दुश्मन मेमना / ओमा शर्मा
वह पूरे इत्मीनान से सोई पड़ी है। बगल में दबोचे सॉफ्ट तकिए पर सिर बेढंगा पड़ा है। आसमान की तरफ किए अधखुले मुँह से आगे वाले दाँतों की कतार झलक रही हैं। होंठ कुछ पपड़ा से गए हैं,साँस का कोई पता ठिकाना नहीं है। शरीर किसी खरगोश के बच्चे की तरह मासूमियत से निर्जीव पड़ा है। मुड़ी-तुड़ी चादर का दो तिहाई हिस्सा बिस्तर से नीचे लटका पड़ा है। सुबह के साढ़े ग्यारह बज रहे हैं। हर छुट्टी के दिन की तरह वह यूँ सोई पड़ी है जैसे उठना ही न हो। एक-दो बार मैंने दुलार से उसे ठेला भी है... समीरा, बेटा समीरा, चलो उठो... ब्रेक फास्ट इज रेडी...। मगर उसके कानों पर जूँ नहीं रेंगी है। उसके मुड़े हुए घुटनों के दूसरी तरफ खुली त्रिकोणीय खाड़ी में किसी ठग की तरह अलसाए पड़े कास्पर (पग) ने जरूर आँखें खोली हैं मगर कुछ बेशर्मी उस पर भी चढ़ आई है। बिगाड़ा भी उसी का है।
वैसे वह सोती हुई ही अच्छी लगती है। उठ कर कुछ न कुछ ऐसा-वैसा जरूर करेगी जिससे अपना जी जलेगा। नाश्ते में पराँठे बने हों तो हबक देने की मुद्रा में यूँ 'ऑक' करेगी... कि नाश्ते में पराँठे कौन खाता है। दलिया; नो। पोहा; मुझे अच्छा नहीं लगता। सैंडविच; रोज वही। उपमा; कुछ और नहीं है। मैगी; ओके।
'मगर बेटा रोज वही नूडल्स...'
'तो?'
'पेट खराब होता है।'
'मेरा होगा न।'
'परेशानी तो हमें भी होगी।'
'आपको क्यों होगी?'
'कल आपको मायग्रेन हुआ था ना?'
'तो?'
'डॉक्टर ने मैदा, चॉकलेट, कॉफी के लिए मना किया है ना?'
'मैंने कॉफी कहाँ पी है?'
'नूडल्स तो माँग रही हो।'
'मम्मा!' वह चीखी।
'इसमें मम्मा क्या करेगी।'
'पापा, व्हाइ आर यू सो इर्रिटेटिंग'
मैं इर्रिटेटिंग हूँ, यह बात अब मुझे परेशान नहीं करती है। नादान बच्चा है, उसकी बात का क्या। अकेला बच्चा है तो थोड़ा पैंपर्ड है इसलिए और भी उसकी बातों का क्या।
वैसे उसकी बातें भी क्या खूब होती रही हैं। अभी तक।
हर चीज के बारे में जानना, हर बात के बारे में सवाल।
'पापा हमारी स्किन के नीचे क्या होता है?'
'खून।'
'उसके नीचे?'
'हड्डी।'
'हड्डी माने?'
'बोन।'
'और बोन के नीचे?'
'कुछ नहीं।'
'स्किन को हटा देंगे तो क्या हो जाएगा?'
'खून बहने लगेगा।'
'खून खत्म हो जाएगा तो क्या होगा?'
'आपको बोन दिख जाएगी।'
'उसको तो मैं खा जाऊँगा।'
'क्यों?'
'कास्पर भी तो खाता है।'
'वो तो डॉग है।'
'पापा, वो डॉग नहीं है।'
'अच्छा, तो क्या है।'
'कास्पर।'
'कास्पर तो नाम है, जानवर तो...।'
'ओ गॉड पापा, यू आर सो...।'
उसकी यही नॉनसेंस जिज्ञासाएँ हर रात को सुलाए जाने से पूर्व अनिवार्य रूप से सुनाई जाने वाली कहानियों का पीछा करतीं। मुझे बस चरित्र पकड़ा दिए जाते - फॉक्स और मंकी; लैपर्ड, लायन और गोट; पैरट, कैट, एलिफैंट और भालू। भालू को छोड़कर सारे जानवरों को अंग्रेजी में ही पुकारे जाने की अपेक्षा और आदत। कहानी को कुछ मानदंडों पर खरा उतरना पड़ता। मसलन, उसके चरित्र कल्पना के स्तर पर कुछ भी उछल-कूद करें मगर वायवीय नहीं होने चाहिए, कथा जितना मर्जी मोड़-घुमाव खाए मगर एकसूत्रता होनी चाहिए, कहानी का गंतव्य चाहे न हो मगर मंतव्य होना चाहिए, वह रोचक होनी चाहिए और आखिरी बात यह कि वह लंबी तो होनी ही चाहिए।
आखिरी शर्त पर तो मुझे हमेशा गच्चा खाने को मिलता जिसे जीत के उल्लास में ऊँघते हुए करवट बदल कर वह मुझे चलता कर देती।
मगर अब!
अब तो कितनी बदल गई है। कितनी तो घुन्ना हो गई है।
कोई बात कहो तो या तो सुनेगी नहीं या सुनेगी भी तो अनसुने ढंग से।
'आज स्कूल में क्या हुआ बेटा?' मैं जबरन कुछ बर्फ पिघलाने की कोशिश में लगा हूँ ।
'कुछ नहीं।' उसका रूखा दो टूक जवाब।
'कुछ तो हुआ होगा बच्चे!'
'अरे!, क्या होता?'
'मिस बर्नीस की क्लास हुई थी?'
'हाँ।'
'और मिस बालापुरिया की?'
'हाँ, हुई थी।'
'क्या पढ़ाया उन्होंने?'
'क्या पढ़ातीं? वही अपना पोर्शन।'
'निकिता आई थी?'
'आई थी।'
'और अनामिका?'
'पापा, व्हाट डू यू वांट?' वह तंग आकर बोली।
'जस्ट व्हाट्स हैपनिंग विद यू इन जनरल।'
'नथिंग, ओके।'
'आपके ग्रेड्स बहुत खराब हो रहे हैं बेटा।'
'दैट्स व्हाट यू वांट टू टॉक?'
'नो दैट इज ऑलसो समथिंग आई वांट टू टॉक।'
'कितनी बार पापा! कितनी बार!!'
'वो बात नहीं है, बात है कि तुम्हें हो क्या रहा है।'
'नथिंग।'
'तो फिर।'
'आई डोंट नो।'
'आई नो।'
और वह तमककर दूसरे कमरे में चली गई - मम्मी से मेरी शिकायत करने। मम्मी समीरा से आजिज आ चुकी है मगर ऐसे मौकों पर उसकी तरफदारी कर जाती है, मुख्यतः घर में शांति बनाए रखने की नीयत से वर्ना रिपोर्ट कार्ड या ओपन-डे के अलावा भी ऐसे नियमित मौके आते हैं जब उसे खून का घूँट पीकर रहना पड़ता है।
ट्यूटर के बावजूद पिछली बार मैथ्स में चालीस में से बारह लाई थी।
इस बार आठ हैं।
चलो, आगे मैथ्स नहीं करेगी।
ये आगे या अभी की बात नहीं है। जो क्लास में किया जा रहा है, किताब में है उसे पढ़ने-समझने की बात है।
ज्योग्राफी का भी वही हाल है।
क्या आठवीं की पढ़ाई इतनी मु्श्किल हो गई है?
आगे क्या करेगी?
सबके बच्चे कुछ न कुछ कर लेते हैं, ये भी कर लेगी।
कैसे? सब इतना आसान है?
इतना मत सोचा करो!
लड़की का पिता होकर मैं नहीं सोचूँगा तो कौन सोचेगा? आगे कितना मुश्किल समय आने वाला है। अपने पैरों पर खड़े होने के लिए इसे कुछ तो करना पड़ेगा। हम हैं मगर हमेशा थोड़े रहेंगे। पता नहीं वे कौन माँ-बाप होते हैं जिनके बच्चे बोर्ड में टॉप करते हैं। आईआईटी-मेडिसन करते हैं। अखबारों में जिनके सचित्र गुणगान होते हैं। यहाँ तो पास होने के लाले पड़ते हैं।
पास तो खैर हो जाती है।
हो जाती है, होम ट्यूशन्स के सहारे।
हमारे घरवालों को सरकारी स्कूल की फीस भारी लगती थी, यहाँ पब्लिक स्कूल में पढ़ते हुए होम ट्यू्शन्स के बिना गुजारा नहीं।
तुम उसके मामले को अपनी तरह से क्यों देखते हो? व्हाई शुड योर अपब्रिंगिंग कास्ट शैडो ऑन हर लाइफ?
