दूर के मेहमान / स्वप्निल श्रीवास्तव

Gadya Kosh से
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कलीम खान जिला बस्ती के बांसी तहसील के एक पिछड़े गांव डुमरी में रहते थे। उनकी नौकरी जब रेलवे में लगी तो जवार में हंगामा हो गया। उस जमानें में लोग घर छोड़ कर नौकरी पर जाने में यकीन नहीं करते थे। लोग खेतीबारी पर निर्भर थे। कलीम उस जवार के अच्छे काश्तकार थे। गांव के लोग क्या कलीम ने रेल की शक्ल नहीं देखी थी। गांव के बड़े बूढ़े रेल को देखने को तरस गये थे। कभी बस्ती कचहरी में किसी काम से जाते ज़रूर थे, लेकिन रेल देखने और उसमें सफर करने का मौका नहीं मिलता था। डुमरी से बस्ती या उससे आगे जाना पर्वतारोहण जैसा काम था।

कलीम खान को जब नौकरी का परवाना मिला तो सबसे ज़्यादा गमजदा उनकी अम्मी हुई. वह पांच लाडलो की माँ थी। उसमें से कलीम सबसे छोटे थे और माँ के प्रिय थे। जाने के हप्ते भर पहले से वे उदास रहने लगी। कलीम समझाते-अम्मी कहीं मैं बिलायत नहीं जा रहा हूँ। छटे-छमासे गांव आ जाया करूंगा और तुम्हे भी गोरखपुर घुमाने ले जाऊंगा। रेलवे का मुलाजिम हुआ हूँ, कोई किराया–भारा नहीं लगेगा। लेकिन माँ तो माँ उन्हे समझाना बहुत मुश्किल था। उनके भाई उन्हें समझाते-समझाते हार चुके थे। उनके आंसू थमते नहीं थे। वे माँ का दर्द समझते थे लेकिन नौकरी को हाथ से जाने नहीं देते थे। उनके खानदान में कोई घर से बाहर नहीं गया था, सिवाय उनके चच्चू के जो बटवारे के बाद घर क्या, मुल्क को अलविदा कह दिया था। जिस खुशी से वे पाकिस्तान गये थे, उसका दुख लोगो के दिल में अभी तक जिंदा है। बहरहाल उन्होने टीन की संदूक में अपने ज़रूरी साजो-सामान रख लिये। नौकरी का परवाना सम्भाल कर रक्खा। कभी कभी उसे उलट–पलट कर देखते थे और सोचते थे कि कागज का एक छोटा-सा टुकड़ा कैसे ज़िन्दगी को बनाने की हैसियत रखता है। उन दिनों उस इलाकें में बसों की आवाजाही शुरू नहीं हुई थी। बांसी से बस्ती का रास्ता तांगो से तय करना होता था। सड़को के नाम पर टूटे–फूटे रास्ते थे। उन्हे सड़क नहीं कहा जा सकता था। तांगे में जुतनेवाले घोड़े मरियल किस्म के होते थे। तांगे पर ज़रूरत से ज़्यादा सवांरिया लदी-फदी होती थी। चलते–चलते तांगे उलार हो जाते थे। फिर इक्कावान उसे व्यवस्थित करता था। सवांरियो से उसकी खूब हुज्जत होती थी। तांगे से चलना, नौ दिन चले अढ़ाई कोस मुहावरे की याद दिलाता था। अम्मीजान ने दिल लगा कर उनके लिये पराठे तैयार कर दिये थे। सब्जी के साथ उनका मनपसंद मिर्चे का अचार था। उसमें माँ के हाथों की महक थी। सुबह–सुबह वें तांगे पर सवार हुये और दो बजे तक बस्ती पहुंचे। फिर तांगे से उन्हें रेलवे स्टेशन तक जाना था। शाम को चार बजे पूरे दिन में एक रेल गोरखपुर जाती थी। उसमें लोग भूंसे की तरह भरे होते थे। रेल के डिब्बे में दाखिल होना हंसी खेल नहीं था। बड़ो-बड़ो के छक्के छूट जाते थे। डिब्बे में चढ़ने के लिये दो दरवाजे थे। चूंकि खिड़कियों में सलाखे नहीं लगी हुई थी इसलिये उन्हें दरवाजों की तरह इस्तेमाल किया जाता था। टिकट खिड़की से उन्हे टिकट हासिल करने में कम मशक्क्त नहीं करनी पड़ी। माथें पर पसीना छलछला गया था। अगर अम्मीजान उन्हें इस हाल में देख लेती तो कान पकड़ कर कहती-बस निकलों यहाँ से मैं तुम्हे नौकरी नहीं करने दूंगी। घर में बाप-दादों ने जो खेती-बारी दी है, वह हमारे लिये बहुत है।

रास्ते भर उन्हे माँ की याद आती रही। जैसे किसी बच्चे को जबरन स्कूल भेजा जा रहा हो। उस जमाने की मांये दूसरी मिट्टी की बना होता थी। आज के दौर के लड़के माँ बाप की परवाह कहाँ करते है। अच्छे कैरियर के लिये घर क्या मुल्क छोड़ देते है। रेल स्टेशन पर खड़ी थी। जितने लोग डिब्बे में आ सकते थे, उससे ज़्यादा बाहर थे। कलीम का दिमाग काम नहीं कर रहा था। एक हाथ में वे टीन के बक्से को थामें हुये थे। दूसरा हाथ खाली था। एक हाथ से डिब्बे में चढ़ने का उन्हे अभ्याश नहीं था। उन्हें इस हालत में देखकर एक कुली उनके पास आया और पूछा-बाबू क्या आपको डिब्बे में चढ़ना है? -हाँ चढ़ना है लेकिन भीड़ का हाल देखो। -आप मुझे अठन्नी दे दो मैं आपको डिब्बें में चढ़ा दूंगा। -कैसे चढ़ाओगे?

-बस आपको खिड़की से चढ़ा दूंगा।

गाड़ी छूटने के करीब थी। उनके पास कोई और विकल्प नहीं था। उसने उन्हे सामान की तरह उठाया और खिड़की से डिब्बे में ठेल दिया। अठन्नी वह उनसे पहले ही हासिल कर चुका था। डिब्बे में बैठने की क्या, खड़े होने की जगह नहीं थी। उन्होने टीन की संदूक को कुर्सी बना लिया और उसपर बैठ गये। भींड़ का रेला इधर उधर से गुजर रहा था। वे डिब्बे में दम साधे बैठे थे। कुछ यात्री आपस में लड़-भिड़ रहे थे। उनके डिब्बे में दोजख का उम्दा मंजर दिखाई दे रहा था। गाड़ी ने लम्बी सीटी दी और भरपूर धुंआ उगला। उस धुंये में स्टेशन छिप-सा गया था। छक-छक करके रेल चलने लगी। लोग धीरे-धीरे व्यवस्थित होने लगे। ट्रेन के चलने से हवाओं का आना जाना शुरू हो गया। इससे थोड़ी-सी राहत मिली। उन्होने अपनी ज़िन्दगी में गोरखपुर से बड़ा शहर नहीं देखा था। देखते भी कैसे घर से बाहर वे निकले कहाँ थे। बांसी से दर्जा बारह पास किया था और अखबार में विज्ञापन देख कर डाक से आवेदन भेज दिया था। उन दिनों लोगो की नौकरी मार्कसीट के आधार पर लग जाती थी। वह इंटर में प्रथम श्रेणी में पास हुये थे। दो विषयों में मुमताज थे। यह नौकरी उन्हे खेल-खेल में मिली थी। उन दिनों लोग नौकरी नहीं करना चाहते थे। घर से बाहर जाने के ख्याल से घबराते थे।

