दूध / भूमिका द्विवेदी
सोनू की दहाड़ पूरे वातावरण में चीत्कार जैसी गूंज रही थी। रात बहोत गहरा गयी थी, इसलिये भी बच्चे का चिल्लाना मानो दूर-दूर के सन्नाटे को तोड़ रहा था। उसकी माँ लछमी, होगी यही कोई तीस-पैंतीस साल की मरियल-सी औरत, उस नन्हें से मांस के कुपोषित लोथड़े को अपनी सूखी और सख़्त छाती से चिपकाये चुप कराये जा रही थी। सोनू का तेज़ बुखार कोई नया समाचार नहीं था। उसका भूख से बदहाल होकर कुलबुलाना भी बेहद पिटा हुआ यथार्थ था। लेकिन आज उसकी चींखों में एक नई धार ज़रूर थी। नया जोश था।
बारिश का मौसम यूं तो बम्बई में ज़्यादातर एक-सा ही रहता है, ना कभी नया होता है और ना ही पुराना पड़ता है। अगर ये तेज़ बारिश किसी को नई लगती है तो वह प्राय: नये-नये प्रेम में पड़ने वाली जोड़ियां ही होती हैं, जो झूमझूम के भीगतीं हैं और खूब मस्ती में एक दूसरे के बदन की ओर लपलपातीं हैं।
ठीक उसी तरह जैसे आज काल के पंजे नन्हें सोनू के कबूतर जैसे प्राण हरने के लिये रह-रहकर लपलपा रहे हैं...
ऐसा लगता था, भूख और बुखार से छटपटाते सोनू के रोने के स्वर और बादलों की गड़गड़ाहट एक दूसरे से प्रतिस्पर्धा मचाये हुये हैं। पेट में कुछ बूंदें दूध की चलीं जातीं, तो शायद अतड़ियों को कुछ काम मिलता और बच्चे के जिस्म को ज़रा-सा आराम पंहुचता। ठीक वैसे ही, जैसे बादलों के टुकड़ों का एक दूसरे को टकराकर, लतियाकर, निकलता क्रोध कुछ बूंदों के बरस जाने से थम जाता। लेकिन ना धरती को ही सुकून था और ना आसमान को राहत। दोनों जगह की रूहें बुरी तरह से बेचैन थीं, दोनों जगह की धमाचौकड़ी अपने उफ़ान की भीषण रफ़्तार से नीचे ही नहीं आ रही थीं। ऐसा जान पड़ता था जैसे धरती की छटपटाती रूह तत्काल आसमान की ऊंचाई तय कर लेना चाहती है और आसमान का बेचैन प्राणी धरती पर तत्क्षण कूद जाना चाह रहा हो।
लछमी सोनू को उसी सीवर पाइप के भीतर इधर करवट, उधर करवट लिये एक ही बेकल-बेचैन गति से हलकान थी। कभी इधर से आ रहे पानी की बौछार से बचाती तो कभी उस तरफ़ की तेज़ हवा से। पहले ही उसके चार बच्चे, आदमी रामरती, उसकी झोपड़ी और कचरे जैसा माल-असबाब सब दंगे की भेंट चढ़ चुका था। बाद के दो बच्चे भुखमरी, बीमारी और बदहवासी के शिकार होकर यम का भोजन बन चुके थे। उसकी छाती सूखकर ऐसी काठ की बन चुकी थी कि बच्चे के लिये आहार सोचा भी नहीं जा सकता था।
