दूसरा अध्याय / बयान 3 / चंद्रकांता

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कुछ दिन बाकी है, एक मैदान में हरी-हरी दूब पर पंद्रह-बीस कुर्सियां रखी हुई हैं और सिर्फ तीन आदमी कुंअर वीरेन्द्रसिंह, तेजसिंह और फतहसिंह सेनापति बैठे हैं, बाकी कुर्सियां खाली पड़ी हैं। उनके पूरब तरफ सैकड़ों खेमे अर्धाचंद्राकार खड़े हैं। बीच में वीरेन्द्रसिंह के पलटन वाले अपने-अपने हरबों को साफ और दुरुस्त कर रहे हैं। बड़े-बड़े शामियानों के नीचे तोपें रखी हैं जो हर एक तरह से लैस और दुरुस्त मालूम हो रही हैं। दक्षिण तरफ घोड़ों का अस्तबल है जिसमें अच्छे-अच्छे घोड़े बंधे दिखाई देते हैं। पश्चिम तरफ बाजे वालों, सुरंग खोदने वालों, पहाड़ उखाड़ने वालों और जासूसों का डेरा तथा रसद का भण्डार है।

कुमार ने फतहसिंह सिपहसालार से कहा, “मैं समझता हूं कि मेरा डेरा-खेमा सुबह तक 'लोहरा' के मैदान में दुश्मनों के मुकाबले में खड़ा हो जायगा?” फतहसिंह ने कहा, “जी हां, जरूर सुबह तक वहां सब सामान लैस हो जायगा, हमारी फौज भी कुछ रात रहते यहां से कूच करके पहर दिन चढ़ने के पहले ही वहां पहुंच जायगी। परसों हम लोगों के हौसले दिखाई देंगे, बहुत दिन तक खाली बैठे-बैठे तबीयत घबड़ा गई थी!” इसी तरह की बातें हो रही थीं कि सामने देवीसिंह ऐयारी के ठाठ में आते दिखाई दिये। नजदीक आकर देवीसिंह ने कुमार और तेजसिंह को सलाम किया। देवीसिंह को देखकर कुमार बहुत खुश हुए और उठकर गले लगा लिया, तेजसिंह ने भी देवीसिंह को गले लगाया और बैठने के लिए कहा। फतहसिंह सिपहसालार ने भी उनको सलाम किया। जब देवीसिंह बैठ गये, तेजसिंह उनकी तारीफ करने लगे।

कुमार ने पूछा, “कहो देवीसिह, तुमने यहां आकर क्या-क्या किया?”

तेजसिह ने कहा, “इनका हाल मुझसे सुनिये, मैं मुख्तसर में आपको समझा देता हूं।”

कुमार ने कहा, “कहो!”

तेजसिंह बोले, “जब आप चंद्रकान्ता के बाग में बैठे थे और भूत ने आकर कहा था कि 'खबर भई राजा को तुमरी सुनो गुरुजी मेरे!' जिसको सुनकर मैंने जबर्दस्ती आपको वहां से उठाया था, वह भूत यही थे। नौगढ़ में भी इन्होंने जाकर क्रूरसिंह के चुनार जाने और ऐयारों को संग लाने की खबर खंजरी बजाकर दी थी। जब चंद्रकान्ता के मरने का गम महल में छाया हुआ था और आप बेहोश पड़े थे तब भी इन्हीं ने चंद्रकान्ता और चपला के जीते रहने की खबर मुझको दी थी, तब मैंने उठकर लाश पहचानी नहीं होती तो पूरे घर का ही नाश हो चुका था। इतना काम इन्होंने किया। इन्हीं को बुलाने के वास्ते मैंने सुबह मुनादी करवाई थी, क्योंकि इनका कोई ठिकाना तो था ही नहीं।”

यह सुनकर कुमार ने देवीसिंह की पीठ ठोंकी और बोले, “शाबास! किस मुंह से तारीफ करें, दो घर तुमने बचाये।”

देवीसिंह ने कहा, “मैं किस लायक हूं जो आप इतनी तारीफ करते हैं, तारीफ सब कामों से निश्चित होकर कीजियेगा, इस वक्त चंद्रकान्ता को छुड़ाने की फिक्र करनी चाहिए, अगर देर होगी तो न जाने उनकी जान पर क्या आ बने। सिवाय इसके इस बात का भी ख्याल रखना चाहिए कि अगर हम लोग बिल्कुल चंद्रकान्ता ही की खोज में लीन हो जायेंगे तो महाराज की लड़ाई का नतीजा बुरा हो जायगा!”