रेलवे में उनकी तनख्वाह दो सौ रूपये मुकर्रर हुई. उन दिनों यह रकम कम नहीं थी। लोगो ने सलाह दिया कि वह शहर से बाहर के इलाके में मकान की तलाश करे। वहाँ मकान का किराया सस्ता होगा और आबोहवा दुरूस्त होगी। उन्होने इस बात पर अमल करना शुरू किया। वे कितने दिन मस्जिद के पनाहगाह में रहते। अल्लाह के फजल से उन्हे मस्जिद के मौलवी ने रहने की जगह इस शर्त के साथ दे दी थी कि वे हप्ते भर के भीतर अपना बंदोबस्त कर लेगे। परदेश में ठहरने का सुभीता मिल गया। क्या यह कम था। होटल में ठहरते तो लुट जाते। होटल के टिटिम्मे अलग होते है। उनकी टेट में इतना पैसा नहीं था कि वे होटल का खर्चा उठा सके. तनख्वाह उन्हें एक महीने बाद नसीब होगी। दफ्तर से बचे हुये समय में वे कोलम्बस की तरह मकान की खोज करते। मकान के बारे में वे पानवालो और जनरल मर्चेंट की दुकानों में दरयाफ्त करते

अंतत: उन्हें पता लगा कि जाफरा बाज़ार में एक पुराने लेकिन लुटे पिटे जमीनदार मिर्जा साहब के यहाँ मकान खाली है। सो एक दिन वे उनके यहाँ धमक गये। अपनी पूरी तफ्सील उन्हें बंया की। उन्हें पचास रूपये माह पर तीन कमरे का मकान मिल गया। मकान के सामने खुला मैदान था। थोड़ी दूर पर सब्जी मंडी थी-जहाँ देहात से ताजी सब्जियाँ आती थी और सस्ते में मिल जाती थी। गोश्त और अंडे की खरीद के लिये दूर जाना नहीं पड़ता था। वह चौराहे के पास था। चौराहे पर मशहूर पान की दुकान थी। कलीम पुराने पनेड़ी थे। अम्मीजान के पनडब्बे से पान चुरा कर खाते थे। वहीं से वे इस आदत के गुलाम हुये। यह गुलामी अब भी बरकरार है। खाना न मिले लेकिन पान ज़रूर मिल जाय। पान खाते-खाते उनके दांत कत्थई हो गये थे। उनके मुंह से किवाम की खुशबू आती थी। मकान मिलने के बाद उन्हे इतमीनान हो गया। फिलहाल उन्हे मकान मालिक से एक बंसखट मिल गयी। दरी-चादर वे साथ लेकर आये थे। तकिये की जगह वे अपने हाथ को सिर के नीचे रख कर सोते थे। दफ्तर उनके मकान से खासा दूर था। रिक्शे से जाते तो तनख्वाह गर्क हो जाती। लिहाजा वे इस दूरी को पैदल तय करते थे। उनके मकान से थोड़ी दूर पर रेलवे लाइन थी-जो गोरखपुर रेलवे स्टेशन जाती थी। उसके साथ-साथ सड़क थी। बस उसी को पकड़ कर दफ्तर पहुंच जाते थे। इस कवायद में एक घंटे का समय खर्च होता था। जवानी की उम्र थी। उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता था। लेकिन यह तो एक तदर्थ व्यवस्था थी। शहर में आने जाने के लिये कोई मुकम्मल इंतजाम तो होना चाहिये। अगर सायकिल होती तो दफ्तर आने जाने का वक्त बचता। अभी तो ठीक है। लेकिन अगर-अगर परिवार आ गया तो इस व्यवस्था से काम नहीं चलनेवाला था। नयी सायकिल खरीदने की अभी उनकी औकात नहीं थी। कोई सेकेंड हैंड सायकिल मिल जाय तो अच्छा। लेकिन अभी वह भी मुमकिन नहीं था। तनख्वाह हाथ में आये तो अक्ल चले। इस कसमकश में पांच-छ्ह महीने तो बीत ही जायेगी।

उन दिनों दफ्तर लंच ले जाने का रिवाज नहीं शुरू हुआ था। लोग दफ्तर जाने के पहले आकंठ भोजन कर लेते थे और लंच के समय चाय इत्यादि से काम चलाते थे। रेलवे कैंटीन में नाश्ता सस्ता मिलता था। चाय चव्न्नी में मिल जाती थी। कलीम ने दफ्तर का काम धीरे-धीरे सभाल लिया था। कायदे के एक दो दोस्त बना लिये थे। उनमें से एक दोस्त विश्वनाथ थे-जो देवरिया जिले के सूदूर गांव से आये थे। वे हम उम्र और हमख्याल थे। वे अपने घर के अकेले नौकरीपेशा थे। उनकी टेबुल उनके पास थी। लंच के समय वे दोनो साथ-साथ जाते और साथ लौटते थे। उन्हे भी पान खाने का स्थायी रोग था। पान के बारे में उनका ज्ञान अदभुत था। वे पान को देखकर उसकी तासीर बता देते थे।

एक दो दिन की बात हो कही भी पैदल जाया जा सकता था। लेकिन ताउम्र किसी शहर में रहना हो दूरी नापने के लिये कोई सुविधा ज़रूर होनी चाहिये। वे सायकिल खरीदने की योजना में लग गये। सबसे पहले उन्होने अपने दफ्तर में बात चलाई. लेकिन वहाँ कामयाब नहीं हुये। अपनी इस समस्या को मकानमालिक से सामने रखा। वे शहर के पुराने बाशिंदे थे। शहर में उनकी खूब जान–पहचान थी। उन्होने अपने मिलनेवालों से यह बात बताई. सायकिल के लिये युद्ध स्तर की खोज शुरू हो गया। एक हप्ते बाद पता चला कि एक सायकिल बिकाऊ है। वह एक दो साल की चली हुई है। वह सायकिल एक ग्वाले की थी–जो देहात से दूध लाकर शहर में बेचा करता था। सायकिल की शक्ल ठीक नहीं थी। उसका रंग दूधिया हो गया था। उससे फटे दूध की गंध आती थी। तय यह हुआ कि यह सायकिल की मुख्य समस्या नहीं है। बस सायकिल को चलना चाहिये। वह चलती तो थी ही। दूधिया उसपर दूध लाद कर शहर आता जाता था। कायदे से उसे अगर धो दिया जाय। रंग–रोगन कर दिया जाय तो चमक सकती है। दूधिया उस सायकिल के डेढ़ सौ मांग रहा था। सायकिल को देख कर यह कीमत ज़्यादा लगी। काफी हो-हुज्जत के बाद सौदा सौ रूपये में तय हो गया। रात में कलीम नें सायकिल को सर्फ से धोया तो जाकर उस सायकिल का चेहरा साफ हुआ।

