दूसरा अध्याय / बयान 12 / चंद्रकांता
दोपहर के वक्त एक नाले के किनारे सुंदर साफ चट्टान पर दो कमसिन औरतें बैठी हैं। दोनों की मैली-फटी साड़ी, दोनों के मुंह पर मिट्टी, खुले बाल, पैरों पर खूब धूल पड़ी हुई और चेहरे पर बदहवासी और परेशानी छाई हुई है। चारों तरफ भयानक जंगल, खूनी जानवरों की भयानक आवाजें आ रही हैं। जब कभी जोर से हवा चलती है तो पेड़ों की घनघनाहट से जंगल और भी डरावना मालूम पड़ता है।
इन दोनों औरतों के सामने नाले के उस पार एक तेंदुआ पानी पीने के लिए उतरा, उन्होने उस तेंदुए को देखा मगर वह खूनी जानवर इन दोनों को न देख सका, क्योंकि जहां वे दोनों बैठी थीं सामने ही एक मोटा जामुन का पेड़ था।
इन दोनों में से एक जो ज्यादे नाजुक थी उस तेंदुए को देख डरी और धीरे से दूसरे से बोली, “प्यारी सखी, देखो कहीं वह इस पार न उतर आवे।” उसने कहा, “नहीं सखी वह इस पार न आवेगा, अगर आने का इरादा भी करेगा तो मैं पहले ही इन तीरों से उसको मार गिराऊंगी जो उस नाले के सिपाहियों को मारकर लेती आई हूं। इस वक्त हमारे पास दो सौ तीर हैं और हम दोनों तीर चलाने वाली हैं, लो तुम भी एक तीर चढ़ा लो।” यह सुन उसने भी एक तीर कमान पर चढ़ाई मगर उसकी कोई जरूरत न पड़ी। वह तेंदुआ पानी पीकर तुरंत ऊपर चढ़ गया और देखते-देखते गायब हो गया तब इन दोनों में यों बात-चीत होने लगी-
कुमारी: क्यों चपला, कुछ मालूम पड़ता है कि हम लोग किस जगह आ पहुंचे और यह कौन-सा जंगल है तथा विजयगढ़ की राह किधर है?
चपला: कुमारी, कुछ समझ में नहीं आता, बल्कि अभी तक मुझको भागने की धुन में यह भी नहीं मालूम कि किस तरफ चली आई। विजयगढ़ किधर है,चुनार कहां छोड़ा, और नौगढ़ का रास्ता कहां है! सिवाय तुम्हारे साथ महल में रहने या विजयगढ़ की हद में घूमने के कभी इन जंगलों में तो आना ही नहीं हुआ। हां चुनार से सीधो विजयगढ़ का रास्ता जानती हूं मगर उधर मैं इस सबब से नहीं गई कि आजकल हमारे दुश्मनों का लश्कर रास्ते में पड़ा है, कहीं ऐसा न हो कोई देख ले, इसलिए मैं जंगल ही जंगल दूसरी तरफ भागी। खैर देखो ईश्वर मालिक है, कुछ न कुछ रास्ते का पता लग ही जायगा। मेरे बटुए में मेवा हैं, लो इसको खा लो और पानी पी लो, फिर देखा जायगा।
कुमारी: इसको किसी और वक्त के वास्ते रहने दो। क्या जाने हम लोगों को कितने दिन दु:ख भोगना पड़े। यह जंगल खूब घना है, चलो बेर मकोय तोड़कर खायें। अच्छा तो न मालूम पड़ेगा मगर समय काटना है। चपला-अच्छा जैसी तुम्हारी मर्जी।
चपला और चंद्रकान्ता दोनों वहां से उठीं। नाले के ऊपर इधर-उधर घूमने लगीं। दिन दोपहर से ज्यादे ढल चुका था। पेड़ों की छांह में घूमती जंगली बेरों को तोड़ती खाती वे दोनों एक टूटे-फूटे उजाड़ मकान के पास पहुंचीं जिसको देखने से मालूम होता था कि यह मकान जरूर किसी बड़े राजा का बनाया हुआ होगा मगर अब टूट-फूट गया है। चपला ने कुमारी चंद्रकान्ता से कहा, “बहिन तुम मकान के टूटे दरवाजे पर बैठो, मैं फल तोड़ लाऊं तो इसी जगह बैठकर दोनों खायें और इसके बाद तब इस मकान के अंदर घुसकर देखें कि क्या है। जब तक विजयगढ़ का रास्ता न मिले यही खण्डहर हम लोगों के रहने के लिए अच्छा होगा, इसी में गुजारा करेंगे। कोई मुसाफिर या चरवाहा इधर से आ निकलेगा तो विजयगढ़ का रास्ता पूछ लेंगे और तब यहां से जायेंगे।” कुमारी ने कहा, “अच्छी बात है, मैं इसी जगह बैठती हूं, तुम कुछ फल तोड़ो लेकिन दूर मत जाना!” चपला ने कहा, “नहीं मैं दूर न जाऊंगी, इसी जगह तुम्हारी आंखों के सामने रहूंगी।” यह कहकर चपला फल तोड़ने चलीगई।