लछमी, मज़दूरी करके इस छह-मासे बच्चे और खुद का पेट भरती थी। जमापूंजी के नाम पर कुछ चीथड़े, कुछ टूटे-फूटे बर्तन-भांड़ें थे और यही सीमेण्ट से बना सीवर-पाइप उसका ठिकाना था, जो दरअसल सरकारी सम्पत्ति थी। तकरीबन हफ़्ते भर से आंधी-पानी के चलते ढंग का काम नहीं लग रहा था, जिससे मज़दूरी के दो आने मिल जाते और उन गरीब का कुल परिवार राहत पा जाता। लेकिन बादलों की चीत्कार को शायद ये पसंद नहीं आ रहा था।
लछमी अच्छी तरह जानती थी कि "ये नन्हा-सा ढाई माह का बच्चा, रोज़ाना इस तरह जान लगाकर नहीं रोता था... क्या ये बुझती हुई लौ की आख़िरी तेज़ झिलमिलाहट है..." इतना ख़्याल आते ही, लछमी के बदन में बहोत तेज़ सरसरी दौड़ गई. ठीक वैसे ही जैसे कोई बहोत पुराना जर्जर शरीर आख़िरी सांस के साथ सरसराता है। लछमी ने आव देखा ना ताव, उसने रोते-कलपते सोनू को पास में मौजूद सारे टाट-कथरी और फटे हुये स्वेटरों में लपेटा और चुल्लू भर दूध की तलाश में बदहवास निकल पड़ी।
सबसे पहले वह पुराने पुल के नीचे वाली लाला की ढिबरी जैसी मृतप्राय दुकान की ओर दौड़ी। क्योंकि लछमी को ये याद था कि रात के बारह-एक बजे तक भी लाला दुकान नहीं बन्द करता था, क्योंकि उस पुराने पुलिया के पार एक हौली हुआ करती थी, जिसपर नशेड़ियों का जमावड़ा रात भर चलता था और इन लोगों के लिये लाला की दुकान के नमकीन चबैने की ज़रूरत देर रात तक रहती थी।
रोज़ाना की तरह लाला अपने टुटहे चश्मे की कमानी को मैले धागे से, कान तक बांधे हुये अपने गल्ले के पैसों को छुपाकर संवार रहा था। उसकी दुकान में इतना कम उजाला था कि ना जाने उसे कुछ भी कैसे दिखता होगा। या तो आदत होगी, या फिर उसके अंदाज़े इतने सटीक होते होंगे कि वह उस भुतहे मद्धिम उजाले में भी आना-आना, कौड़ी-कौड़ी गिन लेता था। खुली सड़क पर बारिश और तेज़ मालूम पड़ रही थी। लछमी दुकान तक पंहुचते-पंहुचते पूरी भीग गई थी। दुकान के मुहाने पर खड़ी होकर, बड़ी महीन आवाज़ में बोली,
"लाला, बच्चा बहुत बीमार है... एक पेकट दूध का दे दो, मजूरी मिलते ही पैसा थमा जाऊंगी..."
लाला अपनी कौड़ियां गिनता रहा, बेवड़ों को हैंडल करते-करते बहुत पक्का हो चुका था। बिना सिर उठाये सधी हुई ज़बान से बोला,
"लछमी... फिर आ गई तू... पुराना बयालिस रुपये, सत्तर पईसा तो चुका नहीं पाई अब तक... दूध का पेकेट मांगती है... जानती भी है, कित्ते का आता है...?"
ठंड से सिकुड़ते हुये, लछमी ने थोड़ा घिघियाकर कहा,
"जित्ते का भी हो लाला... मजूरी हाथ में आते ही दे जाऊंगी... वह बच्चा बहुत बीमार है। दवा-दारू का कुछ कर नहीं पा रही हूँ लाला, दो घूंट दूध भी हलक़ से ना उतरा तो कैसे प्राण चलेंगे उस नन्हीं जान के... रहम करो लाला, तुम्हारा एक-एक आना तुम्हारी देहरी पर खुद रख जाऊंगी... बस मजूरी मिल जाने दो..."
