दूसरा अध्याय - सर्वनाम / कामताप्रसाद गुरू

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दूसरा अध्याय सर्वनाम 113. सर्वनाम उस विकारी शब्द को कहते हैं जो पूर्वापर संबंध से किसी भी संज्ञा के बदले में आता है, जैसेμमैं (बोलनेवाला), तू (सुननेवाला), यह (निकटवर्ती वस्तु), वह (दूरवर्ती वस्तु) इत्यादि। (टि.μहिंदी के प्रायः सभी वैयाकरण सर्वनाम को संज्ञा का एक भेद मानते हैं। संस्कृत में ‘सर्व’ (प्रातिपदिक) के समान जिन नामों (संज्ञाओं) का रूपांतर होता है उनका एक अलग वर्ग मानकर उसका नाम ‘सर्वनाम’ रखा गया है। ‘सर्वनाम’ शब्द एक और अर्थ में भी आ सकता है। वह यह है कि सर्व (सब) नामों (संज्ञाओं) के बदले में जो शब्द आता है, उसे सर्वनाम कहते हैं। हिंदी में सर्वनाम शब्द से यही (पिछला) अर्थ लिया जाता है और इसी के अनुसार वैयाकरण सर्वनाम को संज्ञा का भेद मानते हैं। यथार्थ में सर्वनाम एक प्रकार का नाम अर्थात् संज्ञा ही है। जिस प्रकार संज्ञाओं के उपभेद व्यक्तिवाचक, जातिवाचक और भाववाचक हैं, उसी प्रकार सर्वनाम भी एक उपभेद हो सकता है, पर सर्वनाम में एक विशेष विलक्षणता है, जो संज्ञा में नहीं पाई जाती। संज्ञा से सदा उसी वस्तु का बोध होता है, जिसका वह 1. जो पदार्थ केवल ढेर के रूप में नापा-तौला जाता है, उसे द्रव्य कहते हैं; जैसे अनाज, दूध, घी, शक्कर, सोना इत्यादि। हिंदी व्याकरण ध् 75 (संज्ञा) नाम है; परंतु सर्वनाम से, पूर्वापर संबंध के अनुसार, किसी भी वस्तु का बोध हो सकता है। ‘लड़का’ शब्द से लड़के ही का बोध होता है, घर, सड़क आदि का बोध नहीं हो सकता; परंतु ‘वह’ कहने से पूर्वापर संबंध के अनुसार, लड़का घर, सड़क, हाथी, घोड़ा आदि किसी भी वस्तु का बोध हो सकता है। ‘मैं’ बोलनेवाले के नाम के बदले आता है, इसलिए जब बोलनेवाला मोहन है, तब ‘मैं’ का अर्थ मोहन है, परंतु जब बोलनेवाला खरहा है (जैसा बहुधा कथा कहानियों में होता है) तब ‘मैं’ का अर्थ खरहा होता है। सर्वनाम की इसी विलक्षणता के कारण उसे हिंदी में एक अलग शब्दभेद मानते हैं। ‘भाषातत्त्वदीपिका’ में भी सर्वनाम संज्ञा से भिन्न माना गया है; परंतु उसमें सर्वनाम का जो लक्षण दिया गया है, वह निर्दोष नहीं है। ‘नाम को एक बार कहकर फिर उसकी जगह जो शब्द आता है, उसे सर्वनाम कहते हैं।’ यह लक्षण ‘मैं’, ‘तू’, ‘कौन’ आदि सर्वनामों में घटित नहीं होता; इसलिए इसमें अव्याप्ति दोष है; और कहीं-कहीं यह संज्ञाओं में भी घटित हो सकता है, इसलिए इसमें अतिव्याप्ति दोष भी है। एक ही संज्ञा का उपयोग बार-बार करने से भाषा की हीनता सूचित होती है, इसलिए एक संज्ञा के बदले उसी अर्थ की दूसरी संज्ञा का उपयोग करने की चाल है। यह बात छंद के विचार से कविता में बहुधा होती है; जैसेμमनुष्य के बदले ‘मानव’, ‘नर’ आदि शब्द लिखे जाते हैं। सर्वनाम के पूर्वोक्त लक्षण के अनुसार इन सब पर्यावाची शब्दों को भी सर्वनाम कहना पड़ेगा। यद्यपि सर्वनाम के कारण संज्ञा को बार-बार नहीं दुहराना पड़ता है, तथापि सर्वनाम का यह उपयोग उसका असाधारण धर्म नहीं है। भाषाचंद्रोदय में ‘सर्वनाम’ के लिए ‘संज्ञाप्रतिनिधि’ शब्द का उपयोग किया गया है और संज्ञाप्रतिनिधि के कई भेदों में एक का नाम ‘सर्वनाम’ रखा गया है। सर्वनाम के भेदों की मीमांसा इस अध्याय के अंत में की जायगी; परंतु ‘संज्ञाप्रतिनिधि’ शब्द के विषय में केवल यही कहा जा सकता है कि हिंदी में ‘सर्वनाम’ शब्द इतना रूढ़ हो गया है कि उसे बदलने से कोई लाभ नहीं है। 114. हिंदी में सब मिलाकर 11 सर्वनाम हैंμमैं, तू, आप, यह, वह, सो, जो, कोई, कुछ, कौन, क्या। 115. प्रयोग के अनुसार सर्वनामों के छह भेद हैंμ (1) पुरुषवाचकμमैं, तू, आप (आदरसूचक)। (2) निजवाचकμआप। (3) निश्चयवाचकμयह, वह, सो। (4) संबंधवाचकμजो। (5) प्रश्नवाचकμकौन, क्या। (6) अनिश्चयवाचकμकोई, कुछ। 116. वक्ता अथवा लेखक की दृष्टि से संपूर्ण सृष्टि के तीन भाग किए जाते 76 ध् हिंदी व्याकरण हैंμपहला, स्वयं वक्ता वा लेखक; दूसरा श्रोता, किंवा पाठक और तीसरा, कथा विषय अर्थात् वक्ता और श्रोता को छोड़कर और सब। सृष्टि के इन सब रूपों को व्याकरण में पुरुष कहते हैं और ये क्रमशः उत्तम पुरुष, मध्यम पुरुष और अन्य पुरुष कहलाते हैं। इन तीनों पुरुषों में उत्तम और मध्यम पुरुष ही प्रधान हैं। क्योंकि इनका अर्थ निश्चित रहता है। अन्य पुरुष का अर्थ अनिश्चित होने के कारण उसमें बाकी की सृष्टि के अर्थ का समावेश होता है। उत्तम पुरुष ‘मैं’ और मध्यम पुरुष ‘तू’ को छोड़कर शेष सर्वनाम और सब संज्ञाएँ अन्य पुरुष में आती हैं। इस अनिश्चित वस्तुसमूह को संक्षेप में व्यक्त करने के लिए ‘वह’ सर्वनाम को अन्य पुरुष के उदाहरण के लिए ले लेते हैं। सर्वनामों के तीनों पुरुषों के उदाहरण ये हैंμउत्तम पुरुषμमैं; मध्यम पुरुषμ तू, आप (आदरसूचक); अन्य पुरुषμयह, वह, आप (आदरसूचक) सो, जो, कौन, क्या, कोई, कुछ। (सब संज्ञाएँ अन्य पुरुष हैं।) सब पुरुष-वाचक-आप (निजवाचक)। (सू.μ(1) भाषा भास्कर और दूसरे हिंदी व्याकरणों में ‘आप’ शब्द ‘आदरसूचक’ नाम से एक अलग वर्ग में गिना गया है, परंतु व्युत्पत्ति के अनुसार, (सं.μआत्मन्, प्रा.μअप्प) ‘आप’, यथार्थ में, निजवाचक है और आदरसूचकता उसका एक विशेष प्रयोग है। आदरसूचक ‘आप’ मध्यम और अन्य पुरुष सर्वनामों के लिए आता है, इसलिए उनकी गिनती पुरुषवाचक सर्वनामों में ही होनी चाहिए। निजवाचक ‘आप’ अलग-अलग स्थानों में अलग-अलग पुरुषों के बदले आ सकता है; इसलिए ऊपर सर्वनामों के वर्गीकरण में यही निजवाचक ‘आप’ ‘सर्व-पुरुष-वाचक’ कहा गया है। निजवाचक ‘आप’ के समानार्थक ‘स्वयं और स्वतः’ हैं; इनका प्रयोग बहुधा क्रियाविशेषण के समान होता है (दे. अंकμ125 ऋ)। (2) ‘मैं’, ‘तू’ और आप (म. पु.) को छोड़कर सर्वनामों के जो और भेद हैं, वे सब अन्य पुरुष सर्वनामों के ही भेद हैं। मैं, तू और आप (म. पु.) सर्वनामों के दूसरे भेदों में नहीं आते, इसलिए ये ही तीन सर्वनाम विशेषण पुरुषवाचक हैं। वैसे तो प्रायः सभी सर्वनाम पुरुषवाचक कहे जा सकते हैं, क्योंकि उनसे व्याकरण के पुरुषों का बोध होता है, परंतु दूसरे सर्वनामों में उत्तम और मध्यम नहीं होते, इसलिए उत्तम और मध्यम पुरुष ही प्रधान पुरुषवाचक हैं और बाकी सर्वनाम अप्रधान पुरुषवाचक हैं। सर्वनामों के अर्थ और प्रयोग का विचार करने में सुभीते के लिए कहीं-कहीं उनके रूपांतरों (लिंग, वचन, कारक) का (जो दूसरे प्रकरण का विषय है) उल्लेख करना आवश्यक है। 