दुष्यंत कुमार: परिवर्तन के लिए समर्पित कवि / उमेश चौहान
हिंदी-साहित्य में गजल की बात छिड़े और दुष्यंत कुमार के नाम के बिना कोई बात पूरी हो, यह असंभव है। उनकी गजलों की पंक्तियाँ बात-बात में यूँ उद्धरित होती हैं, जैसे उनके बिना कहने वाले की बात में कोई वजन ही न आता हो। तुलसीदास के बाद संभवतः वे सबसे ज्यादा उद्धरित किए जाने वाले हिंदी-कवि हैं। मुझे याद है कि कॉलेज के दिनों में हम जैसे छात्र-राजनीति में रुचि रखने वाले विद्यार्थी चुटीले वजनदार भाषणों के लिए जब भी अपनी योजनाएँ बनाते थे तो सबसे पहले 'साए में धूप' लेकर बैठते थे। भाषणों के बीच-बीच में बात में वजन लाने के लिए प्रयोग करने योग्य पंक्तियाँ दुष्यंत की गजलों में से सहज ही निकल आती थीं और सुनने वाले उनके चमत्कारिक प्रभाव से कभी अछूते नहीं रह पाते थे।
साधारण बोल-चाल की भाषा का इस्तेमाल, हिंदी-उर्दू के शब्दों के स्वाभाविक मिश्रण का प्रयोग, बात कहने का चुटीला अंदाज, हर दृष्टि से दुष्यंत अपनी गजलों के माध्यम से सीधे दिल और दिमाग पर छा जाते हैं। आपको जितनी गहराई में जाना है, उतना ही पैठते चले जाइए, आप उनके शब्दों की चमत्कारिक शक्ति से अधिकाधिक प्रभावित होते चले जाएँगे। स्वच्छ, शीशे जैसी साफगोई, जमाने की पीड़ा, देश का दर्द, गरीबी की घुटन, समाज का विद्रूप, सभी कुछ, उनके शब्द पूरे यथार्थ रूप में व दिल को छू लेने वाले अंदाज में आपके सामने पंक्ति दर पंक्ति पेश करते चले जाते हैं। 'कहाँ तो तय था चिरागाँ हरेक घर के लिए, कहाँ चिराग मयस्सर नहीं शहर के लिए' कहकर हमारे, आर्थिक व सामाजिक-सांस्कृतिक विकास के खोखलेपन को उन्होंने नंगा करके सामने रख दिया। अज्ञानता व विचार-शून्यता हमें लाचार बनाती है। लाचार आदमी प्रतिरोध की शक्ति नहीं रखता। वह उठकर खड़े होने की हिम्मत नहीं करता। वह परिस्थितियों के सामने संघर्ष नहीं समर्पण करता है। हमारा भारतीय समाज इस प्रकार के समर्पण का प्रतीक रहा है। थोड़े समय के लिए नहीं, सदियों तक। इसे बताने के लिए 'न हो कमीज तो पाँवों से पेट ढँक लेंगे, ये लोग कितने मुनासिब हैं, इस सफर के लिए' से ज्यादा असरदार तरीका क्या हो सकता है!
दुष्यंत का सौंदर्य-बोध आधुनिक एवं नायाब था। वे चिकने-चुपड़े सौंदर्य के कायल नहीं थे। उन्हें गजलगो माना गया लेकिन वे सामान्यतः खूबसूरती और रोमांस की बातें करने वाले लोकप्रिय गजलकारों से भिन्न थे। उन्होंने समाज की सड़न-गलन को देखा था। वे सच्चाई के पारखी थे। कल्पना में बहकर वे यथार्थ से दूर नहीं भागते थे। उन्होंने आम आदमी को सामने खड़ा करके उसकी जिंदगी की बात की। 'ये सारा जिस्म झुककर बोझ से दुहरा हुआ होगा, मैं सजदे में नहीं था, आपको धोखा हुआ होगा' जैसी बात कहकर वे एक मेहनतकश आम इनसान को बहुत ऊँचे पायदान पर खड़ा कर देते हैं। कर्म ही प्रधान है, कर्म ही साधना है, कामगार ही सच्चा पुजारी है, वह भले ही पूजा-पाठ न करे लेकिन उसके श्रम का हर क्षण पूजा-अर्चना का क्षण है। काम के बोझ से दुहरे हो गए शरीर वाले इनसान का बिंबात्मक रूप खींचकर इस बात को जिस प्रकार से दुष्यंत ने सामने रखा, वह निश्चित ही हमारे मस्तिष्क को झकझोर कर रख देता है। जब इसी सिलसिले में वे आगे कहते हैं 'कई फाके बिताकर मर गया जो उसके बारे में, वो सब कहते हैं अब, ऐसा नहीं, ऐसा हुआ होगा' तो हमारे समाज का असली चेहरा बेनकाब हो जाता है। फिर वह उसी अंदाज में हमें गंभीरता से सोचने के लिए आगे एक और मुद्दा थमा देते हैं, 'यहाँ तो सिर्फ गूँगे और बहरे लोग बसते हैं, खुदा जाने यहाँ पर किस तरह जलसा हुआ होगा।'