मुझे निःशंक झिड़क दिया जाता है।
मैं स्वयं उस तरफ जाना नहीं चाहता मगर जिस तरह चीजें बिगड़ रही हैं, रहा भी नहीं जाता। ठीक है कि उसे सुख-सुविधाएँ नसीब हैं मगर बिगड़े तो नहीं। उस दिन कैमिस्ट्री की मिस रोडरिक्स ने बुलवा लिया। एक जमाना था जब यह उनकी फेवरेट हुआ करती थी। उस दिन तो काट खाने को आ रही थी।
'होम वर्क तो दूर, जर्नल तक पूरा नहीं करती है। क्लास में समीकरण-संतुलन खत्म हो गया है और यह आयरन का सिंबल 'आई' बना देती है। फिर आयोडिन कहाँ जाएगी?'
मुझे समझाते हुए ही मीरा समझदार और संयमी लगती है। जब खुद भुगतती है तो या तो उस पर हाथ उठा देती है या कुछ देर चीख-पुकार मचाकर मेरी नाकामी और तटस्थता को फसाद की जड़ करार देते हुए मुँह फुला लेती है। मैं तो रविवार के दिन बमुश्किल उसका कुछ देख पाता हूँ, रोजमर्रा में तो उसका काम मीरा ही सँभालती है।
मगर मीरा भी कहाँ तक सँभाले!
स्कूल तैयार होते समय रोज जू्ते और जुर्राबों की खोज मचती है क्योंकि गए रोज स्कूल से लौटकर बिना फीते खोले जू्तों को जो उतारा तो एक कहीं फेंका, दूसरा पता नहीं कहाँ। पानी की बोतल हर हफ्ते के हिसाब से छूटती है। डब्बावाला लगा रखा है कि बच्चे को ताजा़ खाना मिल जाए मगर उसकी भी कोई कदर नहीं। किताबों को तो कबाड़े की तरह रखती है। अपन सेकेंड-हैंड किताबों को भी अगले साल वालों को बढ़ा देते थे, ये नवंबर-दिसंबर तक नई किताबों के चिथड़े उड़ा देती है जबकि उनके कवर बाजार से चढ़वाए जाते हैं। ये कौन सा ग्लोबलाइजेशन है कि हर निजी और मामूली चीज को आउटसोर्स कर दो - पहले बदलाव मगर बाद में एक मजबूरी के तहत!
वह सब भी ठीक है मगर बच्चा पढ़ तो ले! ये मैडम तो स्कूल से लौटकर घर में घुसी नहीं कि सीधे फेसबुक पर ऐसे टूटती है जैसे देर से पेशाब का दबाव लगा हो और घंटों उसी पर लगी रहेगी। तब न खाने-पीने की सुध रहती है और न सर्दी-गर्मी लगती है। लोगों के बच्चे होते हैं जो स्कूल से आते ही सब काम छोड़कर होमवर्क में जुट जाते हैं, टीवी तक नहीं देखते और एक हमारी है...। जब खराब नंबरों से ही डर नहीं तो होमवर्क की क्या बिसात! मैं तो बस सुनता रहता हूँ कि इसके एक हजार से ज्यादा फेसबुक फ्रैंड्स हैं। एक दिन बिना लॉग आउट किए कंप्यूटर बंद कर दिया होगा। मीरा ने जब उसे चालू किया तो पुराना एकाउंट रीस्टोर हो गया। क्या-क्या तो अजीबोगरीब फोटो डाल रखे हैं। टैक्नोलॉजी ने तीतर के हाथ बटेर पकड़ा दी है। पता नहीं कितने और कहाँ-कहाँ के तो लड़के दोस्त बना रखे हैं। इस उम्र के लड़के भेड़िए होते हैं इसलिए लड़कियों को ही सँभल कर चलना होगा। मगर यह तो रत्ती भर नहीं सुनती है। मैं उसके पास जाकर बैठूँ भी तो खट से कंप्यूटर को मिनीमाइज कर देगी या एस्केप बटन दबा देगी। न बेस्ट का मतलब पता है, न फ्रैंड का मगर बेस्ट फ्रेंड दर्जन भर हैं। मैं कुछ समझाने-चेताने लग जाऊँ तो अपनी जरा सी 'हो गया' से मुझे झाड़ देगी। मुझे बहला-फुसलाकर एक ब्लैकबैरी हथिया लिया क्योंकि सभी फ्रैंड्स के पास वही है। मैंने सोचा इसके मन की मुराद पूरी हो जाएगी। अकेला बच्चा है, क्यों किसी चीज की कमी महसूस करे? आए दिन मोबाइलों के आकर्षक विज्ञापनों की कटिंग अपनी माँ को दिखाती थी। अक्सर मेरे मोबाइल को लेकर ही उलट-पुलट करती रहती थी, कुछ नहीं तो उस पर 'ब्रिक्स' या मेरे अजाने क्या-क्या गेम्स खेलती रहती। मगर आज तक हाथ मल रहा हूँ। उसके मोबाइल पर हर दम तो अब पासवर्ड का ताला जड़ा होता है। इसी से पता चलता है कि जरूर कुछ भद्दी हरकतों में शामिल होगी। सब कुछ पाक-साफ होता तो पासवर्ड की या उसके लिए इतना पजैसिव होनी की जरूरत क्यों पड़ती?
उस दिन मैं ड्राइंगरूम में अकेला बैठा आइपीएल का मैच देख रहा था कि मीरा मेरे पास आई और चुप रहने का इशारा करके हौले से बैडरूम में ले गई। समीरा सो चुकी थी। आज गलती से उसका मोबाइल डाइनिंग टेबल पर छूट गया था। सोते वक्त भी अमूमन वह उसे अपने तकिए के नीचे रखती है। साइलेंट मोड में। मुझे या मीरा को अधिकार नहीं है कि मोबाइल जैसी उसकी पर्सनल चीजों के बारे में ताक-झाँक या नुक्ताचीं करें। आखिर इससे हमको क्या वास्ता कि वह कब किससे क्या बात करती है? बीबीएम यानी ब्लैकबैरी मैसेन्जर सर्विस चालू करवा लिया है। जितने मर्जी मैसेज, फोटो या वीडियो भेजो। उस दिन के आए-गए सारे संदेश पढ़ने में आ गए। यकीन नहीं हुआ कि अपना बच्चा ऐसी भाषा लिखता है। एक लफ्ज की स्पैलिंग ठीक नहीं थी। वासप, लोल, बीटीडब्लू, ओएमजी, टीटीवाइएल और जेके की भरमार थी। मीरा ने बताया कि ये सब क्रमश: व्हाट्स अप, लाफ आउट लाउड, बाइ द वे, ओ माई गॉड, टॉक टू यू लेटर और जस्ट किडिंग के लघु रूप हैं। खैर यह सब तो चलो इस जैनरेशन की व्याकरण है मगर इसके अलावा जो लिखत-पढ़त थी उसे देखकर किसी को घटिया हिंदी फिल्म के संवाद याद आ जाएँ। पहले फरजा़न नाम का कोई लड़का रहा होगा जिसके साथ इसका नाम जुड़ा था। थोड़े दिन पहले उसे चलता कर दिया है। आजकल दो और पकड़ लिए हैं; साहिल और सारांश। फेसबुक की अपनी प्रोफाइल पिक्चर के बारे में उनसे जबरन टिप्पणियाँ माँगती हुई। आधी बातों के सूत्र तो चित्र-संकेतों (स्माइलीज) में धँसे होते हैं तो वैसे ही कुछ पल्ले नहीं पड़ता। विषय के तौर पर हिंदी - आवर मदर टंग, यू नो - बहुत बोरियत भरी फालतू और मुश्किल लगती हो लेकिन संदेशों की अदला-बदली के बीचों-बीच उसकी चुनिंदा देसी गालियों का प्रयोग सारे करते हैं। जैसे यह कोई फैशन या जमानेसाज होने की बात हो।
एक बार की बात है जब नवी-मुंबई के रास्ते शायद मानर्खुद में किसी जगह सुअरों को ढूँढ़-ढूँढ़कर कुछ खाते देखा था। बस शुरू हो गई।
'पापा, पिग्स क्या खाते हैं?'
'पॉटी' मैंने एक नजर फिराकर स्टियरिंग पकड़े ही कहा।
'छी! क्यों?' एसी गाड़ी में बैठे हुए ही उसने उल्टी करने की मुद्रा बनाई।
'वो उनका खाना होती है... उसमें उनको बदबू नहीं आती है।'
'उस पॉटी को खाकर जो पॉटी करते हैं उसे भी खा जाते हैं।'
इस पुत्री-पिता संवाद की एकमात्र गवाह श्रीमती मीरा जोशी ने ऐन इस बिंदु पर अपनी सख्त आपत्ति दर्ज करते हुए 'स्टॉप इट' कहा तो कुछ पलों के लिए उसका सवाल एक नाजा़यज सन्नाटे में टँगा रहा।
'नहीं' मैंने हौले से 'ऑब्जैक्शन ओवररूल्ड' की मुद्रा में जवाब दिया। सूचनाधिकार के युग में मैडम आप सवालों से बच नहीं सकते।
'क्यों पापा?'