117. मैंμउ. पु. (एकवचन)। (अ) जब वक्ता या लेखक केवल अपने ही संबंध में कुछ विधान करता है तब वह इस सर्वनाम का प्रयोग करता है। जैसेμभाषाबद्ध करब मैं सोई। (राम.)। जो मैं ही कृतार्थ नहीं तो फिर और कौन हो सकता है? (गुटका)। ‘यह थैली मुझे मिली।’ (आ) अपने से बड़े लोगों के साथ बोलने में अथवा देवता से प्रार्थना करने हिंदी व्याकरण ध् 77 में, जैसेμ‘सारथीμअब मैंने भी तपोवन के चिन्ह (चिद्द) देखे’ (शकु.)। ‘हरि.μ पितः, मैं सावधान हूँ’ (सत्य.)। (इ) स्त्राी अपने लिए बहुधा ‘मैं’ का ही प्रयोग करती है; जैसेμशकुंतलाμमैं सच्ची क्या कहूँ’ (शकु.)। ‘रा.μअरी! आज मैंने ऐसे बुरे-बुरे सपने देखे कि जब से सो के उठी हूँ, कलेजा काँप रहा है’ (सत्य.)। (दे. अंकμ11 ऊ)। 118. हमμउ. पु. (बहुवचन)। इस बहुवचन का अर्थ संज्ञा के बहुवचन से भिन्न है। ‘लड़के’ शब्द एक से अधिक लड़कों का सूचक है; परंतु ‘हम’ शब्द एक से अधिक ‘मैं’ (बोलनेवालों) का सूचक नहीं है, क्योंकि एक साथ गाने या प्रार्थना करने के सिवा (अथवा सबकी ओर से लिखे हुए लेख में हस्ताक्षर करने के सिवा) एक से अधिक लोग मिलकर प्रायः कभी नहीं बोल सकते। ऐसी अवस्था में ‘हम’ का ठीक अर्थ यही है कि वक्ता अपने साथियों की ओर से प्रतिनिधि होकर अपने तथा अपने साथियों के विचार एक साथ प्रकट करता है। (अ) संपादक और ग्रंथकार लोग अपने लिए बहुधा उत्तम पुरुष बहुवचन का प्रयोग करते हैं; जैसेμ‘हमने एक ही बात को दो-दो, तीन-तीन तरह से लिखा है।’ (स्वा.)। ‘हम पहले भाग के आरंभ में लिख आए हैं’ (इति.)। (आ) बड़े-बड़े अधिकारी और राजा महाराजा; जैसेμ‘इसलिए अब हम इश्तहार देते हैं (इति.)। ‘नाम.μयही तो हम भी कहते हैं’ (सत्य.)। ‘दुष्यंतμतुम्हारे देखने ही से हमारा सत्कार हो गया।’ (शकु.)। (इ) अपने कुटुम्ब, देश अथवा मनुष्य जाति के संबंध में; जैसेμ‘हम योग पाकर भी उसे उपयोग में लाते नहीं’ (भारत.)। हम वनवासियों ने ऐसे भूषण आगे कभी न देखे थे’ (शकु.)। ‘हवा के बिना हम पल भर भी नहीं जी सकते।’ (ई) कभी-कभी अभिमान अथवा क्रोध में, जैसेμ‘वि.μहम आधी दक्षिणा लेके क्या करें’ (सत्य.)। ‘मांडव्यμइस मृगयाशील राजा की मित्राता से हम तो बड़े दुखी हैं’ (शकु.)। (सू.μहिंदी में ‘मैं’ और ‘हम’ के प्रयोग का बहुत सा अंतर आधुनिक है। देहाती लोग बहुधा ‘हम’ ही बोलते हैं, ‘मैं’ नहीं बोलते। प्रेमसागर और रामचरित मानस में ‘हम’ के सब प्रयोग नहीं मिलते। अँगरेजी में ‘मैं’ के बदले ‘हम’ का उपयोग करना भूल समझा जाता है, परंतु हिंदी में बहुधा ‘मैं’ के बदले ‘हम’ आता है। ‘मैं’ और ‘हम’ के प्रयोग में इतनी अस्थिरता है कि एक बार जिसके लिए ‘मैं’ आता है, उसी के लिए उसी अर्थ में फिर ‘हम’ का उपयोग होता है; जैसेμ‘नाμराम राम! भला, आपके आने से हम क्यों जायँगे। मैं तो जाने ही को था कि इतने में आप आ गए (सत्य.)। दुष्यंतμअच्छा, हमारा संदेशा यथार्थ भुगता दीजो। मैं तपस्वियों की रक्षा को जाता हूँ (शकु.)। यह न होना चाहिए। 78 ध् हिंदी व्याकरण (उ) कभी-कभी एक ही वाक्य में ‘मैं’ और ‘हम’ एक ही पुरुष के लिए क्रमशः व्यक्ति और प्रतिनिधि के अर्थ में आते हैं; जैसेμ‘कुंभलीकμमुझे क्या दोष है, यह तो हमारा कुलधर्म है’ (शकु.)। मैं चाहता हूँ कि आगे को ऐसी सूरत न हो और हम सब एकचित्त होकर रहें (परी.)। (ऊ) स्त्राी अपने ही लिए ‘हम’ का उपयोग बहुधा कम करती है (दे. अंकμ117 इ.) पर स्त्राीलिंग ‘हम’ के साथ कभी-कभी पंुल्लिंग क्रिया आती है; जैसेμगौतमीμलो, अब निधड़क बातचीत करो’ हम जाते हैं।’ (शकु.)। ‘रानीμमहाराज, अब हम महल में जाते हैं’ (कर्पूर)। (ओ) साधु संत अपने लिए ‘मैं’ वा ‘हम’ का प्रयोग न करके अपने लिए बहुधा ‘अपने राम’ बोलते हैं; जैसेμअब अपने राम जानेवाले हैं। (औ) ‘हम’ से बहुत्व का बोध कराने के लिए उसके साथ बहुधा ‘लोग’ शब्द लगा देते हैं; जैसे ः ‘ह.μआर्य, हमलोग तो क्षत्रिाय हैं, हम दो बात कहाँ से जाने?’ (सत्य.)। 119. तू-मध्यम पुरुष (एकवचन) (ग्राम्य-तैं)। ‘तू’ शब्द से निरादर वा हलकापन प्रकट होता है; इसलिए हिंदी में बहुधा एक व्यक्ति के लिए भी ‘तुम’ का प्रयोग करते हैं। ‘तू’ का प्रयोग बहुधा नीचे लिखे अर्थों में होता हैμ (अ) देवता के लिए जैसेμदेव, तू दयालु, दीन हौं; तू दानी, हौं भिखारी’ (विनय.)। ‘दीनबंधु’ (तू) मुझ डूबते हुए को बचा’ (गुटका.) (आ)छोटे लड़के अथवा चेले के लिए (प्यार में); ‘एक तपस्विनीμअरे हठीले बालक, तू इस वन के पशुओं को क्यों सताता है?’ (शकु.)। ‘उ.μतो तू चल, आगे-आगे भीड़ हटाता चल’ (सत्य.)। (इ) परम मित्रा के लिए; जैसेμ‘अनसूयाμसखी तू क्या कहती है’ (शकु.)। ‘दुष्यंतμसखा, तुझसे भी तो माता कहकर बोली हैं।’ (सू.μछोटी अवस्था के भाई बहन आपस में ‘तू’ का प्रयोग करते हैं। कहीं छोटे लड़के प्यार में माँ से ‘तू’ कहते हैं) (ई) अवस्था और अधिकार में अपने से छोटे के लिए (परिचय में); जैसेμ‘रानी-मालती, यह रक्षाबंधन तू सँभाल के अपने पास रख’ (सत्य.)। ‘दुष्यंतμ(द्वारपाल से) पर्वतायन, तू अपने काम में असावधानी मत करियो’ (शकु.)। (उ) तिरस्कार अथवा क्रोध में किसी से, जैसे जरासंध श्रीकृष्णचंद्र से अति अभिमान कर कहने लगा, अरेμतू मेरे सोंही से भाग जा, मैं तुझे क्या मारूँ!’ (प्रेम.)। ‘वि.μबोल, अभी तैने मुझे पहचाना कि नहीं?’ (सत्य.)। 120. तुमμमध्यमपुरुष (बहुवचन)। हिंदी व्याकरण ध् 79 यद्यपि ‘हम’ के समान ‘तुम’ बहुवचन है, तथापि शिष्टाचार के अनुरोध से इसका प्रयोग एक ही मनुष्य से बोलने में होता है। बहुत्व के लिए ‘तुम’ के साथ बहुधा ‘लोग’ शब्द लगा देते हैंμजैसेμ‘मित्रा, तुम बड़े निठुर हो’ (परी.)। ‘तुम लोग अभी तक कहाँ थे?’ (अ) तिरस्कार और क्रोध को छोड़कर शेष अर्थों में ‘तू’ के बदले बहुधा ‘तुम’ का उपयोग होता है; जैसेμ‘दुष्यंतμहे रैवतक, तुम सेनापति को बुलाओ’ (शकु.)