दूरी / उमेश मोहन धवन
“अरे यार तुम ? आज बहुत सालों बाद दिखायी दिये” अचानक रास्ते में मेरे पुराने मित्र विशाल ने मुझे देखते ही पूछा। मै भी उसे देखकर खुश हुआ और उसे बताया “यार, मैं एक बैंक में ऋण अधिकारी हूँ और अपने शहर से पाँच साल बाहर रहकर इसी महीने ट्रांस्फर करा के यहाँ लौटा हूं। फिलहाल यहाँ से पन्द्रह किलोमीटर दूर शास्त्रीनगर में किराये का मकान लिया है। आगे कोई अच्छा सा फ्लैट मिल जाये तो लोन लेके खरीद लूंगा।” “अरे वाह यह तो बड़ी अच्छी बात है” उसने खुशी से कहा। फिर मेरा फोन नम्बर ले के बोला “मैं संडे को तुझसे मिलने तेरे घर आऊंगा वहीं आराम से बातें होंगी।” “यार अपने ग्रुप का सबसे जिंदादिल दोस्त था ना दीक्षित जो सबको हँसाता रहता था। उसका क्या हाल है ?” “पता नहीं यार। है तो इसी शहर में पर मैं एक साल से उसके घर जा नही पाया।” “तो चलो उसका हाल पूछने चलते हैं।” मैने दीक्षित से मिलना चाहा। “कोई फायदा नहीं यार। वो कुछ बन वन नहीं पाया। सुना है आजकल पैसे के अभाव में बहुत बीमार भी रहने लगा है। तुझे पता बता दूंगा जब मैं संडे को तेरे घर आऊंगा। रहता तो मेरे घर के बिल्कुल पास ही है” “पर मेरा घर तो बहुत दूर है, तुझे परेशानी होगी” मेरे मुँह से अचानक निकला तो उसने मेरे कंधे पर हाथ रखकर जवाब दिया “यार दोस्ती में कभी दूरी नही देखी जाती”