दूरी न रहेगी / कैलाश झा किंकर / सत्यम भारती
"आशा" वह डोर है जो मानव को निष्क्रिय होने से बचाती है, आज जब हम पैसों के चाकर बन गए हैं; स्वार्थ हमारा शार्गिद बन गया है तो ऐसे में जीवन में तल्खी आना तय है। जीवन के इस तल्खी से उबारने का काम आशा और उत्साह करता है; उत्साह आशा का वह हिस्सा है जो हमें हमेशा संघर्ष करना तथा जूझना सिखलाता है। भारतीय साहित्य परंपरा कि एक विशेषता रही है कि इसका मुख्य उद्देश-आनंद और उत्सव है, पुस्तक "दूरी ना रहेगी"-इसी परंपरा का अनुसरण करके जीवन की तल्ख़ियो से उबरने के लिए आशावान, उत्साहवान तथा आनंदित होने की सलाह देती है। मनुष्य को आशावान होना चाहिए, जब जीवन में निराशा का भाव आ जाता है तो सारा समाज हमें कष्टमय नजर आने लगता है-
जीवन में खुशियाली आई,
सब होठों पर लाली आई,
गांव में सब झूम रहे हैं,
गेहूँ मैं अब बाली आई।
पुस्तक "दूरी ना रहेगी" ग़ज़लकार कैलाश झा किंकर द्वारा लिखित गजलों का संग्रह है जिसका मुख्य स्वर-स्पष्टवादिता है; लेखक जो कुछ भी देखता है उसे बिना किसी लाग लपेट के कह देता है। इस पुस्तक की एक खास विशेषता यह है कि पुस्तक समस्याओं को उजागर करने के साथ-साथ पाठकों को उसका समाधान भी बताती है, जैसे-जीवन की तल्खी से उबरने के लिए आशा, सत्ता एवं सिस्टम की विद्रुपता के लिए क्रांतिकारी स्वर, घर को स्वर्ग बनाने के लिए नेह तथा खुद को सशक्त बनाने के लिए आत्मविश्वास आदि समाधान बताते हैं। यह पुस्तक जीवन की तल्ख़ियों से सक्रिय प्रतिरोध करती भी नजर आती है-
बहुत हो गया अब कहना पड़ेगा,
गलत को ग़लत अब कहना पड़ेगा।
मानवों के चेहरे पर आजकल संकट, कष्ट, परेशानी, डर आदि की लकीरें तो दिख जाती है लेकिन हंसी नहीं दिखती; हंसी इस दुनिया में बहुत महंगी हो गई है, हंसी को ना पैसे से खरीदा जा सकता है और ना ही इसे बेचा जा सकता है, यह स्वत: और आंतरिक प्रक्रिया होती है। अगर हमारे चेहरे पर हंसी हो तो आने वाले आधे संकट, परेशानी, व्याधि स्वत: ही खत्म हो जाती है, लेकिन विडंबना यह है कि समाज में हंसने और हंसाने वालों को चरित्रहीन और जोकर समझा जाता है। मानवों के चेहरे पर पुनः हंसी लौटाने की बात किंकर जी की गजलें करती हैं-
सौ गमों की इक दवा होती हंसी,
मुस्कुराहट हम रखेंगे दूर तक।
हंसी ना सिर्फ़ हमारी मानसिक परेशानी को हरती है बल्कि यह जीवन जीने का नजरिया तथा हिम्मत दोनों देती है-
मुफलिसी कल दूर होगी ही यकीनन,
इस खुशी में आज हंसने दे जरा-सा।
मन की अनंत इच्छाएँ हमें स्वार्थी बनाती जा रही है, असीमित इच्छाएँ हमें अंदर और बाहर दोनों जगह खोखला कर रही है; जो आधुनिक मानव की सबसे बड़ी परेशानी तथा गृह क्लेश का कारण भी है। गजलकार वैयक्तिक मन की अनंत इच्छाओं को बाँधने की कोशिश करता है-
बहुत की चाह में कुछ भी ना बचता है,
जो कुछ भी पास है वह भी खिसकता है।
अहंकार हमें कमजोर बनाता है, अहम का भाव मानवीय मन को संकुचित कर हमसे वह सब करवा ले जाता है जिसकी कल्पना हमने नहीं की होती है; बाद में सिर्फ़ पछतावा ही होता है। अहंकार आज के मानवों की सबसे बड़ी समस्या है, किसी को धन पर, किसी को सूरत पर, किसी को जवानी पर, किसी को अपने पावर पर तो किसी को अपने ज्ञान पर दर्प है हर मानव इसके गिरफ्त में फंस चुका है; जो उसकी शक्ति और क्षमता दोनों को सीमित कर रहा है। मन की अदृश्य इच्छा का ही परिणाम अहंकार है कवि का ध्यान इधर भी गया है-
निकलता हल सुगमता से समय पर,
अहम के भाव ने झुकने दिया कब।
