दूरदर्शन और आकाशवाणी का ऐतिहासिक महत्व / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि : 02 मार्च 2013
प्रकाश झा की पहल से भोपाल में फिल्मों की शूटिंग होने लगी है और भोपाल की पृष्ठभूमि पर 'कुबूल है' नामक सीरियल एपिसोड दर एपिसोड लोकप्रिय होता जा रहा है। सीरियल संसार में कथा को रबर के टूट जाने की हद तक खींचा जाता है और घटनाओं तथा संवादों का सरदर्द करने वाला दोहराव होता है। एक एपिसोड में कहे जाने वाली बात पांच एपिसोड में भी अधूरी रह जाती है। पात्र जो कहने आया है, उसे छोड़कर सब कुछ कहता है और नकली तनाव तथा खोखले रहस्य का आभास दिया जाता है। सीरियलों के दृश्यों से बदतर उनका पाश्र्व संगीत होता है। 'कुबूल है' इन सबसे मुक्त है। कथा सरपट भाग रही है। चरित्र-चित्रण इतना स्पष्ट रूप से किया गया है कि हर पात्र की स्वतंत्र विचार शैली है। वह 'टाइप' नहीं है, इसलिए नकली भी नहीं लगता। सारे कलाकार मंजे हुए हैं और बहुत सोच-विचार के साथ चयन किया गया है। कथा में दुष्ट पात्र रजिया पेशावरी कद-काठी की महिला है और अपने अभिनय से भय पैदा करने में महारत रखती है। उसका चेहरा-मोहरा भी ठीक है और वह स्नेह भरी मां भी हो सकती थी अर्थात यह कि खलनायिका में कुरूपता देखी जाती है, वह कुरूप नहीं है, परंतु छल-कपट रचने में उसने ऐसी विश्वसनीयता पैदा की है कि उसका सुंदर होना नजरअंदाज कर दिया जाता है। वह फीमेल मोगेंबो की तरह सामने आती है।
यह सीरियल इतनी खूबी से लिखा गया है कि मुस्लिम समाज की पृष्ठभूमि होने के बावजूद संवाद सहज हिंदुस्तानी भाषा में है और सभी लोग समझ सकते हैं। इसमें मुगले आजम व रजिया सुल्तान की जबान नहीं है, आम आदमी की भाषा है। केवल एक पात्र को छोड़कर सभी आधुनिक पोशाकों में हैं और नायिका तो जीन्स भी पहनती है। यह सीरियल चौथे और पांचवें दशक में बनाई गई मुस्लिम फिल्मों से अलग है। उन फिल्मों में जिंदगी को मुशायरे की तरह पेश किया जाता था। यह सीरियल आधुनिक भारत के पढ़े-लिखे मुसलमानों को प्रस्तुत करता है। निर्देशक कहीं भी किसी तरह की अनावश्यक लंबान नहीं करता। किसी नाटकीय स्थिति में आलाप नहीं लेता, सीधा सम पर आता है। तकनीकी पक्ष मजबूत है, रात के दृश्यों में भी पात्र और घटनाक्रम स्पष्ट नजर आते हैं। आंख से बहते आंसू और ओठों पर मुस्कान भी बखूबी प्रस्तुत की गई है। सिनेमाई संपूर्णता के साथ सीरियल बनाया गया है और सीरियलपन से काफी हद तक मुक्त है।
कई बरस पहले पाकिस्तान में कुछ सीरियलों की धूम थी और उनके वीडियो भारत में भी बहुत चाव से देखे जाते थे। उन सीरियलों को हसीना मोइन ने लिखा था। उनके जीवंत पात्र तमाम सरहदों और राजनीतिक पूर्वग्रह के पार जाते थे। पात्रों में हास्य का मद्दा था। आधुनिक दृष्टिकोण था, चटपटे और चुटीले संवाद थे और स्वाभाविक अभिनय था। उन सीरियलों को देखकर ही राज कपूर ने हसीना मोइन को 'हिना' के संवाद