'अरे, अपनी पॉटी कोई नहीं खाता। गूगल पर सर्च करके देखना - एनिमल्स हू ईट देअर ओन शिट - शायद होते भी हों...' मैंने बात बिगड़ने से पहले बात को रफा-दफा किया।
कोई यकीन करेगा कि दो साल पहले तक ऐसी मासूम शरारती लड़की के भीतर अचानक क्या कचरा घुस गया है कि कुछ समझ में नहीं आ रहा है। कुछ बताती भी तो नहीं है... जैसे हम इस लायक ही न हों। माँ-बाप अभी न रोकें तो पूरा बिगड़ने में कितनी देर लगती है? पता नहीं और बिगड़ने को क्या रह गया है। मोबाइल के म्यूजिक में फ्लोरिडा, ब्रूनो मार्स, एमेनिम, रिहाना, एनरिके, जस्टिन बीवर, एकॉन और पता नहीं किन-किन फिरंगी रैंक-चंदों को भर रखा है। जब देखो तब ईयर-प्लग चढ़ाए रहती है। बेबी, टुनाइट आयम लविंग यू, लिप्स लाइक शुगर, डीजे गॉट अस फालिंग इन लव अगेन, इफ यू आर सेक्सी एंड यू नो क्लैप योर हैंड्स को सुनने का मतलब क्या है। जरा कुछ बोलो तो कहती है इससे एकाग्रता बढ़ती है। एक दिन मैंने घेर-घार के पूछ लिया तो कहती है इनका कोई मतलब नहीं है। ये तो म्यूजिक है। कोई भला आदमी बताए तो मुझे कि इसमें काहे का म्यूजिक है? सारे गानों में वही एक-सा हो-हल्ला। कोई अल्फाज नहीं जो दिल पर ठहरे। कोई सुर नहीं, सब शोर ही शोर।
और देखो, फिर भी किस धड़ल्ले से कह देती है कि जब मुझे कुछ अता-पता ही नहीं है तो फिर मैं ऐसी इर्रिटेटिंग बातें क्यों करता हूँ?
सुबह की सैर पर रोज मिलने वाले एक परिचित बता रहे थे कि गए शुक्रवार की दोपहर को यह 'ब्लू हैवन' के लाउंज में किसी हम उम्र लड़के के साथ एक कोने में चाइनीज खा रही थी। मैंने घर पर पूछा तो मीरा ने बताया कि स्कूल से आने के बाद यह 'क्रॉसवर्ड' बुक स्टोर पर कुछ सहेलियों से मिलने की कहकर गई थी। उसने वहाँ ड्रॉप भी किया था अब कहाँ 'क्रॉसवर्ड' और कहाँ 'ब्लू हैवन'? जब घर से जाती है तो कतई नहीं चाहती कि हममें से कोई उसे फोन करे। करो तो अक्सर उठाएगी नहीं। बाद में मोबाइल के साइलेंट मोड या टैक्सी की खड़-खड़ का बहाना कर देगी।
अपनी तरफ से प्यार-पुचकार के खूब आजमाइश कर चुका हूँ मगर नतीजा? वही ढाक के तीन पात। उस रोज बेचैनी के कारण नींद खुल गई। बिना रोशनी किए समीरा के कमरे की तरफ गया तो देखता हूँ मैडम बीबीएम करने पर लगी हैं। रात के ढाई बजे! आग लग गई मेरे। रहा नहीं गया। बस हाथ उठने से रह गया। समझ में आ गया कि हम लोग के लाड़-प्यार का ही नतीजा है यह सब। पता नहीं रात में कब तक यह सब करती है तभी तो रोज सुबह उठने में आना-कानी करती है। बस, मैंने मोबाइल ले लिया। मगर इसकी हिमाकत तो देखो! कहती है मैं उसका मोबाइल नहीं देख सकता! क्यों? टैल मी! व्हाट इज देअर इन दैट व्हिच आई - हर फादर - कैन नॉट सी? मीरा बीच में आ गई सो उसे अपना कोड-लॉक डालने दिया। किस दबंगी से तो मुँह लग लेती है जबकि सेब काटने की अकल नहीं है। उस दिन काटा तो कलाई में चाकू घुसेड़ दिया।
मुझे एक डर यह भी लगता कि जिन लड़कों के साथ यह बीबीएम पर रहती है, उनसे कहीं स्कूल के बहाने मिलती-जुलती तो नहीं है? इस उम्र का आकर्षण दिमाग खराब किए रहता है। मैंने कई दफा, स्कूल यूनिफॉर्म में, इसकी उम्र की लड़कियों को मरीन ड्राइव की पट्टी और आइनॉक्स के मॉर्निंग शोज से छूटते देखा है। कुछ समाजशास्त्री किस्म के लोग तो इन्हें 'टीनेज कपल' तक कहते हैं। इनके माँ-बाप यकीन करेंगे कि उनके पिद्दी से होनहार क्या गुल खिला रहे हैं? सीक्रेट वीडिओ कैमरे से रिकॉर्डिंग करके आए दिन एमएमएस सरक्युलेट होते रहते हैं। एक्सप्रैस में ही पिछले दिनों रिपोर्ट थी कि नवयुग पब्लिक स्कूल की वह लड़की जिसने नौवीं क्लास में लुढ़क जाने के बाद खुदकुशी कर ली थी, पोस्टमार्टम के बाद पता चला कि गर्भ से थी। वह भी तो अपने माँ-बाप का इकलौती बच्ची थी। उसके माँ-बाप ने भी हमारी तरह पैदाइश-परवरिश के चक्कर में डॉक्टरों की दौड़-धूप की होगी, बढ़िया से स्कूल में दाखिला दिलाने के लिए खूब ऊपर-नीचे हुए होंगे, स्कूल के ओपन डेज पर सब काम छोड़कर टाइगर मदर्स के बीच बारी आने पर क्लास टीचर के सामने किसी प्रविक्षार्थी की तरह डरे-सहमे पेश होते रहे होंगे, बुखार न उतरने या अज्ञात कारणों से पेचिस हो जाने पर दवाइयों के अलावा नजर उतारकर तसल्ली की साँस भरी होगी, मध्य रात्रि में उसके कमरे में हौले से रोशनी करके मच्छरों को चैक किया होगा...।
या फिर, इस दबड़ेनुमा फ्लैट में वे कभी सोच सकते थे कि वे कोई कुत्ता (कास्पर को कुत्ता कहने में उन्हें समीरा के नाम का झटका लगा) भी पालना मंजूर होगा? जब कास्पर नहीं था, यानी तीन बरस पहले, तब हर गंदे-शंदे पिल्ले को खेलने के लिए उठा लाती। एक बादामी रंग की बिल्ली का छौना था जिसे उसकी माँ ने छोड़ दिया था या छूट गया था। उसे हमारे घर में शरण मिली। मगर तीन रोज में ही जब उसने सोफे के ऊपर, टेबल के नीचे और फ्रिज के पिछवाड़े को तरोताजा होने का जरिया बनाया तो मैंने भी हाथ खड़े कर दिए। दो दिन तक तो वह छौना दिखता रहा - कभी कार पार्किंग के पास तो कभी जैनसैट के पास। मगर तीसरे दिन वह नदारद था। किसी अभियान की तरह मुझे साथ लेकर उसकी ढुँढ़वाई मची।
'छोड़ बेटा, लगता है उसे किसी जानवर ने मार खाया है' कोशिश नाकाम रहने पर मैंने उसे समझाया।
'पापा,क्या ऐसा नहीं हो सकता कि वह एक रात में वह पूरी बिल्ली बन गया हो? मैंने उसी कलर की बिल्ली बाजू वाली बिल्डिंग में देखी है'
उसे किसी भी सूरत छौने का न होना या किसी जानवर द्वारा मार डालने का गल्प मंजूर नहीं था।
वो तो इतना छोटा था, उसे कोई क्यों मारेगा भला!
'हाँ, यह तो हो सकता है। कई बार ऐसा हो जाता है। इस बार भी ऐसा ही हुआ है। अब घर चलें' मुझे भरसक उसके साथ होना पड़ा।
इसी कोमल दीवानगी को देखकर ही तो कास्पर को लाना पड़ा। नामकरण के लिए भी कुछ मशक्कत नहीं करनी पड़ी क्योंकि महीने भर के जीव को पहली बार गोदी में दुलारते हुए उसके मुँह से निकला था - पापा, काश इसके 'पर' होते, ये उड़ सकता! और नाम हो गया कास्पर!
गूगल के परोसे सारे फिरंग नाम धरे रह गए।
मगर क्या हुआ?
