दूधिया विचारों से उजला हुआ- 'काँच-सा मन') / सुरंगमा यादव

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यद्यपि हाइकु 17 वर्णों की सबसे छोटी कविता है लेकिन जितनी छोटी रचने में उतनी ही कठिन। आज हाइकु लिखने वालों का एक बड़ा वर्ग तैयार हो गया है। निरंतर प्रचुर मात्रा में हाइकु लिखे जा रहे हैं, एकल हाइकु संग्रह और संपादित व अनूदित हाइकु संग्रह भी प्रकाशित हो रहे हैं। भारतीय साहित्य की भूमि पर हाइकु ख़ूब फल-फूल रहा है। हाइकु लेखन से जुड़े कतिपय लोग ऐसे भी हैं जो इसे बहुत सरल विधा मानकर इसकी ओर आकर्षित हुए हैं, इसीलिए वे कहीं भी, कभी भी हाइकु बना लेते हैं। हाइकु बनाना और हाइकु रचना दोनों में अंतर हैं। हाइकु बनाने में पूरा ध्यान हाइकु के ढाँचे पर रहता है जबकि हाइकु रचा अंतःप्रेरणा से जाता है। हाइकु रचने के लिए भाषा पर पकड़ तथा भावों में गहनता व कथ्य में नवीनता आवश्यक है। आजकल हाइकु के विषय को लेकर भी चर्चा होती है। कतिपय विद्वानों का मानना है कि व्यक्तिगत सुख-दुःखानुभूति, प्रेम, पीड़ा-वेदना इत्यादि का चित्रण गुजरे वक़्त की बात हो चली है परन्तु क्या मानव मन इन अनुभूतियों से परे हो सकता है? ये भाव तो जीवन का हिस्सा हैं। ये जीवन की गति को प्रभावित करते हैं। जीवन में गहरे-मद्धिम रंग इन्हीं से आते हैं। कविता की उत्पत्ति 'आह' से हुई है, तो फिर हाइकु इन भावों से अछूता कैसे रह सकता है।

भावना सक्सेना का सद्यः प्रकाशित हाइकु संग्रह 'काँच-सा मन' पढ़ने का सुअवसर मिला। ये आपका पहला हाइकु संग्रह है। काँच-सा मन में विविध भावों व विषयों के सुंदर हाइकु संकलित हैं। ये 'हरियाणा साहित्य अकादमी' के सौजन्य से प्रकाशित है तथा भूमिका के रूप में श्री रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु' जी ने अपना आशीष प्रदान किया है। शीर्षक भी बहुत आकर्षक है। वास्तव में मन काँच-सा ही तो होता है, जरा-सी ठेस लगते ही टूट जाता है। विशेष रूप से तब जब कोई अपना परम प्रिय ठेस लगाता है, तो इसे टूटने से बचाना कठिन हो जाता है। परंतु मन टूटकर भी अपने सौंदर्य को बिखरने नहीं देता, यही तो उसकी विशेषता है। मन जितना नाज़ुक होता है उतना ही भोला भी, सच्चे प्यार के लिए बिन मोल बिक जाता है। निर्मल विचार मन को उजला बनाते हैं-

काँच का मन / दूधिया विचारों से / उजला हुआ।

'काँच-सा मन' में भावना जी ने अपनी अनुभूतियों को 13 शीर्षकों में पिरोया है। आराधन, धर्म, प्रकृति, जीवन, शक्तिस्वरूपा, प्रेरणा, रिश्ते, दुआएँ, हिन्दी मेरी शान, दीप दिवाली, फागुन, गाँव और यादें।

संग्रह के आरंभ में आपने मन की संपूर्ण आस्था व विश्वास के साथ ईश्वर का स्मरण किया है-

अनादि आदि / तुमको है अर्पण / श्रद्धा सुमन।

माँज के मन / सर्वस्व समर्पण / पूजा थाली में।

भावना जी मन को ईश्वर के श्री चरणों में समर्पित करके धर्म का अवलम्ब लेकर जीवन पथ पर आगे बढ़ती हैं। धर्म वही है जो मानव-मानव के बीच प्रेम का सेतू बन जाये। मानव मात्र के हृदय में एक-दूसरे के प्रति सद्भाव जगाये। धर्म का ध्येय है जोड़ना, जो यह नहीं कर सकता, उसे धर्म भी नहीं कहा जा सकता। कतिपय जनों की संकीर्ण मानसिकता ने धर्म पर प्रश्न चिन्ह-सा लगा दिया है-

धर्म सम्बल / मानवता का साथी / क्यूँ है प्रश्नों में?