वे सायकिल चलाने में विज्ञ नहीं थे। बचपन में वे कैची चलाते थे। अगर थोड़ी कोशिश करेगे तो सायकिल चलाना मुश्किल नहीं होगा। रात में सोये तो उनकी नींद में सायकिल के सपने आते रहे। उन्होने देखा कि वे खुली सड़क पर सायकिल चला रहे हैं और जाकर सांड़ से भिड़ गये। उस जमाने में शहर में ज़्यादा भींड़ नहीं थी। लेकिन सड़को का बुरा हाल था। जगह–जगह गिट्टी उखड़ी हुई थी। गड्डो की भरमार थी। बारिश में वे पानी से लबालब भर जाते थे। उन्होने दफ्तर जाने के लिये साफ और धुला हुआ कपड़ा निकाला। पाजामा सायकिल की चैन से फ़ट न जाय इसलिये उन्होने उनके पायचों को गेटिस से बांध दिया। वे सायकिल पर इस अदा से सवार हुये–जैसे घोड़े के पीठ पर बैठ रहे हो। पैडिल मारी तो सायकिल कूद कर आगे चली गयी। शायद ब्रेक उनके हाथ से छूट गयी। दूसरी बार जब उन्होने पैडिल मारी तो सायकिल लहरा कर आगे बढ़ गयी और चलने लगी। उन्हे इस प्रक्रिया में रोमांच का अनुभव हुआ। कलीम को लगा कि आनेवाले दिनों में वे सायकिल को साध लेगे। वे नौसिखुये की तरह सायकिल चला रहे थे। वह कोई खतरा नहीं उठाना चाहते थे। एक कि। मी। चलने के बाद सायकिल का चैन उतर गया। फिर उसे उन्होने हिकमत से चढ़ाया। सड़को के नुकीलें पत्थरों से ट्यूब से हवा निकलने लगी। किसी न किसी तरह से वह दफ्तर पहुंचे। लोगो ने उन्हे सायकिल के लिये बधाई दी–जिसे वह ठीक से स्वीकार नहीं कर सके. उन्होने लोगो से सायकिल के पंचर बनाने की दुकान का पता पूंछा।

सायकिल मिस्त्री की दुकान पर सायकिल को पटक कर वे दफ्तर के कामकाज में मशगूल हो गये। सायकिल से दफ्तर आने का पहला दिन उनके लिये खुशगवार नहीं साबित हुआ। वह इस गम को जज्ब कर गये। सायकिल उन्हे खूब खेल दिखाती रही। वह उससे जूझते रहे। वह सायकिल के नस–नस से वाकिफ हो चुके थे। इतने कि अब वह उन्हे दगा नहीं दे सकती थी। अम्मीजान को उन्होने सायकिल खरीदने की सूचना दे दी। वह बहुत गदगद थी कि उनके साहबजादे सायकिल सवार हो गये। उनके अब्बा तो घोड़े के पीठ से आगे नहीं बढ़ सके थे। वे खेत–बारी देखने के लिये घोड़े से जाते थे। शहर उनके लिये परिचित हो रहा था। नौकरी में मन लग रहा था। उन्होने तीन कमरे का मकान इसलिये लिया था ताकि वह परिवार को ला सके. यह तालीम का जमाना है। बच्चे अगर ठीक से निकल गये तो उन्हे खुशी होगी। गांव में उन्हे शहर जैसी तालीम कहाँ मिलेगी?। यह सब उनके अम्मीजान की मर्जी पर निर्भर करता था। अगर अम्मीजान ने मना कर दिया तो वह उनके हुक्म के खिलाफ नहीं जा सकते थे। हालाकि बच्चो को गांव में कोई तकलीफ नहीं थी। उनकी परवरिश मुकम्मल तरीके से हो रही थी।

नौकरी कें छ; महीने बीत चुके थे। उन्होने फिर गांव का रूख किया। अम्मीजान, अब्बा, भाई भावज और बच्चों के लिये कपड़े खरीदे–फल-फूल लिये। कुछ पैसे घर जाने के लिये बचा लिये थे। सोचा चुपके से वे उसे अम्मीजान की गोद में डाल देगे। पत्नी का कोटा इस पैसे से अलग था। गोरखपुर से बस्ती आने के लिये उन्हे एक धेला नहीं खर्च करना पड़ा। उन्होने यह दूरी रेलवे के पास से तय की। लेकिन बस्ती से गंव का रास्ता तय करते हुये उन्हे नानी याद आ गयी। कलीम सोचते कितना अच्छा होता-अगर मेरा गांव रेलवे लाइन के पास होता तो यहाँ पहुंचना कितना आसान होता। इक्के पर लद-फद कर जब वह घर के दरवाजे पर उतरे तो उन्हे देखनेवालो की भींड़ जमा हो गयी। अम्मीजान दौड़ कर आयी और कलीम को गले लगा लिया। उनकी बीबी परदे की ओट से उन्हे देख रही थी। बच्चे उनके कंधे से लटक गये। गांव में अजीब-सा समां बध गया। कलीम को गये हुये अभी छ: माह ही हुये थे। लोगो को लगा जैसे वे वर्षों बाद लौट रहे हो। हालचाल का आदान-प्रदान हुआ। उसके बाद उन्होने चचा जान के बारे में दरयाफ्त किया। पता चला कि अभी कुछ हप्ते उनकी चिट्ठी आयी थी। उन्होने कलीम की नौकरी पर खुशी का इजहार किया था। यह सलाह दी थी कि कलीम को बच्चो की अच्छी ज़िन्दगी के लिये शहर ले जाना चाहिये।

कलीम को अपने चचाजान की याद आयी। वे बटवारे के बाद एक अच्छी ज़िन्दगी की खोज में पाकिस्तान चले गये थे। उन्हे अपना मुल्क छोड़ने में कोई दिक्कत नहीं हुई लेकिन कलीम मिंया बामुश्किल अपना गांव छोड़ रहे थे। गांव को लेकर वे बेहद जजबाती थे, लेकिन चचाजान के पास जजबातों की कोई दौलत नहीं थी। जब बटवारे में दोनो मुल्को की सरहदे जल रही थी तो वे उसी के बीच अपना सफर तय कर रहे थे। बटवारे के लहूलुहान रास्तों को तय करने के बाद जब वे अपने मनपसंद शहर रावलपिंडी पहुंचे तो उन्हे लगा था कि जैसे उन्हे उनकी मंजिल मिल गई हो। रावलपिन्डी पाकिस्तान के मशहूर शहरों में एक था। वह पंजाब सूबे का एक शहर था। तक्षशिला के करीब का शहर था। जो गजनी के हमले के बाद अपनी पुरानी सूरत खो चुका था। उनके चचाजान को मनपसंद शहर तो मिल गया था। लेकिन उम्दा ज़िन्दगी का अभी इंतजार करना था।