। ‘आशुतोष तुम अवढर दानी।’ (राम.)। ‘उ.μपुत्राी, कहो तुम कौन-कौन सेवा करोगी’ (सत्य.)। (आ) ‘हम’ के साथ ‘तुम’ के बदले ‘तू’ आता है; जैसेμ‘दोनों प्यादेμतो तू हमारा मित्रा है। हम तुम साथ ही साथ हाट को चलें (शकु.)। (इ) आदर के लिए ‘तुम’ के बदले ‘आप’ आता है (दे. अंकμ123)। 121. वहμ अन्य पुरुष (एकवचन)। (यह, जो, कोई, कौन इत्यादि सब सर्वनाम (और सब संज्ञाएँ) अन्य पुरुष हैं। यहाँ अन्य पुरुष के उदाहरण के लिए केवल ‘वह’ लिया गया है। हिंदी में आदर के लिए बहुधा बहुवचन सर्वनामों का प्रयोग किया जाता है। आदर का विचार छोड़कर ‘वह’ का प्रयोग नीचे लिखे अर्थों में होता हैμ (अ) किसी एक प्राणी, पदार्थ वा धर्म के विषय में बोलने के लिए, जैसेμना. μनिस्संदेह हरिश्चंद्र महाशय हैं। उसके आशय बहुत उदार हैं’ (सत्य.)। ‘जैसी दुर्दशा उसकी हुई, वह सबको विदित है’ (गुटका.)। (आ) बड़े दरजे के आदमी के विषय में तिरस्कार दिखाने के लिए, जैसेμ‘ वह (श्रीकृष्ण) तो गँवार ग्वाल है’ (प्रेम)। ‘इ.μराजा हरिश्चंद्र का प्रसंग निकला था सो उन्होंने उसकी बड़ी स्तुति की’ (सत्य.)। (इ) आदर और बहुत्व के लिए (दे. अंकμ122)। 122. वेμअन्य पुरुष (बहुवचन)। कोई-कोई इसे ‘वह’ लिखते हैं। कवायद उर्दू में इसका रूप ‘वे’ लिखा है जिससे यह अनुमान नहीं होता कि इसका प्रयोग उर्दू की नकल है। पुस्तकों में भी बहुधा ‘वे’ पाया जाता है। इसलिए बहुवचन का शुद्ध रूप ‘वे’ है, ‘वह’ नहीं। (अ) एक से अधिक प्राणियों, पदार्थों वा धर्मों के विषय में बोलने के लिए ‘वे’ (वा ‘वह’) आता है, जैसेμ‘लड़की तो रघुवंशियों के भी होती हैं; पर वे जिलाते कदापि नहीं’ (गुटका.)। ‘ऐसी बातें वे हैं’ (स्वा.)। ‘वह सौदागर की सब दूकान को अपने घर ले जाया चाहते हैं’ (परी.)। (आ) एक ही व्यक्ति के विषय में आदर प्रकट करने के लिए, जैसेμवे (कालिदास) असामान्य वैयाकरण थे’ (रघु.)। ‘क्या अच्छा होता जो वह इस काम को कर जाते’ (रत्ना.)। ‘जो बातें मुनि के पीछे हुईं सो उनसे कह दी’? (शकु.)। (सू.μऐतिहासिक पुरुषों के प्रति आदर प्रकट करने के संबंध में हिंदी में बड़ा 80 ध् हिंदी व्याकरण गड़बड़ है। श्रीधर भाषाकोष में कई कवियों के संक्षिप्त चरित दिए गए हैं, उनमें कबीर के लिए एकवचन का और शेष के लिए बहुवचन का प्रयोग किया गया है। राजा शिवप्रसाद ने इतिहासतिमिर नाशक में राम शंकराचार्य और टॉड साहब के लिए बहुवचन प्रयोग किया है और बुद्ध, अकबर, धृतराष्ट्र और युधिष्ठिर के लिए एकवचन लिखा है। इन उदाहरणों से कोई निश्चित नियम नहीं बनाया जा सकता। तथापि यह बात जान पड़ती है कि आदर के लिए पात्रा की जाति, गुण, पद और शील का विचार अवश्य किया जाता है। ऐतिहासिक पुरुषों के प्रति आजकल पहले की अपेक्षा अधिक आदर दिखाया जाता है; और यह आदर बुद्धि विदेशी ऐतिहासिक पुरुषों के लिए भी कई अंशों में पायी जाती है। आदर का प्रश्न छोड़कर, ऐतिहासिक पुरुषों के लिए एकवचन ही का प्रयोग करना चाहिए। 123. आपμ (‘तुम’ वा ‘वे’ के बदले)μमध्यम वा अन्य पुरुष (बहुवचन)। यह पुरुषवाचक ‘आप’ प्रयोग में निजवाचक ‘आप’ (दे. अंकμ125) से भिन्न है। इसका प्रयोग मध्यम और अन्य पुरुष बहुवचन में आदर के लिए होता है।1 प्राचीन कविता में आदरसूचक ‘आप’ का प्रयोग बहुत कम पाया जाता है। (अ) अपने से बड़े दरजेवाले मनुष्य के लिए ‘तुम’ के बदले ‘आप’ का प्रयोग शिष्ट और आवश्यक समझा जाता है; जैसेμ‘स.μभला, आपने इसकी शांति का भी कुछ उपाय किया है?’ (सत्य.)। ‘तपस्वीμहे पुरुकुलदीपक आपको यही उचित है।’ (शकु.)। ‘आए आपु भली करी’ (संत.)। (आ) बराबरवाले अपने से कुछ छोटे दरजे के मनुष्य के लिए ‘तुम’ के बदले बहुधा ‘आप’ कहने की प्रथा है; जैसेμ‘इं.μभला, आप उदार या महाशय किसे कहते हैं?’ (सत्य.)। ‘जब आप पूरी बात ही न सुनें तो मैं क्या जवाब दूँ’ (परी.)। (इ) आदर के साथ बहुत्व के बोध के लिए ‘आप’ के साथ बहुधा ‘लोग’ लगा देते हैं, जैसेμ‘ह.μआप लोग मेरे सिर आँखों पर हैं’ (सत्य.)। ‘इस विषय में आप लोगों की क्या राय है’? (ई) ‘आप’ शब्द की अपेक्षा अधिक आदर सूचित करने के लिए बड़े पदाधिकारियों के प्रति श्रीमान्, महाराज, सरकार, हुजूर आदि शब्दों का प्रयोग होता है; जैसेμ‘सार.μमैं रास खींचता हूँ; महाराज उतर लें’ (शकु.) ‘मुझे श्रीमान् के दर्शनों की लालसा थी सो आज पूरी हुई।’ ‘जो हुजूर की राय सो मेरी राय।’ स्त्रिायों के प्रति अतिशय आदर प्रदर्शित करने के लिए श्रीमती, ‘देवी’ आदि शब्दों का प्रयोग किया जाता है; जैसेμ‘तब से श्रीमती के शिक्षा-क्रम में विघ्न पड़ने लगा’ (हिं. को.)। (सू.μजहाँ ‘आप’ का प्रयोग होना चाहिए वहाँ ‘तुम’ या हुजूर’ कहना और जहाँ ‘तुम’ कहना चाहिए, वहाँ ‘आप’ या ‘तू’ कहना अनुचित है; क्योंकि इससे श्रोता 1. संस्कृत में आदरसूचक ‘आप’ के अर्थ में ‘भवान्’ शब्द आता है; और उसका प्रयोग केवल अन्य पुरुष एकवचन में होता है; जैसेμ‘भवान् अपि अवैति’ (आप भी जानते हैं)। हिंदी व्याकरण ध् 81 का अपमान होता है। एक ही प्रसंग में ‘आप’ और ‘तुम’, ‘महाराज’ और ‘आप’ कहना असंगत है; जैसेμ‘जिस बात की चिंता महाराज को है सो कभी न हुई होगी; क्योंकि तपोवन के विघ्न तो केवल आपके धनुष की टंकार ही से मिट जाते हैं।’ (शकु.)। ‘आपने बड़े प्यार से कहा कि आ बच्चे, पहले तू ही पानी पी ले। उसने तुम्हें विदेशी जान तुम्हारे हाथ से जल न पीया।’ तथा.) (उ) आदर की पराकाष्ठा सूचित करने के लिए वक्ता या लेखक अपने लिए दास, सेवक, फिदवी (कचहरी की भाषा में), ‘कमतरीन’ (उर्दू) आदि शब्दों में से किसी एक का प्रयोग करता है; जैसेμ‘सि.μकहिए यह दास आपके कौन काम आ सकता है?’ (मुद्रा.)। ‘हुजूर से, फिदवी की यह अर्ज है।’ (ऊ) मध्यम पुरुष ‘आप’ के साथ अन्य पुरुष बहुवचन क्रिया आती है, परंतु कहीं-कहीं परिचय, बराबरी अथवा लघुता के विचार से मध्यम पुरुष बहुवचन क्रिया का भी प्रयोग होता है; जैसेμ‘ह.μ आप मोल लोगे?’ (सत्य.)। ऐसे समय में आप साथ न दोगे तो और कौन देगा?’ (परी.)। ‘दो ब्राह्मणμआप अगलों की रीति पर चलते हो।’ (शकु.)