लाला ने सिर उठाया और तेज़ ज़बान में बोला,
"देख लछमी, तेरा ये ही सब रोना-पिटना देखकर, तरस खाकर तुझे पिछली बार आटा, नोन, तेल दिया था। बीस रुपया नगद भी तू अपनी बीमारी के लिये मांग के ले गयी थी... कहती थी, देह नहीं चलेगी तो काम करने कैसे जाऊंगी... मैंने गरीब लचार जान के उस गाढ़े बखत पर दे दिया था... तू इत्ते दिन मजूरी करती रही, लेकिन लाला की उधारी तुझे याद नहीं आयी... अब जा यहाँ से, लाला के दरवाज़े से तुझे कुछ भी ना मिलेगा..." इतना कहकर लाला अपनी मुर्गी के दड़बे जैसी दुकान के भीतर चला गया।
लछमी फिर भी रिरियाती रही, आवाज़ थोड़ी तेज़ करके बोलती रही,
"ऐसे निरमोही ना बनो लाला... तुम्हारे भी बाल-बच्चे हैं... घर-परवार वाले हो... नन्हा-सा एक ही बच्चा है मेरा... चुल्लू भर दूध के लिये चीख चीखकर रो रहा है... बिलखता छोड़ के आयी हूँ... लाला एक पेकट दे दो... बस... बड़ा अहसान रहेगा तेरा... लाला... अब के दिहाड़ी हाथ आते ही जो तुम्हारी चौखट पर ना आई, तुम्हारा हिसाब करने तो जो तुम कहो वही मंजूर होगा..."
लाला कुछ सुनने को तैयार ही नहीं था। वह मुंह फेरे लछमी की ओर से उदासीन बना ढीटता से दुकान के सामान इधर-उधर रखता रहा। नमकीन के रंग-बिरंगे पैकेट, कार्टन से निकालकर डोरी पर टांगता रहा। दुकान सजाता रहा।
रात और गहराती जा रही थी। आसपास का माहौल बड़ा ही ज़हरीला था। पऊव्वा की तीखी दुर्गन्ध, चहुंओर फैली हुई थी। पानी बरसने के कारण सारे पियक्कड़ या तो हौली के भीतर या फिर कहीं ना कहीं ओट में धूनी रमाये थे। कोई भद्दे गाने गा रहा था, तो कोई एक-दूसरे को गरिया रहा था। कोई कहकहे लगा रहा था, तो कोई अपने करम को रो रहा था। कोई बेहोश हुआ मिट्टी में सना जाता था, तो कोई खुद को संन्यस्त जैसा समझकर, चुपचाप प्लास्टिक की थैलियां खाली किये जा रहा था।
जितने चेहरे, उतने भाव। जितने भाव, उतनी विडंबनायें।
एक विडंबना खुद लछमी ही थी। जितना उसका मन बेचैन था, उतना ही चेहरा निर्विकार। अन्दर ही अन्दर सोनू की चीखों से छलनी हुई जाती थी। लेकिन करे तो क्या करे। लाला था, जो कुछ सुनने को तैयार ही नहीं था। बरसात थी, जो थमने का नाम नहीं ले रही थी। भारी समय था, उससे भी भारी लछमी के हालात और उससे भी कहीं भारी लछमी का जिगरा था। ठोस, पत्थर सा। मजबूत शिला सा। जिसमें से मोम-जैसी बहकर आती ममता बार-बार पाषाण को आंच दे रही थी। जैसे ज्वालामुखी के मुंह से लावा पिघल पिघलकर बाहर आ रहा हो। लेकिन लावा कितना भी गर्म क्यूं ना हो, ज्वालामुखी का सख़्त पहाड़-सा बदन हर्गिज़ पिघला नहीं पाता।