उन्हें रावलपिंडी की एक घनी बस्ती में रिहाइस मिली, जो मूल शहर से दूर था। यह दो कमरों का मकान था। सामने एक पतला-सा बरामदा था। उस बरामदे के सामने बूंढ़े मकानों की कतार थी–जहाँ से मुश्किल से रोशनी आती थी। उनके चचाजान को इतने छोटे से मकान में रहने की आदत नहीं थी। गांव के मकान में तो जगह ही जगह थी। नौकरी में जो मकान एलाट हुआ था, वह इससे चार गुना बड़ा था। इस मकान को लेकर वह असुविधाजनक हो गये थे। मकान के भीतर की रंगत जुदा थी। जगह-जगह प्लास्टर उखड़े हुये थे। दरवाजों और खिड़कियों में घुन लगे थे। दीवारों पर हिंदू देवी देवताओं के चित्र लगे थे। इससे पता चलता था कि यह किसी हिंदू का छोड़ा हुआ मकान था। किसी तरह उन्होने उस मकान में अपने आप को व्यवस्थित किया। लेकिन दिल को एक धक्का ज़रूर लगा। बस्ती के लोग उन्हें शक की नजर से देखते थे। एक बार सौदा–सुल्फ खर्रीदने जब दुकान पर गये तो दुकानदार ने उन्हे अजनवी जान कर उनसे उनका परिचय पूंछा, तो उन्होने बताया कि वह हिंदूस्तान से आये है। दुकानदार ने हिकारत के साथ कहा–मियाँ यह क्यों नहीं कहते कि तुम मुजाहिर हो।

यह बात उनके लिये तकलीफदेह थी। वे पाकिस्तान में इसी नाम से नवाजे जाते थे। भले ही वे पढ़े–लिखे आलिम थे लेकिन उनकी हैसियत एक बाहरी शहरी के नाम से बन चुकी थी। ऐसे एक नहीं कई वाकये उनके रोजमर्रे की ज़िन्दगी को काबिज कर चुके थे। कभी-कभी वे सोचते कि उन्होने यहाँ आने का ग़लत फैसला किया है। लेकिन अब क्या, गोली तो बंदूक से छूट चुकी थी। इस गम को वे आने सिवा किसी से बाट भी नहीं सकते थे। कोई उनके बारे में दरियाफ्त करना चाहता तो गोल-मोल जबाब कर चुप हो जाते थे। कलीम उन्हें उधेड़–उधेड़ कर पूंछते लेकिन अपना दुख नहीं कुबूलते। वे कहीं भी जाते, यह गम उनके कंधे पर सवार रहता था।

तीन-चार दिन की छुट्टी पलक झपकते खत्म हो गयी थी। गांव में कलीम की सेहत अच्छी थी। शहर पहुंच कर खराब नहीं हुई थी। दफ्तर आते जाते शरीर पर जोर पड़ता ही था। इसलिये उनका चेहरा कुछ चिचुक गया था। कलीम ने अम्मीजान से बीबी बच्चों को शहर ले जाने के बावत कोई चर्चा नहीं की। जब वे जाने लगे तो कलीम की अम्मीजान ने कहा कि वह जब अगलीबार आये तो बीबी बच्चो को साथ ले जाय। उन्होने कहा कि वह तो गांव में ठीक से रह रही है = कलीम शहर में अकेले है। बच्चे उनके लिये हुड़कते रहते है। कलीम ने प्रतिवाद करते हुये कहा ‌-अम्मीजान हमारी फिक्र न करिये हम मजे में है अम्मीजान ने कलीम की बात को अनसुना कर हुक्म सुना दिया। कलीम सोचते रहे–क्या अम्मी ने उनकी बात को पढ़ लिया था या यह अल्ला की मर्जी से हो रहा है। गांवो में यह रवायत थी कि अगर कोई पढ़–लिख कर नौकरी पर जाता था तो बीबी बच्चो की जिम्मेदारी संयुक्त परिवार के मुखियाँ उठाते थे। शादी-व्याह गांव से होते थे। यह परम्परा धीरे–धीरे टूटती चली गयी। जैसे-जैसे तालीम बढ़ी, लोग नौकरी के लिये शहर जाने लगे। उनके साथ उनके बच्चे भी गये। यह एक तरह से विस्थापन का दौर था जो आजादी के बाद शुरू हो चुका था। शहर में घर को लेकर उन्होने सपने देखने शुरू कर दिये। बीबी से गांव में मिलने का अच्छा मौका नहीं मिलता था। चोर की तरह मुंह छुपा कर मिलते थे। कहीं लोगो की जुबान से यह न निकल जाय कि यह बीबी का गुलाम हो गया। इन बंदिशो के बावजूद वह तीन बच्चो के अब्बा बन चुके थे। अभी पूर्णविराम नहीं हुआ था। खेलने–खाने के लिये पूरी उम्र पड़ी थी। इस कल्पना से वह रोमांचित थे कि अब बीबी से इश्क लड़ाने का मौका मिलेगा। उनके ख्यालों के परिंदे उड़ने लगे। यह खबर उन्होने मकानमालिक को बताई,। वे बे इंत्तेहा खुश हुये। बोले-मियाँ यह बहुत ठीक हुआ। भला शहर में अकेले आदमी की कोई ज़िन्दगी है। न खाने का ठिकाना न पीने का वक्त। अकेला आदमी घर में बनाकर खाये या होटल में मुंह मारे–भूख नहीं मिटती है। जो लुत्फ बीबी के हाथ परोसे गये खाने में है, वह बाहर नहीं नसीब होता। कलीम मकान को दुरूस्त करने में लग गये। किस कमरे को बेडरूम बनाया, किसे बैठका और कहाँ पढ़ने के लिये बच्चों की मेज लगायी जाय। एक दो चारपाई और एक तख्त की दरकार तो होगी ही। तख्त बैठके में पड़ जायेगी। गाहे–बगाहे एक आदमी वहाँ सो सकता है। उनके पास छ: माह का समय था। इसी में कतर–व्योत करनी थी। नयी गृहस्थी बसाना हंसी खेल नहीं था। गांव पर सब कुछ सामूहिक था। यहाँ सूई से लेकर हाथी तक का इंतजाम करना था।

छ: माह बीतने के बाद बीबी बच्चे आ गये। उनका मकान घर बन सुबह चाय के लिये चौराहे पर नहीं जाना पड़ता था और न खाने के लिये होटलों की खाक छाननी पड़ती थी। पहले सांड़ की तरह अकेले मकान में हूंफते रहते थे। लेकिन अब द्र्श्य बदल चुका था। सुबह उठते बीबी उनके हाथ में चाय का प्याला थमा देती थी। मन होता तो बीबी को खींच कर अपने पास बैठा लेते थे। बीबी कहती-उम्र देखो मियाँ। बच्चे बड़े हो गये है। हंस कर कहते–गांव में तो तुम घास नहीं डालती थी। बस अम्मीजान का पल्लू पकड़ कर घूमती रहती थी। बाकी समय बच्चे खा जाते थे। अब गिन-गिन कर बदला लूंगा। -देखती हूँ कैसे बदला लेते हो। यह कह कर कलीम की बीबी रसोईघर की ओर चली गयी।

