दूध का दूध पानी का पानी / जयप्रकाश चौकसे

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दूध का दूध पानी का पानी
प्रकाशन तिथि : 30 नवम्बर 2019


असली घी खाने के चलन के दौर में डालडा का आगमन हुआ। पारंपरिक सोच के कारण डालडा को स्वीकार करना आसान नहीं था। कालांतर में डालडा रोजमर्रा की बातचीत में मुहावरा बन गया। संस्कृति में मिलावट को डालडा संस्कृति कहा जाने लगा। हमारे सोच-विचार और आचरण में इस कदर मिलावट है कि बाद के वर्षों में असली डालडा भी उपलब्ध नहीं रहा। आज पर्यावरण और खाने-पीने की चीजों में मिलावट के कारण रोग फैल रहे हैं। हर क्षेत्र में मिलावट की जा रही है। संगीत क्षेत्र में रीमिक्स का चलन है। फिल्मकार 'संगीत बैंक' से गीत ले रहे हैं और नए संगीतकार व गीतकारों को अवसर नहीं मिल रहे हैं। कम्प्यूटर जनित ध्वनियों के इस्तेमाल के कारण वाद्ययंत्र बजाना कोई सीखना ही नहीं चाहता। कई वाद्य यंत्र अब उपलब्ध नहीं है। दो मिनट में पक जाने वाली वस्तुएं खाने के कारण पाक विधा का लोप हो रहा है।

विगत सदी के छठे दशक में बनी दिलीप कुमार अभिनीत 'फुटपाथ' और राज कपूर अभिनीत 'अनाड़ी' फिल्मों में दवाओं में मिलावट के भयावह परिणामों को प्रस्तुत किया गया था। 'फुटपाथ' का नायक इस बात से अनजान है कि उसकी कंपनी दवाओं में मिलावट कर रही है। सत्य जानते ही वह उसे उजागर करता है। न्यायालय में वह कहता है कि अपनी सांस में उसे हजारों मुर्दों की गंध आती है। यथार्थवादी प्रस्तुतीकरण के कारण जिया सरहदी की 'फुटपाथ' असफल रही। ऋषिकेश मुखर्जी की राज कपूर अभिनीत 'अनाड़ी' में नायक अपने को पालने वाली सहृदय क्रिश्चियन महिला को दवा लाकर देता है। उसकी मृत्यु हो जाती है। दवा बनाने वाली कंपनी के मालिक की इकलौती बेटी से वह प्यार करता है। वह अपने मालिक के खिलाफ गवाही देता है। शंकर-जयकिशन के मधुर संगीत, मोतीलाल, राज कपूर और नूतन के अभिनय तथा फिल्मकार के प्रस्तुतीकरण के कारण फिल्म सफल रही। शैलेंद्र रचित 'जीना इसी का नाम है, मर कर भी किसी को याद आएंगे, किसी के आंसुओं में मुस्कुराएंगे' आज भी लोकप्रिय है। इंद्रजीत ने प्रसिद्ध साहित्यकारों से शैलेंद्र पर लेख लिखवाए। फरीदाबाद के वीके ग्लोबल प्रकाशन संस्था ने शैलेंद्र आदराजंलि को प्रकाशित किया है। यह सराहनीय प्रयास है। शैलेंद्र की फणीश्वरनाथ 'रेणु' की कथा से प्रेरित फिल्म 'तीसरी कसम' कालजई है। 'हीर-रांझा', 'लैला-मजनूं', 'शिरी-फरहाद', 'रोमियो-जूलियट' अमर प्रेम कहानियां हैं। इनके पात्र विरह भोगते हुए मर जाते हैं या मार दिए जाते हैं। 'तीसरी कसम' का गाड़ीवान हीरामन और नौटंकी वाली हीराबाई एक-दूसरे से जुदा होकर अपना काम करते हुए जीवित रहते हैं। मरना आसान है, जीना कठिन है। हमने प्रेम को बहुत आभा मंडित कर दिया है। कठिन परिस्थितियों में जीवित बने रहना और अपना काम करते रहना महत्वपूर्ण है। अपने कार्य से प्रेम करने वालों को कभी विरह मार नहीं पाता। चौथे दशक की एक फिल्म का गीत है 'विरहा ने कलेजा यूं छलनी किया, जैसे जंगल में बांसुरी पड़ी हो'। जंगल में प्रवाहित हवा से बांसुरी बज जाती है। गोयाकि उसे होठों से लगाकर फेफड़े से हवा देना आवश्यक नहीं है। उदय शंकर की फिल्म 'कल्पना' के प्रारंभिक दृश्य में दिखाया गया है कि सारे वाद्य यंत्र बजने लगते हैं। कोई बजाने वाला नहीं है।

खाने-पीने की वस्तुओं को रंगा जाता है। केमिकल रंग हानिकारक हो सकता है। मिलावट करने के लिए बड़ी मेहनत करनी पड़ती है। इससे भी कम परिश्रम में असल माल का व्यापार किया जा सकता है। कुछ छात्र बारीक अक्षरों में नकल करने के लिए परिश्रम करते हैं। उन पर्चियाें को परीक्षा कक्ष में ले जाना भी कठिन होता है। निरीक्षक की निगाह बचाकर नकल की जाती है। एक ऐसे ही छात्र को कहा गया कि नकल के लिए की गई मेहनत से कम परिश्रम में सबक याद किया जा सकता है। उसका जवाब था कि इस तरह की नकल करने में एक थ्रिल है जो सीधे रास्ते से परीक्षा पास करने में नहीं है। इसी तरह व्यवस्थाएं भी बहाने बनाती हैं, झूठ को बड़े परिश्रम से प्रचारित किया जाता है। इससे कम परिश्रम में व्यवस्था चलाई जा सकती है, परंतु उसका थ्रिल कहीं और है। मिलावट करने वालों को भावी पीढ़ियों की भी फिक्र नहीं है। अपनी ही नस्ल को खत्म किया जा रहा है। 'उत्तम प्रदेश' में स्कूली बच्चों के दूध में पानी मिलाया जा रहा है। यह बताना कठिन है कि दूध में पानी मिलाया जा रहा है या पानी में दूध मिलाया जा रहा है। उत्तम प्रदेश के हुक्मरान बला की मासूमियत से यह कह सकते हैं कि भैंस ने ही अधिक पानी पी लिया है। अदालतों में प्रमाण के आधार पर न्याय दिया जाता है। इसे कहते हैं कि 'दूध का दूध और पानी का पानी'। उत्तम प्रदेश के हुक्मरान अदालत के कठघरे में अधिक पानी पी जाने वाली भैंस को प्रस्तुत कर सकते हैं। एक गुमशुदा भैंस पर एक फिल्म बनी थी, 'मिस टनकपुर हाजिर हो'।