देश और समाज की हर समस्या पर दुष्यंत की निगाह थी। वे उसे इंगित करने के साथ-साथ उस पर जरूरी ऐंगिल से करारी चोट करते थे। धर्मांधता और धर्म के ठेकेदारों पर जब वह यह कहते हैं, 'गजब है सच को सच कहते नहीं वो, कुरानों-उपनिषद खोले हुए हैं' तो वह कबीर जैसे क्रांतिकारी सुधारकों की पंक्ति में उनके समकक्ष जाकर खड़े हो जाते हैं। वह समाज में छाई चुप्पी के प्रति हमेशा आशंकित दिखे। वे हमेशा इसे तोड़ने की प्रेरणा देते दिखाई पड़े। अन्याय व संकट के प्रति चुप रहने वाला समाज कभी प्रगति नहीं कर सकता। ऐसा समाज कभी आगे नहीं बढ़ सकता। वे इसे बखूबी जानते और कहते थे। उनकी यह पीड़ा उनकी गजलों में अक्सर छलककर सामने आई। कभी वे 'इस शहर में वो कोई बारात हो या वारदात, अब किसी भी बात पर खुलती नहीं हैं खिड़कियाँ' कहकर अफसोस जताते हैं, कभी उनकी 'इस सिरे से उस सिरे तक सब शरीके-जुर्म हैं, आदमी या तो जमानत पर रिहा है या फरार' कहकर आज के हालात पर चुपचाप बैठकर जुल्म सहती पूरी जमात को ही वे कटघरे में खड़ा कर देते हैं। देश की गरीबी की चिंता तो हम सभी को होती है। लेकिन देशवासियों की तंगहाली के बारे में दुष्यंत का अंदाजे-बयाँ एकदम निराला था। पहले उन्होंने इस बदहाली पर यह कर चुटकी ली, 'इस कदर पाबंदी-ए-मजहब कि सदके आपके, जबसे आजादी मिली है मुल्क में रमजान है,' फिर वह पूरी ताकत से इस फटेहाली पर आक्रमण करते हैं, 'कल नुमाइश में मिला वो चीथड़े पहने हुए, मैंने पूछा नाम तो बोला कि हिंदुस्तान है।'
दुष्यंत परिवर्तन चाहते थे। वे परंपरा के नाम पर समाज की दुर्गति नहीं चाहते थे। उनको आभास था कि हमारे रास्ते सही नहीं हैं और हम मंजिल तक पहुँचने में कामयाब नहीं होंगे। 'आगे निकल गए हैं घिसटते हुए कदम, राहों में रह गए हैं निशाँ और भी खराब' कहकर वे इसी ओर इशारा करते हैं। वे उस विरासत को पूरी तरह नकार देते हैं जो हमें सही रास्ता नहीं दिखा सकती। वे उनके पीछे भी नहीं चलना चाहते थे जो किसी तरह आगे निकलकर एक गलत मंजिल की तरफ बढ़ चले हों। वे हमेशा एक नए रास्ते, एक सही मंजिल की तलाश करते दिखाई पड़े, भले ही वह हमें एकदम से न मिले। 'ये सोचकर कि दरख्तों में छाँव होती है, यहाँ बबूल के साये में आके बैठ गए' कहकर उन्होंने अपनी मंशा स्पष्ट कर दी थी। वे प्रयोग करने के लिए सदैव तैयार रहते थे। उनका मानना था कि कोशिश जारी रहे तो मंजिल की तलाश तो एक न एक दिन पूरी होगी ही। वे परिवर्तन की राह में आने वाली कठिनाइयों को भी समझते थे। तभी तो उन्होंने कहा, 'कभी मचान पे चढ़ने की आरजू उभरी, कभी ये डर कि ये सीढ़ी फिसल न जाए कहीं।' लेकिन वे यथास्थिति कभी नहीं चाहते थे। वे इसके लिए कतई तैयार नहीं कि जो आज तक होता चला आया है, आगे भी वैसा ही सूरते-हाल रहे। 'तमाम रात तेरे मैकदे में मय पी है, तमाम उम्र नशे में निकल न जाए कहीं' कहकर उन्होंने इस बारे में अपनी आशंका स्पष्ट कर दी थी।