लिखने के लिए भारत बुलाया था और उन्होंने यहां काम भी किया था। पाकिस्तान में फूहड़ फिल्में बनती रही हैं और भारत में लोकप्रिय फिल्मों के ही सस्ते संस्करण वे बनाते रहे हैं। कम संख्या में खस्ताहाल सिनेमाघरों के कारण उनकी फिल्मों के बजट भी बहुत कम ही रहे हैं। उस दौर में उनका टेलीविजन पढ़े-लिखे लोगों के हाथ में था। हमारे यहां भी दूरदर्शन पर कमाल के सीरियल बने। शरद जोशी ने 'यह जो है जिंदगी' कमाल का लिखा, मनोहर श्याम जोशी ने 'बुनियाद', 'हम लोग' रचा। भीष्म साहनी की किताब पर गोविंद निहलानी ने 'तमस' बनाया। श्याम बेनेगल ने नेहरू की 'डिस्कवरी ऑफ इंडिया' बनाई। गुलजार की गालिब और अन्नू कपूर अभिनीत 'कबीर' महान रचनाएं थीं। यह अजीब इत्तफाक है कि लगभग एक ही कालखंड में भारत और पाकिस्तान दोनों जगह टेलीविजन पर कमाल काम हो रहा था। 'कुबूल है' उसी स्वर्ण युग की याद ताजा करता है, भले ही उतना महान न हो।
विगत बीस वर्षों में प्राइवेट चैनलों ने अपने असीमित साधनों और आधुनिक टेक्नोलॉजी के बावजूद केवल फूहड़ता रची है, कुरीतियां और अंधविश्वास मजबूत किए हैं। उन्होंने होश गाफिल करने वाला नशा रचा है। विज्ञापन कंपनियां दोषपूर्ण टीआरपी(लोकप्रियता आकलन विधि) के आधार पर सीरियलों को बढ़ावा देती हैं। इस समय प्राइवेट चैनल को संचालित करने वाले दिमाग इतने छोटे हैं कि आप उन्हें लघुतम कीड़े के जिस्म में रोपित कर सकते हैं। यह बात अलग है कि वह कीड़ा वहां भी अपना नेटवर्क बनाएगा। ये प्राइवेट चैनल सांस्कृतिक प्रदूषण फैला रहे हैं। दूरदर्शन को अपनी पुरानी सृजन क्षमता वापस लानी चाहिए। आज भी उसकी पहुंच सबसे अधिक है। दूरदर्शन पर बलदेवराज चोपड़ा का महाभारत दिखाया गया और विगत दस वर्षों से प्राइवेट चैनल महाभारत बनाने के प्रयास में अब तक विफल रहे हैं। महाभारत के उस संस्करण को राही मासूम रजा ने लिखा था। उस दौर में गुलशेर खान शानी साहब का 'काला जल' और श्रीलाल शुक्ला का 'राग दरबारी' दूरदर्शन ने बनाया था। उस दौर में दूरदर्शन प्रतिभाशाली लेखकों और फिल्मकारों को विषय चयन के बाद पूरी स्वतंत्रता देता था। प्राइवेट चैनल के प्रतिनिधि सारे समय सिर पर सवार रहते हैं और उन्हें अदब का इल्म नहीं है। साहित्यबोध नहीं है। दूरदर्शन की तरह ही आकाशवाणी को भी प्राइवेट चैनल के खिलाफ खड़ा करना चाहिए। आम जनता को रोटी, कपड़ा और मकान के साथ ही मनोरंजन भी चाहिए। दूरदर्शन के आधुनिकीकरण और विकास के लिए धन नहीं मुहैया करा सकते तो कम से कम उन श्रेष्ठ सीरियलों का पुन: प्रसारण तो कर सकते हैं। आकाशवाणी के पास महान लोगों की रचनाएं टेप पर हैं और उनकी सीडी बाजार में बेची जा सकती है। सबसे पहले आकाशवाणी अपने बहुमूल्य खजाने को आधुनिक टेक्नोलॉजी द्वारा सुरक्षित रखने का प्रयास करे। आकाशवाणी के विभिन्न केंद्रों के पुस्तकालय में बहुमूल्य किताबें हैं। क्या उन्हें सहेजकर रखा जा रहा है?