लछमी लाला की दुकान से आगे कुछ क़दम बढ़कर, रुक गई थी। सरकारी बत्ती के नीचे सिर पकड़े बैठी सोच रही थी कि किधर जाऊं। अड़ोसी-पड़ोसी को जगाऊं, या ठेकेदार के दरवाज़े को पीटूं और उसकी देहरी पर सिर फोड़ूं। या फिर से लाला के चरण धरूं या इन ढेर-सारे पियक्कड़ों की भीड़ में जाकर रोऊं-गाऊं, चीखूं-चिल्लाऊं... कोई तो एक धर्मात्मा निकल ही आयेगा जो चार पैसे थमा दे और एक पेकट दूध का इन्तज़ाम हो जाये। एकबारगी तो उसने यहाँ तक सोच लिया कि वह इन सारे ही विचारे हुये ठिकानों और विकल्पों पर दौड़-दौड़कर एक-एक के पास गुहार लगा आये।
ऐसा ही कुछ मन में ठाने वह अपनी गीली धोती निचोड़ते हुये खड़ी ही हुयी थी कि एक शराबी, सरकारी ठेके से बाहर निकला और डगमगाकर लछमी पर भैरा पड़ा। लछमी घबड़ाकर कुछ कहती-सुनती, उससे पहले ही वह खुद काफ़ी घबराया हुआ छिटककर कुछ दूर खड़ा हो गया था। शायद वह भयभीत था कि अंधेरी बरसाती रात में, शराब के नशे में न जाने किससे भिड़ गया। इन्सानी स्पर्श ने उसे और भी विचलित किया हुआ था, वह बड़बड़ाने लगा,
"माफ़ कर दो बाबू साहेब माफ़ कर दो..." कहता हुआ वह बिजली के खम्बे का सहारा लेकर टिका रहा। सरकारी बत्ती की मरियल रौशनी में उसने भीगी हुई धोती में लिपटी एक बहोत दुबली स्त्री काया को घूर घूरकर आंका।
लछमी अब भी चुप रही। बुरी तरह देसी दारू से गन्धाते हुये आदमी नाम के उस जीव के आगे निकल जाने का इन्तज़ार करने लगी। वह लछमी को देखकर ठहरा रहा और उसे घूरता रहा। लछमी के भीतर एकबारगी भय भी कौंधा कि कहीं ये दारू में धुत्त आदमी उसे जकड़ ही ना ले। इस निर्मम लम्हे में वह औरत होने के गलीच विचारों से थर्रा भी रही थी। उसके भीतर की माँ ने इस खौफ़नाक़ ख़्याल से उबारा और उसने खुद को बचाने के लिये दौड़कर उससे दूर जाने का तय कर लिया। लेकिन जब वह आदमी एक क़दम भी आगे नहीं बढ़ा, तो पल भर के लिये लछमी वही अपनी जगह ही ठिठकी रही।
नशेड़ी खड़ा-खड़ा बड़बड़ाने लगा,
"तुम तो कोई औरत हो... इत्ती रात गये यहाँ क्या कर रही हो... गाहक चईये..."
लछमी 'गाहक चईये' जैसे शब्द सुनकर, पत्थर जैसी खड़ी रह गई. 'औरत' और 'मां' शब्द के बीच 'वेश्या' जैसा एक नया अवतार भी अस्तित्व में आ गया था।
वो पियक्कड़ फिर बोला,
"ये तो गरीब दुखियारों की बस्ती है, यहाँ सब फक्कड़ ही मिलेंगे... तुम्हें यहाँ कुछ भी नहीं मिलेगा... यहाँ तो सब खुदी आने-आने को सिर-फ़ुड़व्वल करते फ़िरते हैं... उधर निकल जाओ, देखो सड़क के उस पार निकल जाओ... कुछेक मोटरगाड़ी वाले हैं वहां... तुम्हारा भी कुछ भला हो जायेगा... मेरी बात मानो, जाओ... उधर जाओ..." कहते-कहते वह आदमी हिलते-डुलते, डगमगाते हुये अंधेरे में जाने किस ओर निकल गया।
लछमी उसी दिशा में घूरती रही जिधर वह आदमी निकला था। 'क्या वह उसे एक नया रास्ता दिखाने आया था...'
'क्या सोनू के दूध के लिये अभी उम्मीद की कुछ नई किरणें भी बाक़ी थीं...'
'क्या वह कोई ईश्वर का भेजा फ़रिश्ता था, जो लछमी को नई राह सुझाने आया था... या फिर वह कोई बुरी आत्मा थी, जो लछमी को ज़लालत भरे गढ्ढे में धकेलने आयी थी...'