। यह प्रयोग शिष्ट नहीं है। (ओ) अन्य पुरुष में आदर के लिए ‘वे’ के बदले कभी-कभी ‘आप’ आता है। अन्य पुरुष ‘आप’ के साथ क्रिया सदा अन्य पुरुष बहुवचन में रहती है। उदाहरणμ ‘श्रीमती का गत मास इंदौर में देहांत हो गया। आप कई वर्षों से बीमार थीं।’ (वो) 124. अप्रधान पुरुषवाचक सर्वनामों के नीचे लिखे पाँच भेद हैंμ (1) निजवाचकμआप। (2) निश्चयवाचकμयह, वह, सो। (3) अनिश्चयवाचकμकोई, कुछ। (4) संबंधवाचकμजो। (5) प्रश्नवाचकμकौन, क्या। 125. आप (निजवाचक)। प्रयोग में निजवाचक ‘आप’ पुरुषवाचक (आदरसूचक) ‘आप’ से भिन्न है। पुरुषवाचक ‘आप’ एक का वाचक होकर भी नित्य बहुवचन में आता है; पर निजवाचक ‘आप’ एक ही रूप से दोनों वचनों में आता है। पुरुषवाचक ‘आप’ केवल मध्यम और अन्य पुरुष में आता है; परंतु निजवाचक ‘आप’ का प्रयोग तीनों पुरुष में होता है। आदरसूचक ‘आप’ वाक्य में अकेला आता है, किंतु निजवाचक ‘आप’ दूसरे सर्वनामों के संबंध से आता है। ‘आप’ के दोनों प्रयोगों में रूपांतर का भी भेद है। दे. अंकμ324-325)। निजवाचक ‘आप’ का प्रयोग नीचे लिखे अर्थों में होता हैμ (अ) किसी संज्ञा या सर्वनाम के अवधारण के लिए; जैसेμमैं आप वहीं से आया हूँ’ (परी.)। ‘बनते कभी हम आप योगी’ (भारत.)। 82 ध् हिंदी व्याकरण (आ) दूसरे व्यक्ति के निराकरण के लिए, जैसेμ‘श्रीकृष्ण जी ने ब्राह्मण को विदा किया और आप चलने का विचार करने लगे’ (प्रेम.)। ‘वह अपने को सुधार रहा है।’ (इ) अवधारण के अर्थ में ‘आप’ के साथ कभी-कभी ही जोड़ देते हैं, जैसेμ नटीμमैं तो आप ही आती थी’ (सत्य.)। ‘देत चाप आपहि चढ़ि गयऊ’ (राम.)। ‘वह अपने पात्रा के संपूर्ण गुण अपने ही में भरे हुए अनुमान करने लगता है।’ (सर.)। (ई) कभी-कभी ‘आप’ के साथ उसका रूप अपना जोड़ देते हैं, जैसेμ‘किसी दिन मैं न आप अपने को भूल जाऊँ (शकु.)।’ ‘क्या वह अपने आप झुका है?’ (तथा) ‘राजपूत वीर अपने आपको भूल गए।’ (उ) ‘आप शब्द कभी-कभी वाक्य में अकेला आता है और अन्य पुरुष का बोधक होता है; जैसेμआपने कुछ उपार्जन किया ही नहीं, जो था वह नाश हो गया (सत्य.)। ‘होम करन लागे मुनि झारी। आप रहे मख की रखवारी।’ (ऊ) सर्वसाधारण के अर्थ में भी ‘आप’ आता है, जैसेμ ‘आप भला तो जग भला’ (कहा.)। ‘अपने से बड़े का आदर करना उचित है!’ (ऋ) ‘आप’ के बदले या उसके साथ बहुधा ‘खुद’ (उर्दू) ‘स्वयं’ वा ‘स्वतः’ (संस्कृत) का प्रयोग होता है। स्वयं, स्वतः और खुद हिंदी में अव्यय हैं और इनका प्रयोग बहुधा क्रियाविशेषण के समान होता है। आदरसूचक ‘आप’ के साथ द्विरुक्ति के निवारण के लिए इनमें से किसी एक का प्रयोग करना आवश्यक है; जैसेμ‘आप खुद यह बात समझ सकते हैं।’ ‘हम आज अपने आपको भी हैं स्वयं भूले हुए’ (भारत.)। ‘सुल्तान स्वतः वहाँ गए थे’ (हित.)। हर आदमी खुद अपने ही को प्रचलित रीति-रस्मों का कारण बतलावे’ (स्वा.)। (ए) कभी-कभी ‘आप’ के साथ निज (विशेषण) संज्ञा के समान आता है, पर इसका प्रयोग केवल संबंधकारक में होता है। जैसेμ‘हम तुम्हें एक अपने निज के काम में भेजा चाहते हैं’ (मुद्रा.)। (ऐ) ‘आप शब्द से बना आपस’ ‘परस्पर’ के अर्थ में आता है। इसका प्रयोग केवल संबंध और अधिकारण कारक में होता है, जैसेμ‘एक दूसरे की राय आपस में नहीं मिलती’ (स्वा.)। ‘आपस की फूट बुरी होती है।’ (ओ) ‘आप ही’, ‘अपने आप’, ‘आपसे आप’ और ‘आप ही आप’ का अर्थ ‘मन से वा स्वभाव से’ होता है और इनका प्रयोग क्रियाविशेषण वाक्यांशों के समान होता है; जैसेμ‘ये मानवी यंत्रा आप ही आप घर बनाने लगे।’ (स्वा.)। ‘इं.μ( आप ही आप) नारद जी सारी पृथ्वी पर इधर-उधर फिरा करते हैं’ (सत्य.)। ‘मेरा दिल आप से आप उमड़ा आता है’ (परी.)। 126. जिस सर्वनाम से वक्ता के पास अथवा दूर की किसी वस्तु का बोध हिंदी व्याकरण ध् 83 होता है, उसे निश्चयवाचक सर्वनाम कहते हैं। निश्चयवाचक सर्वनाम तीन हैंμयह, वह, सो। 127. यहμएकवचन। इसका प्रयोग नीचे लिखे स्थानों में होता हैμ (अ) पास की किसी वस्तु के विषय में बोलने के लिए; जैसेμ‘ यह किसका पराक्रमी बालक है?’ (शकु.)। ‘यह कोई नया नियम नहीं है’ (स्वा.)। (आ) पहले कही हुई संज्ञा या संज्ञावाक्यांशों के बदले; जैसेμ‘माधवीलता तो मेरी बहिन है, इसे क्यों न सींचती’ (शकु.)। ‘भला सत्य धर्म पालना क्या हँसी-खेल है? यह आप ऐसे महात्माओं ही का काम है’ (सत्य.)। (इ) पहले कहे हुए वाक्य के स्थान में, जैसेμ‘सिंह को मार मणि ले कोई जंतु एक अति डरावनी आड़ी गुफा में गया; यह सब हम अपनी आँखों देख आए’ (प्रेम)। ‘मुझको आपके कहने का कभी कुछ रंज नहीं होता। इसके सिवाय मुझे इस अवसर पर आपकी कुछ सेवा करनी चाहिए थी’ (परी.)। (ई) पीछे आनेवाले वाक्य के स्थान में; जैसेμ‘उन्होंने अब यह चाहा कि अधिकारियों को प्रजा ही नियत किया करे’ (स्वा.)। ‘मुझे इससे बड़ा आनंद है कि भारतेंदु जी की सबसे पहले छेड़ी हुई यह पुस्तक आज पूरी हो गई’ (रत्ना.)। (सू.μऊपर के दूसरे वाक्य में जो ‘यह’ शब्द आया है, वह यहाँ सर्वनाम नहीं, किंतु विशेषण है; क्योंकि वह ‘पुस्तक’ संज्ञा की विशेषता बताता है। सर्वनामों के विशेषणीभूत प्रयोगों का विचार आगे (तीसरे अध्याय में) किया जायगा। (उ) कभी कभी संज्ञा या संज्ञावाक्यांश कहकर तुरंत ही उसके बदले निश्चय के अर्थ में ‘यह’ का प्रयोग होता है; जैसेμ‘राम यह व्यक्तिवाचक संज्ञा है।’ ‘अधिकार पाकर कष्ट देना, यह बड़ों को शोभा नहीं देता’ (सत्य)। ‘शास्त्राों की बात में कविता का दखल समझना, यह भी धर्म के विरुद्ध है’ (इति.)। (सू.μइस प्रकार की (मराठी प्रभावित) रचना का प्रचार घट रहा है।) (ऊ) कभी-कभी यह क्रियाविशेषण के समान आता है और उसका अर्थ अभी वा अब होता है, जैसेμ‘लीजिए महाराज यह मैं चला’ (मुद्रा.)। ‘यह तो आप मुझको लज्जित करते हैं’ (परी.)। (ओ) आदर और बहुत्व के लिए (दे. अंकμ128)। 128. येμबहुवचन। ‘ये’ ‘यह’ का बहुवचन है। कोई-कोई लेखक बहुवचन में भी ‘यह’ लिखते हैं (दे. अंकμ122)। ‘ये’ (और कभी-कभी ‘यह’) का प्रयोग आदर के लिए भी होता है, जैसेμ‘ये भी तो उसी का गुण गाते हैं’ (सत्य.)। ये तेरे तप के फल कदापि नहीं; इनको तो इस पेड़ पर तेरे अहंकार ने लगाया है’ (गुटका.)। ‘ये वे ही हैं जिनसे इंद्र और बावन अवतार उत्पन्न हुए’ (शकु.)