दूजी मीरा / संदीप मील
गाँव के गुवाड़ में खेलते बच्चों को जब चौधरी के कदमों की आहट का अहसास हो जाता, तो पलभर में सारा गुवाड़ खाली हो जाता था। बच्चे जादू के मानिंद गायब हो जाते और किसी बच्चे का चेहरा अगर चौधरी को दिख गया तो समझो उसकी घर में खैर नहीं। पापा-मम्मी सब कहेंगे कि तू गुवाड़ में गया ही क्यों था?
अब चौधरी कल ही सुबह गुवाड़ से निकलते समय टोक देगा, 'तेरे छोरे आजकल खूब खेल रहे हैं!'
फिर सारे घर में चौधरी के बारे में चर्चा शुरू हो जाती।
चौधरी का पूरा नाम कानाराम चौधरी था। गाँव के गुवाड़ के पूर्व में बिल्कुल सटे हुए चौधरी की हवेली के विशाल दरवाजे के सामने गुवाड़ बौना-सा लगता था। दरवाजे के दोनों तरफ दो चबूतरे थे जिन पर हरदम एक हुक्का सीमेंट फैक्टरी की तरह धुआँ उगलता रहता था। इन चबूतरों पर बैठने वाले लोग अमूमन अधेड़ उम्र के ही होते थे। बाएँ चबूतरे पर चौधरी की चारपाई लगी रहती थी जिस पर ऊँट के बालों की बनी दरी बिछी रहती थी। कद साढ़े चार फिट का था। साधारण नाक-नक और साठ किलो के वजन के करीब वाले चौधरी की आवाज भी बिल्कुल साधारण थी। इसी चारपाई के दाएँ तरफ एक लकड़ी की कुर्सी रहती थी जिस पर चौधराईन बिराजती थी। चौधराईन के नाम का तो किसी को पता नहीं था। लोग कहते थे कि चौधरी इसे पहाड़ों से उठाकर लाया था, इसलिए गाँव वाले उसको 'डूँगरी दादी' कहते हैं।
गोरा बदन, साढ़े पाँच फिट लंबाई और तीखी आवाज वाली डूँगरी दादी से चौधरी भी खौफ खाता है। गाँव में जो भी मामला उलझ जाता है तो उसका निपटारा इसी चबूतरे पर होता है और हमेशा जज डूँगरी दादी ही बनती है। चौधराईन के पास अपना छोटा हुक्का रहता है जिसको मुँह लगाने की इजाजत चौधरी को भी नहीं है। इस हुक्के के लिए हनुमानगढ़ से विशेष तंबाकू मँगाई जाती है।
गिरधारी कहता है, 'डूँगरी दादी के हुक्के से चमेली की खुशबू आती है। इसका कमाल ही कुछ और है। अगर यह खुशबू एक बार नाक से टकरा जाए तो नाक से जुकाम की शिकायत भी चली जाती है।'
इसलिए तो गिरधारी चौधराईन से चिपक कर बैठता है। वह पानी लाने से लेकर हुक्के के लिए आग लाने के कामों का किसी को मौका ही नहीं देता। अब तो उसे यह भी पता चलने लगा है कि कब चौधराईन को प्यास लगने वाली है और कब हुक्के की तलब। चौधरी को भी गिरधारी के इस 'विशेष खुशबू' के लिए किए जा रहे सेवा-भाव से कोई ऐतराज नहीं है। वह जानता है कि गिरधारी कितना ही मुरीद हो चाहे, पर चौधरी की सीमा को लाँघ नहीं सकता। वैसे भी, आज तक किसी गाँव वाले ने चौधरी के कहे को पाटने की सोची भी नहीं। एक चौधराईन ही है जिसकी जबान चौधरी के सामने भी छूरी की तरह खच-खच चलती है।
गाँव के आधे गुवाड़ पर चौधरी का अघोषित कब्जा है, वहीं पर चौधरी का ऊँट बंधता है और वहीं पर पिकअप खड़ी होती है। ऊँट रखना वह आज भी अपनी शान समझता है, कहीं भी जाता है तो सवारी ऊँट से ही करता है। जब चौधरी ऊँट के जीन पर सफेद गद्दा डालकर रवाना होता है तो चौधराईन हुक्के से सलाम ठोक कर उसे विदा करती है। कभी-कभार होने वाली चौधरी की यात्रा के अतिरिक्त यह ऊँट किसी भी काम में नहीं लिया जाता है, इसलिए 'बोछाड़' हो गया है। दिन रात जुगाली करते-करते दाँत घिस गए हैं। बिना मेहनत के खाने के कारण गिरधारी ऊँट को 'सेठ जी' कहता है।
चौधराईन के दो बेटे और एक बेटी है। बड़े वाला बेटा महावीर गाँव में किराने की दुकान सँभालता है और छोटा बेटा बजरंग 'आधुनिक पहलवानी' करता है। यह आधुनिक पहलवानी पुराने समय के अखाड़े की पहलवानी का उत्तर-आधुनिक रूप है। बजरंग कहीं भी अखाड़े में नहीं जाता है। उसने अपनी हवेली के एक कमरे में अखाड़ा बना रखा है। लोहे के स्लेटों से यहीं पर दिन भर कसरत करता रहता है और सुबह शाम दो किलो दूध पीता है। चौधराईन का कहना है कि आज के जमाने के दस लौंडों को बजरंग अकेला पछाड़ सकता है। हालाँकि, आज तक बजरंग ने किसी को थप्पड़ भी नहीं मारी और न ही मारने का मौका मिला क्योंकि चौधरी के खौप से गाँव वैसे ही सहमा हुआ रहता है। बजरंग जब भी गाँव की किसी गली से गुजरता है तो बच्चे पीछे से चिढ़ाते हैं-
'जय बजरंग बली, फूटे ना मूँगफली।'
'बने हैं पहलवान, उठे न दो किलो सामान।'
हाँ, गाँव के बारे में बताना तो भूल ही गया। इस गाँव का नाम अमरनगर है। लगभग तीन-सौ के आसपास घर हैं। गाँव में तीन कुएँ हैं, एक दलितों के लिए, एक ब्राह्मणों का और एक जाटों और खातियों का। एक जाति के कुएँ से कोई दूसरी जाति का पानी नहीं भर सकता। अगर कोई पानी भरता हुआ पकड़ा गया तो उसे चौधरी की अदालत में हाजिर होना होगा और जज चौधराईन एक निश्चित सजा सुनाएगी कि गुनाहगार को दो महीने चौधरी के घर पर बिना वेतन काम करना पड़ेगा।
गिरधारी बताता है, 'सात बरस पहले एक दलित पकड़ा गया था जाटों के कुएँ से पानी पीते हुए. बारह साल का बच्चा था, स्कूल से आ रहा था। जिस्म जलाने वाली धूप थी। दलितों के कुएँ का पंप चार दिन से खराब था। वहाँ पानी न होने के कारण चुपके-से जाटों के कुएँ पर पूरे पाँच घूँट पानी पी लिया था। चौधरी का बड़ा बेटा महावीर शहर से पिकअप में खल-चूरी लेकर आ रहा था, उसने देख लिया। उसी रात अदालत बैठी और उसे दो महीने वाली सजा मिली। लगातार दो महीने तक उसे चौधरी के घर पर झाड़ू लगानी पड़ी थी। सारा घर रोहित को डाँटता था।'
रोहित के जहन को उस घर के लोगों की यादों में सिर्फ़ मीरा की यादें बैचेन करती हैं।
अरे यार! आपको मीरा के बारे में बताया ही नहीं है। चौधरी की बिटिया है। एकलौती बेटी होने के कारण एकदम नकचढ़ी। उस पर न किसी का हुक्म चलता है और न किसी की मोहब्बत। जो मन में आए, वही करेगी।
'चौधरी साहब!'
कुछ नहीं बालते। अगर मीरा को किसी ने एक शब्द भी कह दिया तो चौधराईन खाल खींच लेगी और फिर उस खाल में काँटों वाला भूसा भी भर देगी। वैसे भी, चौधराईन का तो नंबर ही नहीं आता, मीरा खुद ही सामने वाले का भर्ता बना देगी।
'उम्र!'
होगी तकरीबन सोलह के आसपास।
'रंग-रूप पूछ रहे हैं?'
इसके बारे में कुछ बोल दिया तो कलम की कसम आपके इस लेखक की यह आखिरी कहानी होगी। खैर, जो भी हो, मीरा की दुनिया में न चौधरी की सियासत थी और न ही चौधराईन का हुक्का। अँग्रेजी की किताबें, हॉलीवुड फ़िल्में और रॉक म्यूजिक के अलावा उसे किसी से कोई लेना-देना नहीं था। जब मीरा अँग्रेजी में बोलती थी तो गाँव वालों का मुँह खुला का खुला रह जाता था। इस गाँव की वह पहली लड़की है जो शहर में जाकर 'बीए' कर रही है। वैसे तो वह बीएससी कर रही है लेकिन गाँव में बाहरवीं के बाद की सारी पढ़ाई 'बीए' के नाम से ही जानी जाती है और इससे आगे कोई पढ़ाई नहीं होती।
जब पहली बार मीरा गाँव से जयपुर पढ़ाई करने जा रही थी तो सारा गाँव देखने के लिए आया था। गुवाड़ में तिल रखने को भी जगह नहीं थी। चौधरी ने सबको दाल-बाटी-चूरमा खिलाया और चौधराईन ने मीरा को सलाह दी, 'शहर जाकर तेरे बाप के नावँ का ख्याल रखियो।'
मीरा सोच रही थी कि शहर में उसके बाप को कोई जानता भी है या नहीं?
जो भी हो, उस दिन गाँव में उत्सव का माहौल था।
आज तो गजब हो गया भाई. गिरधारी शाम के वक्त चौधराईन के पास बैठा चमेली की खुशबू का इंतजार कर रहा था। चौधराईन लगातार हुक्का गुड़गुड़ा रही थी लेकिन चमेली की खुशबू गायब थी। गिरधारी को लगा कि तंबाकू बदल दी गई है। उसने हुक्के की जाँच की तो तंबाकू तो वही थी। फिर चमेली की खुशबू क्यों नहीं आ रही? इस खुशबू के लिए ही तो वह रोज चबूतरे पर आता था। उसने माचिस की तिल्ली से तीन-चार बार नाक साफ किया। लेकिन आज कहीं चमेली की खुशबू थी ही नहीं। थक-हारकर वह घर आ गया और तकरीबन एक घंटे बाद उसके नाक से पानी बहने लगा। आज उसे जुकाम हो गई थी।
चौधरी की हवेली का दरवाजा कभी बंद नहीं होता था। रात को चौधरी अपनी चारपाई आधी दरवाजे में और आधी गुवाड़ में रखकर उस पर सोता था। सारे गाँव की औरतें भौर को ही पानी भरने के लिए गुवाड़ से गुजरती तो घूँघट निकालती थी। कई बार नींद में चौधरी की धोती खुल जाती थी और गाँव वाले बिना टिकट का रंगीन सिलेमा देखते थे। एक दिन तो साँवरमल के पोते ने चौधरी से पूछ भी लिया था, 'दादा जी, आप अंदरवियर क्यों नहीं पहनते?'