सिर्फ पागलों की तरह खेलने-पुचकारने के लिए है कास्पर। एक भी दिन उसे रिलीव कराने नहीं ले जाती है। अखबार में अक्सर पढ़ता हूँ कि पैट्स बहुत बढ़िया स्ट्रैस बस्टर होते हैं। ख़ाक होते हैं। मेरा तो स्ट्रैस बढ़ता ही जा रहा है।
शाम को घर लौटा तो मीरा का मुँह कुछ ज्यादा ही उतरा हुआ था। थोड़े बहुत मूड स्विंग्स तो उसे होते ही रहते हैं तो पहले तो मैं चुप लगा गया। एक चुप्पी लाख सुख की तर्ज पर। औरतें किस बात पर कैसे रिएक्ट कर जाएँ कोई बता सकता है? मगर कुछ देर बाद उसने खुद ही आढ़े-टेढ़े रास्ते पकड़ने शुरू कर दिए।
'आज इसके स्कूल गई थी' उसने यूँ कहा जैसे उस हवा के साथ अदावत हो जो मैं ढीठता से ले रहा था।
हवा में सन्नाटा था मगर यह सन्नाटा उस निस्तब्धता से हटकर था जो पति-पत्नी के खालिस अहमों की नीच टकराहट से किसी फाँस की तरह रह-रहकर चुभता है। समीरा का अजीबो गरीब ढंग से फिसलता रवैया अब हम दोनों का, शुक्र है, साझा उद्यम-सा बन गया है।
अपने दफ्तर के काम की थकान की ओट में रहकर मैंने उसकी बात पर कुछ नहीं कहा तो उसने जोड़ा।
'गई नहीं, इसकी टीचर ने बुलाया था।'
उसके कहे के आगे पीछे एक बोझिल निर्वात तना खड़ा था।
'क्या हुआ? कोई खास बात?'
किसी डराती आशंका से मुठभेड़ की तैयारी में मेरा लरजता आत्मविश्वास जाग्रत सा होने लगा।
'इट्स गैटिंग डेन्जरस' उसकी भंगिमा पूर्ववत पथरीली थी।
'व्हाट? व्हाट हैपंड! क्या हुआ?'
'इसने स्कूल में खुद को मारने की कोशिश की...'
'अच्छा, कैसे?'बढ़ती बदहवासी तले मेरा तेवर तटस्थ होने लगा।
'पैन की नोंक चुभाकर ...'
मेरे चेहरे से जब जिज्ञासा सूखकर बदरंग हो गई तो उसने अलापना शुरू कर दिया... इतनी तो अच्छी टीचर है वह इसकी... कैमिस्ट्री की मिस उमा पॉल बर्नीस। यूपीबी। कुछ दिन पहले तक वह इसकी फेवरेट थी। अब इसकी दुश्मन हो गई है। और होगी क्यों नहीं? दो-चार बिगड़ैल लड़कियों के साथ पीछे की सीटों पर बैठकर ये गंदी-गंदी पर्चियाँ पास करते थे। आज टीचर ने पकड़ लिया। सबसे ज्यादा इसकी लिखावट में मिलीं! मैंने खुद अपनी आँखों से देखी हैं। टीचर का नाम 'अगली पगली बिच' कर रखा था। बतौर सजा इसे क्लास के बाहर पाँच मिनट खड़ा कर दिया। दो और लड़कियाँ थीं। कौन बर्दाश्त करता? इसमें इसे बड़ी हेठी लगी। बस, अंदर आने के बाद अपनी हथेली पंक्चर कर ली। डेस्क पर खून की धार गिरी तो हल्ला मचा। मिस बर्नीस घबरा गई और मुझे फोन करके बुलवाया। मैंने टीचर से माफी माँगी और रियायत माँगकर इसे घर ले आई। घबराई हुई थी या क्या मगर इसका शरीर तप रहा था सो मैंने एक क्रोशिन देकर सुला दिया। तब से ही सोई पड़ी है। तुम मत कुछ कहना।
अवसन्न सा होकर मैं मीरा को देखता हूँ। उसके होंठ खुश्क हुए जा रहे थे। पिछले दिनों लगातार तनावग्रस्त रहने से उसके भीतर का सब कुछ निचुड़ सा गया है। कब से वह खुलकर नहीं हँसी होगी। कभी ये तो कभी वो, कोई न कोई पचड़ा लगा रहता है। इस हालत में वह बोतल से जल्दी जल्दी पानी के घूँट ऐसे निगलती है कि लगता है बोतल डरावनी हिचकियाँ ले रही है। एक बोझिल अवसाद किसी घुलनशील द्रव्य की तरह उसकी शिराओं में उतर गया लगता है। हम दोनों के बीच इन दिनों एक मृतप्राय निष्क्रियता घर किए बैठी रहती है।
मुझे पता है कि इस समय उसका मनोबल बढ़ाते हुए मैंने उसे सहला-सा दिया तो वह ढहने लग पड़ेगी।
इसलिए ऊपरी तौर पर ही उकसाता हूँ।
'इन टीचर्स को तो बात का बतंगड़ करने में मजा आता है। माँ-बाप की परेड निकालने में चुस्की लगती है। इसकी उम्र के सारे बच्चे शरारती होते हैं और जो नहीं होते है तो उन्हें डॉक्टर को दिखाना चाहिए। रैदर दैन बीइंग ए स्पोर्ट दे आर देअर ऑनली टू किल द फ्लैम-बॉएंस ऑफ चिल्ड्रन। और ये सब उस स्कूल का हाल है व्हिच इज सपोज्ड टू बी अमंग द बेस्ट इन मुंबई। पिटी।
बाइ द वे, आज डिनर में क्या है?'
गृहस्थी का मेरा यह पंद्रह साल का अनुभव है कि खाने-पीने के स्तर पर उतरते ही बहुत सारे छुटपुट मसले अपने आप हवा हो जाते हैं।
मगर मेरे इस प्रोप-अप से वह किंचित और जड़वत हो जाती है और पास में रखी समीरा की नोटबुक का आखिरी पन्ना खोलकर मेरी तरफ बढ़ा देती है।
व्हाट!
सुसाइड नोट!!
एक सदमा किसी संगीन सा मुझमें खूब गया है।
आधा भरा हुआ पेज। उपनाम सहित ऊपर एक तरफ लिखा हुआ पूरा नाम। दूसरे कोने में साल सहित लिखी जन्मतिथि। उसके समानांतर ठीक नीचे डेट ऑफ डैथ, जिसके सामने हाइफन लगाकर सिर्फ वर्ष लिखा है - वही जो चल रहा है। बस, 'फैसले' के दिन की तारीख भरी जानी है। दो-तीन जगह शब्दों की मामूली काटपीट वर्ना सब कुछ एक उम्दा कंपोजीशन की तरह सोच समझकर लिखा गया पर्चा :
'मैं जीना चाहती थी। मैंने कोशिश भी करी मगर मैं हार गई। क्या फायदा ऐसे जीकर जिसमें आप अपनी मर्जी से जी नहीं सकते। मेरे पापा को तो कभी मुझसे जादा मतलब रहा नहीं। मम्मी भी वैसी हो गई है। सेल्फ ऑबसैस्ड। दोनों को मेरी किसी खुसी से मतलब नहीं। मोबाइल तक छीन लिया। मैं दोस्तों के यहाँ स्लीप-ओवर के लिए नहीं जा सकती हूँ। उन सबको कितनी फ्रीडम है। मुझे तो बस पढ़ाई-पढ़ाई करनी होती है। पढ़ाई से मुझे चिढ़ है। मगर किसी को उसकी परवा नहीं। मैं जानती हूँ कि ये सब जान लेने की पूरी वजह नहीं है मगर मेरे पास जीने की भी तो वजह नहीं है। अनामिका, यू आर माई BFF। आई विल मिस कास्पर।'
पढ़ते पढ़ते मेरे भीतर हाहाकार मचता एक दृश्य उभर रहा है... पहले उसके कमरे के दरवाजे पर समीरा समीरा नाम की घनघोर तड़ातड़ थापें, फिर पूरी वहशत के साथ दरवाजे को धक्के से तोड़ना, बिस्तर के पास औंधी पड़ी कुर्सी, कमरे के बीचों बीच सीलिंग फैन से स्थिर लटका उसका कोमल बेजान शरीर, बेकाबू होकर सिर पटकती दहाड़ मारती मीरा, मिलने वालों का जमघट, ...पुलिस ...पोस्टमार्टम...।
'ड्राफ्टिंग तो अच्छी है... कितनी कम गलती हैं'
एक चुहल के साथ जैसे मैं उस भयानक दुःस्वप्न से उबरने की चेष्टा करता हूँ। सहारे के लिए मीरा की तरफ फीकी मुस्कान छोड़ता हूँ मगर सब बेअसर।
उसकी आँखों में एक गहरा निष्ठुर अजनबीपन तिर आया है। जीवन के हासिल को जैसे कोई बेधमके चट कर गया हो। किसी पहाड़ी ढलान से उतरती गाड़ी के जैसे ब्रेक फेल हो गए हों और सामने एक डरावने, चिंघाड़ते अँधेरे के सिवा कुछ बचा ही न हो ...क्या कोई जीवन इतनी बेवजह, कोई चेतावनी या मौका दिए बगैर इतनी आसानी से नष्ट किया जा सकता है? और क्यों...?