। 84 ध् हिंदी व्याकरण (अ) ‘ये’ के बदले आदर के लिए ‘आप’ का प्रयोग केवल बोलने में होता है और इसके लिए आदरपात्रा की ओर हाथ बढ़ाकर संकेत करते हैं। 129. वह (एकवचन), वे (बहुवचन)। हिंदी में कोई विशेष अन्य पुरुष सर्वनाम नहीं है। उसके बदले दूरवर्ती निश्चयवाचक ‘वह’ आता है। इस सर्वनाम के प्रयोग अन्य पुरुष के विवेचन में बता दिए गए हैं। (दे. अंकμ121-122)। इससे दूर की वस्तु का बोध होता है। (अ) ‘यह और ‘ये’ तथा ‘वह’ और ‘वे’ के प्रयोग में बहुधा स्थिरता नहीं पाई जाती। एक बार आदर वा बहुत्व के लिए किसी एक शब्द का प्रयोग करके लेखक लोग फिर उसी अर्थ में उस शब्द का दूसरा रूप लाते हैं; जैसेμ‘यह टिड्डी दल की तरह इतने दाग कहाँ से आए? ये दाग वे दुर्वचन हैं जो तेरे मुख से निकला किए हैं। वह सब लाल-लाल फल मेरे दान से लगे हैं’ (गुटका.)। ‘ये सब बातें हरिश्चंद्र में सहज हैं।’ ‘अरे यह कौन देवता बड़े प्रसन्न होकर श्मशान पर एकत्रा हो रहे हैं’ (सत्य.)। (सू.μहमारी समझ में पहला रूप केवल आदर के लिए और दूसरा रूप बहुत्व के लिए लाना ठीक है।) (आ) पहले कही हुई वस्तुओं में से पहली के लिए ‘वह’ और पिछली के लिए ‘यह’ आता है; जैसेμ‘महात्मा और दुरात्मा में इतना ही भेद है कि उनके मन, वचन और कर्म एक रहते हैं, इनके भिन्न-भिन्न’ (सत्य.)। कनक कनक ते सौ गुनी मादकता अधिकाय। वह खाये बौरात हैं यह पाये बौरायड्ड (सत्य.) (इ) जिस वस्तु के संबंध में एक बार ‘यह’ आता है उसी के लिए कभी-कभी लेखक लोग असावधानी से तुरंत ही ‘वह’ लाते हैं; जैसेμ‘भला महाराज, जब यह ऐसे दानी हैं तो उनकी लक्ष्मी कैसे स्थिर है?’ (सत्य.)। जब मैं इन पेड़ों के पास से आया था तब तो उनमें फल-फूल भी नहीं था।’ (गुटका.) (सू.μसर्वनाम के प्रयोग में ऐसी अस्थिरता से आशय समझने में कठिनाई होती है और यह प्रयोग दूषित भी है।) (ई) ‘यह’ के समान (दे. अंकμ127 ऊ) ‘वह’ भी कभी-कभी क्रियाविशेषण की नाईं प्रयुक्त होता है और उस समय उसका अर्थ ‘वहाँ’ वा ‘इतना’ होता है, जैसेμ‘नौकर; वह जा रहा है।’ ‘लोगों ने चोर को वह मारा कि बेचारा अधमरा हो गया।’ 130. सोμ (दोनों वचन)। यह सर्वनाम बहुधा संबंधवाचक सर्वनाम ‘जो’ के साथ आता है (दे. अंकμ134)। और इसका अर्थ संज्ञा के वचन के अनुसार ‘वह’ वा ‘वे’ होता है; ‘जैसेμ‘ जिस बात की चिंता महाराज को है सो (वह) कभी न हुई होगी।’ ‘जिन पौधों को तू सींच चुकी है सो (वे) तो इसी ग्रीष्म ऋतु से फूलेंगे’ (शकु.)। ‘आप जो न करो सो थोड़ा है’ (मुद्रा.)। हिंदी व्याकरण ध् 85 (अ) ‘वह’ वा ‘वे’ के समान ‘सो’ अलग वाक्य में नहीं आता और न उसका प्रयोग ‘जो’ के पहले होता है; परंतु कविता में बहुधा इन नियमों का उल्लंघन हो जाता है; जैसेμ ‘सो ताको सागर जहाँ जाकी प्यास बुझाय’। (सत.) ‘सो सुनि भयउ भूप उर सोचू।’ (राम.) (आ) ‘सो’ कभी-कभी समुच्चयबोधक के समान उपयोग में आता है और उसका अर्थ ‘इसलिए’ या ‘तब’ होता है। जैसेμ‘तैने भी उसका नाम कभी नहीं लिया सो क्या तू भी उसे मेरी भाँति भूल गया?’ (शकु.)। ‘मलयकेतु हम लोगों से लड़ने के लिए उद्यत हो रहा है; सो यह लड़ाई के उद्योग का समय है’ (मुद्रा.)। 131. जिस सर्वनाम से किसी विशेष वस्तु का बोध नहीं होता, उसे अनिश्चयवाचक सर्वनाम कहते हैं। अनिश्चयवाचक सर्वनाम दो हैंμकोई और कुछ। ‘कोई’ और ‘कुछ’ में साधारण अंतर यह है कि ‘कोई’ पुरुष के लिए और ‘कुछ’ पदार्थ वा धर्म के लिए आता है। 132. कोईμ (दोनों वचन) इसका प्रयोग एकवचन में बहुधा नीचे लिखे अर्थों में होता हैμ (अ) किसी अज्ञात पुरुष या बड़े जंतु के लिए; जैसेμ‘ऐसा न हो कि कोई आ जाए’ (सत्य.)। ‘दरवाजे पर कोई खड़ा है।’ नाली में कोई बोलता है।’ (आ) बहुत से ज्ञात पुरुषों में किसी अनिश्चित पुरुष के लिए; जैसेμ‘है रे! कोई यहाँ?’ (शकु.)। रघुवंशिन महँ जहँ कोउ होई। तेहि समाज अस कहहि न कोईड्ड (राम.) (इ) निषेधवाचक वाक्य में ‘कोई’ का अर्थ ‘सब’ होता है, जैसेμ‘बड़ा पद मिलने से कोई बड़ा नहीं होता’ (सत्य.)। ‘तू किसी को मत सता।’ (ई) ‘कोई’ के साथ ‘सब’ और ‘हर’ (विशेषण) आते हैं। ‘सब कोउ’ का अर्थ ‘सब लोग’ और ‘हर कोई’ का अर्थ हर आदमी होता है। उदाहरणμ ‘सब कोउ कहत राम सुठि साधू’ (राम.)। ‘यह काम हर कोई नहीं कर सकता।’ (उ) अधिक अनिश्चय में ‘कोई’ के साथ ‘एक’ जोड़ देते हैं; जैसेμ ‘कोई एक’ यह बात कहता था।’ (ऊ) किसी ज्ञात पुरुष को छोड़ दूसरे अज्ञात पुरुष का बोध कराने के लिए ‘कोई’ के साथ ‘और’ या ‘दूसरा’ लगा देते हैं, जैसेμयह भेद कोई और न जाने।’ ‘कोई दूसरा होता तो मैं उसे न छोड़ता।’ (ओ) आदर और बहुत्व के लिए भी ‘कोई’ आता है। पिछले अर्थ में बहुधा ‘कोई’ की द्विरुक्ति होती है; जैसेμ‘मेरे घर कोई आए हैं।’ कोई-कोई पोप के अनुयायियों ही को नहीं देख सकते।’ (स्वा.)। ‘किसी-किसी की राय में विदेशी शब्दों का उपयोग मूर्खता है’ (सर.)। 86 ध् हिंदी व्याकरण (ए) अवधारण के लिए ‘कोई-कोई’ के बीच में ‘न’ लगा दिया जाता है; जैसेμयह काम कोई न कोई अवश्य करेगा। (ऐ) ‘कोई-कोई’ इन दुहरे शब्दों में विचित्राता सूचित होती है; जैसेμ ‘कोई कहती थी यह उचक्का है, कोई कहती थी एक पक्का है’ (गुटका.)। ‘कोई कुछ कहता है, कोई कुछ।’ इसी अर्थ में ‘इक इक’ आता है, जैसेμ ‘इक प्रविशहिं इक निर्गमहिं भीर भूप दरबार।’(राम.) (ओ) संख्यावाचक विशेषण के पहले ‘कोई’ परिमाणवाचक क्रियाविशेषण के समान आता है और उसका अर्थ ‘लगभग’ होता है; जैसेμ‘इसमें कोई 400 पृष्ठ हैं’ (सर.)। 133. कुछμ (एकवचन)। दूसरे सर्वनामों के समान ‘कुछ’ का रूपांतर नहीं होता। इसका प्रयोग बहुधा विशेषण के समान होता है। जब इसका प्रयोग संज्ञा के बदले में होता है, तब यह नीचे लिखे अर्थों में आता हैμ (अ) किसी अज्ञात पदार्थ वा धर्म के लिए; जैसेμमेरे मन में आती है कि इससे कुछ पूछूँ’ (शकु.)। ‘घी में कुछ मिला है।’ (आ) छोटे जंतु या पदार्थ के लिए; जैसेμ‘पानी में कुछ है।’ (इ) कभी-कभी ‘कुछ’ परिमाणवाचक क्रियाविशेषण के समान आता है। इस अर्थ में कभी-कभी उसकी द्विरुक्ति भी होती है। उदाहरणμतेरे शरीर का ताप कुछ घटा कि नहीं?’ (शकु.)