दूरी न रहे कोई / मोहम्मद अरशद ख़ान
जैसे-जैसे होली के दिन करीब आ रहे थे, जगदीश बाबू की बेचैनी बढ़ रही थी। इस शहर में रहते उन्हें 15 साल हो गए थे, पर ऐसा कभी नहीं हुआ कि वह होली पर गाँव न गए हों। हर साल होली से एक दिन पहले वह परिवार सहित गाँव चले जाते थे। पर इस बार की परिस्थतियाँ अलग थीं। माँ उन्हीं के साथ रहती थीं और आजकल वह बहुत बीमार चल रही थीं। ऐसी स्थिति में उन्हें लेकर जाना संभव नहीं था। लंबी यात्रा और बीच में दो बार बस बदलना बहुत कष्टपूर्ण था।
जगदीश बाबू प्राइमरी स्कूल के मास्टर थे। जब नौकरी लगी तो लोगों ने सलाह दी कि ट्रासंफर तो होना नहीं है। किराए के मकान में बड़ी परेशानियाँ होती हैं। अपना मकान बना लो या कोई बना-बनाया मकान खरीद लो। उन्होंने अपने घर पर सलाह की। पिता जी तब जीवित थे। उन्होंने भी यही कहा, ‘किराए के मकान से अपनी झोपड़ी बेहतर होती है।’ लोगों ने उन्हें तेली टोले में एक मकान दिला दिया। मकान किसी पंडित जी का था जो अपने बेटे के पास दिल्ली जा बसे थे। जगदीश बाबू ने मकान देखा। उन्हें पसंद आया। पंडित जी को बेचने की गरज थी, सो दाम भी ज़्यादा नहीं थे। जगदीश बाबू ने झट से ‘हाँ’ कह दी।
तब वह नए-नए थे शहर का भूगोल उन्हें पता नहीं था। अपने काम से काम रखनेवाले आदमी थे। जैसे सीधे सच्चे थे, वैसे ही सबको समझते थे। लेकिन कुछ दिनों के बाद उन्हें अहसास हो गया कि उन्होंने जल्दबाजी में ग़लती कर दी। तेली टोला अपने उजड्पन के कारण मशहूर था। वहाँ के लोग अक्सर आपस में लड़ाई-झगड़ा और गाली-गलौज करते रहते थे। नुक्कड़ों पर नाकारा लड़कों की भीड़ जमा रहती, जो आस-पास गुजरनेवालों से भद्दे मज़ाक करते रहते। तेज आवाज़ में गाने बजते रहते। उनके एक बगल में सुलेमान कबाड़ी का घर था और दूसरे बगल में पुत्तन कसाई का। एक घर से रोज़ लड़ाई झगड़े की आवाजें कानों सीसा घोलती रहतीं तो दूसरे घर की रसोई की छौंक से जी मिचलाने लगता।
जगदीश बाबू काम होने पर ही घर से निकलते थे। दो बच्चे थे उनके। लड़की दसवीं में थी और समझदार थी, पर छोटा कुलदीप घर से जब तब निकल भागता था। वे रोज़ उसकी पिटाई करते और बाहर निकलने को मना करते। हाथ उठाते हुए मन विचलित होता, पर कुलदीप को रोकना ज़रूरी था। वर्ना वह बाहर जाकर गंदी आदतें सीखता।
होली जैसे-जैसे करीब आ रही थी जगदीश बाबू की बेचैनी बढ़ती जा रही थी। स्कूल में उनका मन न लगता। एक दिन दोपहर के खाने के बाद बैठे हुए थे कि स्कूल का चपरासी रामरतन उन्हें देखकर कहने लगा, ‘‘साहब, देख रहा हूँ कि इधर आपका मन पढ़ाने में नहीं लगता। चेहरा भी बुझा-बुझा-सा रहता है। तबीयत तो ठीक है न?’’
‘‘हाँ, भैया, तबीयत को कुछ नहीं हुआ।’’ जगदीश बाबू लंबी साँस लेकर बोले।
‘‘तो फिर...’’
‘‘बस थोड़ी चिंता है। होली आ रही है। गाँव जाना है और अम्मा की तबीयत ऐसी नहीं कि उन्हें साथ लेकर जा सकूँ।’’ जगदीश बाबू सिर झुकाकर बोले।
‘‘एक बात कहूँ, साहब, बुरा मत मानना,’’ रामरतन हिचकता हुआ बोला, ‘‘हर होली पर आप गाँव चले जाते हैं। कभी हमारे साथ क्यों नहीं मनाते?’’