चौधरी को 'अंदरवियर' का मतलब समझ में नहीं आया और जब मीरा शहर से आई तो उससे पूछा। पहले तो वह खूब हँसी और फिर बताया कि इसका मतलब 'कच्छा' होता है। गिरधारी बताता है कि उसके बाद चौधरी ने साँवरमल के पोते को टॉफी देना बंद कर दिया। पता नहीं यह बात गाँव वालों को कैसे मालूम हुई, सारा गाँव पीठ पीछे चौधरी को 'अंदरवियर' कहता है। आपकी इजाजत हो तो यह लेखक भी गाँववाला होने के नाते आगे की कहानी में चौधरी को 'अंदरवियर' ही कहे।
तो साहब, अंदरवियर के चबूतरे की बैठक में कई दिनों से गिरधारी का आना बंद हो गया है। उसका जुकाम ठीक ही नहीं हो रहा है। पहले अँग्रेजी बैदों से इलाज करवाया। न जाने कितनी दवाइयाँ ली। दिन में तीन बार टेपलैट और दो बार पीने की दवा भी ली। गिरधारी ने जीवन में पहली बार अँग्रेजी दवा ली थी। बीमारी ठीक होने की बजाय बढ़ने लगी। जब रात को वह पीने वाली दवा लेकर सोता था तो अजीब सपने आने लगे। ऐसा लगता था कि जैसे कोई उसे तेली की घानी में डालकर उसका तेल निकाल रहा है। लेकिन तेल निकलता ही नहीं था, शरीर से आग निकलती। फिर उस आग से सारी घानी धू-धूकर जलने लगती और बैल रस्सी तोड़कर भाग जाते। बैल भी अजीब तरह के थे, एकदम हरे रंग के. दस पैर और आठ सर। अचानक वह उठता और नवंबर के महीने में ठंडे पानी से नहाता। जब सर पर पानी डालता है तो शरीर की आग और तेज हो जाती है। ऐसा लगता है कि आग पानी को जला डालेगी।
अँग्रेजी दवा से तंग आकर वह अब देशी बैदों को खोजने लगा। इस कार्य में भी उसे ज़्यादा मशक्कत नहीं करनी पड़ी, पहले गाँव वाले को अपनाया। बुखार तो कम हुई लेकिन जुकाम नहीं गई और रात वाले सपने ज़्यादा परेशान करने लगे। पास के कस्बे के बैद की दवा शुरू की। बीमारी ही अजीब थी, रात के खराब वाले सपने बंद हुए तो उनके साथ नींद भी जाती रही। उन सपनों को फिर भी जैसे-तैस झेल लेता था लेकिन बिना सोए हालत खराब हो गई. दो-तीन रात तो जागकर निकाल दी लेकिन अब स्थिति यह हो गई कि रात-दिन का पता ही नहीं चलता।
सब दवाएँ फेल हो गईं। आज सुबह से गिरधारी की तबीयत में ज़्यादा गिरावट आ गई थी। किस बैद के पास जाए? एक ही उपाय था। चमेली की खुशबू कहीं से मिल जाए तो जुकाम ठीक हो सकती है। यह विचार मन में आते ही वह महावीर की दुकान में गया और आधा किलो वाली चमेली के तेल की बोतल ले आया। जब दुकान से घर आ रहा था तो सोच रहा था कि इसमें खुशबू क्यों नहीं आ रही है? कहीं नकली तो नहीं दे दिया है? लेकिन महावीर पर उसे पूरा भरोसा था कि चीजों के दाम दो रुपये ज़्यादा ज़रूर लेता है पर माल खरा देता है। शायद बंद बोतल से खुशबू नहीं आती होगी। घर आकर तेल कि बोतल का ढक्कन खोला। वह सोच रहा था कि ढक्कन खोलते ही पूरे कमरे में चमेली की खुशबू फैल जाएगी और वह खुशबू, एक्सप्रेस रेल की तरह उसकी नाक की पटरियों से अंदर चली जाएगी, फिर जुकाम का जड़ से सफाया। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। न कमरे में किसी प्रकार की खुशबू फैली और न ही नाक की पटरियों पर रेल का छिक-फक हुआ। आज तेल को क्या हो गया? तेल की एक अँगुली भरकर उसने अपने नाक पर लगाई लेकिन खुशबू नहीं थी। अब क्या करे? उसका मन किया कि पूरी बोतल को गटक जाए, शायद कुछ खुशबू तो मिलेगी। ज्यों ही तेल की बोतल को पीने के लिए मुँह की तरफ ले गया तो खुशबू की जगह अजीब किस्म की बू आने लगी।
अब चमेली की खुशबू एक ही जगह मिल सकती थी, चौधराईन के हुक्के में।
इसे आखिरी कोशिश समझकर वह अंदरवियर की हवेली की तरफ चल पड़ा।
उम्मीद तो यही थी कि बीमारी ठीक हो जाएगी। आज चौधरी के चबूतरे पर कोई नहीं दिख रहा था। उसने सोचा कि लोग तो खाना खाने के लिए गए हुए होंगे और चौधरी कहीं बाहर गया होगा। दरवाजे के अंदर रखे हुए हुक्के को एक बार उसने नजदीक से सूँघा, शायद अब चमेली वाली खुशबू आ जाए. लेकिन हुक्के से सड़ी हुई तंबाकू की बदबू आ रही थी। आज गिरधारी को सिर्फ़ वह खुशबू ही बचा सकती थी। खुशबू की चाहत में हवेली के अंदर प्रवेश करते गिरधारी के नथूने बार-बार अजीब तरह से फूल रहे थे। हवेली के सामने वाले कमरे के बगल में चौधराईन धूप में बैठी पैरों पर सरसों के तेल की मालिश कर रही थी। नजर पड़ते ही एक बार तो उसके कदम ठिठके और वह वापस मुड़ने ही वाला था कि चौधराईन ने आवाज दे दी, 'आओ गिरधारी, आज थोड़ी तबीयत खिराब थी, बदन दुखो हो। सोच्यो कै धूप में बैठकर तेल लगा लियो जावै। कई दिनों से आए नहीं, तेरी जुकाम ठीक हुई कै?'
वह सहज होकर कोई जवाब खोज ही रहा था कि अचानक उसके नाक से चमेली के तेल की खुशबू टकराई. उसके बदन में सरसराहट होने लगी। लेकिन चौधराईन जो तेल लगा रही थी, वह तो सरसों का था। सरसों के तेल से चमेली की खुशबू, चौधराईन तेरी माया गजब है।
'क्या सोचो हो बाबू? बैठ जाओ, इतणे दिनों बाद आए हो।' चौधराईन ने बैठने का इशारा किया।
शाम को गाँव में चमेली की खुशबू की तरह खबर फैली कि गिरधारी की जुकाम ठीक हो गई है।
सुबह-सुबह गाँव में अखबार पढ़ने का एकमात्र अड्डा भी अंदरवियर का चबूतरा था। लगभग दो घंटे तक अखबार का पाठ होता था और लोग सामूहिक रूप से खबरों का विश्लेषण करते थे। हर खबर पर प्रतिक्रिया देने के लिए लोग अपनी-अपनी विशेषज्ञता रखते हैं। बुजुर्ग भी लगातार खबरे पढ़ने के कारण कई राजनेताओं और फ़िल्म अभिनेताओं के नाम जानने लग गए हैं। खबरों के अतिरिक्त कुछ बुजुर्ग 'शोक-संदेश' भी पढ़वाकर सुनते हैं। भींवाराम ने तो एक दिन अपने बेटे के सामने इच्छा जताई कि उसके मरने पर मृत्युभोज चाहे मत करना पर अखबार में 'शोक-संदेश' छपवाना। उसने इस बाबत बेटे को दस हजार एडवांस भी दे दिए और पाँच लोगों के सामने 'शोक-संदेश' छपवाने की कसम खिलवाई. अब हर रोज होने वाले अखबार पाठ में शोक-संदेश पढ़े जाने के समय वह कहता है, 'वैसे तो अपणे गाँव का अखबार में नाम कभी आया नहीं है, मेरे मरने पर ज़रूर आएगा।'
उसकी इस बात पर महावीर हमेशा मजाक करता है, 'दादा, तू जल्दी निपट जा, अखबार में गाँव का नाम तो आए.'
इस अखबार पाठ के भी कई चरण हैं। पहले चरण में राजनीतिक खबरों का पाठ होता है। दूसरे में अपने इलाके की खबरों का और फिर बारी आती है प्रेमी युगलों से सम्बंधित खबरों की। इन खबरों के विश्लेषण में हर कोई बढ़-चढ़कर भाग लेता है। अगर खबर प्रेमी-प्रेमिका के घर से भागने की हो तो सबसे पहले उनकी जाति के बारे में अटकलें लगाई जाती हैं। फिर उन दोनों के परिवारों के प्रति असीमित संवेदनाएँ व्यक्त की जातीं हैं। इस बहस में एकतरफा बातें की जाती थीं और ज्यादातर लोग स्टेटमेंट जारी करते हैं-
'आजकल भैया जमाना ही खराब आ गया है। किसी का विश्वास किया ही नहीं जा सकता है।'
'छोरां को दोष नहीं है। छोरियाँ को रहन-सहन ही खराब हो गयो।'
'पढ़ी-लिखी छोरियाँ जात-धर्म ही नहीं देखती हैं।'
'पहले तो बचपन में शादी हो जाती थी। आजकल तीस साल तक घर वाले शादी तो करते नहीं, छोरियाँ भागेंगी नहीं तो क्या करेंगी।'
'कुछ दिनों बाद शादी-वादी का झंझट ही नहीं रहेगा। सब भागकर कर लेंगे।'
'शहर में रहने वाली छोरियों का तो पक्का है कि भागेंगी ही।'
'शहर' का नाम आते ही सबकी तिरछी नजर अंदरवियर पर आ टिकती क्योंकि उसकी मीरा भी तो शहर में पढ़ रही थी। एक बार तो अंदरवियर के घर पर किसी अँग्रेजी बोलने वाले छोरे का फोन भी आ चुका है-'केन आई टॉक टू मीरा?'