बहरहाल, सड़क के उस पार लछमी यूं गयी जैसे कोई नये जनम में प्रवेश कर रहा हो। जैसे गीता के वचनों को कोई आम इन्सान चरितार्थ करने जा रहा हो। जैसे एक चोला उतारकर कोई नया चोला अपनाने जा रहा हो। जैसे फल की तमाम इच्छा तजकर कोई सिर्फ़ कर्म करने जा रहा हो।
लछमी को ज़्यादा वक़्त नहीं लगा अपने लिये एक मुफ़ीद 'गाहक' तलाशने में। वह चालीस-पचास साल का अकेला आदमी अपनी कार के भीतर चुपचाप बैठा था। उसकी आंखें बन्द थीं, ऐसा लगता था गोया वह गहरी नींद में सो रहा हो। उसने अपनी कार दीवार की ओर ऐसी जगह लगा रखी थी जहां कुछ दूर तक कोई दूसरी गाड़ी नहीं थी। तेज़ बरसात के कारण उसने अपनी कार के सारे दरवाज़े-खिड़की बन्द कर रखे थे। शायद कार के भीतर बैठा वह कोई गाना सुन रहा था। लछमी को सिर्फ़ कुछ रुपयों की बेइन्तिहां दरक़ार थी। उसके लिये और कुछ भी सुनना-समझना इस वक़्त फ़िज़ूल था। उसने अपनी आत्मा और ज़मीर की गर्दन खूब मरोड़कर उनकी भरपूर हत्या कर दी और कार का शीशा भड़भड़ाया।
तन्मयता में चूर उस आदमी की तन्द्रा टूटी. उसने एक जवान और बूढ़े मिश्रित चेहरे को देखा, जिसे बरसात की बूंदें बार-बार नहला रहीं थीं। ये अजनबी चेहरा हर-एक बूंद गिरने के साथ पलकें झपकाता था। कार का शीशा थोड़ा नीचे खिसका तो फ़ौरन मरी हुयी धौंकनी-जैसी आवाज़ आयी,
"मेरा बच्चा भूख से मर जायेगा... कुछ पैसा दे दो साहब, जो चाहो मैं करने को तैयार हूँ..."
आदमी पहले तो चुप रहा, उसे कुछ विस्मय से देखता रहा। ग्राहक ने खरीदे जाने वाले माल पर नज़र फ़िराई ही थी कि वह आवाज़ फिर उभरी,
"साहब बहोत ज़रूरत में हूँ... एक पेकट दूध का पैसा चाहिए बस... साहब दरवाज़ा खोलो, मैं सबकुछ करने के लिये तैयार हूँ..."
हांलाकि क्रेता को सूखी-पिसी हुयी देह में कोई रुचि दिख नहीं रही थी फिर भी विक्रेता के अनुनय-विनय से सौदा पट ही गया था।
आख़िर दया-धरम भी तो किसी शय का नाम है।
कार के पीछे का दरवाज़ा खुल गया था।
आश्वस्त सम्पन्नता ने विकल विपन्नता को फिर एक बार कुचला।
लछमी के ज़ेहन और हवास पर सोनू की चीखों, देसी दारू की तेज़ गन्ध और तेज़ बरसात की वजह से आसपास के बजबजाते हुये गटर से उठती दुर्गन्ध के बीच कुछ और नई चीज़ें भी शामिल हो चुकीं थीं। कार के भीतर से आती फ़्रेशनर और उस आदमी के जिस्म से उठती हुई एक भीनी परफ़्यूम की खुशबू...
इसी वक़्त एक दूसरी कार की हेडलाइट की तेज़ रौशनी ने उस आदमी और लछमी को जैसे पूरा ही नग्न कर दिया हो। इस कार में कोई अन्य महिला थी, जिसका इन्तज़ार ये 'गाहक' कर रहा था।
दोनों कार के मालिक की नज़र एक दूसरे को देखकर हेडलाइट की तरह ही चमकीं।
लछमी का कातर स्वर फिर तैर गया, "बाबू जी, बहुत ज़रूरत में हूँ..."
उस 'दरियादिल गाहक' ने जल्दी से अपने बटुये में से एक सौ नोट निकालकर लचमी की ओर तक़रीबन फ़ेंकते हुये कहा, "जाओ यहाँ से, परेशान मत करो..."