। ‘उसने उसके कुछ खिलाफ कार्रवाई की है’ (स्वा.)। ‘लड़की कुछ छोटी है।’ दोनों की आकृति कुछ-कुछ मिलती है। (ई) आश्चर्य, आनंद वा तिरस्कार के अर्थ में भी ‘कुछ’ क्रियाविशेषण होता है; जैसेμ‘हिंदी कुछ संस्कृत तो है नहीं’ (सर.)। ‘हम लोग कुछ लड़ते नहीं हैं।’ ‘मेरा हाल कुछ न पूछो।’ (उ) अवधारण के लिए ‘कुछ न कुछ’ आता है; जैसेμ ‘आर्य जाति ने दिशाओं के नाम कुछ न कुछ रख लिया होगा’ (सर.)। (ऊ) किसी ज्ञात पदार्थ वा धर्म को छोड़कर दूसरे अज्ञात पदार्थ वा धर्म का बोध कराने के लिए ‘कुछ’ के साथ ‘और’ आता है; जैसेμतेरे मन ‘कुछ’ और ही है’ (शकु.)। (ऋ) भिन्नता या विपरीतता सूचित करने के लिए ‘कुछ का कुछ’ आता है, जैसेμ‘आपने कुछ का कुछ समझ लिया।’ ‘जिनसे ये कुछ के कुछ हो गए’ (इति.)। ()िं ‘कुछ’ के साथ ‘सब’ और ‘बहुत’ आते हैं। ‘सब कुछ’ का अर्थ ‘सब पदार्थ वा धर्म’ है, और ‘बहुत कुछ’ का अर्थ ‘बहुत से पदार्थ वा धर्म’ अथवा ‘अधिकता’ से है। उदाहरणμ‘हम समझते सब कुछ हैं’ (सत्य.)। ‘लड़का बहुत कुछ दौड़ता है। ‘यों भी बहुत कुछ ही रहेगा’ (सत्य.)। हिंदी व्याकरण ध् 87 (ए) ‘कुछ कुछ’ ये दुहरे शब्द विचित्राता सूचित करते हैं; जैसेμ‘ एक कुछ कहता और दूसरा कुछ’ (इति.)। ‘कुछ तेरा गुरु जानता है, कुछ मेरे से लोग जानते हैं।’ (मुद्रा)। (ऐ) ‘कुछ-कुछ’ कभी-कभी समुच्चयबोधक के समान आकर दो वाक्यों को जोड़ते हैं, जैसेμ‘छापे की भूलें कुछ प्रेस की असावधानी से और कुछ लेखकों के आलस से होती हैं’ (सर.)। ‘कुछ तुम समझे, कुछ हम समझे’ (कहा.)। ‘कुछ हम खुले, कुछ वह खुले।’ (ओ) ‘कुछ-कुछ’ से कभी-कभी ‘अयोग्यता’ का अर्थ पाया जाता है; जैसेμ‘ कुछ तुमने कमाया, कुछ तुम्हारा भाई कमावेगा।’ 134. जो (दोनों वचन)। हिंदी में संबंधवाचक सर्वनाम एक ही है; इसलिए न्यायशास्त्रा के अनुसार इसका लक्षण नहीं बताया जा सकता। भाषाभास्कर को छोड़कर प्रायः सभी व्याकरणों में संबंधवाचक सर्वनाम का लक्षण नहीं दिया गया। भाषाभास्कर में जो लक्षण1 है वह भी स्पष्ट नहीं है। लक्षण के अभाव के यहाँ इस सर्वनाम के केवल प्रयोग लिखे जाते हैं। (अ) ‘जो’ के साथ ‘सो’ वा ‘वह’ का नित्य संबंध रहता है। ‘सो’ वा ‘वह’ निश्चयवाचक सर्वनाम है; परंतु संबंधवाचक सर्वनाम के साथ आने पर इसे नित्यसंबंधी सर्वनाम कहते हैं। जिस वाक्य में संबंधवाचक सर्वनाम आता है, उसका संबंध एक दूसरे वाक्य से रहता है जिसमें नित्यसंबंधी सर्वनाम आता है; जैसेμ‘जो बोले सो घी को जाय’ (कहा.)। ‘जो हरिश्चंद्र ने किया वह तो अब कोई भी भारतवासी न करेगा’ (सत्य.)। (आ) संबंधवाचक और नित्यसंबंधी सर्वनाम एक ही संज्ञा के बदले आते हैं। जब इस संज्ञा का प्रयोग होता है, तब यह बहुधा पहले वाक्य में आता है और संबंधवाचक सर्वनाम दूसरे वाक्य में आता है; जैसेμयह शिक्षा उन अध्यापकों के द्वारा प्राप्त नहीं हो सकती, जो अपने ज्ञान की बिक्री करते हैं’ (हिं. ग्रा.)। ‘यह नारी कौन है जिसका रूप वस्त्राों में झलक रहा है’ (शकु.)। (इ) जिस संज्ञा के बदले संबंधवाचक और नित्यसंबंधी सर्वनाम आते हैं, उसके अर्थ की स्पष्टता के लिए बहुधा दोनों सर्वनामों में से किसी एक का प्रयोग विशेषणों के समान करके उसके पश्चात् पूर्वोक्त संज्ञा को लाते हैं; जैसेμ‘क्या आप फिर उस परदे को डाला चाहते हैं, जो सत्य ने मेरे सामने से हटाया?’ (गुटका.)। ‘श्रीकृष्ण ने उन लकीरों को गिना जो उसने खैंची थीं’ (प्रेम.)। ‘जिस हरिश्चंद्र ने उदय से अस्त तक की पृथ्वी के लिए धर्म न छोड़ा उसका धर्म आध गज कपड़े के वास्ते मत छुड़ाओ’ (सत्य.)। 1. ‘संबंधवाचक सर्वनाम उसे कहते हैं, जो कही हुई संज्ञा से कुछ वर्णन मिलाता है। 88 ध् हिंदी व्याकरण (ई) नित्यसंबंधी ‘सो’ की अपेक्षा ‘वह’ का प्रचार अधिक है। कभी-कभी उसके बदले ‘यह’, ‘ऐसा’, ‘सब’ और ‘कौन’ आते हैं; जैसेμ‘ जिस शकुंतला ने तुम्हारे बिना सींचे कभी जल भी नहीं पिया, उसको तुम पति के घर जाने की आज्ञा दो’ (शकु.) ‘संसार में ऐसी कोई चीज न थी, जो उस राजा के लिए अलभ्य होती’ (रघु.)। ‘वह कौन सा उपाय है, जिससे यह पापी मनुष्य ईश्वर के कोप से छुटकारा पावे?’ (गुटका.)। ‘सब लोग जो यह तमाशा देख रहे थे, अचरज करने लगे।’ (उ) कभी-कभी संबंधवाचक सर्वनाम अकेला पहले वाक्य में आता है और उसकी संज्ञा दूसरे वाक्य में बहुधा ‘ऐसा’ वा ‘वह’ के साथ आती है, जैसेμ‘ जिसने कभी कोई पापकर्म नहीं किया था ऐसे राजा रघु ने यह उत्तर दिया’ (रघु.)। ‘प्रभु जो दीन्ह सो वर मैं पावा।’ (राम.) (ऊ) ‘जो’ कभी-कभी एक वाक्य के बदले (बहुधा उसके पीछे) समुच्चयबोधक के समान आता है; जैसेμ‘ आ वेग वेग चली आ, जिससे सब एक संग क्षेम-कुशल से कुटी में पहुँचे’ (शकु.)। ‘लोहे के बदले उसमें सोना काम में आवे, जिससे भगवान् भी उसे देखकर प्रसन्न हो जावें’ (गुटका.)। (ऋ) आदर और बहुत्व के लिए भी ‘जो’ आता है; जैसेμ‘यह चारों कवित्त श्री बाबू गोपालचंद्र के बनाए हैं, जो कविता में अपना नाम गिरधरदास रखते थे।’ (सत्य.) ‘यहाँ तो वे ही बड़े हैं जो दूसरे को दोष लगाना पढ़े हैं’ (शकु.)। (ए) ‘जो के साथ कभी-कभी आगे या पीछे, फारसी का संबंधवाचक सर्वनाम ‘कि’ आता है (पर अब उसका प्रचार घट रहा है); जैसेμ‘किसी समय राजा हरिश्चंद्र बड़ा दानी हो गया है कि जिसकी कीर्ति संसार में अब तक छाय रही है’ (प्रेम.)। ‘कौन-कौन से समय के फेरफार इन्हें झेलने पड़े कि जिनसे वे कुछ के कुछ हो गए’ (इति.)। ‘अशोक ने उन दुखियों और घायलों को पूर्ण सहायता पहुँचाई, जो कि युद्ध में घायल हुए थे।’ ‘कलिंग उसी प्रकार नष्ट हो गया, जिस प्रकार कि एक पतिंगा जल जाता है’ (निबंध)। (ऐ) समूह के अर्थ में संबंधवाचक और नित्यसंबंधी सर्वनाम से बहुधा दोनों की अथवा एक की द्विरुक्ति होती है; जैसेμ‘त्यों हरिचंद जू जो जो कह्यो सो कियो चुप ह्नै करि कोटि उपाई’ (सुंदरी.)। ‘कन्या के विवाह में हमें जो जो वस्तु चाहिए सो सो सब इकट्ठी करो।’ (ओ) कभी-कभी संबंधवाचक वा नित्यसंबंधी सर्वनाम का लोप होता है; जैसेμ‘हुआ सो हुआ’ (शकु.)। ‘जो पानी पीता है आपको असीस देता है’ (गुटका.)। कभी-कभी दूसरे वाक्य ही का लोप होता है; जैसेμ ‘जो आज्ञा।’ जो हो।’ (सू.