'सारी टीचर्स और क्लास को इसने डिक्लेयर कर रखा है इसके बारे में...'
वह अपनी मुदर्नी के भीतर से किसी कड़वे गिले की उल्टी करने को हो आई है।
मेरी बोलती बंद है।
'जिस रोज तुमने इसका मोबाइल लिया था उस रात भी इसने किचिन में कलाई काटने की कोशिश की थी जिसे सेब काटते वक्त लगे कट का नाम दे दिया...।'
उसका अवसाद किसी आवेग मिश्रित उबाल की शक्ल लेने को है।
'आई डोंट बिलीव दिस... ऐसा कैसे हो सकता है...'
पहली दफा मैं मामले की संगीनियत महसूस कर रहा हूँ... सामने कोंचते मनहूस घिनौने तथ्यों के कारण भी और अपने यकीन के बेसहारा और तिलमिलाकर अपदस्थ होने के कारण भी।
'हाथ कंगन को आरसी क्या' अधूरा मुहावरा कहकर वह मुझे सोती पड़ी समीरा के पास ले जाती है और हथेली को हौले से खोलकर वह बिंदु दिखाती है जो एक बुजदिल कोशिश का सरासर प्रमाण है।
यानी उस नामालूम रोज - और आज नीमरोज - यह हुआ नहीं मगर बा-खूब हो सकता था कि आप अपने जीवन की चकरघिन्नी में शामिल होने के लिए आदतन अल्साए उठते और 'ब्लैड टू डैथ' जैसे डॉक्टरी निष्कर्ष तले जिंदगी भर के लिए हाथ मलते रह जाते।
गॉश!
'मैं पता करके एक काउंसलर से आज मिल भी आई। उसके मुताबिक मामला सीरियस है। हम कोई और चांस नहीं ले सकते हैं...'
यानी जो चीज पहले टल गई, आज टल गई, वह हो सकता है कल न टल पाए!
मैं एक आवेग से भर उठता हूँ।
'कोई मुझे बताए तो सही कि हम क्या जुल्म करते हैं इस पर! स्कूल के दिनों को छोड़ मैडम अपनी मर्जी से दोपहर तक उठती हैं। रात को सोने से पहले ब्रश करना आज तक गवारा नहीं हुआ है। नतीजा, हर महीने दाँतों में कोई न कोई कैविटी लगानी-बदलवानी पड़ती है। उठते ही नैट और फेसबुक। मोबाइल तक में फेसबुक एलर्ट्स हैं। पहले बास्केटबॉल या साइकिलिंग तो कर लेती थी लेकिन अब वह भी नहीं। गेम्स के नाम पर नैट या फिर रोडीज। हर किताब और खाना बोरिंग लगता है। टॉयलेट जाने का कोई नियम-क्रम आज तक नहीं बना। मैं तो कहता हूँ वह सब भी ठीक है। कर लो। मगर यह क्या कि स्कूल के जर्नल तक को पूरा करने की फुर्सत नहीं है आपको। फिसड्डी होते चलने जाने का अफसोस तो दूर, अहसास तक नहीं है। एक हमारा टाइम था जब हमारे बाप को ये तक पता नहीं होता था कि पढ़ कौन सी क्लास में रहे हैं... सबजैक्ट्स क्या ले रखे हैं...'
'सत्या, प्लीज। डोंट गैट इनटू दैट। तुम अपने टाइम से औरों को जज (मतलब हाँकने से है) नहीं कर सकते...'
वह अपनी पस्त मानसिकता में रहते हुए भी एक परिचित गर्म नश्तर मेरे पनपते गुस्से पर रख देती है। वैसे सही बात तो यह है कि समीरा को लेकर जितनी दौड़-भाग, मेहनत-मशक्कत वह करती है, मैं नहीं। परिवार बड़ा था इसलिए बँटवारे में जो हिस्सा मिला उससे अपनी स्वतंत्र जिंदगी नहीं चल सकती थी इसलिए अपना काम शुरू किया। काम एकदम नया। अनिलिस्टिड कंपनियों के शेयर बेचने का... वे जो दसियों बरस से धंधा तो कर रही हैं मगर जिनकी बेलैंस शीट को देखकर बैंकों और आम निवेशकों के मुँह में पानी नहीं आता है... जो अपने ईवेंट मैनेजेर अफोर्ड नहीं कर सकती हैं... कोई उड़ीसा में बॉक्साइट का उत्खनन करती है तो कोई उत्तरांचल में छोटे स्तर पर पनबिजली बना रही है। ज्यादातर कैश स्टार्व्ड इकाइयाँ। बड़ा काम नहीं है मगर आज बाँद्रा में सिर ढँकने को अपनी छत है। रात का खाना रोज घर पर होता है। किसके लिए किया यह सब? स्टेट बैंक की चाकरी में या तो मेनेजरी में फँसा रहता या आए रोज 'रूरल' कर रहा होता। मीरा क्या जानती नहीं है यह सब। बैंकों के डेबिट-क्रेडिट में चौदह साल खटाए हैं उसने। तीन साल पहले वी आर एस लिया... कि समीरा पर पूरा ध्यान देगी। दिया भी खूब। कभी अलाँ-फलाँ कंपाउंड की वेलेंसी निकालने का तरीका समझ-समझा रही है तो कभी फैक्टराइजेशन में जान झोंके पड़ी हैं; कभी ऑस्ट्रेलिया में होने वाली बारिश और मिट्टी के वर्गीकरण की सफाई कर रही है तो कभी सवाना की जलवायु को फींच रही होती है।
'अपने टाइम से जज नहीं करूँ तो क्या इसके टाइम से जज करूँ? गाँव देहात तक के बच्चे एक से एक इंजीनियरिंग-मैनेजमेंट में जा रहे हैं, बिना किसी खानदानी सहारे के नौजवान लड़की-लड़के एक-एक विचार को तकनीकी में पिरोकर नए-नए उद्यम खड़ा कर दे रहे हैं... बिना मेहनत के हो रहा है यह सब... बिल गेट्स और आइंसटीन की नजीरों से सांत्वना लेनी है तो बस यही कि उन्होंने भी अपने स्कूलों में कोई किला फतह नहीं किया... हद है...।'
'सत्या लिसिन' जरा रुक वह फिर बोली 'अभी यह सब कहने सोचने का वक्त नहीं है। अभी तो हमें बस यह देखना है कि कैसे यह रास्ते पर आ जाए... आए रोज तरह-तरह की खबरें पढ़कर आजकल मेरा तो कलेजा बैठने लगा है।'
मुझे अपनी गलती का अहसास होता है।
कितने कम लफ्जों के सहारे दर्द और परवाह अपने गंतव्य पर जा लगते हैं!
कल-परसों ही तो खबर थी... भारत में खुदकुशी करने वाले बच्चों-विद्यार्थियों की तादाद पिछले पाँच बरसों में दो गुनी हो गई है। अकेली मुंबई में हर वर्ष सौ से ज्यादा स्कूली बच्चे अपनी जान ले लेते हैं। किसी विषय या क्लास में नहीं हुए पास तो जीवन समाप्त! डेढ़ करोड़ की आबादी के महानगर में सौ की संख्या मायने न रखती हो मगर सोचो, सौ से ज्यादा परिवारों पर हर वर्ष क्या बीतती होगी? भोली,खिलखिलाती मासूम तस्वीरों के नीचे अखबार के श्रद्धांजली वाले पन्ने पर, कैसी टीस भरती, हाथ मलती ऋचाएँ सिराई जाती है! कैसे अनवर्त्य (इर्रिवरसिबल) ढंग से कुछ जिंदगियाँ हमेशा के लिए बदल जाती हैं! आसमान तोड़ आर्तनादों को भी सांख्यिकी कितनी अन्यमनस्कता से अनसुना रख छोड़ती है!
क्या हम भी उन्हीं में शामिल होने की कगार पर हैं?
मैं समीरा के पास जाकर हौले से लेट जाता हूँ। कुछ बरस पहले उसे लुभाने का मेरे पास एक रामबाण था - उसकी कमर खुजला कर।
'पापा खुजली नहीं हो रही थी... आप करने लगे तो होने लगी। क्यों?' किसी सुकून से लबरेज होकर वह कह उठती ।
'ये पापा का जादू है'
किसी अपने को सुख देना भी कितना सुख देता है।
'बताओ ना पापा, क्यों?'