लेखक की लेखनी का एक स्वर-अवसर का ना मिल पाना भी है। अवसर का तात्पर्य-किसी भी कार्यक्रम में लोगों की भागीदारी से है, जैसे-कानून बनने से पहले जनता कि राय, शिक्षितों के लिए नौकरी का अवसर, गरीब मजदूरों के लिए मुख्य धारा से जोड़ने की ललक, रोटी की चाह आदि वर्तमान समय की मांग भी है और अवसरवाद भी। आज भारत कितनी भी तरक्की क्यों न कर लें लेकिन देश में गरीब मजदूरों की स्थिति जस की तस बनी है-
अजीब बात है रहबर नजर नहीं आता,
मुसीबतों में वह अक्सर नजर नहीं आता,
कभी-कभी तो ये लगता कि वक्त बदला है,
गरीबों के लिए अवसर नजर नहीं आता।
बेरोजगारी वर्तमान युवाओं की प्रधान समस्या है। बुनियादी शिक्षा कि कमी, हुनरमंद प्रशिक्षण का अभाव, सत्ता कि स्वार्थ नीति, स्वच्छंद बेरोजगारी, अवसरों की कमी, प्राइवेट नौकरी की अधिकता तथा बढ़ती जनसंख्या बेरोजगारी का प्रमुख कारण है। आज अवसर की कमी के कारण भारतीय मेधा को उसकी प्रतिभा के अनुसार पैसा नहीं मिल पाता है या तो उनकी उम्र बीत जाती है या फिर वह विदेश चले जाते हैं। बेरोजगारी की समस्या तथा निम्न वर्गीय लोगों को मुख्यधारा से वंचित रखना वर्तमान समय की प्रधान समस्या तथा समाज में अराजकता का प्रमुख कारण भी है-
जब भी होती बात मेधा कि तो लगता है हमें,
उम्र मेधा कि यहाँ बेरोजगारी में गई।
घरों का टूटना भी इस दौड़ में घातक हो गया है, आधुनिकीकरण और पश्चात सभ्यता कि अधिकता ने मानव को एकल परिवार में रहने पर मजबूर कर दिया है; संयुक्त परिवार की अवधारणा लगभग विलुप्त होने वाली है जो समाज के लिए खतरा है। मानव पर अस्तित्ववाद का प्रभाव इस तरह हावी है कि वह अपनो से भी रिश्ते रखना नहीं चाहते हैं। वे घरों को टूटने से बचाने के लिए स्नेह और प्रेम का रास्ता अपनाने, घर फोड़ने वाले लोगों से दूरी बनाने तथा घर की बात घर में रखने को कहते हैं-
बात घर की सड़क पर आई है,
खुल रही खिड़कियाँ बहुत ज़्यादा।
गरीबों एवं मजदूरों की गरीबी का प्रधान कारण-शराब और जुआ दोनों है, शराब और जुआ वह बुरी लत है जिसमें कितनों के घर तबाह हो गए, घरेलू उत्पीड़न की स्त्रियाँ शिकार हो गई तथा बच्चों की ज़िन्दगी चोर-उचक्के बनने में तल्लीन हो गई। लेखक इस गंभीर समस्या कि तरफ भी लोगों का ध्यान आकृष्ट करते हैं-
खानदानी थी जो दौलत हम गरीबों के लिए,
कुछ शराबी में गई तो कुछ जुगाड़ में गई।
अपने समाज की एक विडंबना और है कि यह अच्छे काम करने वालों को ज़्यादा तरजीह नहीं देता जो ग़लत काम करते हैं उन्हें लोग खूब इज्जत करते हैं, यह सोच समाज को सकारात्मक नहीं बना पा रहा है जो भविष्य के लिए खतरा है। जो व्यक्ति अपनी पूरी ज़िन्दगी लोगों की सहायता एवं नेक कार्य में बिता दिया उसकी एक गलती को वही समाज नहीं पचा पाता है-
लाख अच्छे काम होते हैं मगर चर्चा नहीं,
एक घटना क्या घटी अहले खबर में आ गई।
इतिहास लेखन का काम हर युग में सत्ताधीश ही करते आये हैं जो अपने हिसाब से युग के अतीत को व्यंजित करते हैं जाहिर-सी बात है वह समाज में क्रांति लाने वाले तथा सत्ता से सवाल करने वाले बागियों को उस इतिहास में जगह नहीं देंगे। समाज का मानस भी उस शख्स को जल्दी भूल जाता है जो परिवर्तन लाना चाहता है, उनके हित की बात करता है तथा समाज में तरक्की की नई किरण दिखाना चाहता है; ऐसे लोगों को इतिहास और समाज जल्दी भूल जाता है-
नहीं इतिहास में जिनका कभी उल्लेख हो पाता,
उन्हीं के खूं पसीने से खिली धरती खिला अंबर।
