगा, उसने वहाँ से जाते हुए दुर्गा को हाथ तक न जोड़े। तभी एक अनायास हुई ध्वनि से वह चौंक गया, ध्वनि में एक चीख भी मिली थी। स्वयं ही उसकी दृष्टि तालाब की ओर मुड़ गई, पानी में खड़ी दुर्गा की मूर्ति निर्वस्त्र होने से पहले ही पानी में गिर गई थी। वह आकृति कहीं दिखाई नहीं देती थी, पर कीचड़ में दुर्गा के नीचे दबकर कोई छ्टपटा रहा था।

पानी से बाहर दुर्गा का सुनहला मुकुट और बड़ी-बड़ी आँखें चमक रही थीं। ज्ञान ने हाथ जोड़कर धरती पर माथा टेक दिया और मन में कुछ बुदबुदाने लगा। काली मंदिर से आती घंटियों की ध्वनि रुक गई थी।

काली मंदिर की ओर से, एक टार्च की हिलती हुई रोशनी के साथ कोई उसे पुकारता तालाब की ओर बढ़ रहा था। ज्ञान यह आवाज पहचानता था। वह भागकर पुकारने वाले से लिपट गया था। यह ज्ञान के पिताजी थे और उनके साथ में काली मंदिर के पुजारी थे। पुजारी ने डूबती दुर्गा की ओर टार्च घुमाई और हाथ जोड़े और साथ ही जोर से दुर्गा माँ का जयकारा लगाया।

दूसरे दिन की सुबह ज्ञान के जीवन की नई सुबह थी। ज्ञान और समय, नई साइकिल पर सवार अपने आँगन में रखे तुलसी के गमले के चक्कर लगा रहे थे। पिताजी ज्ञान की दादी को तखत पर बैठे अखबार पढ़कर सुना रहे थे। समाचार था-'लक्ष्मी तालाब में डूबकर एक युवक की मौत। पुलिस ने बताया कि युवक ने नशे की हालत में, तालाब में डूबकर जान दी'।