दूसरा घुमक्कड़ / ख़लील जिब्रान / बलराम अग्रवाल
एक बार मैं एक घुमक्कड़ से मिला। वह भी कुछ पागल था; और इसीलिए उसने मुझसे बतियाना शुरू किया, "मैं एक घुमक्कड़ हूँ। मुझे अक्सर महसूस होता है कि मैं बंजारों के बीच धरती पर घूम रहा हूँ। क्योंकि धरती से मेरा सिर उनके मुकाबले सत्तर गुना दूर है, इसमें बहुत ऊँचे और आजाद ख्याल आते हैं।
लेकिन सचाई यह है कि मै मनुष्यों के बीच नहीं, उनसे कहीं ऊपर चलता हूँ। वे खुले मैदानों में मेरे केवल पदचिह्न ही देख पाते हैं।
मैं अपने पदचिह्नों पर अक्सर उन्हें बात करते और सहमत या असहमत होते सुनता रहता हूँ। कुछ लोग कहते हैं, 'ये मैमथ (पुराकालीन हाथी), जो युगों पहले धरती पर विचरते थे, के पैरों के निशान हैं ।' दूसरे कहते हैं, 'नहीं, ये वो जगहें हैं जहाँ अन्तरिक्ष में चमकते सितारों के टुकड़े गिरे थे।'
लेकिन तुम, मेरे दोस्त, तुम अच्छी तरह जानते हो कि वे एक घुमक्कड़ के पदचिह्न बचाकर नहीं रख पा रहे हैं।"