कलीम मियाँ ने सोचा किसी दिन मकानमालिक को दावत पर बुलाया जाय। उन्होने उनके घर कई बार मुफ्त की रोटियाँ तोड़ी है। कभी बारिश होती या न जाने का मन होता तो मकानमालिक अपने बच्चों को भेज कर बुला लेते। उनके इनकार के बावजूद उन्हे खिलाकर ही भेजते। कलीम की बीबी उम्दा गोश्त बनाती थी। मछली बनाने में उनका कोई जबाब नहीं था। कीमा–कलेजी हो बिरयानी या मछली के कबाब, वह सब में पारंगत थी। लोग ऊंगुलियाँ चाटते रह जाते थे।

मकानमालिक की दावत के लिये जुमे का मुबारक दिन तय हुआ। दावत की इत्तला सुबह दे दी गई थी। कलीम थोड़ा पहले ही दफ्तर से घर आ गये थे। चिकवा से दो किलो गोश्त के लिये कहा और ताकीद थी। सीना, गोड़ी ज़रूर शामिल करे। साथ में आधा किलो कलेजी भी बांध दे। वाइन उन्होने अपने मुहल्ले की दुकान से नहीं खरीदी। उन्हे डर था कि कोई देख न ले। हालांकि जो न पीने की सलाह देते है, वे चुपके-चुपके पीते है। एहतियात बरतने में क्या जाता है। इसलिये वे अपने दफ्तर के पास वाली दुकान से खरीद लिया था। उनका घर पकते हुये गोश्त की खुशबू से महक रहा था। गोश्त की गंध मादक होती है। इस महक से मुहल्ला बेचैन हो उठा था। लोगो को पता लग गया कि आज कलीम के यहाँ जश्न की तैयारी हो रही है। बैठका सज गया था। बच्चों से कह दिया गया कि जब मिर्जा साहब आये तो बच्चें इधर झांकने की कोशिश न करे। बच्चो ने कहीं पीते हुये देख लिया तो बुरा असर पड़ेगा। वह नहीं जानते थे कि बच्चे उनसे ज़्यादा चतुर है। कलीम की बीबी ने मनपसंद साड़ी पहन ली था और वह हसीन लग रही थी। अभी उम्र ही क्या थी। जब सोलह की हुई तभी कलीम से निकाह हो गया था। बड़ा बेटा दस साल का है जो निकाह के एक साल बाद पैदा हुआ था। यानी उनकी बीबी छब्बीस या सत्ताइस के पेटे में होगी। आजकल के समय में इस उम्र तक लड़कियाँ अपने पढ़ाई में लगी रहती है और छत्तीस साल तक शादी के बारे में सोचती है। उस वक्त से इस वक्त में कितना परिवर्तन हो गया है। कलीम जानते थे बिना शराब के गोश्त खाने में कोई आनंद नहीं आता। सुरूर के बाद आदमी हवा में उड़ने लगता है। मकानमालिक जश्न में शरीक होने के लिये अपनी दाढ़ी और बाल रंग चुके थे। अगर कलीम अकेले होते तो यूं ही चले आते। लेकिन जब से कलीम की बेगम आयी है, अपने पहनने ओढ़ने पर ध्यान देने लगे हैं। उनकी एक झलक पाने के लिये निरूद्देश्य खिड़की की तरफ से गुजर जाते है। अपने वक्त के वे पुराने रसिक थे।

बैठक में साजो-सामान सज चुका था। भुना हुआ गोश्त, तली हुई कलेजी और सलाद और सामने बिराजमान शराब की बोतल। इन्हे देख कर दोनो के मुंह में पानी आ गया। बोतल मिर्जा साहब के हाथ में थमाते हुये कलीम ने कहा–अब इस बोतल का गुरूर तोड़िये। -हुजूर मैंने बड़े बड़ो का गुरूर तोड़ा है। अब आप इस मैदान में आइये। -मिर्जा साहब ने अपनी बायीं आँख दबा कर यह जुमला कहा।

कलीम ने उनकी यह बात कुबूल कर ली। जोर लगा कर बोतल का ढक्क्न घुमाया और बोतल का मुंह खुल गया। ढक्कन में कुछ शराब ढाल कर बुरी रूहों के नाम अर्पित कर दिया। कलीम और मिर्जा साहब की उम्र में काफी अंतर था। मिर्जा खुले दिल के आदमी थे इसलिये उम्र का फासला मिट गया था। एक पैग अंदर गया तो वे तरल हो उठे। -कलीम मियाँ जब यह कम्बख्त शराब भीतर जाती है तो तूफान मच जाता है। पुराने जख्म ताजा हो जाते है। -कैसे जख्म-मिर्जा साहब -बटवारे के जख्म मियाँ -आप के यहाँ कौन पाकिस्तान गया

-कौन क्या, मेरा सगा भाई मुझे छोड़ कर चला गया। बहुत मिन्नत की लेकिन वे राजी नहीं हुआ। बोला-यहाँ हिंदुस्तान में क्या रखा है। यहाँ मुसलमानों को वह दर्जा नहीं मिलेगा जिसके वह मुस्तहक हैं। अब पछता रहा है लेकिन इस बात को कुबूल नहीं करता कि उसने ग़लत फैसला किया है। -यानी आप भी उसी दुख के मारे है, जिसने हमारा सीना छलनी कर दिया है। -आपके कहने का क्या मतलब है मियाँ। क्या आपके यहाँ ऐसा हादसा हुआ है। -हाँ हमारे चचा जान हमे छोड़ कर चले गये। वे फितरत से अफसानानिगार थे। उनके अफसाने कई रिसालों में साया हुये थे। वह ऐसा दौर था–जब जोश मलीहाबादी, मंजनू गोरखपुरी। मंटो और इंतजार हुसेन अपना मुल्क छोड़ कर पाकिस्तान चले गये। ये सारे लोग उनके रोलमाडल थे। कहते–ऐसे लोग क्या कोई गलती कर सकते हैं। मिर्जा साहब आप जानते है, ऐसे लोगो को पाकिस्तान ने कुबूल नहीं किया। वे मुहाजिर के तखल्लुस से नवाजे गये। -मजा तो यह है वे इस हकीकत को नहीं मानते। न खुदा ही मिला न विसाले-यार / न इधर के रहे न उधर के हुये।

-कलीम मियाँ–क्या आप के चचाजान कभी तशरीफ लाते है। -हाँ वे गाहे–बगाहे आते रहते है। उन्हे अपने गांव और अपने लोगो से बेपनाह मुहब्बत करते हैं। लेकिन वहाँ से आना आसान नहीं है। बहुत-सी फारमेलिटी करनी पड़ती है। अगर दोनो मुल्क के रिश्तो में कोई तनाव न हो तो रास्ता आसान हो जाता है। नहीं तो आप तड़फते रहिये।

