दूसरा देवदास / ममता कालिया

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https://ncert.nic.in/textbook/pdf/lhat120.pdf हर की पौड़ी पर साँझ कुछ अलग रंग में उतरती है । दीया-बाती का समय या कह लो आरती की बेला । पाँच बजे जो फूलों के दोने एक-एक रुपये के बिक रहे थे, इस वक्त दो-दो के हो गए हैं । भक्तों को इससे कोई शिकायत नहीं । इतनी बड़ी-बड़ी मनोकामना लेकर आए हुए हैं । एक-दो रुपये का मुँह थोड़े ही देखना है । गंगा सभा के स्वयंसेवक ख़ाकी वरदी में मुस्तैदी से घूम रहे हैं । वे सबसे सीढ़ियों पर बैठने की प्रार्थना कर रहे हैं । शान्त होकर बैठिए, आरती शुरू होने वाली है । कुछ भक्तों ने स्पेशल आरती बोल रखी है । स्पेशल आरती यानी एक सौ एक या एक सौ इक्यावन रुपये वाली । गंगातट पर हर छोटे-बड़े मन्दिर पर लिखा है — ‘गंगा जी का प्राचीन मन्दिर ।’ पण्डितगण आरती के इन्तज़ाम में व्यस्त हैं । पीतल की नीलांजलि में सहस्र बत्तियाँ घी में भिगोकर रखी हुई हैं । सबने देशी घी के डब्बे अपनी ईमानदारी के प्रतीकस्वरूप सजा रखे हैं । गंगा की मूर्ति के साथ-साथ चामुण्डा, बालकृष्ण, राधाकृष्ण, हनुमान, सीताराम की मूर्तियों की शृंगारपूर्ण स्थापना है । जो भी आपका आराध्य हो, चुन लें ।

आरती से पहले स्नान ! हर-हर बहता गंगाजल, निर्मल, नीला, निष्पाप । औरतें डुबकी लगा रही हैं । बस, उन्होंने तट पर लगे कुण्डों से बँधी ज़ंजीरें पकड़ रखी हैं। पास ही कोई न कोई पण्डा जजमानों के कपड़ों-लत्तों की सुरक्षा कर रहा है । हर एक के पास चन्दन और सिन्दूर की कटोरी है। मर्दों के माथे पर चन्दन तिलक और औरतों के माथे पर सिन्दूर का टीका लगा देते हैं पण्डे । कहीं कोई दादी-बाबा पहला पोता होने की ख़ुशी में आरती करवा रहे हैं, कहीं कोई नई बहू आने की ख़ुशी में । अभी पूरा अन्धेरा नहीं घिरा है । गोधूलि बेला है ।

यकायक सहस्र दीप जल उठते हैं । पण्डित अपने आसन से उठ खड़े होते हैं । हाथ में अँगोछा लपेट के पञ्चमंज़िली नीलांजलि पकड़ते हैं और शुरू हो जाती है आरती। पहले पुजारियों के भर्राए गले से समवेत स्वर उठता है — जय गंगे माता, जो कोई तुझको ध्याता, सारे सुख पाता, जय गंगे माता । घण्टे -घड़ियाल बजते हैं । मनौतियों के दिये लिए हुए फूलों की छोटी-छोटी किश्तियाँ गंगा की लहरों पर इठलाती हुई आगे बढ़ती हैं । गोताखोर दोने पकड़, उनमें रखा चढ़ावे का पैसा उठाकर मुँह में दबा लेते हैं । एक औरत ने इक्कीस दोने तैराएँ हैं । गंगापुत्र जैसे ही एक दोने से पैसा उठाता है, औरत अगला दोना सरका देती है । गंगापुत्र उसपर लपकता है कि पहले दोने की दीपक से उसके लँगोट में आग की लपट लग जाती है । पास खड़े लोग हँसने लगते हैं । पर गंगापुत्र हतप्रभ नहीं होता । वह झट गंगाजी में बैठ जाता है । गंगा मैया ही उसकी जीविका और जीवन है । इसके रहते वह बीस चक्कर मुँह भर-भर रेज़गारी बटोरता है । उसकी बीवी और बहन कुशाघाट पर रे्गाज़री बेचकर नोट कमाती हैं । एक रुपए के पच्चासी पैसे । कभी-कभी अस्सी भी देती हैं । जैसा दिन हो ।

पुजारियों का स्वर थकने लगता है तो लता मंगेशकर की सुरीली आवाज़ लाउडस्पीकरों के साथ सहयोग करने लगती है और आरती में यकायक एक स्निग्ध सौन्दर्य की रचना हो जाती है । ‘ओम जय जगदीश हरे’ से हर की पौड़ी गुंजायमान हो जाती है ।