फोन चौधराईन ने ही उठाया था। गाँव वाले कहते हैं कि चौधराईन जब फोन उठाकर दहाड़ती है तो सामने वाले का गोबर निकल जाता है। वह अपनी धारदार आवाज में कहती है, 'कोण बोलर्या सै?'
इत्ता सुणते ही कई तो फोन काट देते हैं। लेकिन उस दिन 'केन आई टॉक टू मीरा?' सुनकर चौधराईन की भी बोलती बंद हो गई.
वह चिंतित भाव में अंदरवियर को बोली, 'मीरा के लखण ठीक नै सै चौधरी। किण छोरे का फोन आया सै।' टॉक'कर रिया सै मीरा सूँ।'
यह सवाल सुनने के बाद से अंदरवियर ने प्रतिदिन दो रोटी कम खाना शुरू कर दी। अब वह पहले की तरह न तो हँसता है और न ही दहाड़ता है। चौधराईन को बहलाने के लिए उसने आश्वासन भाव में कहा, 'मालकण, डरणै की कोई बात नै सै। मीरा चौधरी की जल्मी है।'
यह आश्वासन सुनकर चौधराईन उसकी तरफ ऐसे देखती जैसे अंदरवियर की झूठ पकड़ी गई हो।
गाँव में खबरें बहुत तेजी से फैलती हैं। आप दिवार के पास मुँह करके एक शब्द भी बोलें तो सुबह तक पूरे गाँव में बात उड़ जाएगी। लोग दूसरे ही दिन कहने लगे कि एक छोरा मीरा के साथ 'टॉक' करता है। कल उसने चौधराईन को भी फोन करके 'टॉक' करवाने को कहा। इस 'टॉक' का मतलब किसी को भी मालूम नहीं था। हर कोई अपना अर्थ लगा रहा था लेकिन मूलतः वह अर्थ मीरा के चरित्र पर ही जाकर टिकता। पीठ पीछे लोग अंदरवियर को मूर्ख बताते, 'एक तो बेटी को अकेली शहर भेज दिया, दूसरा उसकी शादी भी नहीं कर रहा है। ऐसे में लोग' टॉक'तो करेंगे ही।'
मीरा कॉलेज में एकदम मस्त थी, शुरू में तो शहर के रिवाजों से वाकिफ नहीं होने के कारण कुछ मायूस थी लेकिन अब सब कुछ समझने लगी थी। अपनी मर्जी का पहनने और बिंदास रहने के कारण वह शहर के लौंडों के आकर्षण का केंद्र भी थी। चेहरे से बेहद सहज लगने वाली मीरा के पीछे कई लड़के वक्त जाया किया करते थे। लेकिन जब मीरा को मालूम होता है कि पट्ठा उसके पीछे बाइक का पेट्रोल जला रहा है तो तड़ाक से ऐसा जवाब देती कि कई ने तो लड़कियों के पीछे घूमने की आदत तक तज दी और जब वह रात को हॉस्टल की सड़क पर अकेली टहल रही होती थी तो अचानक पीछे से तेजी से दौड़कर आ रहे घोड़े की पैरों की टप-टप सुनती, पीछे मुड़कर देखती तो सुनसान सड़क। तभी सामने से दूध की डेयरी वाला आवाज देता, 'तेरा बंजारा पीछे से नहीं, आगे से आएगा।'
'तुम अभी तक दुकान बंद नहीं किए, रोहित। जब तू कह रहा है तो आएगा मेरा बंजारा।' खिलखिलाकर हँसती हुई मीरा डेयरी के सामने रखी कुर्सी पर बैठ जाती।
यह वही रोहित था, जिसे कभी पाँच घूँट पानी जाटों के कुए से पीने के एवज में दो महीने चौधरी के घर पर बिना वेतन की मजूदरी की सजा मिली थी। मीरा के हॉस्टल के सामने दूध की डेयरी कर रखी है। डिनर के बाद अक्सर मीरा यहीं आकर रोहित के साथ गप्पें हाँकती हैं। कभी गाँव की, तो कभी उस बंजारे की बातें किया करते हैं। हालाँकि यह बात मीरा के गाँव में मालूम नहीं है वरना 'टॉक' के साथ रोहित का नाम ज़रूर जुड़ जाता। आज फिर वही पुराना राग छेड़ दिया रोहित ने, 'मैं तो भूल ही गया, तेरा बंजारा दिखने में कैसा है?'
यह सवाल आते ही मीरा पंद्रह साल पीछे चली जाती है, जब उसके गाँव में एक बंजारिन मेवा बेचने आती थी और उसके साथ होता था एक मीरा की ही उम्र का उसका बेटा सुल्तान बंजारा। क्या सज-धज के रहता था सुल्तान। चूड़ीदार पाजामा, पठानी कुर्ता, जड़ावदार जूती और हाथ में होता था घोड़े का चाबुक। बंजारिन और उसका बेटा, दोनों सफेद घोड़े पर आते थे लेकिन आगे सुल्तान बैठता था। गाँव में घुसने से पहले ही घोड़े की टाप सुन जाती थी और मीरा दौड़कर दरवाजे पर आ जाती। बंजारिन तो घर-घर मेवे बेचने चली जाती और सुल्तान गाँव के गुवाड़ में घोड़े को दाना चबाता रहता। सारे गाँव के बच्चे इकट्ठे हो जाते। हर बच्चा सुल्तान और उसके घोड़े को निहारता रहता। तभी दरवाजे पर खड़ी मीरा आवाज देती, 'ऐ सुल्तान, मुझे घोड़े पर बिठाएगा क्या?'
'तू गिर जावे तो डूँगरी दादी मारे।'
'नहीं गिरूँगी रे! और लगाम तो तेरे हाथ में है ही।'
'मैं आगे बैठूँगा, तू पीछे बैठणा।'
'घोड़े पर तो मैं अकेली ही बैठूँगी, तू लगाम पकड़कर नीचे चलना।'
'मेरो घोड़ो और मैं ही नीचे चलूँ!'
'दोनों ऊपर बैठ जाएँगे तो घोड़ा भागेगा। मुझे डर लगेगा।'
'तू कहती थी ना कि तू डरती नहीं है।'
'घोड़ा है तो दादागीरी दिखा रहा है क्या सुल्तान? चल मैं नहीं बैठूँगी।'
'मीरा, मैं दादागीरी नहीं, दोनों के बैठणे की बात बोलूँ हूँ।'
'बोल दिया ना कि घोड़े पर अकेली ही बैठूँगी, तू नीचे चलेगा।'
'मैं थारो नौकर हूँ कै?'
'नौकर नहीं रे सुल्तान, भायला (दोस्त) है।'
'भायला' नाम आते ही सुल्तान हल्का-सा हँसता और लगाम पकड़कर घोड़े को कहता, 'चल जिलू, मीरा को घुमाकर लाते हैं।'
सुल्तान नीचे लगाम पकड़कर चलता और मीरा घोड़े पर। कुछ दूर तो गाँव के लड़के पीछे हो-हल्ला करते आते लेकिन तभी मीरा पीछे मुड़कर जोर से डाँटती और लड़कों का झुंड वापस भाग जाता। एक रेत के टीले पर चढ़ते हुए सुल्तान थक चुका था, 'मीरा, मेरे से अब नहीं चला जाएगा। कुछ देर यहीं आराम करते हैं।'
मीरा भी घोड़े से नीचे उतर जाती है। चूँकि आसपास कोई पेड़ न होने की वजह से छाया के कोई आसार ही नहीं थे। अब धूप का मुकाबला कैसे किया जाए?
'मुझे बहुत धूप लग रही है सुल्तान।' मीरा का चेहरा उदास हो जाता।
'यहाँ पर तो छाँव है ही नहीं।' सुल्तान भी चिंतित हो गया।
'ऐसी धूप में तो मैं मर जाऊँगी!'
'मैं कुछ करता हूँ। ऐ जिलू, इधर आ।'
'जिलू' नाम सुनते ही घोड़ा सुल्तान के पास आ गया। सुल्तान ने घोड़े का मुँह दक्षिण में किया तो सूरज घोड़े के बदन के पीछे आ गया और टीले पर तीन फिट के आसपास छाया बन गई.
'अब इस छाँव में बैठो आराम से।' सुल्तान बड़ा खुश हुआ।
'लेकिन धूप तो तुम्हें भी लग रही है ना! तुम भी आ जाओ.' मीरा ने सहजता से कहा।
फिर घोड़ा जुगाली करता रहा और वे दोनों तीन फिट की जगह में बैठे देर तक बातें करते रहे। वापस घर आए तो मीरा के घर पर ही सुल्तान को खाना खिलाया जाता।
मीरा जब इतनी लंबी कहानी सुना रही थी तो रोहित बड़े इत्मिनान से सुन रहा था। कई बार सुनी हुई इस कहानी को वह उसी उत्सुकता से सुन रहा था जैसे पहली मर्तबा सुन रहा हो।
'लेकिन तेरो सुल्तान तुझे पहचान पाएगा?'
'बिल्कुल पहचान लेगा और मेरा सुल्तान है ना, अब भी इंतजार कर रहा होगा मेरा। रोहित, हमारी प्रीत सौदा नहीं थी रे कि इस हाथ दो, उस हाथ लो। हमने तो बचपन में एक गाना भी बनाया था अपनी मोहब्बत के वास्ते। अब भी उसके बोल बंजारे के कानों में पड़ गए तो दौड़ा चला आएगा। तुमने तो देखा है ना सुल्तान को।'
'मीरा, समाज की हकीकत को समझो। वह बंजारा है और तू चौधरी की बेटी. समाज में कतई स्वीकार नहीं किया जाएगा यह रिश्ता। सोचो कि किसी गाँव वाले ने दिख लिया कि तुम रात में मेरी दुकान में अकेले में मुझ से बातें कर रही हो, तो क्या-क्या बेहूदी बातें बनाएँगे गाँव वाले? और बंजारे से तेरी शादी की बात पर तो दोनों को काट दिंगा।'
'रोहित, मुझे गाँव, समाज और ऐसे लोगों से कोई इत्फाक नहीं है। ये बता तू मेरा साथ देगा कि नहीं?'
'मैं तो साथ दूँगा, मेरे साथ से होगा क्या मीरा?'
'तेरे साथ से मैं मजबूत हो जाऊँगी। तुमने सुना है ना कि हर कामयाब इनसान के पीछे एक औरत का हाथ होता है?'
'हाँ, सुना है। इसका हम दोनों से क्या नाता?'