समाज में व्याप्त शोषण, लूट-खसोट व अन्याय के प्रति वे निरंतर सतर्क व मुखर रहे। आपाधापी भरे समाज में कमजोर व्यक्ति कैसे स्वार्थी तत्वों का शिकार बन जाता है, उसका कैसे शोषण होता है, इसको दुष्यंत ने बड़ी सहजता से इन पंक्तियों में कहा, 'तुमने इस तालाब में रोहू पकड़ने के लिए, छोटी-छोटी मछलियाँ चारा बनाकर फेंक दी।' इसी बात को आगे बढ़ाते हुए उन्होंने अपनी एक गजल में सामाजिक विषमता का मार्मिक बिंब खींचा, 'हम ही खा लेते सुबह को भूख लगती है बहुत, तुमने बासी रोटियाँ नाहक उठाकर फेंक दीं।' उनकी दृष्टि उन पर भी पड़ी जो इन सामाजिक विषमताओं को मिटाने का खोखला दावा करते घूमते हैं। वे ऐसे लोगों की असलियत जानते थे। वोट की राजनीति में स्वार्थ का जाल बहुत मजबूत होता है। यह स्वार्थ इन विषमताओं को मिटाने नहीं देता। खेमेबाजी से ही यहाँ सफलता मिलती है। बँटवारा मूलमंत्र है। सत्ता-केंद्रों को सभी कुछ अपने-अपने हित में बाँटना होता है और अपनी-अपनी सुविधानुसार उसके कतिपय हिस्सों को अपने से जोड़ना होता है, वह भी यह अहसास दिलाकर कि समाज के उस हिस्से के वही सबसे बड़े हितैषी हैं। दुष्यंत ने इसके प्रति अपनी नापसंदगी साफ-साफ जाहिर की थी, 'आप दीवार गिराने के लिए आए थे, आप दीवार उठाने लगे ये तो हद है।'
दुष्यंत की गजलों में कहीं-कहीं बड़े ही चमत्कारपूर्ण प्रयोग व अनूठे बिंब दिखाई पड़ते हैं। ऐसे में उनकी बात का वजन कई गुना बढ़ जाता है। ऐसी पंक्तियाँ बार-बार पढ़ने और गुनगुनाने का मन करता है। जब वे कहते हैं, 'बच्चे छलाँग मार के आगे निकल गए, रेले में फँस के बाप बिचारा बिछुड़ गया' तो हमारे सामने नई व पुरानी पीढ़ी के आज के अंतर्द्वंद्व अथवा प्रतिस्पर्धा की एक सजीव तस्वीर खड़ी हो जाती है। जब वे कहते हैं, 'दुख को बहुत सहेज के रखना पड़ा हमें, सुख तो किसी कपूर की टिकिया-सा उड़ गया,' तो वे हमारे लिए रहीम जैसे अविस्मरणीय कवि बन जाते हैं। दुष्यंत के इसी तरह के अनेक ऐसे बिंब हैं, जिनका नयापन हमें अपनी ओर बेहद आकर्षित करता है। 'इस तरह टूटे हुए चेहरे नहीं हैं, जिस तरह टूटे हुए ये आईने हैं' पढ़ते समय न तो हम दुष्यंत के अद्भुत काव्य-शिल्प के प्रति आश्चर्यचकित हुए बिना रह पाते हैं, और न ही चीजों को एक नए नजरिये से देखने की जरूरत के प्रति प्रभावित हुए बिना। आगे जब वह कहते हैं, 'जिस तरह चाहो बजाओ इस सभा में, हम नहीं हैं आदमी, हम झुनझुने हैं' तो हम समाज में अपनी भूमिका के प्रति विचार करने के लिए बाध्य हुए बिना भी नहीं रह पाते। वास्तव में इस प्रकार के व्यंग्य ही हमें तत्काल प्रतिरोध एवं संघर्ष करने के लिए प्रेरित करते हैं।
दुष्यंत परिवर्तन की कामना रखने वाले क्रांतिदृष्टा कवि थे। संघर्ष एवं बदलाव की कोशिश उनकी कविताओं की मूल प्रवृत्ति है। वे सच्चाई से आँखें फेरकर बैठने वालों में से नहीं थे। 'मैं बेपनाह अँधेरों को सुबह कैसे कहूँ, मैं इन नजारों का अंधा तमाशाबीन नहीं,' कहकर उन्होंने अपना इरादा बखूबी स्पष्ट कर दिया था। वे जुल्म व अन्याय के खिलाफ आवाज उठाने की अनेक प्रकार से वकालत करते रहे। वे अपनी गजलों को इसके लिए हथियार की तरह इस्तेमाल करते रहे। 'मुझमें रहते हैं करोड़ों लोग चुप कैसे रहूँ, हर गजल अब सल्तनत के नाम एक बयान है,' जैसी बातें कहकर वे अपनी गजलों को देश की करोड़ों जनता की प्रतिनिधि आवाज बना देते थे। वे कदम-कदम पर अपनी गजलों के माध्यम से दबे-कुचले, गरीब लोगों की चुप्पी तोड़ने के लिए प्रेरित करते रहे। वे अपनी कविता को आंदोलन का संवाहक मानते थे। 'मेरी जुबान से निकली तो सिर्फ नज्म बनी, तुम्हारे हाथ में आई तो एक मशाल हुई' जैसी बातें कहकर उन्होंने हमेशा अपनी गजलों के माध्यम से इस परिवर्तनाकांक्षी आंदोलन की अगुवाई की।