उन दोनो के दुख एक जैसे थे। उनके भीतर खालीपन ने जगह बना ली थी। ईद बकरीद जैसे त्योहारो पर उन्हे बिछुड़े हुओं की याद आती थे वे इसी दुनियाँ में रहते थे। लेकिन वहाँ पहुंचना आसान नहीं था। अपने मुल्क में रहते तो टिकट कटा कर चले जाते और वे भी आ जाते। यहाँ वे दो अलग–अलग छोरों पर रहते थे। जहाँ जाने के लिये पासपोर्ट की ज़रूरत होती है। पक्षी होते तो उड़ कर चले जाते। तीसरा पैग गिलास में ढाला जा चुका था। उन दोनो को लगने लगा था कि शराब में कोई तासीर नहीं बची है। उनका नशा हिरन होता जा रहा था। भूलने की जगह बहुत-सी चीजें याद आने लगी थी। इस बैठकी में कलीम मिर्जा साहब की ज़िन्दगी के कई पहुलओं को जान चुके थे। उनसे उन्होने अपने गम भी साझा किया था। खाना बहुत लजीज बना था। सचमुच कलीम की बीबी के हाथों में जादू था। वह मेहमानों के लिये दिल से खाना बनाती थी। मिर्जा साहब ने हचक कर खाया। बहुत दिनों बाद उन्हे इतना बेहतरीन खाना खाने को मिला। उन्होने कलीम की बीबी को इतने अच्छे खाने के लिये शुक्रिया कहा॥ रात के दस बज चुके थे। चौराहे की पान की दुकान बंद हो चुकी थी। गोश्त खाने के बाद अगर पान का बींड़ा न मिले तो कुछ अधूरा लगता था। पान खाने से मुख की शुद्धि हो जाती थी। वे पान खाने के लिये अलीनगर चौराहे की ओर चल पड़े थे। सड़क पर सन्नाटा छा गया था। केवल कुत्तो का भूंकना जारी था। ज्यादातर मकानों की बत्तियाँ गुल हो चुकी थी।

इस बैठकी के बाद कलीम और मिर्जा के रिश्ते मजबूत हो गये थे। दोनो परिवार बेझिझक एक दूसरे के घर आने जाने लगे थे। कलीम इस तब्दीली से बहुत खुश थे। यह उनके जीवन का नया मोड़ था। गांव की ज़िन्दगी पीछे छूट चुकी थी। मिर्जा साहब के बच्चे बड़े हो चुके थे। वे दूर के शहरों में मुलाजमत करते थे। घर पर मियाँ बीबी ही थे। कभी-कभी गांव अपनी जमीन जायदाद देखने चले जाते थे। उनके खेतों की देखभाल सीरवाह करता था। बीबी बच्चो के साथ उनकी ज़िन्दगी अच्छे से गुजर रही थी। उन्हें कलीम जैसे किरायेदार मिल गये थे। उन्हे लगता नहीं था कि वे किरायेदार है। वे एक दूसरे के दुख–सुख में शरीक रहते थे।

दिन परिंदों की तरह परवाज भर रहे थे। ये दिन धूप–छांव से भरे हुये थे। एक दिन सायकिल की घंटी बजाता हुआ डाकिया आया। कलीम ने सोचा कि गांव से खत आया होगा। खत खोला तो वह उनके चचा–जान का था जो पाकिस्तान के रावलपिंडी शहर से भेजा गया था। खत उनके हाथ में इस तरह लग रहा था कि वह जैसे कोई परिंदा हो। इसी तरह परिंदे की तरह उनके चचा जान उड़ गये थे और पाकिस्तान को अपना चमन मान लिया था। कलीम के लिये खत केवल खत नहीं होते वे उन्हे ज़िन्दगी के दस्तावेज की तरह पढ़ते है। उन्हे चचा–जान की एक-एक बाते याद आने लगी। जिस दिन उन्हें चचा–जान का खत मिला था–उसके ठीक हप्ते भर बाद उनकी आमद थी। परिवार में पति–पत्नी के अलावा चार बच्चों की छोटी-मोटी फौज थी। चचा जान का रहन–सहन उम्दा था। वे रावलपिंडी जैसे आधुनिक शहर में रहते थे और पाकिस्तानी हूकूमत में आला अफसर थे। कलीम मियाँ रेलवे विभाग में छोटे कद के कारकून की हैसियत में थे। लेकिन दिल दोनो का एक जैसा था–एक दूसरे के लिये बराबर घड़कता था। हाँ बीबीजान और उनके बारे में उन्हे कोई तफ्सील नहीं मालूम थी। वैसे भी आजकल के बच्चे नकचढ़े होते है। उन्हे शैतान की औलाद कहा जाय तो कोई बेजा नही।

उनके पास एक हप्ते का वक्त था। इस बीच घर को दुरूस्त करना था। कम से कम उन लोगो के लिये दो कमरे छोड़ने पड़ेगे। वे अपने परिवार के साथ बैठकखाने में गुजार लेगे। दो तीन सेट विस्तर और चारपाई की ज़रूरत होगी-वे भी उम्दा किस्म के होने चाहिये। उनके पास एक सेट तो है लेकिन चीकट हो गया है। एक सेट मिर्जा साहब से हासिल हो सकता है। उन्होने सोचा कि बेहतर यह होगा कि विस्तर आदि के लिये टेंट–हाऊस पर भरोसा किया जाय। अभी-अभी ताजा टेंट हाउस मुहल्ले में खुला है। क्यों न उसकी शरण में जाया जाय। टेंट हाउस का मालिक एक नौजवान लड़का था। नौकरी नहीं मिली तो उसके एवज में टेंट हाऊस खोलना बुरा नहीं था। शादी ब्याह के मौसम में हर किसी को ज़रूरत रहती है। टेंट हाउस के मालिक बशीर को उन्होने आदाब–अर्ज कहा। तो बशीर ने कहा चचा-जान आदाब तो मुझे कहना चाहिये। -हुक्म करिये चचा-जान, मैं आपके लिये क्या कर सकता हूँ -मियाँ बिलायत से कुछ मेहमान आनेवाले है। बस उनके लिये दो सेट विस्तर चाहिये। -चचा जान-मेरे पास एकदम नया सेट है। फोल्डिंग चरपाई नई-नई है। आप ही इसे पहली बार इस्तेमाल करेगे। अभी इस्तेमाल नहीं हुआ है। मैं इसे अलग रख देता हूँ। आप तारीख दर्ज करा दे।

एक मोर्चे पर कलीम ने फतेह हासिल कर ली। अब उन्हे घर को कायदे से व्य्वस्थित करना है। किसी मजदूर को बुलाकर घर की सफाई करवानी थी। घर के कूढ़–कबाड़ को रूखसत करना था। पर्दे धुलवाने थे। गोश्त और अंडे की दुकान को कहना था कि वह वक्त पर चीजें मुहय्या करवा दे। महीने के आखिर में वे पेमेंट कर देगे। इस तरह एक काम के साथ कई काम करने थे। वे अपने दोस्त विश्वनाथ को एक-एक चीजें बताते थे और उनकी राय लेते थे। वे उनके हमराह थे।