'अरे तुम 'टेल मी व्हाई' में देख लेना... इट्स पापाज़़ मैजिक...।'
ऐसी कौतुक जीतें मुझे वास्तविक आह्लाद से भर जातीं।
मगर इन दिनों उसके ऊपर मनुहार का हाथ भी मैं तभी रख पाता हूँ जब वह बेसुध सो रही हो वर्ना नीमहोशी में भी वह 'पापा डोंट इर्रिटेट मी' की चीख से मुझे दफा़ कर देती है।
आज भी कर दिया।
मगर उसकी दुत्कार को जज्ब करने के मेरे नजरिए में फर्क था।
थोड़ी देर बाद वह उठती है और बिना कुछ बोले बाहर सोफे पर जाकर लेट जाती है।
मैं मीरा से उसकी पसंद के सारे वाहियात खाने-नूडल्स-बर्गर वगैरा बनाने की ताकी़द करता हूँ।
मीरा ने पहले ही पास्ता बना रखा है।
हम दोनों मनोचिकित्सक डॉक्टर अशोक बैंकर के केबिन के बाहर इंतजार में बैठे हैं। समीरा केबिन के अंदर है। हम तीनों को साथ अंदर देखकर शायद वे भाँप गए थे कि मामला क्या है। क्या सचमुच?
'समीरा... आह, योर नेम इज सो लवली... लाइक यू... किसने रखा?' मुस्कान छिड़कते हुए वे चहके।
'मम्मा ने' समीरा सकुचाते हुए फुसफुसाती है।
'सिर्फ मम्मा ने... पापा ने नहीं' जोश के साथ वे हाजिर जवाबी दिखाते हैं। अस्पताल में घुसने और एपॉइंटमेंट के बावजूद इंतजार करने से आ चिपकी ऊबासी को उन्होंने मिलते ही झाड़-पोंछ़ दिया... जैसे किसी छतनार वृक्ष के नीचे से गुजरते हुए भी ठंडक महसूस होती है। निमिष भर को मुझे इसकी पैदाइश के बाद का वह वक्त याद आता है जब हमने उन साझे मार्मिक पलों में अपने नामों, 'सत्य' और 'मीरा', की सहज संधि से इसका नाम 'समीरा' सृजित कर लिया था।
'दूसरे का अब क्या नाम रखेंगे?'
मैंने मीरा की तरफ कौतुक प्रस्ताव रखा।
'ना बाबा, ना। एक बच्चा बहुत है।'
शायद सिजेरियन के टाँके अभी हरे थे।
लेकिन समीरा के तीन बरस का होते-होते हमने तय कर लिया था कि दूसरा बच्चा नहीं करेंगे। जो है उसी को अपना सब कुछ देंगे।
उस फैसले पर कभी पुनर्विचार नहीं किया।
हाँ, कभी इन दिनों ये जरूर लगता है कि एक बच्चा ही दूसरे बच्चे की कंपनी होता है। एक भली चंगी बच्ची अचानक घुन्ना हो जाए, पढ़ाई-लिखाई पर तवज्जो़ देने की बजाय इन तथाकथित सोशल नैटवर्किंग साइट्स की गिरफ्त में पड़ जाए और माँ-बाप कुछ कहें तो सीधे खुदकुशी का रास्ता पकड़े तो इससे ज्यादा कम्युनिकेशन गैप और क्या होगा?
खैर, अब जो भी है, जैसा भी है, सँभालना है।
एक अच्छे और नामी डॉक्टर की साख में खुशमिजाजी कम बड़ी भूमिका नहीं अदा करती होगी।
'ओके। तो समीरा, मुझे वे तीन कारण बताओ ताकि मैं तुम्हारे मम्मी-पापा को शूट कर सकूँ?' नाटकीय गंभीरता से वे उससे पूछते हैं। साथ में तीन उँगलियों से संकेतार्थ पिस्तौल-सी चलाते हैं।
समीरा समेत हम सबके चेहरे खिल उठते हैं।
'तीन कारण, एक, दो और तीन। बताओ बताओ' पहले समीरा कुछ हँसकर रह गई थी, जवाब नहीं दिया था इसलिए वे उससे बजिद उगलवाने सा लगे।
'मेरा मोबाइल ले लिया'
साहस और संजीदगी से वह पहला कारण बताती है।
'ये एक हो गया। जोशीजी यह आपको नहीं करना चाहिए था। मोबाइल तो इन दिनों जरूरी खिलौना है।'
शायद पेशेगत रणनीति के अंतर्गत उन्होंने निशाना साधते हुए जोड़ा।
'लिया नहीं डॉक साब, बस रात को अलग रखने को कहा है।' मैं बड़े ताव से अपनी बात कहता हूँ - जैसे कोई फैमिली कोर्ट लगी हो।
'मगर क्यों?' वे जोर देकर कहते हैं, मानो समीरा के पेरोकार हों।
समीरा के चेहरे पर एक मीठी जीत उभर आई है।
'क्योंकि यह देर रात तक बीबीएम पर रहती है।'
'ब्लैकबैरी है इसके पास?' वे थोड़ा चौंककर पूछते हैं। उसके विज्ञापन 'इट्स नॉट ए फोन, इट्स व्हाट यू आर' का असर दिख रहा है।
'क्या करते? इसकी जिद थी... कि सारे फ्रैंड्स के पास है।'
मेरी मजबूरी की अनसुना करते हुए वे फिर समीरा की तरफ हो लिए।
'ये तो बड़ी अच्छी बात है। मैं भी बीबीएम पर हूँ। इट्स ए ग्रेट फैसिलिटी। मैं तुम्हें अपना पिन दे दूँगा समीरा। विल यू बीबीएम मी?'
मित्र होते जा रहे डॉक्टर की बात का वह हामी में गर्दन हिलाकर जवाब देती है।
'सो, दैट्स वन, समीरा... टैल मी टू अदर रीजन्स टू शूट दैम...।'
इस पर समीरा की पुतलियाँ संकोच में हमारी तरफ घूमकर लौट जाती हैं।
डॉक्टर बैंकर ने बाका़यदा लक्ष्य किया।
'मैं और समीरा जरा अकेले बतियाएँगे... इफ यू डोंट माइंड...' उन्होंने इरादतन हमें बाहर जाने का इशारा किया।
'जरूर जरूर' कहकर मीरा और मैं बाहर आ गए।
बाहर डॉक्टर बैंकर से मिलने वाले मरीजों की अच्छी खासी कतार है। साइकैट्रिक वार्ड रूप-रस-गंध हर लिहाज से दूसरों से कितना अलग होता है। हमारे बाद नौ-दस लोग और होंगे। शाम के सात बज रहे हैं। चमकती आँखोंवाली जो अधेड़ औरत हमसे पहले अंदर गई थी - वही जो साथ आए पुरूष के साथ तगड़ी बहस करने में लगी थी - पूरे पौने घंटे के बाद बाहर निकली। इस हिसाब से तो डॉक्टर को घर जाने में ग्यारह बजेंगे। इस इलाके में जल्दी नहीं चलेगी। एक चालीस छूती गृहस्थिन है, थोड़ी थुलथल, स्लीब-लैस में, खासी ग्लॉसी लिपिस्टिक पोते। चेहरे की हवाइयाँ सी उड़ी हुई एक आधुनिक सी युवती है - गोरी, पतली, थ्री-फोर्थ चिपकाए, कई जगह से कान छिदाए। एक अपेक्षाकृत निम्न मध्यवर्गीय जोड़ा है। इन्हें भी यहाँ आना पड़ गया? कतार में बच्चा सिर्फ एक और है, अपने पिता के साथ। होगा कोई चक्कर। पहले साइकैट्रिस्ट के पास जाने का मतलब था पागलपन का इलाज कराना। अब तो चीजें बदल रहीं हैं हालाँकि एक बेनाम पोशीदगी अभी भी खूब भटकती फिरती है। उस दिन कोई बता रहा था कि मेडिसन में इन दिनों साइकैट्री और न्यूरोलॉजी टॉप पर चल रही हैं। अमरीका में तो सबसे ज्यादा माँग इन्हीं लोगों की है।
'तुमसे तो यह पहले काफी बातें कर लेती थी, अब नहीं करती है' मैं थोड़ा ऊँघते हुए मीरा की तरफ एक बात सी रखता हूँ।
वह 'हूँ' सा कुछ कहती है।
मतलब,किसी गैर-जरूरी से सवाल का क्या जवाब देना!
हो सकता है उस माहौल को देखकर उसके भीतर कोई उधेड़बुन शुरू हो गई हो।
'टीचर्स को हमें पहले बताना चाहिए था। मुझे लगता है पेज-थ्री वाले परिवारों के बच्चों की संगत का असर है। अपने बिगड़ैल माँ-बाप की तरह वे भी बड़े ऐबखोर होते हैं... गंदगी को इतनी नजदीकी से रोज जो देखते हैं... दोस्तों के बीच उनके बच्चे माँ-बाप को 'दैट वोमेन-दैट मैन'जैसा कहकर बात करते जरा़ नहीं हिचकते हैं... '
वह फिर चुप रहती है।
अरे, ऐसा क्या हो गया अभी?