सामाजिक दुर्व्यवस्था के प्रति आक्रोश दुष्यंत की गजलों में सर्वत्र फूटता दिखाई पड़ता है। वे लगातार इस पर असरदार ढंग से चोट करते रहे। 'दुकानदार तो मेले में लुट गए यारो! तमाशबीन दुकानें लगा के बैठ गए' कहकर एक तरफ तो उन्होंने इस प्रकार की दुर्व्यवस्था पर व्यंग्य भरा प्रहार किया, वहीं दूसरी तरफ, 'फिर धीरे-धीरे यहाँ का मौसम बदलने लगा है, वातावरण सो रहा था, अब आँख मलने लगा है', जैसी बात कहकर परिवर्तन लाने वाले आंदोलन के आगाज की सूचना भी दे दी। और फिर आगे बढ़कर वे, 'हमको पता भी नहीं था, वो आग ठंडी पड़ी थी, जिस आग पर आज पानी सहसा उबलने लगा है,' जैसी बातों के साथ क्रांति का बिगुल बजाते नजर आए। उनका लक्ष्य कदम दर कदम इस आग को और तेज करना रहा। 'मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही, हो कहीं भी आग, लेकिन आग जलनी चाहिए,' जैसी बातें कहकर वे सदैव अपनी मुहिम को आगे बढ़ाते रहे। उन्हें विश्वास था कि उनके भीतर सुलगती चिन्गारी, किसी न किसी दिन व्यापक शक्ल लेकर एक बड़ी क्रांति को मूर्त्त रूप दे देगी। इसी विश्वास को व्यक्त करती हैं उनकी समय के साथ हर जुबान का नारा बन चुकी ये पंक्तियाँ, 'हो गई है पीर पर्वत-सी पिघलनी चाहिए, इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए।' ऐसी पंक्तियाँ निस्संदेह हमारी विचारोत्तेजना को उस शिखर तक पहुँचा देती है, जहाँ से परिवर्तन की ऊर्जा का प्रवाह अपरिहार्य रूप से होने लगता है। वे हर हाल में बदलाव चाहते थे। इससे ज्यादा बखूबी वे अपनी इस इच्छा को और कैसे व्यक्त करते, - 'सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं, मेरी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए।'
दुष्यंत अपने संकल्प के प्रति समर्पित रहने वाले तथा मकसद पूरा करने के लिए लगातार प्रयत्न करते रहने में विश्वास रखने वाले कवि थे। उन्होंने हिंदी-उर्दू की सीमाओं को तोड़कर, आम आदमी की बोल-चाल की मिश्रित भाषा में कविता की। उर्दू की प्रतिष्ठित गजल विधा को अपनाकर उन्होंने हिंदी-कविता को एक नई विविधता व नई दृष्टि से ओत-प्रोत किया। वे अपनी पीढ़ी के हर जागरूक इन्सान, बूढ़े या नवजवान, की जुबान पर चढ़कर बोले। उनको जिसने भी सुना, वही उनके पीछे हो लिया। उनको जिसने भी पढ़ा, वही उनको उद्धरित करने में रम गया। उनकी गजलों की पंक्तियाँ हर मंच के वक्ताओं की ताकत बन गईं। परिवर्तन के लिए प्रयत्न करने के आवाहन के मामले में, 'कैसे आकाश में सुराख नहीं हो सकता, एक पत्थर तो तबीयत से उछालो यारो' जैसी बात कहकर उन्होंने कहन के मामले में मील का एक नया पत्थर गढ़ दिया और अपनी कविता को वह ताकत और प्रतिष्ठा दी, जिसके सामने अभिव्यक्ति का हर संदेशवाहक, हर रचनाकार नतमस्तक हो गया। अपनी पैनी गजलों के माध्यम से हिंदी-कविता में एक क्रांतिकारी दिलचस्पी पैदा करने वाले कवि दुष्यंत कुमार का नाम हमारे बीच हमेशा अविस्मरणीय रहेगा।