μयह प्रयोग कभी-कभी संयोजक क्रियाविशेषणों के साथ भी होता है। दे. अंकμ213।) (औ) ‘जो कभी-कभी समुच्चयबोधक के समान आता है और उसका अर्थ ‘यदि’ वा ‘कि’ होता है; जैसेμ‘क्या हुआ जो अब की लड़ाई में हारे’ (प्रेम.)। ‘हर हिंदी व्याकरण ध् 89 किसी की सामर्थ नहीं जो उसका सामना करे।’ (तथा) ‘जो सच पूछो तो इतनी भी बहुत हुई’ (गुटका.)। (क) ‘जो के साथ अनिश्यचवाचक सर्वनाम भी जोड़े जाते हैं। ‘कोई’ और ‘कुछ’ के अर्थों में जो अंतर है, वही ‘जो कोई’ और ‘जो कुछ’ के अर्थों में भी है; जैसेμ ‘जो कोई नल को घर में घुसने देगा, जान से हाथ धोएगा’ (गुटका.)। ‘महाराज, जो कुछ कहो बहुत समझ-बूझकर कहियो।’ (शकु.)। 135. प्रश्न करने के लिए जिन सर्वनामों का उपयोग होता है; उन्हें प्रश्नवाचक सर्वनाम कहते हैं। ये दो हैंμकौन और क्या। 136. ‘कौन’ और ‘क्या’ के प्रयोगों में साधारण अंतर वही है, जो ‘कोई’ और ‘कुछ’ के प्रयोगों में है (दे. अंकμ132-133)। ‘कौन’ प्राणियों के लिए और विशेषकर मनुष्यों के लिए और ‘क्या’ क्षुद्र प्राणी, पदार्थ वा धर्म के लिए आता है; जैसेμ‘हे महाराज, आप कौन हैं?’ (गुटका.) ‘यह आशीर्वाद किसने दिया था?’ (शकु.)। ‘तुम क्या कर सकते हो?’ ‘क्या समझते हो?’ (सत्य.)। ‘क्या है?’ ‘क्या हुआ?’ 137. ‘कौन’ का प्रयोग नीचे लिखे अर्थों में होता हैμ (अ) निर्धारण के अर्थ में ‘कौन’ प्राणी, पदार्थ और धर्म तीनों के लिए आता है; जैसेμ ‘ह.μतो हम एक नियम पर बिकेंगे।’ ‘ध.μवह कौन?’ (सत्य.)। ‘इसमें पाप कौन है पुण्य कौन है’ (गुटका.)। ‘यह कौन है, जो मेरे अंचल को नहीं छोड़ता?’ (शकु.)। इसी अर्थ में कौन के साथ बहुधा ‘सा’ प्रत्यय लगाया जाता है। जैसेμ‘मेरे ध्यान में नहीं आता कि महारानी शकुंतला कौन सी है’ (शकु.)। ‘तुम्हारा घर कौन सा है?’ (आ) तिरस्कार के लिए, जैसेμ‘रोकनेवाली तुम कौन हो’ (शकु.)। ‘ कौन जाने!’ ‘स्वर्ग! कौन कहे आपने अपने सत्यबल से ब्रह्म पद पाया।’ (इ) आश्चर्य अथवा दुख में; जैसेμ‘इनमें क्रोध की बात कौन सी है।’ ‘अरे! हमारी बात का यह उत्तर कौन देता है?’ (सत्य.)। ‘अरे! आज मुझे किसने लूट लिया!’ (तथा) (ई) ‘कौन’ कभी-कभी ‘कब’ के अर्थ में क्रियाविशेषण होता है, जैसेμआपको सत्संग कौन दुर्लभ है’ (सत्य.)। (उ) वस्तुओं की भिन्नता, असंख्यता और तत्संबंधी आश्चर्य दिखाने के लिए ‘कौन’ की द्विरुक्ति होती है; जैसेμ‘सभा में कौन-कौन आए थे?’ ‘मैं किस किसको बुलाऊँ!’ ‘तूने पुण्यकर्म कौन-कौन से किए हैं?’ (गुटका.)। 138. ‘क्या नीचे लिखे अर्थों में आता हैμ (अ) किसी वस्तु का लक्षण जानने के लिए; जैसेμ‘मनुष्य क्या है?’ ‘आत्मा क्या है?’ ‘धर्म क्या है’। 90 ध् हिंदी व्याकरण (सू.μइसी अर्थ में कौन का रूप ‘किसे’ या ‘किसको’ ‘कहना’ क्रिया के साथ आता है; जैसेμ‘नदी किसे कहते हैं?’) (आ) किसी वस्तु के लिए तिरस्कार वा अनादर सूचित करने में, जैसेμक्या हुआ जो अबकी लड़ाई में हारे?’ (प्रेम.)। ‘भला हम दास लेके क्या करेंगे?’ (सत्य.)। ‘धन तो क्या इस काम में, तन भी लगाना चाहिए!’ ‘क्या जाने।’ (इ) आश्चर्य में; जैसेμ‘ऊषा क्या देखती है कि चहुँ ओर बिजली चमकने लगी!’ (पे्रम.)। ‘क्या हुआ’। वाह! क्या कहना है!’ (सू.μइसी अर्थ में ‘क्या’ बहुधा क्रियाविशेषण के समान आता है; जैसेμघुड़दौड़ क्या है, उड़ आए हैं’ (शकु.)। ‘क्या अच्छी बात है!’ ‘वह आदमी क्या राक्षस’ है? (ई) धमकी में; जैसेμ‘तुम यह क्या करते हो!’ ‘तुम यहाँ क्या बैठे हो?’ (उ) किसी वस्तु की दशा बताने में; जैसेμ‘हम कौन थे क्या हो गए हैं और क्या होंगे अभी’ (भारत.)। (ऊ) कभी-कभी ‘क्या’ का प्रयोग विस्मयादिबोधक के समान होता हैμ (1) प्रश्न करने के लिए, जैसेμ‘क्या गाड़ी चली गई?’ (2) आश्चर्य सूचित करने के लिए, जैसेμ‘क्या तुमको चिद्द दिखाई नहीं देते!’ (शकु.)। (ऋ) आवश्यकता के अर्थ में भी ‘क्या’ क्रियाविशेषण होता है, जैसेμहिंसक जीव मुझे क्या मारेंगे?’ (रघु.)। ‘उसके मारने से परलोक क्या बिगड़ेगा?’ (गुटका.)। ()िं निश्चय कराने में भी ‘क्या’ क्रियाविशेषण के समान आता है, जैसेμ‘सरोजिनीμमाँ! मैं यह क्या बैठी हूँ?’ (सरो.)। ‘सिपाही वहाँ क्या जा रहा है?’ इन वाक्यों में क्या का अर्थ ‘अवश्य’ वा ‘निस्सन्देह है। (ए) बहुत्व वा आश्चर्य में ‘क्या’ की द्विरुक्ति होती है, जैसेμ‘विष देनेवाले लोगों ने क्या-क्या किया?’ (मुद्रा.)। ‘मैं क्या-क्या कहूँ?’ (ऐ) क्या क्या, इन दुहरे शब्दों का प्रयोग समुच्चयबोधक के समान होता है, जैसेμ‘ क्या मनुष्य और क्या जीव-जंतु, मैंने अपना सारा जन्म इन्हीं का भला करने में गँवाया’ (गुटका.)। (दे. अंकμ244) 139. दशांतर सूचित करने के लिए, ‘क्या से क्या’ वाक्यांश आता है; जैसेμ‘हम आज क्या से क्या हुए!’ (भारत.) 140. पुरुषवाचक, निजवाचक और निश्चयवाचक सर्वनामों में अवधारण के लिए, ‘ही’, हीं वा ‘ई’ प्रत्यय जोड़ते हैं; जैसेμमैं = मैंही, तू = तूही, हम =हमीं, तुम = तुम्हीं, आप = आपही, वह = वही, सो = सोई, यह = यही, वे = वेही, ये = येही। (क) अनिश्चयवाचक सर्वनामों में ‘भी’ अव्यय जोड़ा जाता है; जैसेμ‘कोई भी’, ‘कुछ भी।’ (टि.μहिंदी के भिन्न-भिन्न व्याकरणों में सर्वनामों की संख्या और वर्गीकरण हिंदी व्याकरण ध् 91 के संबंध में बहुत कुछ मतभेद है। हिंदी के जो व्याकरण (एथरिंगटन, कैलाग, ग्रीब्ज आदि) अँगरेज विद्वानों ने लिखे हैं और जिनकी सहायता प्रायः सभी हिंदी व्याकरणों में पाई जाती है, उनका उल्लेख करने की यहाँ आवश्यकता नहीं है क्योंकि किसी भी भाषा के संबंध में केवल वही लोग प्रमाण माने जा सकते हैं जिनकी वह भाषा है, चाहे उन्होंने अपनी भाषा का व्याकरण विदेशियों की सहायता से सीखा हो। इसके सिवा यह व्याकरण हिंदी में लिखा गया है; इसलिए हमें केवल हिंदी में लिखे हुए व्याकरणों पर विचार करना चाहिए, यद्यपि इनमें भी कुछ लोग ऐसे हैं, जिनके लेखकों की मातृभाषा हिंदी नहीं है। पहले हम इन व्याकरणों में दी हुई सर्वनामों की संख्या का विचार करेंगे।) सर्वनामों की संख्या ‘भाषाप्रभाकर’ में आठ, ‘हिंदी व्याकरण’ में सात और ‘हिंदी बालबोध व्याकरण’ में कोई सत्राह है। ये तीनों व्याकरण औरों से पीछे के हैं, इसलिए