धर्म तो वह है जो आपसी प्रेम, मैत्री व शांति बढ़ाये-

खिले संसार / बढ़े आपसी प्यार / ध्येय धर्म का।

सर्वोपरि है / मानवता का धर्म / गुट न बाँटो।

एक कामना- / करता हर धर्म / हो मैत्री शांति।

धर्म के सेतु / पहुँचे मीलों दूर / रहे जोड़ते।

आज जब धर्म के नाम पर अराजकता फैलायी जा रही है, भावना जी के धर्म विषयक हाइकु सद्भाव व सदमार्ग पर चलते हुए मानव धर्म की स्थापना पर बल देते हैं, जो आज की सबसे बड़ी आवश्यकता है।

ईश्वर की ही अनुकृति है प्रकृति। प्रकृति के कण-कण में ईश्वर का ही भाव-विलास है। प्रकृति के विविध उपादान एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं। दिन-रात, साँझ-सवेरा, नदिया-सागर, धरती-आकाश, चाँद-सितारे, धूप-छाँव, वन-उपवन, फूल-काँटे आदि प्रकृति माता के ही विविध रूप हैं। भावना सक्सेना जी के हाइकु प्रकृति के प्रति उनके लगाव को प्रकट करते हैं। आज मानव प्रकृति से दूर होता जा रहा है। महानगरीय संस्कृति में प्रकृति का सान्निध्य पाना भी कठिन है। छोटे बच्चे लैपटॉप, मोबाइल इत्यादि पर पंछियों, फूलों, तितलियों और बारिश को देखकर खुश हो लेते हैं। फूलों पर बैठी तितलियों को दौड़कर पकड़ना, बारिश में भीगना, कागज की नाव चलाना आदि बचपन की अठखेलियाँ विलुप्त-सी होती जा रही हैं। प्रकृति के प्रति उदासीनता के नाना दुष्परिणाम देखे जा सकते हैं। भावना जी के हाइकु प्रकृति के प्रति संवेदना जगाने की कोशिश करते हैं। आपने प्रकृति का आलंबन-उद्दीपन तथा मानवीकरण रूप में सुंदर चित्रण किया है। दिन का बंजारे की तरह भटकना, लहरों का गीत गाना, पंछियों के उड़ जाने पर तरु का उदास होना, लहर का भीगकर लजाना, अंधेरे को ठेलकर धूप का खिलना, सर्द हवाओं के कारण सूरज का गुम हो जाना आदि प्रयोगों से आपके हाइकु में प्रकृति का रूप जीवंत हो उठा है-

थका बेचारा / साँझ को टोहे रस्ते / दिन-बंजारा।

सागर तट / लहरें गाएँ गीत / सुनती प्रीत।

उदास तरु / था पाखियों का डेरा / आज अकेला।

चाँद ने छुआ / लहर उठ आई / भीगी लजाई।

ठेल अंधेरे / सरक आई फिर / धूप सलोनी।

सूना-सा मन / पतझर के दिन / भीगी अँखियाँ।

पात पुराने / कहें एक कहानी / बीती जवानी।

उतार देती / किरण सुनहरी / स्याह चादर।

निशा उतारे / चूनर तारों भरी / आये प्रकाश।

कवयित्री प्रकृति और पर्यावरण के प्रति मानव के असंतुलित व्यवहार से क्षुब्ध हो उठती हैं। मानव यदि अब भी नहीं चेता तो गंभीर परिणाम भुगतने होंगे। वे सावधान करती हुई कहती हैं-

उगले आग / रोष में है प्रकृति / मानव जाग।

यह क्या किया? / सूखे नदी जंगल / दहकी धरा।

रोपे न वृक्ष / बिगड़ा संतुलन / घुटा है दम।

जल क्यों व्यर्थ / हर बूँद लिए है / अपना अर्थ।

प्रणदायिनी / बन गयी घातक / घुला जहर।

बेहाल धरा / सह कृत्य कुकृत्य / दग्ध हृदय।

'जीवन' शीर्षक के अंतर्गत आपने सुख-दुःख, इच्छाओं-आकांक्षाओं का प्रभावी चित्रण किया है। आँखों का स्वभाव है स्वप्न देखना, मन इच्छाओं का उद्गम स्थल है। ये और बात है कि कुछ स्वप्न पूरे हो जाते हैं, कुछ अधूरे रह जाते हैं। अधूरे स्वप्नों की अलग कहानी होती है। कहीं परंपराएँ, कहीं परिस्थितियाँ, कहीं संसाधन आड़े आ जाते हैं। परंपरा और परिस्थितियों के विपरीत जाने का साहस जब मन नहीं कर पाता तो नियति मानकर सब कुछ स्वीकार कर लेता है-