जगदीश बाबू ने ख़ामोश होकर सिर झुका लिया।
थोड़े इंतज़ार के बाद रामरतन फिर बोला, ‘‘साहब, माँ आपके साथ रहती हैं। पिता जी स्वर्गवासी हो चुके हैं। आप ही ने एक बार बताया था कि गाँव में एक भाई रहता है, जो फूटी आँखों देखना पसंद नहीं करता। बहनें गाँव आना लगभग छोड़ चुकी हैं...’’
‘‘हाँ, गाँव में होली के दो-चार दिन कैसे कटते हैं यह मेरा ही दिल जानता है।’’ जगदीश बाबू बीच में ही बोल उठे।
‘‘लेकिन फिर भी आप गाँव जाने को बेचैन क्यों रहते हैं, यही बात समझ नहीं आती?’’
जगदीश बाबू थोड़ी देर ख़ामोश रहे फिर आस-पास देखकर धीरे-से बोले, ‘‘तुम तो जानते ही हो मेरा घर किन लोगों के मुहल्ले में है। सबके सब अनपढ़ उजड्ड। ग़लती से किसी पर रंग की छींट भी पड़ गई तो मुश्किल हो जाएगी।’’
‘‘अरे ऐसा कुछ नहीं है, साहब। आप नाहक डरते हैं। इतने बरस हो गए साथ रहते। आप भी सबको जानते-पहचानते हैं और वे भी आपको जानते-समझते होंगे। ऐसा थोड़े होगा कि पड़ोसी पड़ोसी से दुश्मनी पर उतर आए।’’
‘‘तुम नहीं समझोगे। उनके बीच मैं रहता हूँ, मैं जानता हूँ। वे अपनों को तो छोड़ते नहीं, मुझे क्या बख्शेंगे। मुझे गाँव जाना है, किसी भी हाल में।’’ कहकर जगदीश बाबू उठ लिए।
लेकिन अपनी लाख कोशिशों के बाद जगदीश बाबू गाँव नहीं जा पाए और होली आ गई।
होली के दिन उन्होंने सुबह से ही दरवाज़े पर कुंडी लगा दी और बच्चों से बोले, ‘‘घर में जितना रंग खेलना हो खेल लो। बाहर कोई निकला तो टाँगें तोड़ दूँगा।’’
लड़की तो वैसे भी घर से बाहर नहीं निकलती थी, पर कुलदीप की साँसत हो गई। ख़ुद को रंग लगाकर घर में ही बैठे रहने में भला क्या मजा? वह मुँह फुलाकर बैठ गया।
पर उसका चंचल मन कब तक मानता। जैसे ही जगदीश बाबू पूजा करने उठे, वैसे ही वह घर से पिचकारी लेकर निकल भागा। जगदीश बाबू देर तक पूजा करते थे। यह उनका रोज़ का क्रम था।
पर अभी थोड़ी देर भी नहीं हुई थी कि कुलदीप घबराया हुआ भागा आया और आकर कोने में छिप गया। जगदीश बाबू पूजा करके उठे ही थे कि उनकी नज़र कुलदीप पर पड़ी। बाहर से आया देख उनकी त्योरियाँ चढ़ गईं। वे कुछ कहते कि पीछे से एक लड़का रोता हुआ आया और बोला, ‘‘चच्चा, कुलदीप ने मेरा नया कुर्ता खराब कर दिया। मैंने आज ही पहना था।’’
जगदीश बाबू सन्न रह गए। जो नहीं चाह रहे थे वही हो गया। उन्होंने किसी तरह लड़के को फुसलाकर भगाया और घर के खिड़की-दरवाजे बंद कर लिए। उनके चेहरे का रंग उड़ा हुआ था। पसीना सिर से एड़ी तक चल रहा था। वह लड़का अज्जू का बेटा था। सब अज्जू के लड़ाकू स्वभाव के कारण उसे अज्जू तमंचा कहते थे। सिर पर जालीदार टोपी, गले में सात सौ छियासी का लॉकेट, अधिकतर लुंगी-बानियान पहने घूमता रहता। किसी से झगड़ा होता तो मरने-मारने पर उतारू हो जाता। न आगा सोचता, न पीछा।
घर में सन्नाटा छा गया। कुलदीप को समझ तो नहीं आ रहा था पर उसे अहसास ज़रूर हो गया था कि उसने कोई बड़ी ग़लती कर दी है। पत्नी रोने लगी। जगदीश बाबू बोले, ‘‘तुम लोग फौरन जाकर भंडरिया में छिप जाओ। वह दुष्ट आता ही होगा। मेरे साथ जो भी सुलूक करेगा सह लूँगा, पर अगर तुम लोगों के साथ बदसुलूकी हुई तो मैं जीते जी मर जाऊँगा।’’ कहते-कहते उनकी आवाज़ भर्रा गई।
इससे पहले कि पत्नी कुछ कहती कि उनका दरवाज़ा जोर-जोर से भड़भड़ाया जाने लगा। ‘ओय, मास्टर, दरवाज़ा खोलो!’