हमें समालोचना के निमित्त इन्हीं की बातों पर विचार करना है। अधिक पुस्तकों के गुण-दोष दिखाने के लिए इस पुस्तक में स्थान की संकीर्णता है। (1) भाषाप्रभाकरμमैं, तू, यह, वह, जो, सो, कोई, कौन। (2) हिंदी व्याकरणμमैं, तू, आप, यह, वह, जो, कौन। (3) हिंदी बालबोध व्याकरणμमैं, तू, वह, जो, सो, कौन, क्या, यह, कोई, सब, कुछ, एक, दूसरा, दोनों, एक दूसरा, कई एक आप। ‘भाषाप्रभाकर’ में ‘क्या’, ‘कुछ’ और ‘आप’ अलग-अलग सर्वनाम नहीं माने गए हैं, यद्यपि सर्वनामों के वर्णन में इनका अर्थ दिया गया है। इनमें भी आपका केवल ‘आदरसूचक’ प्रयोग बताया गया है। फिर आगे अव्ययों में ‘क्या’ और ‘कुछ का उल्लेख किया गया है, परंतु वहाँ भी इनके संबंध में कोई बात स्पष्टता से नहीं लिखी गई। ऐसी अवस्था में समालोचना करना वृथा है। ‘हिंदी व्याकरण’ में ‘सो’, ‘कोई’, ‘क्या’ और ‘कुछ’ सर्वनाम नहीं माने गए हैं। पर लेखक ने पुस्तक में सर्वनाम का जो लक्षण1 दिया है उसमें इन शब्दों का अंतर्भाव होता है, और उन्होंने स्वयं एक स्थान में (पृ. 81) ‘कोई को सर्वनाम के समान लिखा है; फिर न जाने क्यों यह शब्द भी सर्वनामों की सूची में नहीं रखा गया? ‘क्या’ और ‘कुछ’ के विषय में अव्यय होने की संभावना है, पर ‘सो’ और ‘कोई’ के विषय में किसी को भी संदेह नहीं हो सकता, क्योंकि इनके रूप और प्रयोग ‘वह’ ‘जो’ ‘कौन’ के नमूने पर होते हैं। जान पड़ता है कि मराठी में ‘कोण’ शब्द प्रश्नवाचक और अनिश्चयवाचक दोनों होने के कारण लेखक ने ‘कोई’ को ‘कौन’ के अंतर्गत माना है, परंतु हिंदी में ‘कौन’ और ‘कोई’ के रूप और प्रयोग अलग-अलग हैं। लेखक ने कोई 150 अव्ययों की सूची में ‘कुछ’, ‘क्या’ और ‘सो’ लिखे हैं, पर 1. ‘सर्वनाम उसे कहते हैं जो नाम के बदले में आया हो।’ 92 ध् हिंदी व्याकरण इन बहुत से शब्दों में केवल दो या तीन के प्रयोग बताए गए हैं, और उनमें भी ‘कुछ’, ‘क्या’ और ‘सो’ का नाम तक नहीं है। बिना किसी वर्गीकरण के (चाहे वह पूर्णतया न्यायसंगत न हो) केवल वर्णमाला के क्रम से 150 अव्ययों की सूची दे देने से उनका स्मरण कैसे रह सकता है और उनके प्रयोग का क्या ज्ञान हो सकता है? यदि किसी शब्द को केवल ‘अव्यय’ कहने से काम चल सकता है, तो फिर विकारी शब्दों के जो भेद संज्ञा, सर्वनाम, विशेषण और क्रिया जो लेखक ने माने हैं, उनकी भी क्या आवश्यकता है? ‘हिंदी बालबोध व्याकरण’ में सर्वनामों की संख्या सबसे अधिक है। लेखक ने ‘कोई’ और ‘कुछ’ के साथ ‘सब’ को अनिश्चयवाचक सर्वनाम माना है और ‘एक’, ‘दूसरा’, ‘दोनों’, ‘एक दूसरा’, ‘कई एक’ आदि को विषयवाचक सर्वनामों में लिखा है। ये सब शब्द यथार्थ में विशेषण हैं, क्योंकि इनके रूप और प्रयोग विशेषणों के समान होते हैं। ‘एक लड़का’, ‘दस लड़के’, और ‘सब लड़के’, इन वाक्यांशों में संज्ञा के अर्थ के संबंध में ‘एक’, ‘दस’ और ‘सब’ का प्रयोग व्याकरण में एक ही सा हैμअर्थात् तीनों शब्द ‘लड़का’ संज्ञा की व्याप्ति मर्यादित करते हैं। इसलिए यदि ‘दस’ विशेषण है, तो ‘सब’ भी विशेषण है। हाँ, कभी-कभी विशेष्य के लोप होने पर ऊपर लिखे शब्दों का प्रयोग संज्ञाओं के समान होता है; पर प्रयोग की भिन्नता और भी कई शब्द भेदों में पाई जाती है। हमने इन सब शब्दों को विशेषण मानकर एक अलग ही वर्ग में रखा है। जिन शब्दों को बालबोध व्याकरण के कर्ता ने निश्चयवाचक सर्वनाम माना है, वे सर्वनाम माने जाने पर भी निश्चयात्मक नहीं हैं। उदाहरण के लिए ‘एक’ और ‘दूसरा’ शब्द लीजिए। इनका प्रयोग ‘कोई’ के समान होता है, जो अनिश्चयवाचक है, तब वह अवश्य निश्चयवाचक विशेषण (जो सर्वनाम) होता है, परंतु समालोचित पुस्तक में इन सर्वनामों के प्रयोगों के उदाहरण नहीं हैं इसलिए यह नहीं कहा जा सकता कि लेखक ने किस अर्थ में इन्हें निश्चयवाचक माना है। इन उदाहरणों से स्पष्ट है कि ऊपर कही हुई तीनों पुस्तकों में जो कई शब्द सर्वनामों की सूची में दिए गए हैं, अथवा छोड़ दिए गए हैं, उनके लिए कोई प्रबल कारण नहीं है। अब सर्वनामों के वर्गीकरण का कुछ विचार करना चाहिए। ‘भाषाप्रभाकर’ और ‘हिंदी बालबोध व्याकरण’ में सर्वनामों के पाँच भेद माने गए हैं, पर दोनों में निजवाचक सर्वनाम न अलग माना गया है और न किसी भेद के अंतर्गत लिखा गया है। यद्यपि सर्वनामों के विवेचन में इसका कुछ उल्लेख हुआ है, तथापि वहाँ भी ‘आदरसूचक’ के अन्य पुरुष का प्रयोग नहीं बताया गया। हम इस अध्याय में बता चुके हैं कि हिंदी में ‘आप’ एक अलग सर्वनाम है, जो मूल में निजवाचक है और उसका एक प्रयोग आदर के लिए होता है। दोनों पुस्तकों में ‘सो’ संबंधवाचक लिखा गया है; पर यह सर्वनाम ‘वह’ का पर्यायवाची होने के कारण यथार्थ में निश्चयवाचक है और कभी-कभी यह संबंधवाचक ‘जो’ के बिना भी आता है। हिंदी व्याकरण ध् 93 ‘हिंदी व्याकरण’ में संस्कृत की देखादेखी सर्वनामों के भेद ही नहीं किए गए हैं। पर एक-दो स्थानों में (दे. पृ. 90-91) ‘निजवाचक आप’ शब्द का उपयोग हुआ है, जिससे सर्वनामों के किसी न किसी वर्गीकरण की आवश्यकता जान पड़ती है। न जाने लेखक ने इनका वर्गीकरण क्यों नहीं आवश्यक समझा? 141. ‘यह’, ‘वह’, ‘सो’, ‘जो’, और ‘कौन’ के रूप ‘इस’ ‘उस’, ‘तिस’, ‘जिस’, और ‘किस’ के अंत्य ‘स’ के स्थान में ‘तना’ आदेश करने से परिणामवाचक विशेषण और ‘इ’ को ‘ऐ’ तथा ‘उ’ को ‘वै’ करके ‘सा’ आदेश करने से गुणवाचक विशेषण बनते हैं। दूसरे सार्वनामिक विशेषणों के समान ये शब्द प्रयोग में कभी सर्वनाम और कभी विशेषण होते हैं। कभी-कभी वे क्रियाविशेषण भी होते हैं। इसके प्रयोग आगे विशेषण के अध्याय में लिखे जायँगे। नीचे के कोठे में इनकी व्युत्पत्ति समझाई जाती हैμ सर्वनाम रूप परिमाणवाचक गुणवाचक विशेषण विशेषण यह इस इतना ऐसा वह उस उतना वैसा सो तिस तितना तैसा जो जिस जितना जैसा कौन किस कितना कैसा सर्वनामों की व्युत्पत्ति 142. हिंदी के सब सर्वनाम प्राकृत के द्वारा संस्कृत से निकले हैं; जैसेμ संस्कृत प्राकृत हिंदी अहम् अम्ह मैं, हम त्वम तुम्ह तू, तुम एषः एअ यह, ये सः सो सो, वह, वे यः जो जो कः को कौन किम् किम् क्या कोऽपि कोवि कोई आत्मन् अप्प आप किंचित् किंचि कुछ