यह सुन कुमार ने पूछा, “देवीसिंह यह तो बताओ चंद्रकान्ता कहां है, उसको कौन ले गया।”

देवीसिंह ने जवाब दिया कि “यह तो नहीं मालूम कि चंद्रकान्ता कहां है, हां इतना जानता हूं कि नाज़िम और बद्रीनाथ मिलकर कुमारी और चपला को ले गये, पता लगाने से लग ही जायगा!”

तेजसिंह ने कहा, “अब तो दुश्मन के सब ऐयार छूट गये, वे सब मिलकर नौ हैं और हम दो ही आदमी ठहरे। चाहे चंद्रकान्ता और चपला को खोजें चाहे फौज में रहकर कुमार की हिफाजत करें, बड़ी मुश्किल है।”

देवीसिंह ने कहा, “कोई मुश्किल नहीं है सब काम हो जायगा, देखिए तो सही। अब पहले हमको शिवदत्त के मुकाबले में चलना चाहिए, उसी जगह से कुमारी के छुड़ाने की फिक्र की जायगी।”

तेजसिंह ने कहा, “हम लोग महाराज से बिदा हो आये हैं, कुछ रात रहते यहां से पड़ाव उठेगा, पेशखेमा जा चुका है।”

आधी रात तक ये लोग आपस में बातचीत करते रहे, बाद इसके कुमार उठकर अपने खेमे में चले गये। कुमार के बगल में तेजसिंह का खेमा था जिसमें देवीसिंह और तेजसिंह दोनों ने आराम किया। चारों तरफ फौज का पहरा फिरने लगा, गश्त की आवाज आने लगी। थोड़ी रात बाकी थी कि एक छोटी तोप की आवाज हुई, कुछ देर बाद बाजा बजने लगा, कूच की तैयारी हुई और धीर- धीर फौज चल पड़ी। जब सब फौज जा चुकी, पीछे एक हाथी पर कुमार सवार हुए जिन्हें चारों तरफ से बहुत-से सवार घेरे हुए थे। तेजसिंह और देवीसिंह अपने ऐयारी के सामान से सजे हुए कभी आगे कभी पीछे कभी साथ, पैदल चले जाते थे। पहर दिन चढ़े कुंअर वीरेन्द्रसिंह का लश्कर शिवदत्तसिंह की फौज के मुकाबले में जा पहुंचा जहां पहले से महाराज जयसिंह की फौज डेरा जमाये हुए थी। लड़ाई बंद थी और मुसलमान सब मारे जा चुके थे, खेमा-डेरा पहले ही से खड़ा था, कायदे के साथ पल्टनों का पड़ाव पड़ा।

जब सब इंतजाम हो चुका, कुंअर वीरेन्द्रसिंह ने अपने खेमे में कचहरी की और मीर मुंशी को हुक्म दिया, “एक खत शिवदत्त को लिखो कि मालूम होता है आजकल तुम्हारे मिजाम में गर्मी आ गई है जो बैठे-बैठाये एक नालायक क्रूर के भड़काने पर महाराज जयसिंह से लड़ाई ठान ली है। यह भी मालूम हो गया कि तुम्हारे ऐयार चंद्रकान्ता और चपला को चुरा लाये हैं, सो बेहतर है कि चंद्रकान्ता और चपला को इज्जत के साथ महाराज जयसिंह के पास भेज दो और तुम वापस जाओ नहीं तो पछताओगे, जिस वक्त हमारे बहादुरों की तलवारें मैदान में चमकेंगी, भागते राह न मिलेगी।”

बमूजिम हुक्म के मीर मुंशी ने खत लिखकर तैयार की। कुमार ने कहा, “यहखत कौन ले जायगा?” यह सुन देवीसिंह सामने आ हाथ जोड़कर बोले, “मुझको इजाजत मिले कि इस खत को ले जाऊं क्योंकि शिवदत्तसिंह से बातचीत करने की मेरे मन में बड़ी लालसा है।” कुमार ने कहा, “इतनी बड़ी फौज में तुम्हारा अकेला जाना अच्छा नहीं है।”