'देख रोहित, यह कहावत दरअसल यह बताती है कि एक तो औरत कभी कामयाब नहीं होती। दूसरा यह कि औरत की कुर्बानी केवल मर्द की कामयाबी में ही काम में आती है और तीसरा सबसे महत्त्वपूर्ण सवाल उठता है कि औरत हमेशा पुरुष के अधीन है। हमें यह कहावत बदलनी है।'
'मीरा मैं ज़्यादा पढ़ा-लिखा तो नहीं हूँ लेकिन तुम्हारी बात को समझ ज़रूर रहा हूँ। लेकिन कैसे बदलेंगे?'
'हमने सिर्फ़ किताबें पढ़ी हैं रोहित, तुमने तो ज़िन्दगी को पढ़ लिया है। आज से यह कहावत ऐसे कही जाएगी-हर विद्रोहणी औरत का भी कोई प्यारा-सा दोस्त होता है, जो उसके मन को गहराई तक जानता है।'
'इसमें नई बात क्या?'
'इसमें नई बात यह है कि शारीरिक सम्बंधों के इतर भी स्त्री-पुरुष की दोस्ती हो सकती है, बिल्कुल सच्ची। हमारे समाज में दोस्ती का मतलब सिर्फ़ दो पुरुषों की यारी से लगाया जाता है।'
'अरे! तुम्हें पढ़ना नहीं है क्या? ग्यारह बज गए हैं। तुम जाओ पढ़ो और मैं तुम्हारे बंजारे को ढूँढ़कर लाता हूँ।'
'रोहित, यह आदेश दे रहे हो क्या?'
'नहीं बाबा, यह एक दोस्त को सलाह है। मीरा को कोई आदेश थोड़ा ही दे सकता है।'
रोहित दुकान बंद करने लग जाता है और मीरा हॉस्टल की तरफ रवाना हो जाती है। कोहरे में नहाई सुनसान सड़क पर जाती मीरा को पीछे से देखता रोहित सोचता है कि यह मीरा भी एक सामंत के घर पैदा हो गई. वह तो आध्यात्म के लिबास में विद्रोह कर ही रही थी और यह। जो भी हो, ऐसी मीरा हर युग और हर घर में पैदा होनी चाहिए.
अंदरवियर के चबूतरे पर रोज नए-नए चौधरी आ रहे हैं। कोई दो सौ बीघा का जागीरदार तो कोई इलाके का बड़ा ठेकेदार। सफेद धोती-कुर्ता और सर पर पगड़ियों वालों का तांता-सा लगा है। दरअसल, उस 'टॉक' वाले फोन आने के बाद से ही अंदरवियर ने मीरा की शादी करने की बात तय ली थी। आसपास के रिश्तेदारों में जब इस बाबत जानकारी दी गई तो रिश्ते आने शुरू हो गए. कल भोजासर के एक चौधरी आए थे। बड़े ठाठ वाला आदमी था। सौ बीघा जमीन थी, दो कुएँ थे और सीकर में भी मकान थे। छोरा भी खूब कमा रहा था। सड़कों का ठेका लेता है जी. एक ठेका मतलब पैसों की पोटली। दिखने में भी बड़ा धाकड़ छोरा था। अंदरवियर के तो सब चीजें पसंद थी लेकिन चौधराईन को नहीं पसंद आया। जब भोजासर के चौधरी से बातचीत हुई तो अंदरवियर ने चौधराईन को हवेली में ले जाकर राय मश्विरा किया-
'मालकण, तेरे जच्यो कै सौदो?'
'देख चौधरी, बाकी तो सब ठीक सै। लेकिण छोरा नीं जच्या।'
'छोरा तो तनै देख्या ही नीं है। ऐसा गबरू जवान है कि आसपास के किण चौधरी के ऐसा जंवाई नीं आया सै।'
'चौधरी, छोरा पढ़ा-लिखा नहीं है। अपणी मीरा की जोड़ी का पढ़ा तो चाए.'
'पढ़ण-लिखण से क्या होता है? इण छोरे के नीचे कई इंजनीयर काम करते हैं और सब' साब'कहते हैं।'
'मेरे तो छोरो नीं जँच्यो। अब तू जांणै चौधरी और तेरा काम जांणै।'
हालाँकि अंदरवियर को यह रिश्ता बहुत पसंद आया था लेकिन चौधराईन की जिद की वजह से मना करना पड़ा। आज वाले चौधरी हरींद्र सिंह के साथ सब चीजों को देखते हुए बात पक्की कर दी थी। यह चौधरी भी किसी भी मामले में कमजोर नहीं है और छोरा प्राईवेट बीए पास है। अंदरवियर चौधराईन को बता रहा था कि बड़ा चंगा छोरा है। हिंग्लीश भी बोल लेता है और आस्ट्रेलिया में अपनी होटल बणा रखी है। 'बीए' पास का नाम सुनते ही चौधराईन भी गद्गद हो गई. वैसे दहेज का मामला भी केवल दस लाख में सेट हो गया था। अब इकलौती बेटी के बाप अंदरवियर को दस लाख बहुत ज़्यादा नहीं थे।
शाम को अंदरवियर के चबूतरे पर वैसे ही मजमा लगा हुआ था। लोगों को जानकारी भी हो गई थी कि मीरा का रिश्ता तय हो गया है। चौधराईन हुक्का गुड़गुड़ा रही थी और पास में बैठा गिरधारी चमेली की खुशबू ले रहा था और अंदरवियर अपने नए समधी हरींद्र सिंह की जमीन जायदाद के बारे में हाँक रहा था और छोरे के बारे में तो ऐसा बता रहा था कि वह हिंदुस्तान का सबसे कामयाब लौंडा हो। जब 'आस्ट्रेलिया' की बात आई तो सबने आचर्य से पूछा, 'चौधरी साहब, यह पड़ता कहाँ है?'
चौधरी ने अपनी पतली मूँछों पर ताव दिया और फिर बताना शुरू किया, 'बहुत दूर पड़ता है। काँच की सड़कें हैं वहाँ पर। अपणा जंवाई जो होटल बणा रखा है, वहाँ बड़े-बड़े लोग आते हैं जी और एक लाख का रोज गल्ला उठता है। सब हिंग्लीश बालते हैं। दाल-रोटी भी हिंग्लीश में मँगाते हैं।'
'चौधरी साब, दाल-रोटी को हिंग्लीश में कैसे मँगाया जाता है?' गिरधारी को भी उत्सुकता हुई.
'अरे तू क्या जाणे बड़ी बातें। जंवाई आए तो उससे पूछणा और जंवाई हिंग्लीश में ही पैसा माँगते हैं तो सारे गोरे लोगों की फट जाती है। ऐसी धड़ाके की भाषा बोलते हैं।' आज चौधरी की आवाज में नई ताकत आ गई थी।
'आपकी मीरा तो राजी है क्या इस रिश्ते से?' गिरधारी ने दुखती रग पर हाथ रखा हो जैसे।
'तनै भोत बात आवें रे गिरधारी। मेरी मीरा की मर्जी अपणे बाप सूँ अलग नहीं हो सकै। जियादा लपर-लपर मत किया कर।' चौधरी को तैश आ गया।
'चौधरी, गरम मत हुवो। गिरधारी तो भोला-भंडारी है। इसके मन में खोट नहीं है।' चौधराईन ने बीच बचाव करने की कोशिश की।
चौधरी के चबूतरे की शाम की बैठकी खत्म हुई तो लोग अपने घरों पर इस सवाल को साथ ले गए, 'मीरा तो राजी है क्या इस रिश्ते से?' फिर क्या था, लोगों ने अपने-अपने स्तर पर कहानियाँ बनानी शुरू कर दी। गाँव वालों का मीरा से कोई संवाद तो था नहीं, वे नहीं जानते थे उसकी मर्जी और चाहतों के बारे में तनिक भी, फिर भी कहानियों में अपनी मर्जी को मीरा की मर्जी मानकर कथानक को आगे बढ़ाते रहे। प्रारंभिक दौर में कई कहानियाँ बनी थी। फिर कुछ छोटी-छोटी कहानियों को लोग जोड़ने लगे और एक लंबी कहानी गढ़ने की प्रक्रिया चली।
फागुन का महिना था और ठाकुर बन्नेसिंह की ड्योढ़ी के सामने मजमा लगा था। लोग चंग बजा रहे थे, कुछ शराब पी रहे थे और ठाकुर अपने दो चमचों के साथ चंग के रसियों को 'वाह-वाही' दे रहा था। हर फागुन में ठाकुर के यहाँ गुलाल उड़ता है। यूँ तो ठाकुर की माली हालात बहुत बुरी हैं लेकिन ठिकाणा जाते वक्त जमीन दो सौ बीघा बच गई थी। ज़रूरत के मुताबिक बेच लेता है। इस ठाकुर के पास दो ही चीजें बची थी, एक जमीन और दूसरी ठकुरायत। साल भर ठाकुर टका नहीं खर्चता है, बीड़ी भी माँगकर पीता है लेकिन फागुन में हजारों उड़ाना उसकी लत है। शायद इसी के लिए जमीन बेचता होगा। फाग गाने वाले जब भी गाना खत्म करके बीड़ी पीने के लिए आराम करते तभी ठाकुर अपनी बहादुरी के कई किस्से सुनाता। गिरधारी जब भी वहाँ मौजूद होता तो उसे ठाकुर के इन किस्सों में बिल्कुल भी इंटरेस्ट नहीं होता क्योंकि वह जानता था कि ठाकुर के किस्सों की कोई जमीन नहीं है। लेकिन आज घर से चलते वक्त ही उसका मन हुआ था कि खुलकर बोलेगा और सारे रसिए सुनेंगे मजे से। पहला ही फागुनी गीत गाकर जब रसिए रुके तो गिरधारी शुरू हो गया, 'ठाकुर सा, इब तो गाँव में किण कायदो ही नीं बच्यो है। बड़ा खराब दिन आएगा गाँव रा।'
'किसकी बात कर रिया हो गिरधारी, ठाकुर की नियत खराब हो सकती है लेकिन दिन खराब नहीं हीं। राज-पाट सब चले गए, अब क्या दिन खराब आएँगे पगले।' बन्नेसिंह ने गहरी साँस ली।
सारे रसिए बीड़ी का धुआँ निकालकर गिरधारी की ओर एक टक देखने लगे। वे सब जानते थे कि वह चौधरी के बारे में बात करेगा और चौधरी के बारे में तो सिर्फ़ मीरा की ही बात हो सकती है। हालाँकि, इस चर्चा को कई बार सुनने के बाद भी लोगों में उत्सुकता बनी हुई थी। आज वे ठाकुर के मुँह से मीरा की कहानी सुनना चाह रहे थे। गणेश ने ठाकुर को उकसाते हुए पूछा, 'ठाकुर सा, मीरा के ब्याह के बारे में आप क्या सोचते हैं?'
