दूसरा चेहरा-लघुकथा : रचना-प्रक्रिया / सुकेश साहनी

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घर-परिवार में बहुत-सी ऐसी घटनाएँ घटती रहती हैं, जिनकी ओर हमारा ध्यान नहीं जाता और हम उन्हें अति साधारण मानकर नज़रअंदाज़ कर देते हैं। मेरी दूसरी लघुकथाओं की तुलना में 'दूसरा चेहरा' की रचना-प्रक्रिया बहुत सहज कही जाएगी; क्योंकि इसके पात्र और घटनाएँ मेरे घर-परिवार से जुड़ी हैं और मैं इनका साक्षी रहा हूँ। सृजन-प्रक्रिया की दृष्टि से इसमें यह देखना दिलचस्प होगा कि इन पर 'लघुकथा' लिखते हुए मूल घटना में क्या जोड़ा या छोड़ा गया है और क्यों।

मेरा जन्म लखनऊ में हुआ था और वहीं मोती नगर के तिमंजिले मकान की ऊपरी मंज़िल पर हम रहते थे, तीन भाइयों में मैं सबसे छोटा था, मेरे और सबसे बड़े भाई के बीच नौ साल का अंतर था। घर में दादी भी थीं, जो पूजा-पाठ में व्यस्त रहती थीं। सफाई-पसंद इतनी कि अपना बिस्तर हम लोगों को भी छूने नहीं देती थीं। हम चमड़े की बेल्ट पहनकर रसोई में नहीं जा सकते थे।

एक दिन बड़े भैया एक पिल्ला घर ले आए, वे उसे पालना चाहते थे माँ, पिता जी इसके खिलाफ थे, जबकि दादी को सफाई-पसंद होने के कारण उससे नफ़रत थी। बड़े भैया को केवल एक रात के लिए उसे घर में रखने की इज़ाज़त मिली थी। लघुकथा का समापन बिलकुल वैसा ही है, जैसा वास्तव में घटा था—

पिल्ले को ठंड लग रही थी और वह बरामदे में सो रही दादी की चारपाई पर चढ़ने का प्रयास कर रहा था। वह घबरा गया...सोना तो दूर, दादी अपना बिस्तर किसी को छूने भी नहीं देतीं...उनकी नींद खुल गई, तो वे बहुत शोर करेंगी...पिता जी जाग गए, तो पिल्ले को तिमंजिले से उठाकर नीचे फेंक देंगे...वह रजाई में पसीने–पसीने हो गया। माँ ने सोते हुए, एक हाथ उस पर रखा हुआ था, वह चाहकर भी उठ नहीं सकता था। पिल्ले की कूँ–कूँ और पंजों से चारपाई को खरोंचने की आवाज़ रात के सन्नाटे में बहुत तेज मालूम दे रही थी।

दादी की नींद उचट गई थी, वह करवटें बदल रही थीं। आख़िर वह उठकर बैठ गई।

आने वाली भयावह स्थिति की कल्पना से ही उसके रोंगटे खड़े हो गए। उसे लगा दादी पिल्ले को घूरे जा रही हैं।

दादी ने दाएँ–बाएँ देखा...पिल्ले को उठाया और पायताने लिटाकर रजाई ओढ़ा दी।

लघुकथा का चरमोत्कर्ष यही है, इस अंत से ही रचना का उद्देश्य पूर्ण होता है, जिससे दादी का असली चेहरा सामने आता है। प्रकट में दादी जितनी कठोर, पत्थर दिल दिखती हैं, उतनी हैं नहीं। उनके भीतर भी एक संवेदनशील दिल धड़कता है। पहले इस लघुकथा का शीर्षक 'ओएसिस' रखा था, पर बाद में आम पाठकों का दृष्टिगत रखते हुए 'दूसरा चेहरा' अधिक सार्थक लगा।

जैकी (उस अल्सेशियन डॉग का यही नाम रखा गया था) की कहानी यहीं ख़त्म नहीं होती, उसे घर में रख लिया गया था। उसने घर में सबका दिल जीत लिया था। दादी तो हम लोगों से छिपाकर उसे खाने-पीने की चीजें देती रहती थीं। अंत में वह बीमार रहने लगा था। उसकी पूँछ पर चीटियाँ चढ़ते देखकर दादी को अहसास हो गया था कि वह अंतिम साँसें ले रहा है, उन्होंने उसके मुँह में गंगा जल टपकाया था।

यह अंतिम पैरा यहाँ प्रस्तुत करने का उद्देश्य यही कि जब आप लघुकथा लिख रहे होते हैं, तो बहुत से मार्मिक सन्दर्भों का प्रस्तुत करने का लोभ छोड़ना पड़ता है। केवल वे ही सन्दर्भ जोड़ने होते हैं, जो लघुकथा को प्रभावी बनाने में सहायक हों।