मक्खी मारता-सा मैं अपनी नजर सामने टँगे टीवी पर लगाता हूँ जिस पर सत्तर के दशक की कोई हिंदी फिल्म चल रही है... लाकेट, कार रेस, बेलबॉटम और मल्टी हीरो-हीरोइनें। एक अंतराल के बाद स्मृति के रास्ते साधारण चीजें भी कैसा चुंबकीय आकर्षण फेंकने लगती हैं। क्या इसी को साधारणता का रोमांस कहेंगे... एक ऐसी साधारणता जिसमें ऐसी दुर्निवार जटिलताएँ नदारद कि... अपने जरा से बच्चे से आप खुलकर बात तक न कर पाएँ... उसे लेकर आप सोचते रहते हैं, रणनीति बनाते हैं, परेशान होते रहते हैं मगर कर कुछ नहीं पा रहे होते हैं।उसकी हर नाकाबिले-बरदाश्त चीज को सहनीय मान लेते हैं... किसी अपने के साथ एक लाचार दूरी के निर्वात में फँसना कैसा दमघोंटू होता है!
कुछ देर बाद मुस्कराते हुए समीरा बाहर निकली और हमें अंदर जाने का इशारा किया। दरवाजा भेड़कर सँभलते हुए हम डॉक्टर के सामने बैठे और धड़कती उतावली में वस्तुस्थिति जाननी चाही।
'इट्स प्रैटी बैड!' उन्होंने खासे रूखेपन के साथ कोई तमाचा-सा जड़ दिया।
'पता नहीं डॉकसाब। दो साल पहले तक तो सब ठीक-ठाक था उसके बाद इसके रवैए में बहुत बदलाव आ गया...।'
'अरे मैं कुछ पूछ रहा हूँ और आप कुछ और बता रहे हैं', उन्होंने टोका।
लगा, जैसे ईशान अवस्थी (तारे जमीन पर) के पिता के बतौर में निकम सर से मुखातिब हो गया हूँ।
'ऐसा तो कुछ नहीं हुआ कि इसे वह सब करना पड़े जो यह करने की धमकी देती है', मीरा ने शाइस्तगी से बात जोड़ी।
'देखिए मिसेज जोशी, यह तो सोचने-सोचने की बात है। जो बच्चे वैसा करते हैं, उनके माँ-बाप भी अपनी निगाह में वैसा कुछ नहीं करते-कहते कि बच्चे को वह कदम उठाना पड़े जो वह उठा लेता है...।'
उनकी बात से हामी भरते हुए हम चुप बने रहे।
'कल के अलावा पहले भी यह तीन बार कोशिश कर चुकी है।'
'तीन!'
हम दोनों विस्मय से काँप उठते हैं। एक संभावित त्रासदी से ज्यादा उसके जीवन से बेदखल और फिजू़ल होते अपने जीवन की त्रासदी से। दिन-रात उसकी खुशी के लिए खा़क होते हम जैसे कुछ नहीं... एक अनजान डॉक्टर ज्यादा भरोसेमंद हो गया। चलो, ये भी ठीक!
'हाँ, तीन बार। लेकिन आप लोग उससे इस बाबत कोई बात नहीं करेंगे - अगर उसका भला चाहते हैं तो।' उनके लहजे में संगीन हिदायत है। 'तो' को उन्होंने जोर देकर स्पष्ट किया।
'नहीं करेंगे... लेकिन डॉकसाब हम क्या करें? पूरी छूट दे रखी है। शायद थोड़ी कम देते तो यह नौबत न आती। इंग्लिश म्यूजि़क, रोडीज और फेसबुक की यह ऐसी एडिक्ट हो गई है कि पढ़ना-लिखना तो छोडिए़ खाना-पीना तक नैगलैक्ट करती है। एक बात नहीं सुनती।'
'नथिंग अनयुज्अल इन दैट' वे किसी परमज्ञानी की तरह मेरा मंतव्य समझकर मुझे रोकते हैं और कहते हैं 'टैक्नोलॉजी ने हमारे समाज में इन दिनों बड़ा तहस-नहस मचाया हुआ है। आप और हम इस संक्रामक बीमारी से बचे हुए हैं तो अपनी नाकाबलियत के कारण। ये लोग जिन्हें हम यंग अडल्ट्स कहते हैं, बहुत सक्षम हैं... ये टैक्नोलॉजी की हर संभावनओं को छूना चाहते हैं... बिना ये जाने-समझे कि उससे क्या होगा। आपकी बच्ची अलग नहीं है। मेरे पास आने वाले दस टीनेज पेशेंट्स में से आठ इसी से मिले-जुले होते हैं...।
'क्या करें डॉक्साब? मिडिल क्लास लोग हैं हम... लड़की का अपने पैरों पर खड़े होना कितना जरूरी है...' एक तबील अनकही के बीच हाँफता सा मैं जैसे अपनी चिंताओं का अर्क उन्हें सौंपने लगता हूँ।
'नॉट टू वरी जोशी जी। ये बिल्कुल ठीक हो जाएगी। शी विल बी ऑलराइट शार्टली' हमें उबारते हुए वे अपने लैटर हैड पर फ्लूडैक (फ्लैक्सोटिन) का प्रैशक्रिप्शन लिखते हैं जिसे दोपहर खाने के बाद लेना है। थायोराइड सहित दो-चार टैस्ट कराने होंगे और एक काउंसलर, कोई तनाज पार्डीवाला, का मोबाइल नंबर लिखते हैं। हमारे भीतर उगते शंकालु भावों को भाँपते हुए वे कहते हैं... द सिरप इज जस्ट ए मूड एलिवेटर... आजकल इस उम्र के बच्चों में विटामिन डी थ्री की कमी बहुत हो रही है... टीवी-कंप्यूटर पर लगे रहने से... आई जस्ट वांट टू रूल आउट दैट... पार्डीवाला बहुत अच्छी साइकोथेरेपिस्ट है। उन्होंने बताया कि वे समीरा के फेसबुक फ्रैंड बनने वाले हैं... टू पीप इनटू हर रीयल माइंडसैट... बीबीएम है ही...।
हमारा दिल अचानक आश्वस्त होने लगा है, मियाँ की जूती मियाँ के सिर वाले अंदाज में। तभी उन्होंने बाहर बैठी समीरा को अंदर बुलाया और बात का संदर्भ और लहजा बदल कर घोषणा सी करते बोले 'एक्चुअली, समीरा बहुत टेलेंटिड लड़की है, और बेहद स्वीट भी' उन्होंने अपनी बात यूँ रखी मानो अभी तक की जा रही हमारी गुफ्तगू का वह लब्बोलुआब हो। मैं उनकी जादुई हौसला अफजाई का असर देख रहा हूँ।
'शी इज ए जैम डॉक्साब बट...' बैंकर की राय के समर्थन में परंतुक खोंपते ही मीरा का गला भर्रा उठा और फौरन से पेश्तर वह फफक भी पड़ी। मैं हक्का-बक्का था मगर समीरा ने लपककर उसे पकड़ लिया और कातर मासूमियत से धीमे से बोली 'मम्मा, क्या हुआ?'
गनीमत रही कि मीरा ने खुद को बिखरने नहीं दिया।
ये जो दुनिया है, वही जिसे हम रोज गाली देते हैं, दरअसल उतनी खराब है नहीं जितनी हम कभी सोचने लगते हैं। पता लगा कि पार्डीवाला और डॉक्टर बैंकर दोनों समीरा की फेसबुक पर हैं। आपस में बीबीएम करते रहते हैं। यानी वही सब जिसने एक बीमारी की तरह समीरा को घेर रखा था, उसके ओनों-कोनों में झाँकने की पगडंडियाँ बने हुए हैं। किसी आम अविवाहित पारसी की तरह पार्डीवाला थोड़ी खब्ती लगती है लेकिन अपने काम में है बड़ी पेशेवर। पहले मीरा से एक के बाद एक ई-मेल लिखवाए, कुछ बिंदुओं पर स्पष्टीकरण लिए। पूरी जन्मपत्री चाहिए थी उसे समीरा की... कब कहाँ कैसे पैदा हुई, नॉर्मल या सिजेरियन, गर्भकाल कैसा था, समीरा की पसंद-नापसंद, एनी हिस्ट्री ऑफ डिप्रेशन इन फैमिली, परिवार में किसके साथ अटैच्ड है, दादा-दादी, नाना-नानी, बुआ-मौसी के साथ कितनी घुली-मिली है, एनी नोन एपिसोड ऑफ एब्यूज, दोस्त कौन हैं, उनके परिवार और माँ-पिता की मुख्तसर जानकारी, हमारा किन लोगों के साथ उठना-बैठना रहता है, पिता के बिजनेस की स्थिति और उसमें आते उतार-चढ़ाव...। यानी उसे एक से एक जरूरी-गैर-जरूरी तफसील चाहिए थी। कभी तो लगा कि तफसीलों के अंबार में कुछ इस्तेमाल भी होगा या यह सब उलझाने और टाइम-पास करने के लिए है। कहीं पढ़ा था मैंने कि समस्या के बारे में बोल-बतियाकर उससे आधी निजात तो आप वैसे ही पा लेते हैं।
यहाँ पता नहीं क्या चल रहा है?