तिक्त सुहानी / जीवन की ऋतुएँ / लिखें कहानी।

ढोते हैं काँधे / कितना निरर्थक / नया-पुराना।

उलझे रहे / जीवन की रस्मों में / जी ही न पाये।

जकड़े रहे / कर्तव्य का पिंजरा / मन बौराए।

सिलवटें हैं / दामन में वक़्त के / ग़म की कई।

जीवन राह / समझौते अनंत / है अग्निपथ।

वक्त चाहे जैसा भी हो, आशा कभी नहीं छोड़नी चाहिए। भावना जी भी आशावादी हैं, तभी तो वे कहती हैं-

नया समय / लिखो नयी कहानी / नए रूप में।

पथ की बाधा / मरते दम तक / रोक न पाएँ।

नयी भोर की / किरन सुनहरी / भरे विश्वास।

तम अस्थायी कल घुल जायेगा / यूँ न हारो।

आज मानव दिखावे में अधिक विश्वास करने लगा है। अधरों पर खोखली मुसकान चिपकाए इंसान धैर्य खोता जा रहा है। छोटी-छोटी बातें उसके लिए असहनीय हो जाती हैं-

शब्द नश्तर / गड़ जाते हैं पैने / बींधते मन।

रात न सोई / फिर भी मुसकाए / कितने दिन।

काफिये मिले / संगतें मिलीं कई / दिल न कहीं।

भावना जी रिश्तों के प्रति बहुत संवेदनशील हैं। आपसी प्यार व विश्वास ही सम्बंधों को जीवंत बनाये रखता है। मन में दुराग्रह या पूर्वाग्रह लेकर रिश्तों को चलाना कठिन है। लेकिन यह भी सत्य है कि रिश्ते एक तरफा प्रयास से नहीं चलते। जहाँ रिश्तों पर स्वार्थ हावी हो जाता है, वहाँ रिश्तों का दरकना तय है-

सँजोए रिश्ते / काँच-से नाजुक / दरक गये।

गिरहें बाँध / जो चले उम्र भर / उलझे स्वयं।

भावों के रिश्ते / रहते उम्र भर / टूटें स्वार्थ के।

आत्मीय रिश्ते मन को सच्ची ख़ुशी देते हैं। कुछ ऐसे रिश्ते होते हैं जिनका साथ हमेशा ही सुखकर होता है। माँ की ममता तो ईश्वर का सर्वोपरि उपहार है-

माँ की ममता / सजग प्रहरी-सी / सदा खड़ी है।

अम्मा का साया / हुआ जबसे दूर / प्यासा है मन।

तेरे होने से / जीवन में उजाला / खिलती खुशी।

साथ तुम्हारा / भिगोए तन-मन / खिले मौसम।

प्रेमी मन बिछड़ने की कल्पना से ही द्रवित हो जाता है। पुनर्मिलन मिलन यदि दुष्कर हो तो पीड़ा और भी गहरी हो जाती है। व्याकुल मन प्रिय को दुआओं का ताबीज पहना कर आशान्वित होना चाहता है-

बिछड़े अब / फिर कहाँ मिलेंगे / द्रवित मन।

दर्द के गीत / बिछड़े हुए मीत / किस्से घनेरे।

दुआएँ मेरी / संग रहेंगी सदा / हो तुम जहाँ।

हिन्दी मेरी शान, दीप, दिवाली, गाँव शीर्षक के हाइकु भी सुन्दर बन पड़े हैं। 'यादें' मन की अमूल्य निधियाँ होती हैं। मधुर व तिक्त यादें समय-समय पर उभर कर क्षण में मनोदशा परिवर्तित कर देती हैं। कुछ सम्बंध ऐसे होते हैं जो पीड़ादायी होते हुए भी निभाए जाते हैं-

रूह में बसी / यादें कुछ पुरानी / जिंदा कहानी।

दिल के जख्म / अपनों की निशानी / प्रीत निभानी।

स्मृति विहान / दूर फैला वितान / बोझिल मन।

मन की मीत / गठरी यादों भरी / भींच सहेजूँ।

विविध भावों के सुंदर हाइकु 'काँच-सा मन' अपने भीतर सहेजे हुए है। निश्चय ही पाठक वर्ग में यह संग्रह समादृत होगा।

पुस्तक-'काँच-सा मन' , प्रकाशक-अयन प्रकाशन, महरौली, नई दिल्ली, प्रथम संस्करण 2021, मूल्य-220 / -, पृ0 सं0 104

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