जगदीश बाबू ने सबको जीने पर धकियाकर कुंडी लगाई और किसी तरह काँपते हुए दरवाज़ा खोला। अज्जू अंदर नहीं घुसा पर उसने वहीं खड़े-खड़े कहा, ‘‘तेरे लड़के ने मेरे लौंडे का कुर्ता खराब कर दिया और तुम घर में छिपे बैठे हो?’’
‘‘हाँ, बड़े भाई, ग़लती हो गई। बच्चा है, उसे जाने दो। मुझे जो चाहो सजा दे लो।’’ जगदीश बाबू हाथ जोड़े कँपकँपाते हुए बोले।
‘‘हाँ, सजा तो मिलेगी, ज़रूर मिलेगी। चलो मेरे साथ।’’
डर के मारे जगदीश बाबू जड़वत थे।
‘‘जनानियों का ख़्याल कर रहा हूँ इसलिए बाहर खड़ा हूँ। चल रहे हो, या आऊँ अंदर?’’
जीने का दरवाज़ा जगदीश बाबू ने बाहर से बंद कर लिया था। इसलिए पत्नी-बच्चे जीने पर खड़े-खड़े रोने-चिल्लाने लगे। लेकिन अज्जू पर कोई असर न हुआ। उसने जगदीश बाबू का कंधा दबोचा और लगभग घसीटते हुए ले चला।
इमलिया मैदान में शोहदों की भीड़ जमा थी। जगदीश बाबू को खींचकर लाते देख सब हल्ला-गुल्ला करने लगे। जगदीश बाबू ने समझ लिया कि आज तो अपनी गत बननेवाली है। भीड़ के पास पहुँचकर अज्जू ने जगदीश बाबू को मज़बूत पंजों से पकड़कर ऊपर उठाया और एक ओर उछाल दिया।
जगदीश बाबू की चेतना सुन्न हो गई। उन्हें होश तब आया जब ‘छपाक’ की आवाज़ आई और लोगों का शोर सुनाई दिया--‘‘बुरा न मानो, होली है!’’
जगदीश बाबू ने देखा--वह तो रंग से भरे हौज में पड़े हैं। तब तक रमजान, निसार, रज्जब भी उसमें कूद पड़े और उन्हें डुबकियाँ दे-देकर कहने लगे, ‘बुरा न मानो होली है।’
अज्जू बोला, ‘‘वाह भाईजान, हम तो समझते थे कि आप पढ़े-लिखे और समझदार हैं। पर आपसे समझदार तो आपका बेटा निकला। भला होली कोई घर में घुसकर मनानेवाला त्यौहार है?’’
जगदीश बाबू संयत तो हो गए थे पर आवाज़ अभी तक काँप रही थी। बोले, ‘‘मैं समझता था, आप लोग रंग खेलने का बुरा न मान जाएँ।’’
‘‘आप समझ ही तो नहीं पाए, भाईजान,’’ अज्जू बोला, ‘‘समझते तो तब जब हम लोगों के बीच उठते-बैठते। दूर-दूर रहकर आपने हमारी जाने क्या तस्वीर बना ली। हम पढ़े-लिखे नहीं हैं, लड़ते-झगड़ते हैं, गाली-गलौज भी करते हैं, पर दिल के बुरे नहीं हैं। हमारे दिलों में झाँककर तो देखिए आपको अपनी ही तस्वीर नज़र आएगी। मुहल्ले में आपके आने पर हमने सोचा था कि चलो कोई पढ़ा-लिखा आया है, हमारी संगत बदलेगी। पर आप तो हमारे साए से भी दूर भागने लगे। जगदीश बाबू, दूर से देखने पर दिल के भीतर नहीं दिखाई देता। जब तक पास आकर एक-दूसरे को जानेंगे नहीं तब तक ये दूरियों के पहाड़ और भी बड़े होते रहेंगे।’’
जगदीश बाबू जब रंग से सराबोर होकर वापस लौटे तो पत्नी-बच्चे सब आकर लिपट गए और सारा हाल पूछने लगे, पर जगदीश बाबू ने सिर्फ़ इतना ही कहा, ‘‘ढेर सारी गुझिया और पकवान बना लो। शाम को हमारे भाई दावत पर आ रहे हैं।’’