दूरदृष्टि / सुदर्शन रत्नाकर
बच्चों की स्कूल बस छूट गई थी। उन्हें कार से छोड़ने गई। आते हुए रास्ते में देखा वह काँधे पर बैग लटकाये जा रही थी। उसके दोनों छोटे बेटे अपना-अपना बैग उठाये बायीं ओर साथ-साथ जा रहे थे और लड़की दायीं ओर उसके साथ चल रही थी। मुझे कुछ हैरानी हुई। कुछ दिन पहले तक तो वह उसे स्कूल भेजने तक को तैयार नहीं थी और आज देखती हूँ, वह उसका बैग स्वयं उठाये, उसके साथ जा रही थी। मैं उससे पूछना चाहती थी पर शीघ्रता में थी। उसके बच्चों को भी स्कूल जाने में देर हो जाती। मैं उससे बात नहीं कर पाई।
दूसरे दिन मैं घर से निकल ही रही थी कि वह बच्चों को छोड़ कर सीधे हमारे घर ही आ गई। उसे देखते ही मुझे ध्यान आ गया कि मुझे उससे बात करनी है। मैंने पूछा, "क्यों सरस्वती तुम तो मीना को पढ़ाना नहीं चाहती थी और अब उसका बैग उठा कर स्वयं छोड़ने जाती हो।"
"आप ठीक कवै हैं बीबीजी तीसरी किलास के बाद ही मैंने उसे इस्कूल से निकाल लिया था और काम पर भी लाने लगी थी। आप भी मुझे समझाये रहीं और इधर कई दिन तैं टी. वी. पर देख रही थी। मैं समझने लगी थी बीबीजी कि बेटी की पढ़ाई का बहुत महत्त्व होवे है।"
"यह तो अच्छी बात है सरस्वती पर तुम उसका बैग उठा कर क्यों जाती हो जबकि छोटे लड़के अपना-अपना बैग उठाते हैं!"
"आप ठीक कवै हैं बीबीजी एक तो छोरी बहुत कमज़ोर है दूसरा उम्र भर औरत को गृहस्थी का बोझ ढोना पड़े है। इतना भारी बैग उठाकर उसके बोझ से ही छोरी दब जावे है। इस्कूल जाने में भी कतरावै है। पर पढ़ना तो ज़रूरी है इसीलिए उसका बैग उठाऊँ हूँ।" अशिक्षित होते हुए भी, उसने कितनी बड़ी, कितनी गहरी बात मुझे समझा दी थी।