औरतें ज़्यादातर नहाकर वस्त्र नहीं बदलतीं । गीले कपड़ों में ही खड़ी-खड़ी आरती में शामिल हो जाती हैं। पीतल की पञ्चमंज़िली नीलांजलि गरम हो उठी है । पुजारी नीलांजलि को गंगाजल से स्पर्श कर, हाथ में लिपटे अँगोछे को नामालूम ढंग से गीला कर लेते हैं । दूसरे यह दृश्य देखने पर मालूम होता है वे अपना सम्बोधन गंगाजी के गर्भ तक पहुँचा रहे हैं । पानी पर सहस्र बाती वाले दीपकों की प्रतिच्छवियाँ झिलमिला रही हैं । पूरे वातावरण में अगरु-चन्दन की दिव्य सुगन्ध है । आरती के बाद बारी है संकल्प और मंत्रोच्चार की । भक्त आरती लेते हैं, चढ़ावा चढ़ाते हैं । स्पेशल भक्तों से पुजारी ब्राह्मण-भोज, दान, मिष्ठान की धनराशि कबुलवाते हैं । आरती के क्षण इतने भव्य और दिव्य रहे हैं कि भक्त हुज्जत नहीं करते । ख़ुशी-ख़ुशी दक्षिणा देते हैं । पण्डित जी प्रसन्न होकर भगवान के गले से माला उतार-उतारकर यजमान के गले में डालते हैं । फिर जी खोलकर देते हैं प्रसाद, इतना कि अपना हिस्सा खाकर भी ढेर सा बच रहता है, बाँटने के लिए-मुरमरे, इलायचीदाना, केले और पुष्प ।

खर्च हुआ पर भक्तों के चेहरे पर कोई मलाल नहीं। कई खर्च सुखदायी होते हैं ।

कुछ पण्डे अभी भी अपने तख़्त पर जमे हैं । देर से आनेवाले भक्तों का स्नान - ध्यान अभी जारी है। आरती के दोने फिर एक रुपये में बिकने लगे हैं । गंगाजल आकाश के साथ रंग बदल रहा है।

सम्भव काफ़ी देर से नहा रहा था । जब घाट पर आया तो मंगल पण्डा बोले,— ‘का हो जजमान, बड़ी देर लगाय दी। हम तो डर गए थे।’

सम्भव हंसा । उसके एकसार ख़ूबसूरत दाँत साँवले चेहरे पर फब उठे । उसने लापरवाही से कपड़े पहने और जांघिया निचोड़कर थैले में डाला । जब वह कुरते से पोंछकर चश्मा लगा रहा था, पण्डे ने उसके माथे पर चन्दन तिलक लगाने को हाथ बढ़ाया ।

‘उ हूँ’ — उसने चेहरा हटा लिया तो मंगल पण्डा ने कहा,— ‘चन्दन तिलक के बग़ैर अस्नान अधूरा होता है, बेटा ।’

सम्भव ने चुपचाप तिलक लगवा लिया । वह वापस सीढ़ियाँ चढ़ ही रहा था कि पौड़ी पर बने एक छोटे से मन्दिर के पुजारी ने आवाज़ लगाई, — ‘अरे दर्शन तो करते जाओ’।

सम्भव ठिठक गया ।

उसकी इन चीज़ों में नियमित आस्था तो नहीं थी, पर नानी ने कहा था, ‘मंदिर में बीस आने चढ़ाकर आना।’ संभव ने कुरते की जेब में हाथ डाला। एक रुपए का नोट तो मिल गया चवन्नी के लिए उसे कुछ प्रयत्न करना पड़ा। चवन्नी जेब में नहीं थी। संभव ने थैला खखोरा। पुजारी ने उसकी परेशानी ताड़ ली।

इधर आओ, हम दें रेजगारी।

संभव ने झेंपते हुए एक का नोट जेब में रखकर दो का नोट निकाला। पुजारी जी ने चरणामृत दिया और लाल रंग का कलावा बाँधने के लिए हाथ बढ़ाया।