चचाजान जिनका नाम आफताब था, वे सीधे रावलपिंडी से लखनऊ के हवाई अड्डे पर मय फेमिली उतरे-किराये की मोटर ली और गोरखपुर की तरफ रवाना हो गये। बीबी के लिये नहीं बच्चों के लिये यह नयी जगह थी। इनके दो बच्चे हिंदूस्तान में पैदा हुये थे। वे बचपन में यहाँ से चले गये। बाकी दो बेटियाँ पाकिस्तान की पैदावार थी। मिर्जा साहब के पास फोन था-सो चचा–जान ने अपने आने की खबर को पक्का कर दिया था।

इत्तफाक से उस दिन इतवार था। कलीम को दफ्तर से छुट्टी नहीं लेनी पड़ी। घर के लोग चचा–जान के इंतजार में बेचैनी से नाच रहे थे। बच्चे इस बात से खुश थे कि वे मोटर देखेगे और समय मिला तो शहर घूम लेगे। उन दिनों मोटरे कम हुआ करती थी। गोरखपुर में कितनी मोटरें होगी–इसकी गिनती की जा सकती थी। मोटरे ज्यादातर जमींदारों और आला अफसरों की किस्मत में थी। किराये पर कम चलती थी। उनका किराया भरना सबके बस की बात नहीं थी। चचा जान के पास दौलत की कमी नहीं थी। वह अच्छी तनख्वाह पर लगे थे। जैसे चौराहे पर मोटर पहुंची–उसका हार्न सुनाई पड़ने लगा। हार्न की ध्वनि मीठी थी-जैसे कोई पियानो बज रहा हो। मुहल्ला उसकी ध्वनि से गूंज उठा। कलीम और उनका परिवार इस बात से खुश था कि चचाजान मोटर से आ रहे है। इस बात से उनकी शान बढ़ जायेगी। मुहल्ले में कोई मोटर से नहीं आता था। यह पहला वाकया होगा। चचा-जान को देखकर कलीम लगभग दौड़ पड़े। उनसे गले मिले–सफर और ज़िन्दगी का हालचाल पूंछा। उन दोनो की आंखे भींग चुकी थी। वे दोनो पांच साल बाद मिले थे। उन्हें गांव में ईद का दिन याद है–जब दोनो ने मिल कर सेवई खायी थी और गांव में सबसे वालेकुम किया था। पांच साल यूं देखते-देखते ही उड़ गये थे। उन्होने देखा कि चचाजान का चेहरा कुछ बुढ़ा गया है। सिर के बालों ने सफेदी पहन ली है। आंखों पर मोटे लेंस का चश्मा लग गया है। कुल मिला कर वे अपनी उम्र से ज़्यादा लग रहे थे। ऐसा क्यों हुआ है-अभी इसकी तफ्सीस का वक्त नहीं है। चची जान उनकी बीबी से गले मिल रही थी और बच्चे उनकी नकल कर रहे थे। कलीम मियाँ और चचाजान के बच्चों में फर्क दिखाई दे रहा था। चचाजान के बच्चे खूबसूरत कपड़ो में थे। कलीम के बच्चों के कपड़े उतने नफीस नहीं थे। घर अचानक भर गया था। बच्चों को उनके कमरे बता दिये गये और चचाजान को उनकी जगह। उनके आने का तूफान धीरे–धीरे थम रहा था। -कैसे हो कलीम मियाँ-कैसी ज़िन्दगी चल रही है। -ठीक है चचा जान। साल भर से रेलवे की नौकरी में लगा हूँ। मैं चाहता था–बच्चे गांव में रहे लेकिन अम्मीजान ने कहा कि मैं बच्चों के साथ शहर में रहूँ। -भाभी जान ने तुम्हारे लिये सही फैसला किया। यह वक्त अपने बारे में नहीं बच्चों की ज़िन्दगी के बारे में सोचने का है। दुनियाँ बदल रही है मियाँ–जो दुनियाँ की रफ्तार के साथ नहीं चलेगा, वह पिछड़ जायेगा। -आप कैसे हैं चचा जान? ... कलीम ने पूंछा -ठीक हूँ मियाँ। सब कुछ अच्छा है। लेकिन वतन की याद बहुत आती है कलीम का मन हुआ कि वह कहे कि वतन से जाने का उनका जातीय फैसला था। लेकिन संकोच के नाते कह नहीं पाये। कभी-कभी कढ़वे सवाल जज्ब कर लिये जाते हैं। वह चचाजान से ऐसी कोई बात नहीं कहना चाहते थे–जिससे उनके दिल को तकलीफ न हो। डायनिंग टेबुल बातचीत करने की अच्छी जगह होती है। सब लोग एक साथ बैठे। कलीम के चचाजान के बच्चों ने कहा-अब्बा यहाँ का टायलेट बहुत खराब है। यह यूरोपियन स्टाइल का है। -कोई बात नहीं है बेटा, यहाँ टायलेट इसी तरह बने होते है। थोड़ा एडजस्ट करो। कलीम क्या कर सकते थे। उन्हें पता था कि रावलपिंडी की ज़िन्दगी गोरखपुर जैसे छोटे शहर से अलग है। कलीम मूल रूप से गांव के रहनेवाले थे। अभी उन्होने अभी शहर का मुंह देखा है। गांव में लोग घर के बाहर दिशा–मैदान के लिये जाते थे।

चचाजान के बच्चे थोड़े तुनक मिजाज थे। मेज पर आमलेट लग चुका था। लेकिन बच्चे हाफ फ्राई के लिये जिद्द कर रहे थे। वे चाय की जगह वे काफी की फरमाइस कर रहे थे। उधर कलीम के बच्चे थे–जो दे दिया खा कर चुप हो गये। यहाँ मंजर ही अलग था। चचाजान इस स्थिति को लेकर परेशान थे। अभी उन्हे यहाँ पांच दिन रहना था। इस स्थिति को सम्भालने के लिये कलीम का घर रहना ज़रूरी था। उन्होने सोचा कि उन्हे दफ्तर से छुट्टी ले लेना चाहिये। उनकी बीबी इस हालत से परेशान हो सकती है। चचा जान के आने से उन्हे कोई असुविधा नहीं हुई थी। बल्कि अच्छा ही लगा था। बच्चों की बात अलग थी। वे अपने पिता की तरह अनुशासित नहीं थे। वे मनबढ़ थे। दफ्तर पहुंचे तो कलीम का मुंह लटका हुआ था। विश्वनाथ नें पूंछा तो वह पूरी स्थिति बयान कर गये। बताया कि कैसे उन्होने टेंट हाऊस से विस्तर और चारपाई का इंतजाम किया। उनके बच्चों के बारे में बताया। विश्वनाथ ने कहा कि उन्हे अब छुट्टी ले लेनी चाहिये। बीबी सीधी–साधी है। इस हालत को सम्भाल नहीं पायेगी। उनके आने से कलीम को असुविधा तो थी ही, लेकिन मेहमान की मेजबानी करना उनका फर्ज था। चचाजान मेहमान कहाँ थे। वे तो उनके दिल के टुकड़े थे॥ उनकी यह ट्रेजॅडी थी जो उनके अपने थे वे दूर के मेहमान बन चुके थे। विश्वनाथ उनके घर से दूर नहीं रहते थे। उनकी रिहाइस सिनेमा रोड पर थी। यदा कदा उनके यहाँ चले जाते थे और अपनी परेशानियाँ उन्हे बताते थे। उनके चचाजान और चच्ची मिजाब से अच्छे थे लेकिन बच्चे गदर मचाये हुये थे। वे कलीम के बच्चों के साथ ठीक से नहीं रहते थे। उन्हे कलीम का घर पसंद नहीं आया था। बात-बात पर रावलपिंडी के अपने घर के बारे में कशीदे पढ़ते रहते थे। कलीम के बच्चे अपने अब्बा से इस बारे में शिकायत करते तो कलीम उन्हें चुप करा देते थे। बोलते–बेटे चुप रहो, बस कुछ दिनो की बात है। चचाजान के जाने के एक दिन पहले उन्होने मिर्जा साहब को उन्होने दावतनामा भेजा। उनके भाई भी पाकिस्तान के कराची शहर में रहते थे। सोचा दोनो लोग मिल कर अपने दिल की बात करेगे। यह तभी मुमकिन था जब बच्चों की फौज वहाँ न हो। उनकी मौजूदगी में बातचीत नहीं हो सकती थी। इस मसाइल का हल मिर्जा साहब ने निकाला। यह तय हुआ कि पीने का इंतजाम उनके यहाँ और खाना कलीम कें यहाँ हो।