बन्नेसिंह ने पास रखी बोलत से दो पेग देशी के मारे और एक बीड़ी सुलगाई. थोड़ी देर की चुप्पी के बाद शुरू, 'एक मीरा राजपूत के घर भी जल्मी थी पहले। पूरी जात पर कोई कलंक है तो वह औरत। क्या कमी थी उसके?'
'लेकिन उसने तो भक्ति की थी।' मजमें में से किसी ने कहा।
'भक्ति करणे के लिए यादव ही मिला था क्या? राजपूतों में देवताओं की कमी थोड़ी ही है। हमारे पुर्खों में तो सब' शहादत'को ही गए थे, सबके मंदिर बणें हैं, उन्हें में से किसी की भक्ति कर लेती। अब राजपूत जाति में कोई छोरी को नाम मीरा नहीं रखै। चौधरी की ही गलती थी कि यह नाम रखा, अब भुगतो अपणी। सबसे बड़ा खतरा जाति को है।'
'किस जाति को खतरा है ठाकुर सा?' 'जाति' का नाम सुनते ही सारे रसियों के कान खड़े हो गए.
'ठाकुरों पर तो जितने खतरे थे, सब आ गए. अब' जाटों'की बारी है। उन्होंने ही मीरा नाम धर्या है। एक मनुष्य पूरी जात ने आसमान भी ले जा सकता है और पाताल भी।' ठाकुर आगे के दो नकली दाँतों से असली हँसी हँसते हुए बोला।
'भला एक चौधरी के कारण पूरो जाट समाज खतरो क्यों उठावै?' नरेश को गुस्सा आ गया।
ठाकुर ने दाएँ हाथ से नकली दाँतों को यथास्थान सैट किया और फिर ठाकुरियत की मुद्रा में कहा, 'बेटा, चौधरी नै छोरी ही जाति के कलंक लगाण वाली जल्म दी। अब तो एक ही उपाय है, या तो चौधरी जाति में रहे या फिर जाति रहे। देख लो तुम लोगों को कौन जियादा प्यारो है।'
'मीरा ने ऐसो कै काम कर दियो कि जाति पर संकट आयगो?' आज पहली बार रफीक रजक ने ठाकुर के सामने बोलने की हिम्मत की।
'पूरे समाज की नाक कटवा दी। शहर में जाकर छोरों के साथ' टॉक'करती है। न जाति देखती, न धर्म।' ठाकुर की बजाय जवाब नरेश ने दिया।
'ओछा, यो' टॉक'कांई हुवै है?' रफीक को इस बाबत कोई जानकारी नहीं थी।
'रफीकड़ा, छोरां के सामणै क्यों अपणी मिट्टी पलीत करवा रिया है। तू कौन-सा जाणता नहीं। बिना' टॉक'ही चार बच्चों का बाप बन गया। थोड़ी तो शर्म कर गधा।' बन्नेसिंह ने बोलने की बजाय लगभग दहाड़ना ठीक समझा।
यह सुनते ही सारे लौंडे खिलखिलाकर हँसने लगे। कईयों को तो अपने ज्ञान पर नाज-सा होने लगा कि उन्हें अँग्रेजी आती है। वे भी 'टॉक' का यही अर्थ निकाल रहे थे और अब तो तय हो गया कि 'टॉक' करने से बच्चे पैदा होते हैं, ठाकुर बन्नेसिंह ने जो कह दिया। बन्नेसिंह के दादा अँग्रेजों के राज में दरोगा थे और तभी से उनके परिवार वाले हर अँग्रेजी शब्द का अर्थ बता देते हैं। जब बच्चे परीक्षा के लिए तैयारी करते और उन्हें 'टू दि हेडमास्टर' का अर्थ नहीं मालूम होता तो ठाकुर ही बताता-सुण हेडमास्टर के बच्चे। इतने में ही राधेयाम पंडित का छोरा नयन आते दिखा।
'यह बताएगा सही, जैपर ही रहता है आजकल। मीरा की पूरी कथा जानता है।' नरेश ने पूरे विश्वास के साथ कहा।
'आओ बेटा नयन, जैपर से कब आया?' ठाकुर ने बैठने का इशारा किया।
'पाय लागूँ बाबो-सा। परसों ही आया था।' नयन ने मोबाइल में वक्त देखा तो रात के करीब ग्यारह बजे थे।
'चौधरी की मीरा की कहाणी बताय रे।' ठाकुर ने नयन के सर पर बड़े प्यार से हाथ फेरा।
' जैपर में मीरा जिस कॉलेज में पढ़ती है वह एक बदनाम कॉलेज है। हर लड़की को कोई पंगा रहता है। रात को लड़कियाँ सड़क पर लड़कों के साथ घूमती हैं। कई बार तो बिल्कुल अकेले ही। ऐसे में मीरा कौन-सी दूध की धुली है। मेरा एक दोस्त बता रहा था कि वह रात को चाय वाले के पास बैठी रहती है। आधी रात तक। भई, हमारे पंडितों में तो ऐसी लड़की होती तो अभी तक क्रियाकर्म कर देते लेकिन अब जाटों की ही मति मारी गई तो क्या करें। नयन ने नरेश और अन्य जाटों के छोरों की तरफ हिकारत के भाव से देखा।
'सुसरे..., शहर में चार पैसा कमा लिया तो कौन-सा बिड़ला बण गया। तेरा खानदान तो अब भी आटा माँगकर खाता है और हम जाट ही आटा डालते हैं। ज़्यादा हुसियार होणे की ज़रूरत नहीं है। औकात में रिया कर।' नरेश को तैश आ गया।
'देखो, बाबो-सा। आपके कहने पर मैंने सच बताया और मुझे ही समझा रहा है। एक ठाकुर के ड्योढ़ी पर एक पंडित का ऐसा अपमान तो कभी नहीं हुआ होगा।' नयन से ठाकुर को उकसाया।
'ऐ छोरे, जियादा बोलणै की ज़रूरत नहीं है। सच सबसे सहन नहीं होता। इतो ही जाट बणै है तो चौधरी को जात बहार कर दो। इण बेचारे समझदार पंडित पर क्यों हेकड़ी दिखा रिया है। याद रखो कि या ठाकुर की महफिल है, कोई भी जोर से नहीं बोलेगा। अपणै घर में देना ज्ञान, यहाँ नहीं होगा पंडित का अपमान।' बन्नेसिंह का जर्द चेहरा लालिमा दिखा रहा था जो अँधेरे में आगे के उजाले से भी दिख जाती है।
'सुण ठाकर, बहुत देखी है तेरी हेकड़ी। दो बीघा जमीन बेचणै से कोई सेठ नहीं बणता। पव्वे के बीस रुपये माँगता था तू।' नरेश भी गुस्से में खड़ा हो गया।
'ठहर, तनै मैं आज सारी औकात दिखा दूँगा।' बन्नेसिंह हवेली से तलवार लाने दौड़ा।
'आ जाणा चौधरियों की चौकड़ी में रांगड़ा।' नरेश के साथ कई जाटों के छोरों ने नारा लगाया।
खबर मीरा तक भी पहुँच गई थी कि रोज उसके ब्याह के लिए चौधरियों का तांता लगा रहता है। कहीं न कहीं मामला सैट कर ही दिया जाएगा। लेकिन जब आज चौधराइन ने सगाई की बात पक्की होने की खबर दी तो मीरा के पैरों की जमीन खिसक गई. बहुत गुस्से में चौधराइन को डाँटा, 'आपको मेरी ज़िन्दगी का फैसला करने का हक किसने दिया?'
'किसणे का मतलब? तेरे माँ-बाप हैं तो तेरो ब्याह करणों फर्ज है।' चौधराईन ने समझाने वाले अंदाज में कहा।
'मेरे बारे में मैं खुद तय करूँगी। मुझे नहीं करनी है शादी।'
'ब्याह तो जगत की रीत है बेटा। आज नहीं तो कल करणा पड़ेगा।'
'मुझे नहीं करना है और मेरी शादी के बारे में आप सोचना बंद कर दीजिए.'
'तेरे बाप ने' हाँ'कर ली है, इब ब्याह तो करणा ही पड़ेगा। ब्याह में डरण की बात नीं है पगली।'
'बाप की' हाँ'जाए भाड़ में। मैंने' ना'बोल दी है, यह मेरा अंतिम फैसला है।'
'तनै इति बड़ी करी है, पिसा खर्च किया है।'
'किसने आपको यह सब करने का हुक्म दिया था और अब उसकी वसूली करना चाहते हो क्या?'
'देख बेटी, इब भी सोच ले, चौधरी को मोह ही देख्यो है तनै, गुस्सो भोत जोरको है।'
'होगा तो, मैं क्या करूँ?'
'अगले महीने से पिसा भेजणों बंद है।'
'मुझे अपनी मेहनत पर जीना आता है। नहीं चाहिए आपकी दौलत।'
हालाँकि ताव में आकर मीरा ने कह तो दिया था कि उसे अपनी मेहनत पर जीना आता है लेकिन अभी तक तो कमाने की सोची भी नहीं थी। आज पहली बार सोचना पड़ रहा है। वैसे भी हॉस्टल की फीस तो हर महीने देनी पड़ती है।
किसको कहे?
रोहित को!
उसे ही क्यों?
दोस्त है ना, इसलिए.
इन्हीं सब उलझनों में फँसी मीरा रात के ठीक ग्यारह बजे अकेली रोहित की दुकान की तरफ जा रही थी। ज्यों ही वह दुकान के करीब पहुँचने वाली थी कि पीछे से घोड़े की पैरों की टप-टप सुनाई दी। पीछे मुड़कर देखा तो फागुनी हवा की सनसनाहट थी, न घोड़ा था और न ही बंजारा था।
'तेरा बंजारा पीछे से नहीं, आगे से आएगा।' रोहित ने अपने सदाबहार अंदाज में कहा। उसके कान सुनने को उत्सुक थे, 'तू कहता है तो मेरा बंजारा ज़रूर आएगा।'
आज मीरा ने यह जवाब नहीं दिया। वह चुपचाप कुर्सी पर बैठ गई. रोहित को बेचैनी तो उस जवाब न मिलने की वजह से ही हो गई थी लेकिन अपने रोजमर्रा के कामों में व्यस्त रहा। सारा सामान दुकान में जमाया और फिर एक कुर्सी लेकर मीरा के बगल में बैठ गया।
'क्या हुआ मीरा, इतनी उदास क्यों हो?'
'तू कौन हुआ मेरी उदासी का सबब जानने वाला?'
