दुष्कर्म मामले में वकील की भूमिका / जयप्रकाश चौकसे
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प्रकाशन तिथि : 04 जनवरी 2013
टेलीविजन पर प्रसिद्ध वकीलों द्वारा दुष्कर्म संबंधी कानून पर लंबी बातचीत दिखाई जा रही है और नए कानून के लागू होने पर भी उसके तहत पिछली किसी घटना के दोषी को सजा नहीं दी जा सकती, परंतु 'दामिनी' के प्रकरण में हत्या के दोष के कारण फांसी की सजा दी जा सकती है। अमेरिका में एक विश्वप्रसिद्ध धनाढ्य खिलाड़ी के खिलाफ ठोस सबूत नहीं होने पर उसे बरी कर दिया गया, परंतु अमेरिकी समाज ने उसका बहिष्कार कर दिया। उसके सेवक नौकरी छोड़कर चले गए। कोई भी रेस्त्रां उसे जगह नहीं देता था। इस बात से एक कल्पना उभरती है कि क्या तिहाड़ के कैदी इन अपराधियों की पिटाई कर सकते हैं? क्या इन्हें इस तरह कानून के परे अपराधियों द्वारा दिए गए दंड से बचाया जा सकता है? यह सभी जानते हैं कि जेल में एक कमरे में अनेक कैदी रखे जाते हैं और हिंसक अपराधी को एक सेल में रखा जा सकता है। सभी जानते हैं कि साधारण अपराध करने वाला भी जेल में जरायमपेशा अपराधियों की संगत में अपराध के नए तौर-तरीके सीखकर बाहर आने पर ज्यादा तेज एवं सफल अपराधी बन जाता है, गोयाकि किसी महाविद्यालय से ग्रेजुएट होकर निकला हो। जेल में भी शारीरिक शक्ति एवं जेल अधिकारियों को रिश्वत देने की क्षमता रखने वाला 'राजा' की तरह रहता है और अपनी 'प्रजा' पर कोड़े चलाता है।
दूसरा मुद्दा यह है कि क्या कोई वकील इस घटना के दोषियों का केस लेकर उन्हें निरपराध सिद्ध करने की कोशिश करेगा? वकील को फीस देने में अक्षम व्यक्ति को सरकार द्वारा वकील दिलाया जाता है, क्योंकि न्याय का आधार ही यह है कि निरपराध व्यक्ति दंडित नहीं हो और उसे अपने बचाव का पूरा अवसर मिले। अत: इन नरपशुओं को भी वकील मिलेगा तथा बचाव के पूरे अवसर मिलेंगे। दरअसल दुष्कर्म संबंधी कानून के तहत प्राय: अदालत में न्याय मांगने वाली से इस तरह के सवाल पूछे जाते हैं कि उसका दुष्कर्म ध्वनि के स्तर पर दोबारा होता है। पेशेवर वकील का प्रयास होता है कि किसी तरह महिला की रजामंदी सिद्ध करके अपने मुवक्किल को बचा ले। अदालत में मौजूद व्यक्ति इस पूरे प्रकरण का जुगुप्सा जगाने वाला विकृत आनंद लेते हैं और अनेक वकील भी पूरे प्रकरण को भौंडे तमाशे में बदलने में कोई कसर नहीं छोड़ते। फिल्मों में दुष्कर्म के मामलों में वकीलों को ऐसा करते दिखाया गया है। हॉलीवुड मूवी 'लिपस्टिक' से प्रेरित बलदेवराज चोपड़ा की 'इंसाफ का तराजू' में अदालत के दृश्य इसी को रेखांकित करते हैं। इस तरह का सामाजिक वातावरण नहीं बनाया जाना चाहिए कि वकील के केस लडऩे पर उसकी आलोचना की जाए। हर मनुष्य को अपना व्यवसाय करने की स्वतंत्रता है। जावेद अख्तर की सुभाष घई के लिए लिखी 'मेरी जंग' इसलिए असफल हुई कि अपना अलोकप्रिय काम करने वाले को खलनायक बनाया गया था। दरअसल कोई वकील किसी भी तरह के दबाव के कारण एक लगभग निश्चित केस में अपराधी की पैरवी नहीं करने का निर्णय लेता है, तो वह जज की भूमिका में आ जाता है। उसका काम अपने मुवक्किल को न्याय दिलाना है। इरविंग वैलेस के उपन्यास 'द मैन' में एक वकील के पास बहुत बड़ी धनराशि का प्रस्ताव है, परंतु वह इसे ठुकराकर अपने निर्धन मित्र का मुकदमा लडऩे का निर्णय लेता है क्योंकि उसे लगता है कि बैंक में जमा अपार धनराशि उसके बच्चों का भविष्य नहीं बना सकती। केवल एक न्याय आधारित देश ही आगामी पीढ़ी की असली सुरक्षा है।
बहरहाल, राजकुमार संतोषी की 'दामिनी' इस विषय पर बनी श्रेष्ठ फिल्म है। बलदेवराज चोपड़ा की 'इंसाफ का तराजू' हॉलीवुड की नकल होने के साथ ही दुष्कर्म के दृश्य के बहाने अश्लीलता की हद तक जाने वाले दृश्यों की फिल्म थी। राजीव कपूर की 'प्रेमग्रंथ' में भी सारा घटनाक्रम एक दुष्कर्म की घटना के इर्द-गिर्द बुना गया था और नारी विमर्श को धर्म के ठेकेदारों से भी जोड़ दिया गया था। इस फिल्म में केंद्रीय पात्र माधुरी दीक्षित ने निभाया था, जो दुष्कर्म के खिलाफ फांसी के दंड की मांग करती है। फिल्म का क्लाइमैक्स दशहरे के दिन है और दुष्कर्मी को रावण के पुतले के साथ चस्पां कर दिया गया है तथा नायक नायिका के हाथ में तीर-कमान देता है, मानो राम सीता के द्वारा रावण को दंडित कराना चाहते हैं। नायिका के जलते हुए तीर से ही रावण के पुतले के साथ दुष्कर्मी का नाश होता है। शेखर कपूर की 'बैंडिट क्वीन' में दुष्कर्म का दृश्य इस ढंग से प्रस्तुत होता है कि दर्शक शर्म महसूस करे। फिल्मों में समय-समय पर इस विषय पर फिल्में बनी हैं, परंतु अधिकांश में नारी शरीर प्रदर्शन ही हुआ है। बाजार-शासित फिल्म उद्योग का भी नजरिया स्त्री को 'वस्तु' की तरहदिखाने का ही रहा है। वर्तमान में युवा विद्यार्थी जगत ने निरंतर अपना आंदोलन जारी रखा है और सरकार ने भी कानून प्रक्रिया प्रारंभ कर दी है, परंतु असल मुद्दा पुरुष की विचार-प्रक्रिया और समाज को अपनी क्रूरता त्याग करने का ही है। इस क्षेत्र में बर्फ अत्यंत धीमी गति से पिघल रही है या पिघलने का भरम रच रही है। दरअसल इस मुद्दे के साथ ही अनेक मुद्देे और जुड़े हैं। सभी पर सार्थक बहस आवश्यक है। भारतीय राजनीति और समाज की शैली रही है कि मुद्दों पर निर्णायक नीति में विलंब किया जाए, ताकि विवाद का तंदूर समय के साथ ठंडा पड़ जाए। वही सब कुछ हो रहा है।