तेजसिंह ने कहा, “कोई हर्ज नहीं, जाने दीजिए।” आखिर कुमार ने अपनी कमर से खंजर निकालकर दिया जिसे देवीसिंह ने लेकर सलाम किया, खत बटुए में रख ली और तेजसिंह के चरण छूकर रवाना हुए।

महाराज शिवदत्तसिंह के पल्टन वालों में कोई भी देवीसिंह को नहीं पहचानता था। दूर से इन्होंने देखा कि बड़ा-सा कारचोबी खेमा खड़ा है। समझ गये कि यही महाराज का खेमा है, सीधो धाड़धाड़ाते हुए खेमे के दरवाजे पर पहुंचे और पहरे वालों से कहा, “अपने राजा को जाकर खबर करो कि कुंअर वीरेन्द्रसिंह का एक ऐयार खत लेकर आया है, जाओ जल्दी जाओ! “सुनते ही प्यादा दौड़ा गया और महाराज शिवदत्त से इस बात की खबर की। उन्होंने हुक्म दिया, “आने दो।” देवीसिंह खेमे के अंदर गये। देखा कि बीच में महाराज शिवदत्त सोने के जड़ाऊ सिंहासन पर बैठे हैं, बाईं तरफ दीवान साहब और इसके बाद दोनों तरफ बड़े-बड़े बहादुर बेशकीमती पोशाकें पहिरे उम्दे-उम्दे हरबे लगाये चांदी की कुर्सियों पर बैठे हैं, जिनके देखने से कमजोरों का कलेजा दहलता है। बाद इसके दोनों तरफ नीम कुर्सियों पर ऐयार लोग विराजमान हैं। इसके बाद दरजे बदरजे अमीर और ओहदेदार लोग बैठे हैं, बहुत से चोबदार हाथ बांधो सामने खड़े हैं। गरज कि बड़े रोआब का दरबार देखने में आया।

देवीसिंह किसी को सलाम किये बिना ही बीच में जाकर खड़े हो गए और एक दफे चारों तरफ निगाह दौड़ाकर गौर से देखा, फिर बढ़कर कुमार की खत महाराज के सामने सिंहासन पर रख दी। देवीसिंह की बेअदबी देखकर महाराज शिवदत्त मारे गुस्से के लाल हो गये और बोले-”एक मच्छर को इतना हौसला हो गया कि हाथी का मुकाबला करे! अभी तो वीरेन्द्रसिंह के मुंह से दूध की महक भी गई न होगी।” यह कह खत हाथ में ले फाड़कर फेंक दी। खत का फटना था कि देवीसिंह की आंखें लाल हो गईं। बोले, “जिसके सर मौत सवार होती है उसकी बुध्दि पहले ही हवा खाने चली जाती है।” देवीसिंह की बात तीर की तरह शिवदत्त के कलेजे के पार हो गई। बोले, “पकड़ो इस बेअदब को!” इतना कहना था कि कई चोबदार देवीसिंह की तरफ झुके। इन्होंने खंजर निकाल दो-तीन चोबदारों की सफाई कर डाली और फुर्ती से अपने ऐयारी के बटुए में से एक गेंद निकालकर जोर से जमीन पर मारी जिससे बड़ी भारी आवाज हुई। दरबार दहल उठा, महाराज एकदम चौंक पड़े जिससे सिर का शमला जिस पर हीरे का सरपेंच था जमीन पर गिर पड़ा। लपक के देवीसिंह ने उसे उठा लिया और कूदकर खेमे के बाहर निकल गये। सब के सब देखते रह गये किसी के किये कुछ बन न पड़ा।

सारा गुस्सा शिवदत्त ने ऐयारों पर निकाला जो कि उस दरबार में बैठे थे। कहा-”लानत है तुम लोगों की ऐयारी पर जो तुम लोगों के देखते दुश्मन का एक अदना ऐयार हमारी बेइज्जती कर जाय!” बद्रीनाथ ने जवाब दिया, “महाराज, हम लोग ऐयार हैं, हजार आदमियों में अकेले घुसकर काम करते हैं मगर एक आदमी पर दस ऐयार नहीं टूट पड़ते। यह हम लोगों के कायदे के बाहर है। बड़े-बड़े पहलवान तो बैठे थे, इन लोगों ने क्या कर लिया!” बद्रीनाथ की बात का जवाब शिवदत्त ने कुछ न देकर कहा, “अच्छा कल हम देख लेंगे।”