'मैं तेरा दोस्त हूँ। तेरे सदियों के प्रेम को कहानियाँ तो रोहित सुने, तेरी ज़िन्दगी के सारे सपने भी सुने। बस, उसे तेरे गम सुनने का हक नहीं है। ठीक है फिर।'
'यार, मैं बहुत टेंशन में हूँ।'
'घरवालों से लड़ाई हो गई ना? शादी कर रहे होंगे?'
'तेरे को कैसे पता चला जालिम कि ये सब हुआ है।'
'अक्सर लड़कियों के साथ यही होता है। तेरे साथ भी हो गया।'
'तो फिर ऐसी स्थिति में लड़कियाँ अक्सर करती क्या हैं?'
'मर जाती हैं। या तो आत्महत्या कर लेती हैं या अपने सपनों को मार देती हैं या अपने प्रेमी के साथ भाग जाती है जिसे वे ठीक से समझी तक नहीं हों या फिर।'
'या फिर... कोई और भी रस्ता है क्या? बोलो रोहित।'
'डगर कठिन है मगर, तू करेगी वही।'
'तू भी आजकल बातों को घुमाकर कहता है, सीधे बताओ ना?'
'मुक्ति का मार्ग है ना, अपनी मर्जी की ज़िन्दगी उसी में है।'
'आजादी कहाँ, सिवाय मर्दों के चंगुल से बाहर निकलने के.'
'यही मैं कह रहा था मीरा। लेकिन तेरे बंजारे का क्या करेगी? वह भी तो पुरुष है और तू चौबीस घंटे तो उसी के उधेड़बुन में रहती हो।' रोहित ने दुखती हुई रग पर हाथ मारा।
'ते क्या सोचता है कि मैं उस बंजारे की मोहब्बत में पंद्रह साल निकाल दिए. वह तो मेरा भागल था, ऐसा थोड़ा ही होता है कि अमूर्त प्यार पर ज़िन्दगी कुर्बान की जाए. यह तो सिर्फ़ दिल बहलाने के बहाने होते हैं। मैंने भी ऐसा ही किया। एकांत अपने आप में कई बार इनसान का खून पीने लग जाता है और जब यह अहसास होने लगता है कि वह अकेला है तभी से यह प्रक्रिया शुरू हो जाती है। अपनी उसी उदासी को भूलने के लिए एक तरीका था' बंजारा'। हुआ यूँ कि इस बहाने मैं अपने आप को बहुत गहराई तक छूने लगी। यार, यह अंतर्मन की यात्रा ही मुझे मुक्ति का मार्ग दिखा गई थी। वैसे तू कह सकता है कि तू जिस पुरुष के खिलाफ लड़ना चाहती है उसी के जरिए मुक्ति का मार्ग खोज रही है। अगर तेरा बंजारा सच में महबूब होता तो अभी तक क्योंकि नहीं आया। सच भी है कि बचपन की दोस्तियाँ सिर्फ़ भावनाओं की नींव पर खड़ी होती हैं, वहाँ विचार और तर्क की कोई गुंजाइश नहीं होती। यूँ तो भावना का भवन बहुत मजबूत होता है लेकिन ज़िन्दगी के भूचालों से उतनी ही तेजी से धराशायी भी हो जाता है। वह कोई बंजारा नहीं था जिसकी खोज में सर्दियों की कई रातें इन अँधेरी सड़कों पर बेवजह जाया कर दी जाती। वह मेरा आदर्श पुरुष भी नहीं कहूँ तो, ऐसा कह सकती हूँ कि बेहतर दुनिया को बनाने का साथी हो सकता है, इसलिए उसका सर्जन मैंने अपनी तमाम तर्कों की चाक पर विचारों की मिट्टी से किया था। हो तो यह भी सकता है कि कल को मैं एक पुरुष बन जाऊँ और वह मेरे सपनों के बंजारे जैसा पुरुष हो। यह एक मनोवैज्ञानिक विकृति भी है कि इनसान ख्वाब में खामियाँ नहीं छोड़ता और अगर छूट जाए तो' एडिट'करने का ऑपशन भी रखता है। अच्छा यह बता कि मैं जब मर्दों के खिलाफ विद्रोह कर रही हूँ तो तेरे खिलाफ भी हुआ ना, तू क्या सोचता है मेरे बारे में?' कहते हुए मीरा ने एक लंबी साँस ली।
'मैं तो मर्द हूँ ही नहीं।'
'तो तू क्या नामर्द है?'
'पत्ता नहीं! कभी चैक नहीं किया। हाँ, तेरे साथ रहने से कुछ गड़बड़ ज़रूर हो गई.'
'मर्दानगी में लोचा हो गया क्या?'
'नहीं रे, मैं धीरे-धीरे औरत होता जा रहा हूँ।'
'अपने' पुरुष'को मारकर स्त्री होने की प्रक्रिया ही एक पुरुष की इनसान बनने की प्रक्रिया हैं।'
'चलो, मैं पशु से इनसान तो हो रहा हूँ।'
'अब बड़ा संकट आने वाला है यार। इम्तिहान की घड़ियाँ नजदीक आ गई हैं। शादी तय। अपुन की मनाही और पैसा बंद।'
'मुक्ति की असली सीढ़ी तो अभी शुरू हुई है। आर्थिक रूप से अपने पैरों पर खड़ा होना, मुक्ति के लिए ज़रूरी होता है और वह... क्या नाम था उसका... तू रोज-रोज बोलती है ना... अरे... हाँ कार्ल माकस ... उसने क्या कहा था।'
'बंद कर मार्क्स के बच्चे। हॉस्टल बिल की सोच।'
'कितना लगता है? दो हजार ही लगता है ना, ले जाना मेरे से।'
'अबे बिड़ला के मुनीम, मैं आजादी की लड़ाई लड़ रही हूँ। तू दो हजार देकर फिर से गुलाम बनाना चाहता है।'
'मैं तो तेरा दोस्त हूँ ना, मेरे से लेने में क्या हर्ज, जब कमाने लगो तो चुका देना।'
'वह तो ठीक है लेकिन संसार के सारे मर्द एक जैसे होते हैं गर पूँजी का मामला हो तो सारे मर्दों के साथ औरतें भी वैसी ही होती हैं।'
मीरा ने जयपुर आकर अपनी पढ़ाई के साथ साहित्य और अन्य वैचारिक किताबों को भी पढ़ना शुरू कर दिया। दरअसल, उसे अपने शिक्षक बासु से इस तरह की किताबों की प्रेरणा मिली। बहुत ज़्यादा तो नहीं लेकिन काम भर की किताबें पढ़ डाली थी। इन किताबों से अपने बदलते विचारों को एक व्यवस्थित रूपरेखा बनाने और उसको परिमार्जित करने में सहूलियत हुई. इसी सिलसिले में वह जो भी पढ़ती उसकी चर्चा रोहित से ज़रूर करती। यूँ रोहित को कुछ लेखकों और विचारकों के नाम याद हो गए. कई बार तो ऐसा होता कि वह कोई बात कहता और मीरा हँसती, 'तेरी बात, फुको से टकरा गई. उसने भी यही बात कही है, थोड़ी-सी भाषा का बदलाव ज़रूर हुआ है।'
'फुको कौन था? मैंने तो उसका नाम भी नहीं सुना। मेरी बात उससे टकरा गई इसमें मेरी क्या गलती है।' रोहित आश्चर्य प्रकट करता।
और ऐसे ही फुको, ग्राम्शी सहित मार्क्स अंबेडकर का नाम भी रोहित को पता हो गया था। उसने इनकी कोई किताब नहीं पढ़ी फिर भी वह मानता था कि इन लोगों ने बात तो ठीक ही कही है। मीरा की कॉलेज जीवन में कोई विशेष लगाव नहीं था। वह क्लास में जाती और अपनी मस्ती में कुछ किताबें पढ़ती रहती और इसी वजह से कॉलेज में उसका कोई दोस्त नहीं बन पाया। सब उसे गँवई लड़की समझते थे। कितना विरोधाभास है कि बिंदास रहने और मॉडर्न होने के बावजूद शहर वाले गाँव की समझते थे और गाँव वाले शहर की। उसने खुद कभी इस बारे में कुछ तय नहीं किया। क्लास में अपनी आदतों के मुताबिक स्टूडेंटस के ग्रुप थे लेकिन मीरा किसी में भी नहीं थी। उसकी आदतें तो किसी से मेल ही नहीं खाती। अपनी रूममेट निकिता से भी मीरा का अजीब-सा रिश्ता था। दोनों बहुत प्यारी दोस्त थीं और उतनी ही प्यारी दुश्मन। इन दोनों की वजह भी क्या थी, मालूम नहीं। कई बार तो दोनों एक ही बैड पर सोती और दूसरा बैड कमरे से बाहर निकाल देती। दो-चार दिन का वक्त गुजरता की बेवजह ही बाहर रखा हुआ बैड अंदर आ जाता और कमरे की तमाम चीजों का बँटवारा हो जाता। सीमांकन भी होता। कमरा मापा जाता और फिर ऐन बीच में चॉक से सीमांकन हो जाता। कोई भी एक-दूसरे की सीमा को नहीं लाँघती। कमरे को भी मालूम नहीं चलता की कब बीच की दीवार गिरा दी गई और बैड को आराम फरमाने के लिए बाहर पहुँचा दिया गया। ये सिलसिला यूँ चलता रहा। दोनों ही आलसी थीं, सो कमरे की सफाई के बारे में इतना ही कहा जा सकता है कि उन्होंने झाड़ू को दुश्मन मान रखा था। इन सब के बावजूद वे एक-दूजे के जीवन के प्रति कोई भी भाव नहीं रखतीं थीं। रूम से बाहर मिलती तो ऐसा लगता कि आपस में जान-पहचान मात्र है। इसलिए मीरा की कहानी में निकिता कोई जगह नहीं बना पाई. न कभी आपके इस लेखक से शिकायत की कि मीरा मेरी रूममेट है तो मुझे भी कहानी में रखो।
राजपूतों और जाटों के बीच दंगल तो मचना ही था, नरेश ने ठाकुर बन्नेसिंह को टका-सा जवाब जो दे दिया था। होली के रंग की बजाय गाँव अब रंजिश के रंग में रँग गया था। दोनों तरफ तैयारियाँ होने लगी। जोधपुर, बीकानेर से लेकर जयपुर तक के बन्नेसिंह के रिश्तेदारों के रिश्तेदारों के रिश्तेदार तक आ गए थे। ठाकुर की इज्जत का सवाल था। राजपूतों की ड्योढ़ी में शराब के प्यालों का दौर चल रहा था। जंग लगी तलवारों को धार दी जा रही थी और इन सब के लिए बन्नेसिंह ने चार बीघा ओर बेच दिया था। एक तरफ ईंटों के चूल्हे पर बकरा जवान हो रहा था। बन्नेसिंह भी सज-धज के तैयार हो गया था, जैसे कि रण में शहादत को जाते हैं। बाकी सारा गाँव सहमा हुआ था। लोग घरों में दो-चार दिन का खाना एक साथ बनाकर दुबके हुए थे। अस्सी बरस का ठाकुर कुशल सिंह राजपूतों की वीरता के किस्से सुना रहा था।