लछमी ने आव देखा ना ताव, बस अपनी लत्ता हुई धोती जैसे-तैसे लपेटती, सौ की नोट का नया पत्ता लिये सीधा लाला की दुकान ओर धाई. अभी-अभी जन्मा 'वेश्या' का ये नया वजूद, लछमी को बरसात में खूब धुल गया था, कीचड़-मिट्टी से सना उसे अपना शरीर न जाने क्यूं बहुत ज़्यादा पाक़-साफ़ लग रहा था। उसने चहककर दूध का एक पैकेट लिया और अपने नीड़ की ओर जहां बुखार में तपता सोनू भूखा चिंघाड़ रहा था, दौड़ पड़ी। उसे पैसे वापस लेने की सुध भी नहीं थी। उस पर पहले ही गुज़रा हुआ हर एक पल बहोत भारी था। सच तो ये था कि इस वक़्त वह उड़ कर सोनू के पास पंहुचना चाहती थी।
लेकिन 'हुनोज़ दिल्ली दूर अस्त...'
बरसात जब अपनी रौ में होती है तो कोने-अंतरे से कीड़े-मकोड़े बाहर निकल आते हैं। रात जब गहराती है तो कमीने तत्व सक्रिय हो उठते हैं। इस वक़्त-विशेष में तो दोनों ही हालात मौजूद थे। बरसात में पड़ती हुयी लगातार तेज़ बूंदों की तड़तड़ाहट, बादल-बिजली की गड़गड़ाहट, कुत्तो-बिल्लियों की चीख-पुकार, झीगुरों-मेढकों और तमाम तरह के कीड़े-मकोड़ों के शोर के बीच, बड़े ही वेग से दौड़ी जाती लछमी के क़दमों ने अचानक कुछ रुकावट महसूस की। जब वह सोनू से बहोत ज़्यादा दूर नहीं थी, तभी एक यमदूत जैसे कुत्ते ने लछमी की धोती पकड़ ली थी। ऐसा लगता था कि उस टेढ़े लम्हे में प्रगट हुये उस कुत्ते को दूध के पैकेट का आभास हो चला था। उसने अपने पैने तीखे दांत से बेहद मरियल धोती को चीर दिया। वह लछमी से जैसे दो-दो हाथ करने को आमादा था। लछमी सिर्फ़ दूध की रखवाली में अपनी प्राण लगाये जा रही थी। उसे सोनू के रोने की बहोत मद्धिम आवाज़ सुनाई भी दे रही थी। लछमी को अपने लाड़ले तक पंहुचने की हड़बड़ी भी उतनी ही थी जितनी दूध के पैकेट को बचाने की बेकली।
दोनों जीजान लगाकर लड़ रहे थे। दोनों के ही जीवन-मरण का प्रश्न शायद अब वह दूध का पैकेट ही बचा था। सोनू की आवाज़ें अब बेहद मन्द हो चुकी थीं, या शायद बन्द ही हो चुकी थी। कुत्ते और लछमी के बीच का ये संग्राम बहोत ज़्यादा देर तक ना चल सका। कुत्ते ने दूध के पैकेट तक अपनी छलांग लगा ली थी और अपने तीखे-नूकीले दांत, झपटकर उस प्लास्टिक की थैली पर गड़ा चुका था।
दूध की धार बह निकली थी। लछमी जो अब तक इस विकट बदहाली के दौर से जूझ रही थी, उसके हताश आंसू भी छलक पड़े थे। कीचड़ की धार में दूध और आंसू मिलकर सड़क में बहते बरसाती पानी का वेग बढ़ा रहे थे। बादलों का रोष भी कुछ थम-सा गया था, क्योंकि उनका द्वन्द अब समाप्त हो चुका था। बिना प्रतिद्वन्दी के भला अब कैसी प्रतिस्पर्धा। कुछ उसी तरह जैसे ज़मीन पर फ़ैले दूध को चाटते हुये कुत्ते का संघर्ष भी अब ख़त्म हो गया था।
और लक्ष्मी के लिये दूध की अज़हद ज़रूरत भी अब शेष नहीं बची थी।