खैर, कर भी क्या सकते हैं!
पार्डीवाला खूब बहुरूपनी है। समीरा के साथ छह सात सेशन कर चुकी है। क्या होता है उन दोनों के बीच वह न समीरा हमें बताती है और न पार्डीवाला। समीरा उसके पास से लौटकर बड़ी खुश दिखती है। बीबीएम से ही एपॉइंटमैंट होता है और समीरा को वहाँ छुड़वा दिया जाता है। होमवर्क के तौर पर समीरा को ई-मेल भेजने होते हैं जिनकी विषय-वस्तु से हमें कोई सरोकार नहीं रखना होता है। यहाँ तक तो ठीक है मगर अब यही बात मीरा और पार्डीवाला के बीच चल रहे संचारण पर भी लागू होने लगी है। डॉ. बैंकर और पार्डीवाला समीरा से जुड़ी बातों को लेकर तब्सरा करते रहते हैं। आखिर हम सबका मकसद तो वही है। समीरा की हालत में कथित तौर पर सुधार हो रहा है हालाँकि आदत से मजबूर मैं रात को उठकर समीरा के कमरे में झाँक लेता हूँ कि ठीक-ठाक सो तो रही है या कुछ... । वैसे इसके मायने क्या समझे जाएँ कि मैं उसके साथ ज्यादा क्या, बिल्कुल भी टोका-टाकी न करूँ!
'बिगड़ने दूँ' तक का भी जवाब सपाट 'हाँ' है।
मामला नाजुक है। सब्र से काम लेना पड़ेगा।
उतरती दोपहरी को कुछ अप्रवासी निवेशकों के साथ एक कंपनी की विस्तार योजनाओं पर मशवरा कर रहा था कि डॉक्टर बैंकर के फोन को देखकर चौंक पड़ा।
दो महीने के वकफे में मेरा फोन शायद उन्होंने पहली बार बजाया था।
'सत्यपाल जी, आप शाम को छह बजे आ सकते हैं मेरे पास?' इधर-उधर की कोई बात किए बगैर उन्होंने पूछा।
'जरूर डॉकसाब जरूर... मगर आज छह बजे तो समीरा की डांस क्लास है।'
'आई नो दैट। मगर सिर्फ आपको आना है। मीराजी की भी जरूरत नहीं है। ओके।'
डॉक्टरों की यह पेशेवर इन्सानियत वाली अदा मुझे अच्छी लगती है। उनके सुलूक में आपको कभी रूखेपन की बू आ सकती है मगर अमलन वे आपकी समस्या को संबोधित रहते हैं। यह नहीं कि किसी राहगीर की तरह ऊपर-ऊपर से हमदर्दी के आँसू बहा लो मगर करो कुछ नहीं और चलते बनो। कॉलिज में जब पढ़ता था तो इस थीम के आसपास किसी यूरोपियन लेखक की किताब भी पढ़ी थी। अब तो कंपनियों के ट्रायल बैलेंस और फायनैंशियल्स ही पढ़ता हूँ। मुझे तो डॉक्टर बैंकर का काम बड़ा पसंद है। समीरा भी उनके साथ ऐसी हिल-मिल गई है कि एक दिन अपनी मम्मी से पूछ रही थी कि साइकैट्रिस्ट बनने के लिए क्या करना पड़ता है। जब उसने बताया तो उसने कहा कि इससे अच्छा तो फिर कांउसलर बनना है - काम वही और मेहनत कम। जो भी है, कम से कम कुछ तो अब वह सोचने लगी है... कि क्या करना है... या यह कि कुछ करना भी चाहिए... वर्ना अभी तो हमें उसके बारे में सोचना तक गुनाह था। हमारी किसी भी सीख-तजवीज पर जब देखो तब 'चिल' कहकर पल्लू झाड़ लेती है।
यही सब सोचते हुए जब डॉक्टर बैंकर के यहाँ पहुँचा तो सुखद आश्चर्य यही लगा कि ज्यादा भीड़ नहीं थी। उनकी रिसेप्शनिस्ट ने 'अब' और 'अभी' के बंबइया गठजोड़ से बने 'अबी' का तड़का मारते हुए बताया कि डॉकसाब मुझे याद कर रहे थे।
उनके सामने पेश होते ही उनके मुस्कुराते चेहरे को देख मेरे भीतर किसी गुप्त ऊर्जा का संचरण हो गया।
'कैसे हैं जोशी जी?'
प्लास्टिक की पतली सी फाइल में पाँच-सात कागजों को रखते हुए उन्होंने पूछा।
'अच्छा हूँ डॉक्साब।'
'समीरा कैसी है?'
'कहीं बेहतर... वैसे आप ज्यादा जानते होंगे', मैं डरते-सकुचाते मामले को उन्हीं की तरफ बढ़ा देता हूँ।
'आई थिंक शी इज रेस्पोंडिंग वैल... बट व्हाट ए सेंसिटिव चाइल्ड शी इज...!'
मैं थोड़ा चकराया।
'दो साल पहले आपका बिजनेस कैसा चल रहा था मिस्टर जोशी?' वे सशंकित भाव से लफ्जों को चबा-चबाकर बोलने लगे।
'ठीक ही था... ग्लोबल मैल्टडाउन का दौर था सो थोड़ी मंदी तो सबकी तरह हमने भी झेली मगर टचवुड, ज्यादा कुछ नहीं हुआ...'
'हाँ, ज्यादा कुछ तो नहीं हुआ मगर जो हुआ वह क्या कम था...!'
उनकी बातों के मानी कहाँ से कहाँ छलाँग मार गए। मैं जानता था वे मुझे कहाँ जीरो-इन कर रहे हैं।
उनके तौर-तरीके में एक गरिमापूर्ण मिलावट जरूर थी मगर इरादे में एक बेहिचक साफगोई भी थी।
मुझे कुछ कहते ही नहीं बन पड़ रहा था।
और वे आगे जरा भी कुरेदने की नीयत नहीं रखते थे।
उस लज्जास्पद खामोशी के बीच मुझे गहरी लंबी साँस आई तो मैंने उनसे एक घूँट पानी की दरकार की।
पानी निगला।
'बट व्हाई, जोशीजी? यू हैव सच ए ब्यूटीफुल फैमिली...।
यह इंजेक्शन देने से पहले स्प्रिट लगाने से कुछ आगे की बात थी।
'मीरा ने कुछ कहा आपसे?'
मेरा अविश्वास किसी टुच्चे गुनाह की तरह बगलें झाँकने लगा।
'बिल्कुल नहीं... नॉट ए श्रेड' उन्होंने मुँह बिचकाकर कहा और फिर बोले '...और हाँ... आइंदा यह मत समझिए कि वह छोटी बच्ची है... मोबाइलों की कान-उमेठी करने में वह हम-आपसे कहीं आगे वाली जैनरेशन की है... आपके उस चैप्टर ने उसे गहरे झिंझोड़ा है...।'
मैं उन्हें देखते हुए सुन रहा था या सुनते हुए देख रहा था, नहीं मालूम।
वे अंतराल दे देकर बोल रहे थे।
मैं मंत्रविद्ध-सा था... कि कोई दाग कहाँ जाकर इंतकाम ले बैठता है...।
'हैट्स ऑफ टू दैट एंजल... बहुत सँभाला है उसने अपने आपको...' वे चबाते-सोचते पता नहीं क्या-क्या कहे जा रहे थे।
जैसा उन्होंने तभी बताया कि शाम सात बजे उन्हें टीन-एज डिप्रेशन पर होने वाले एक सेमिनार में जाना था - कुछ नए नतीजों को संबंधित लोगों से साझा करने।
मुझे पस्त और बोझिल देख वे मेरे पास आए और किसी मसीहा की तरह कंधे पर हाथ रखकर बोले 'यू हैव कम आउट ऑफ इट... दिस इज द बैस्ट पार्ट ऑफ इट। बट शी हैज नॉट!'
उनके जाने के बाद मैंने गौर किया कि मेरे आस-पास कितना अँधेरा मँडरा चुका था।
उस पल मैंने एक मुलायम छौने का यकायक बिल्ली हो जाना महसूस किया।
लुटा-निचुड़ा-सा मैं गाड़ी में आ बैठा हूँ। स्टार्ट करने की ऊर्जा नहीं बची है। बस सोचे जा रहा हूँ कि... बिल्ली को छौने की मुलायमियत कैसे लौटाई जा सकेगी?