इधर भी ऐसा ही हाल था। हालाँकि जाटों के अखाड़े में गाँव के बाहर से कोई नहीं आया था लेकिन गिनती करने पर गाँव के ही कुल एक सौ बीस आदमी हो रहे थे। हालाँकि ठाकुर बन्नेसिंह से निपटना एक चुनौती थी लेकिन पहले अंदरवियर से भी निपटना था।
'चौधरी जात में रेहसी या अपण रहेगा। दोन्यूँ साथ नहीं रहेगा।' नरेश जाटों के पूरे जमावड़े को सम्बोधित कर रहा था।
'भई, दोनों ही रह जावो।' गिरधारी ने समझाने का यत्न किया।
'ना जी. आज फैसलो करणों ही पड़ेगा।' हठ था नरेश का भी।
'पहले ठाकुर बड़ो दुसमण है, चौधरी नै बाद में सुलटा देंगा।' साँवरमल ने कहा।
'आ बात ठीक लागी मनै भी।' गिरधारी बीच-बचाव करना चाहता था।
'तनै तो सारी बात ठीक ही लागै हैं। डूँगरी दादी के चिपककर बैठो हो न।' नरेश ने ताना मारा।
इता सुनते ही गिरधारी को रीस आ गई और वह उठकर जमावड़े से अलग चला गया। भीड़ में लोग अपनी बगल वाले से गुसर-फुसर करने लगे। चाँदनी रात में हुक्कों से निकलने वाले धुआँ लोगों के सर पर बादल की तरह मँडरा रहा था। ऐन बीच में आग जल रही थी और उसके आसपास कुछ पावरफुल चौधरी बैठे थे। धीरे-धीरे सारा मजमा छोटे-छोटे गुटों में बदल गया और इस गंभीर सवाल पर चर्चा होने लगी कि पहले चौधरी को निपटाया जाए कि ठाकुर को। कोई चौधरी को पहले निपटाने के पक्ष में था तो कोई ठाकुर को। हर किसी के अपने-अपने तर्क थे लेकिन इस पर आम राय थी कि दोनों को निपटाना है। हुक्कों में लगातार तंबाकू भरी जा रही थी। रात के करीब दो बज गए थे लेकिन कोई एक राय नहीं बन पाई. असल में इस समाज के लोगों में कभी एक राय बनती ही नहीं है, सब अपनी-अपनी पर डटे रहते हैं। फतवा ही अंतिम निष्कर्ष तक पहुँचाता है। करीब आठ चौधरियों में से कोई भी खड़ा होकर फतवा जारी कर देता है, तब किसी की बोलने की हिम्मत नहीं होती। सब स्वीकार कर लेते हैं और अपने तर्कों को जिंदा ही दफना देते हैं। आज भी इंतजार किया जा रहा था कि कब इन चौधरियों में से कोई मुँह खोले और अंतिम फैसला हो पर मुँह किसी का खुल ही नहीं रहा था। हर किसी का चौधरी कानाराम से अपना रिश्ता था, वे पहले बोलकर दुश्मनी मोल लेना नहीं चाह रहे थे। नरेश ने अपने घर से चाय, चिणी और दूध भी मँगवा लिया था। चाय का दौर भी शुरू हो गया। नरेश ज़्यादा उत्साह इसलिए दिखा रहा था क्योंकि वह अपना भविष्य चौधरी बनने में देख रहा था। यह मौका था। वह चूकना नहीं चाहता था।
हालाँकि बात अंदरवियर तक भी पहुँच गई थी। वह लगातार दो दिनों से पी रहा है, किसी से भी बात नहीं करता। चौधराईन की तबीयत तो मीरा से शादी वाली बात करते ही नासाज हो गई थी। खाट ही पकड़ ली। गिरधारी सेवा में लगा रहता है। आज रात की सभा में चौधराईन ने ही भेजा था कि कैसे भी करके चौधरी को जाति में रखो लेकिन वहाँ से भी नाउम्मीदी ही हाथ लगी। गिरधारी निराश होकर जब अंदरवियर की हवेली की तरफ आ रहा था तो उसका मन किया कि कुआँ-फाँसी कर ले। एक बार तो इरादा भी बना लिया था लेकिन फिर सोचा कि चौधराईन को मुश्किल में अकेले छोड़ना बेवफाई है। सो, उस समय के लिए इरादा तज दिया। संकोच तो यह था उसे कि चौधराईन कहेगी कि गिरधार तेरे पर ही बिसवास हो, इब तो नैया डूबगी। वह गर्दन झुकाए अंदरवियर की हवेली में दाखिल हुआ और फिर मुश्किल से, दिल पर हाथ रखकर चौधराईन की कोटड़ी में प्रवेश किया।
'ओ...हो। दो दिण में ई चौधराइन की सुरत ही बदलगी। वह रौनक तो गुजरे जमाने की बात हुगी इब।' गिरधारी यह सोच ही रहा था कि उसके कानों में चौधराईन की दर्द भरी दहाड़ पड़ी।
'गिरधारी, ऊँट पर जीन मांड, जैपर चालस्यां।'
गिरधारी अचानक जयपुर जाने की योजना के बारे में ज़्यादा तो नहीं समझ पाया लेकिन उसने यह अंदाज ज़रूर लगा लिया था कि मीरा से मिलने जाना है और अब या तो ऊँट टीला पार या फिर घुटने टेक देगा। चौधराईन का हुक्म भला कभी गिरधारी ने टाला है। तुरंत ऊँट पर जीन मांडकर चलने को तैयार कर दिया। चौधराईन ने अंदरवियर को कुछ भी कहने की ज़रूरत नहीं समझी और जाकर ऊँट पर सवार हो गई. इशारे के मुताबिक गिरधारी रस्सी पकड़कर आगे रवाना हो गया। रात के इस पहर अमूमन गाँव में खामोशी होती है लेकिन ठाकुर और जाटों की जंग की तैयारी के कारण लोग सोने की बजाय घरों में दुबके पड़े थे। गिरधारी के मन में एक शंका थी, सोच रहा था कि गाँव की बसावट से बाहर निकलकर पूछूँगा लेकिन इतनी सब्र नहीं कर पाया और पूछ ही डाला, 'चौधराईन जैपर को रस्तो जानो हो कै?'
'नहीं जाणूँ। लोगा सूँ पूछता-पूछता ही पूग जावांगा।' चौधराईन को पूरा यकीन था।
जब चौधराईन के कह दिया कि लोगों को रास्ता पूछ कर जयपुर पहुँच जाएँगे तो गिरधारी को मानना ही था। लेकिन जब चौधराईन ने जवाब दिया तब वे नरेश के घर के बगल से ही गुजर रहे थे। वह चाय के लिए दूध लेने के लिए आया था और चौधराईन की आवाज भले कोई न पहचाने। उसके घर के बगल से ही रस्ता जाता है, गिरधारी और चौधराईन के बीच जब यह वार्तालाप हो रहा था तब नरेश पतीले से दूध का कटारा भरकर बोतल में डाल रहा था। चौधराईन की आवाज सुनते ही उसके हाथ से कटोरा छूटा... खननन से।
'छुरेरे।' नरेश की माँ बिल्ली के भरोसे तुरंत खाट से उतरी।
'मैं हूँ।' नरेश ने दबी आवाज में कहा।
यह सुनकर उसकी माँ तो चुप हो गई और वह दबे पाँव दौड़कर छत पर चढ़ा। उसे चाँदनी रात में जाता हुआ एक ऊँट दिखा जिस पर शायद कोई औरत बैठी है और नीचे एक मर्द रस्सी पकड़े चल रहा है। यह तीनों देखते ही उसने सही अंदाजा लगा लिया था क्योंकि गाँव में चौधराईन के अलावा कोई औरत ऊँट पर चढ़ती ही नहीं है और चौधराईन के साथ चौधरी तो नीचे रस्सी पकड़कर चलता नहीं है। जाहिर तो पर गिरधारी होगा, इतना सोचते ही नरेश के कदमों के पंख लग गए और वह कब जाटों के उस मीटिंग में आ गया जहाँ पर आज कुछ फैसले होने थे।
'इब बताओ, डूँगरी दादी ऊँट पर चढ़ी गाँव सूँ बाहर गई है। साथ में गिरधारी भी है।' नरेश ने पूरा दम लगाकर चिल्लाते हुए खबर उछाली।
इतनी धमाकेदार खबर सुनते ही सबके कान खिलखिलाकर हँसने लगे। अलग-अलग गुटों में बैठे लोग दौड़कर नरेश के चारों ओर इक्कठे हो गए. अपने चारों ओर जाटों का इतना बड़ा झुंड अपनी ओर ताकते हुए देखकर नरेश को एक बारकी चौधरी बनने का अहसास हो गया। यह अहसास होते ही उसे लगा की वह जमीन से पाँच इंच उठ गया है और सीना भी सरक रहा है। छोटी-सी मूँछें भी अचानक बढ़ती हुई लगी। धीरे-धीरे सारा चौधरीपन उसके जिस्म में उतरने लगा और वह हर अंग में सरसराहट महसूस करने लगा। बोलने से ठीक पहले उसे लगा कि उसकी आवाज बहुत भारी हो गई है, इसलिए जोर लगाना पड़ा, 'इत्ती रात को डूँगरी दादी इक पराए मर्द के साथ जा रही है। समाज की नाक चौधरी पूरी कोटेगो।'
'इब कै फैसलो करणों है पंचो।' भीड़ ने एक स्वर में प्रमुख चौधरियों की ओर मुखातिब होते हुए कहा।