मिलावट की आग भोजन एवं खाद्य सामग्री को जहर बनाती जा रही है, मुनाफे की चाह में हम कितनी बीमारियों को जन्म दे रहे हैं इसका अहसास तक नहीं है हमें। मिलावट को सह देने में बाज़ार का काफी योगदान है, बाज़ार हमें व्यापारी बनाता है इंसान नहीं, इसलिए जहाँ सिर्फ़ कृत्रिमता और प्रतिस्पर्धा चलता है। कवि मिलावट जैसी युगीन समस्याओं पर भी ध्यान आकृष्ट करते हैं-
जहर भी बेचता अमृत बताकर,
इसे मतलब नहीं है ज़िन्दगी से।
मानवों की दरिंदगी कुछ इस तरह हावी है कि लोग हवस के पुजारी बनते जा रहे हैं, मन की अनंत चाहत की पूर्ति हमें दानव बनाती जा रही है ऐसी स्थिति आ गई है कि समाज में स्त्रियाँ घर और बाहर दोनों जगह शोषित हो रही हैं, स्त्री मुक्ति और अस्मिता का सवाल गजलकार की गजलों में दिख जाता है, वह स्त्रियों पर हो रही दरिंदगी से हैरान हैं-
खिलौने के पहले ही कलियाँ मुरझाती हैं,
रोता है वन-वाग करूं क्या सच्ची बातें।
लेखक अपनी गजलों में वेश्याओं के जीवन का चित्रण भी करते हैं, समाज से बहिष्कृत या समाज की दरिंदगी का शिकार हुई ये वैश्याऐं, पीढी दर पीढी उसी दलदल में फंसती जा रही हैं। कवि उनके स्वाभिमान और उसे मानव होने की चाहत को प्रदर्शित करता है तथा इनके स्वर को सकारात्मक और प्रतिरोधात्मक स्वर देता हैं-
रात की सिसकियाँ से आहत हूँ,
छोड़िए मैं तो एक कहावत हूँ,
दौलतों से ना तौलिए मुझको,
आज मैं किसी की चाहत हूँ।
स्त्रियाँ जो बरसों से शोषित एवं दमित होती आयी है, वह अब सशक्त हो रही हैं, उनके अंदर प्रतिरोध की भावना भी जागृत हो रही है तथा वह खुद को साबित कर पुरुषों के साथ कंधा से कंधा मिलाकर काम भी करने लगी है। आज स्त्रियाँ अंतरिक्ष, खेल, राजनीति सभी जगह अपना परचम बुलंद कर रही है जो समाज के लिए सकारात्मक खबर है-
अक्षर अक्षर लहके उठे हैं,
शब्द-शब्द तड़प उठे हैं,
झांसी की रानी बनने को,
कंगन कंगन खनक उठे हैं।
स्त्रियों की आत्मनिर्भरता को देखकर कवि खुशी जाहिर करता है-
नाज उस पर किसे नहीं होगा,
जब हिफाजत में खुद खड़ी चिड़ियाँ।
वोटों की खरीद-बिक्री लोकतंत्र को अपंग बनाता जा रहा है, आज नेता वही बनता है जिसका आपराधिक ग्राफ काफी ऊंचा हो। लेखक कहना चाहता है कि जब वोटों का बंटवारा पैसे पर ही होना है तो मतदान, बूथ, मतदाता आदि का तमाशा क्यों करना-
वोट जो पैसों पर मिलना तय हुआ है,
बूथ पर करना है अब इजहार कैसा।
राजनीति में उसी को तरजीह दिया जाता है जो सिर्फ़ आँख बंद कर, कठपुतली की तरह कुर्सी पर आसीन रहे और पूंजीपतियों के इशारे पर नाचे; यहाँ पढ़े-लिखे लोग बस हाँ में हाँ मिलाने के लिए होते हैं-
अभी तो धृतराष्ट्र हुआ करता है शासक,
विदुर बनाता साग करूं क्या सच्ची बातें।
इस पुस्तक के शिल्प पक्ष की अगर बात करें तो इसकी भाषा काफी सरल है, भाषा का परिदृश्य लोक को सामने रखकर गढ़ा गया है। लोकबिंब एवं लोक प्रतीकों का सुंदर प्रयोग यहाँ मिल जाता है तथा लोक के मुहावरे और मिथक इसे सजीव बना देता है। लेखक व्यंग्य का सहारा लेकर सवाल पूछता है तथा व्यंजना का सहारा लेकर संवेदना पर चोट करता है। विषयों का विस्तार तथा भावों की सूक्ष्म संवेदना कि पकड़ थोड़ी ढीली है लेकिन लोक के करीब होने के कारण यह पुस्तक जन चेतना के अग्रदूत के रूप में सामने आती है। देशी भाषा के शब्दों का सुंदर प्रयोग देखें-
आलू बनते फिरते हैं जो, कल तक वह ओल रहे हैं।
भावों की अभिव्यक्ति के लिए अधिकांशत: अभिधा का ही प्रयोग किया गया है लेकिन कहीं-कहीं व्यंजना शब्द शक्ति का भी प्रयोग दिख जाता है-
प्यास से त्रस्त होकर पुकारे धरा,
सिर्फ कहने को मौसम ये बरसाती है।
अंततः यह कहा जा सकता है कि यह पुस्तक शिल्प और भाव दोनों दृष्टि से परिपूर्ण है तथा जीवन की तल्ख़ियों का सक्रिय प्रतिरोध भी है।