मिर्जा साहब के दीवानखाने से रईसी टपक रही थी। सोफे बड़े थे कि आदमी बैठे तो उसमें घंस जाय। मेज पुराने शीशम की लकड़ी से बनी हुई थी। दीवानखाने में जमींदारी के दिनों की तस्बीरे थी जो वक्त के साथ धुंधला चुकी थी। खूंटी पर बंदूक टंगी हुई थी। उनके पूर्वज राय बहादुर के खिताब से नवाजे गये थे। अंग्रेज बहादुर उस तस्बीर में मौजूद थे। मेज पर साजो-सामान सज चुका था। मिर्जा साहब ने टेपरिकार्डर में कैसेट लगा कर उसे आन कर दिया था। फैज की ग़ज़ल बजने लगी ...आये कुछ अब्र और शराब आये / उसके बाद आये जो अजाब आये। मिर्जा साहब चचा जान से गले मिले। उनके हालचाल पूंछे। यह भी बताया कि उनकी तरह उनके बड़े भाई ने पाकिस्तान को अपना वतन चुन लिया था। दोनो एक दूसरे के लिये अजनवी थे। लेकिन जैसे हलक में पहला पैग पहुंचा–दोनो बेधड़क हो गये थे। मिर्जा साहब ने पहल की।

-भाईजान पाकिस्तान में आपका कैसे वक्त गुजर रहा है? क्या वहाँ के हालात यहाँ से बेहतर है? इस तरह के सवाल पूंछने की इच्छा तो कलीम की थी, लेकिन वह पूंछ नहीं सके. कही चचाजान बुरा न मान जाय। पहले तो वे इस तरह की जहमत उठा सकते थे लेकिन अब पूंछना मुश्किल था। चचाजान इस सवाल पर खामोश थे। लेकिन उन्हे जबाब तो देना ही था -भाईजान दुनियाँ के हर मुल्क में किसी न किसी तरह की दिक्क्त है। हर मुल्क की जहाँ अपनी मसाइलें है वहाँ कुछ सहूलियते भी है। चाहे वह पाकिस्तान हो या हिंदूस्तान। यह मिर्जा साहब के सवाल का जबाब नहीं था बल्कि यह सवाल से बड़ा सवाल था। जो लोग पाकिस्तान गये है वे इसी तरह का जबाब देते है। मिर्जा साहब के भाई भी इसी तरह का जबाब देते थे। इस सवालनुमा जबाब से यह समझा जा सकता है कि वे बेहतर स्थिति में नहीं है। लेकिन साफ कहने का साहस उनके पास नहीं था। वे अपने फैसले पर पछताना नहीं चाहते थे। ऐसा करेगे तो पकड़ लिये जायेगे। उन लोगो के बीच बातचीत जारी थी लेकिन बीच-बीच में खामोशी तारी हो जाती थी। इस खामोशी में बहुत से सवालो के जबाब छिपे हुये थे। रात के ग्यारह बज चुके थे। सबके गले में कुछ न कुछ अटका हुआ था। खुल कर बात न होने का दुख था। वे दोनो उनके दुख को जानना चाहते थे। यहाँ चचाजान थे कि वे कुछ कुबूल नहीं रहे थे। अगर कुबूलते भी तो इससे क्या फर्क पड़ता। यह ज़रूर था इससे दिल से बोझ उतर जाता

मिर्जा साहब ने अपने भाई का पता उन्हे दिया और साथ एक खत भी। अगले दिन उनकी रूखसती थी। यहाँ से उन्हें गांव जाना था। कलीम इस बात से परेशान थे कि चचाजान के बच्चे वहाँ कैसे रहेगे। हालाकि बच्चो को वहाँ के बाग बगीचे, पोखर ताल खूब पसंद आ सकते है। रातभर वे पैकिंग करते रहे। कलीम ने भरे गले से कहा–चचाजान अब आप कब तसरीफ लायेगे? -मियाँ ज़िन्दगी रही तो अगले साल ज़रूर आऊंगा। इस बार अकेले आना होगा। दिल्ली में एक सेमिनार है। मैं तुम्हे वहाँ बुला लूंगा। कुछ दिन मेरे साथ रहना। वहाँ से हम दोनो गोरखपुर आ जायेगे और फिर वहाँ से गांव चलेगे। तुम्हारे साथ कुछ लमहें याद करेगे।

कलीम को लगा कि चचाजान भावुक हो रहे है। रात भर कलीम को नींद नहीं आयी। चचाजान ही कहाँ सो रहे थे। बस सोने का ढोग कर रहे थे। उनके करवटों में बेचैनी थी। कलीम ने सोचा–चचाजान पहले जैसे नहीं रह गये थे। उम्र सबकी होती है। लेकिन चचाजान अपने भीतर कुछ खोये-खोये से लगे। सुबह सुबह ही मोटर आ चुकी थी। दोनो की बीबियाँ के चेहरे पर एक अजब-सी वीरानगी थी। इन चार पांच दिनों में वे एक दूसरे से हिल मिल गयी थी। अब जुदा होना अच्छा नहीं लग रहा था। कलीम ने चचाजान को बाहों में जकड़ रखा था। आंसुओ से उनके कुर्ते भींग चुके थे। बामुश्किल अलग हुये। मोटर कलीम के दरवाजे से निकल चुकी थी। लोग उसे जाते हुए देख रहे थे। यह जाना तकलीफदेह था।

मोटर के हार्न की आवाज धीरे-धीरे मद्धिम हो रही थी लेकिन कलीम की रूलाई अभी रूकी नहीं थी।