उन सात चौधरियों ने चुपचाप एक-दूसरे की ओर देखा। कोई भी पहले बोलने की हिम्मत नहीं कर पा रहा था। आँखों के इशारों से अलग जाकर राय मश्विरा करने को कहा किसी एक चौधरी ने। सातों तुरंत उस भीड़ से तकरीबन अस्सी फिट दूर जा चुके थे। अब भीड़ को तसल्ली हो गई थी कि जब ये गुप्त मंत्रणा करने गए हैं तो कुछ फैसला ज़रूर होगा और यह तो यकीन था ही कि कुछ भी हो, फैसला जाति के हित में होगा। काफी देर तक इंतजार करने के बाद मंत्रणा का दौर समाप्त हुआ और सातों चौधरी भीड़ की तरफ आए और एक चौधरी ने कहा, 'देखो जात भाइयो, बात या सै कि चौधरी ने जाति सूँ बाहर करणों ही पड़सी. बन्ने ठाकुर नै भी सुलझाना पड़ेगा। बारी-बारी सूँ सारे काम निपटाने हैं। इब पहलो काम है कि चौधराईन की खबर करणी कि वह रात को कहाँ गई है। पंचों ने तय किया है कि सारे भाई चौधराईन के पीछे चलेंगे और देखेंगे कि वह कहाँ गई है।'
'पंचों को हुक्म सिर-माथै।' सारी भीड़ ने एक स्वर में कहा।
हुक्म पंचों का था और बाकी तैयारियाँ नरेश को करनी थी क्योंकि भविष्य में वह भी पंच बनने वाला है और फिर हुक्म भी जारी करेगा। उस समय शायद कोई ओर उस जैसा जवान तैयारियों में लगा होगा, यही चक्र चलेगा जब तक जाति रहेगी। पूरी रात न सोने के कारण भी भीड़ के चेहरे पर किसी प्रकार की थकान का भाव नहीं था, वे पूरी थकान जहन में छुपाकर जाति को बचाने के लिए तैयार थे। गाँव में कुल पाँच ट्रेक्टर थे और उनमें से एक अंदरवियर के पास था। इसलिए तीन ट्रेक्टर के पीछे ट्रोली जोड़ी गई, लोग उनमें लाठियाँ भी भर ली और फिर सवार होकर चले। लोगों को मालून नहीं था कि चौधराईन गई किस तरफ है। उसे गाँव के बाहर निकलती हुई को नरेश ने ज़रूर देखा था। अब काफिले का नेतृत्व भी वही कर रहा है। आगे वाली ट्रोली में नरेश जोर से जय बोल रहा था, 'बोलिए बजरंग बली की।'
'जय हो।' एक स्वर में सारे लोग बोले।
चौधराईन ने गाँव से निकलते ही गिरधारी को ऊँट रोकने का आदेश दिया। उसने आदेश की तुरंत पालना की। दूसरा आदेश आया कि वह भी ऊँट पर चौधराईन के साथ बैठ जाए क्योंकि थक गया था और सफर तो इतना लंबा था कि दोनों को किलोमीटरों का भी कोई हिसाब मालूम नहीं था। गिरधारी को थोड़ा-सा संकोच हुआ।
'किण दिक्कत नहीं है। मैं तो पैदल ही चलूँ हूँ।'
'अरे बावले, इति दूर पैदल चलेगा तो जाण निकल जाएगी। आ, बैठ जा।' चौधराईन ने बड़े प्यार से कहा।
गिरधारी के लिए चौधराईन का यह आदेश टालना मुमकिन नहीं था। उसने ऊँट को बिठाया और चौधराईन से आगे बैठ गया। यूँ तो गिरधारी कई बार ऊँट की सवारी की है लेकिन आज कुछ अलग ही अनुभव हो रहा था। उसे लग रहा था कि वह ऊँट पर नहीं, हवाई जहाज में उड़ रहा है। चूँकि जयपुर का रास्ता नहीं जाने थे और सड़क पर ऊँट धीरे भी चल रहा था। गिरधारी को सीकर तक का रास्ता मालूम था और सड़क पर किसी के देखने का डर भी उसे सता रहा था। सो, बीकानेर से जयपुर जाने वाली मुख्य सड़क को छोड़कर उन्होंने कच्चे रास्ते ही जाना उचित समझा। कच्चे रास्ते भी सीकर तक तीन जाते थे। उन्होंने सबसे सीधा रास्ता चुना जिस पर वाहनों का जाना संभव ही नहीं है। पीछे से आ रही भीड़ वैसे तो उनसे दो घंटे की देरी से चली थी लेकिन ट्रोली से चलने के कारण उन्हें पकड़ सकती थी। एकदम गुस्साई भीड़ उस निर्जन में संभव है कि दोनों को मार देती, बंदी बना लेती या फिर अंदरवियर के खिलाफ गवाही दिलवा लेती लेकिन ऐसा नहीं हुआ क्योंकि उन्होंने सीकर जाने का रास्ता तो कच्चा चुना लेकिन दूसरा चुन लिया। चौधराईन और गिरधारी को यह जानकारी तो नहीं थी कि कोई उनका पीछा कर रहा है लेकिन उनके मन में एक डर ज़रूर था। इसलिए चुपचाप ही सवारी कर रहे थे। कभी कुछ इशारों से बातें हो जाती तो कभी फुसफुसाहट से काम निकाला जाता।
उधर ठाकुर की ड्योढ़ी में वैसे ही महफिल जमी हुई थी। जंग की लगभग तैयारियाँ पूरी हो चुकी थी। यह तय करना था कि जंग की शुरुआत कैसे, कहाँ और कब की जाए. इन तीन सवालों पर कोई एक राय नहीं बन रही थी। शेखावतों का कहना था कि जाटों को घर में घुसकर मारेंगे। राठौड़ों ने इसका विरोध किया और कहा कि हम कायर नहीं हैं, दुश्मन को ललकारेंगे और जंग मैदान में होगी। इन दोनों के अलावा कुछ मड़तिया राजपूतों का मानना था कि जैसे मौका मिले, वैसे ही मारो। इसी सवाल पर रात भर बहस चल रही थी। कई बार तो वे आपस में ही उलझ जाते और तलवारें तन जाती। फिर कोई उन्हें याद दिलाता कि आज जंग राजपूतों की आपसी नहीं, जाटों से है। कुछ देर मामला ठंडा रहता और फिर वैसे ही मूँछें फरकाई जातीं। कई राठौड़ ज़्यादा पीने की वजह से लुढ़क गए थे। किसी के मुँह में कुत्ता मूत रहा था तो कोई गोबर में लौट रहा था। हर कोई अपना राग अलाप रहा था। बीच में कुछ शेखावत और राठौड़ों के बीच रिश्तों की बात पक्की हो रही थी। हालाँकि जो रिश्तों की बात कर रहे थे वे बिल्कुल नौजवान थे और उनके औलाद भी नहीं थी लेकिन औलाद होने से पहले ही रिश्ता तय कर रहे थे। कुछ ने तो एक-दूसरे को समधी कहना भी शुरू कर दिया था। बकरा पक चुका था। होश में जो थे, उन्होंने तो बोटियाँ खा मारी, कुछ को झोल हिस्से में आया और कुछ मदहोश राठौड़ हाँडी चाट रहे थे। लगभग चार बजे के आसपास सारा मजमा लुढ़क चुका था।
सूरज निकलने से उजास हो गया था। सारे राजपूत रेत पर सोए हुए थे। आसपास कहीं-कहीं हड्डियाँ बिखरी हुई थी जिनको खाने के लिए कुत्तों का एक पूरा दल तैनात था। कुछ कौवे भी मँडरा रहे थे कि उन्हें भी कुछ नसीब हो जाए. किसी का पाजामा गोबर में लथपथ हो गया था तो किसी की धोती अधिकांश खुल चुकी थी। बस, अबकी बार पसवाड़ा पलटा कि नरुका और शेखावत, सब नंगे। पास से गुजरती पणिहारी घूँघट उठाकर यह दृश्य देख रही थी। तभी किसी ने यह खबर ठाकुरों की हवेली में यह खबर पहुँचाई कि ठाकुर जंग में जाने की बजाय ड्योढ़ी में लौट रहे हैं। मूँछें तो सबकी रेत और गोबर से रँगी हुई हैं। यह सुनते ही बन्नेसिंह की ठकुराईन आई और उसने ठाकुर को झकझोरा। ठाकुर मुश्किल से होश में आ पाया। आते उसने जो नजारा देखा तो चुपचाप उठकर हवेली की अंदर की तरफ भागा। धीरे-धीरे सब ठाकुर उठकर अंदर गए और नहाकर फिर उसी रंगत में आ गए. बोतलें आ गई, महफिल सज गई और वही बहस शुरू। जंग कहाँ, कब और कैसे की जाए. कुछ होश और बेहोशी के आलम में भी लोग अपनी-अपनी जिद्द पर डटे हुए थे। सारे लोग तीन धड़ों में बँट गए. एक में शेखावत थे जो उसी गाँव के थे और उनमें कुछ आसपास के गाँवों के भी थे। दूसरे गुट में राठौड़ थे जो बीकानेर और जोधपुर से आए हुए थे और तीसरे में मेड़ता के मेड़तिया राजपूत थे। नरुका निष्पक्ष थे। उनका कहना था कि सारे लोग जो भी तय करेंगे, वे उसको मानने को तैयार हैं।
बन्नेसिंह ने हस्तक्षेप करते हुए कहा, 'यह राड़ शेखावतों की है। घरों में घुसकर मारेंगे।'
'खाली शेखावतों की नीं है राड़ इब। सारी राजपूत जाति की राड़ है। मैदान में बुलाकर लड़ेंगे।' राठौड़ों में से रायसिंघ बोला।
फिर वैसी ही तकरार हो गई. कोई भी राय न बनने के कारण बन्नेसिंह के रिश्तेदारों के रिश्तेदार अपने घर लौट चुके थे। अंदरवियर घर में अकेला शराब पी रहा था। चौधराईन और गिरधारी रास्ता भटक गए. जयपुर पहुँचे ही नहीं। गाँव वालों का कहना है कि वे मीरा से मिलने नहीं, मटरगश्ती करने गए थे। जाटों का काफिला ज़रूर जयपुर पहुँच गया था और जब वे मीरा के हॉस्टल में गए तो गार्ड ने चाय वाले को पूछने को कहा। सारी भीड़ ने रोहित को घेर लिया। उसने बताया, 'कल रात को मीरा जयपुर छोड़कर चली गई. यहाँ आई थी। उसे फ्रांस सरकार ने फैलोशिप दी है। वह जाती हुई, वही पुराना गाना गा रही थी।'
साँझी सजना प्रीत है
तू ना थाणेदार।
धोरां माथे साबूत हैं
मिलणे के निशाण।
ना तू समझयो मोय को
ना मैं समझी तोय।
न तन द्यूँ, न बदन द्यूँ
मर्जी अपण ऐथी होय।
साँझी सजना प्रीत है
तू ना थाणेदार।
आपको कहीं कोई मीरा मिले तो इस कथाकार का 'सलाम' कहना।