संभव का ध्यान कलावे की तरफ़ नहीं था। वह गंगा जी की छटा निहार रहा था। तभी एक और दुबली नाज़ुक सी कलाई पुजारी की तरफ़ बढ़ आई। पुजारी ने उस पर कलावा बाँध दिया। उस हाथ ने थाली में सवा पाँच रुपए रखे। लड़की अब बिलकुल बराबर में खड़ी, आँख मूँदकर अर्चन कर रही थी। संभव ने यकायक मुड़कर उसकी ओर गौर किया। उसके कपड़े एकदम भीगे हुए थे, यहाँ तक कि उसके गुलाबी आँचल से संभव के कुर्ते का एक कोना भी गीला हो रहा था। लड़की के लम्बे गीले बाल पीठ पर काले चमकीले शॉल की तरह लग रहे थे। दीपकों के नीम उजाले में, आकाश और जल की साँवली सन्धि - बेला में, लड़की बेहद सौम्य, लगभग काँस्य प्रतिमा लग रही थी।

लड़की ने कहा, पण्डित जी, आज तो आरती हो चुकी। क्या करें हमें देर हो गई।

पुजारी ने उत्साह से कहा, इससे क्या, हम हिंया कराय दें। का कराना है संकल्प, कल्याण-मंत्र, आरती ? जो कहो ।यहीं हम कल आरती की बेला आएँगे। लड़की ने कहा।

संभव इन्तज़ार में खड़ा था कि पुजारी उसे पचहत्तर पैसे लौटाए। लेकिन पुजारी भूल चुका था।

जाने कैसे पुजारी ने लड़की के ‘हम’ को युगल अर्थ में लिया कि उसके मुँह से अनायास आशीष निकली, सुखी रहो, फलो - फूलो, जब भी आओ साथ ही आना, गंगा मैया मनोरथ पूरे करें ।

लड़की और लड़का दोनों अकबका गए।

लड़की छिटककर दूर खड़ी हो गई।

लड़के को तुरन्त वहाँ से चल पड़ने की जल्दी हो गई ।

शायद उनकी चप्पलें एक ही रखवाले के यहाँ रखी हुई थीं । टोकन देकर चप्पलें लेते समय दोनों की निगाहें एक बार फिर टकरा गईं । आँखों का चकाचौंध अभी मिटा नहीं था ।

संभव आगे बढ़कर कहना चाहता था, देखिए, इसमें मेरी कोई ग़लती नहीं थी। पुजारी ने ग़लत अर्थ ले लिया।

लड़की कहना चाहती थी, आपको इतना पास नहीं खड़ा होना चाहिए था।

लड़की ने अपना होंठ दाँतों में दबाकर छोड़ दिया। भूल तो उसी की थी। बाद में तो वही आई थी। अंधेरे से घबराकर कहाँ, कितनी पास खड़ी हुई, उसे कुछ खबर नहीं थी। लेकिन बातचीत के लायक दोनों की मनःस्थिति नहीं थी। पहचान भी नहीं। दोनों ने नज़रें बचाते हुए चप्पलें पहनीं।

लड़की घबराहट में ठीक से चप्पल पहन नहीं पाई। थोड़ी सी अँगूठे में अटकाकर ही आगे बढ़ गई।

संभव ने आगे लपककर देखना चाहा कि लड़की किस तरफ़ गई। वह घाट की भीड़ को काटता हुआ सब्ज़ीमण्डी पहुंँच गया। हर की पौड़ी और सब्ज़ीमण्डी के बीच अनेक घुमावदार गलियाँ थीं।

लड़का देख नहीं पाया कि लड़की कहाँ ओझल हो गई।

नानी का घर क़रीब आ गया था, लेकिन लड़का घर नहीं गया। वह वापस अनदेखी गलियों में चक्कर लगाता रहा। उसने चूड़ी की समस्त दुकानों पर नज़र दौड़ाई। हर दुकान पर भीड़ थी पर एक भीगी, गुलाबी आकृति नहीं थी। आखिर भटकते-भटकते संभव हार गया। पस्त क़दमों से वह घर की ओर मुड़ा।

नानी ने द्वार खोलते हुए कहा, फ्कहाँ रह गए थे लल्ला। मैं तो जी में बड़ा काँप रही थी। तुझे तो तैरना भी न आवे। कहीं पैर फिसल जाता तो मैं तेरी माँ को कौन मुँह दिखाती।

संभव कुछ नहीं बोला। थैला तख्त पर पटक, पैर धोने नल के पास चला गया।

नानी बोली, ब्यालू कर ले।

संभव फिर भी नहीं बोला।

नानी की आदत थी एक बात को कई-कई बार कहती। संभव तख्त पर लेट गया। नानी ने कहा, थक गया न। अरे तुझे मेले-ठेले में चलने की आदत थोड़ेई है। कल बैसाखी है, इसलिए भीड़ बहुत बढ़ गई है। अभी तो कल देखना, तिल धरने की जगह नहीं मिलेगी पौड़ी पर।

चल, उठ । खायबे को खा ले।

मुझे भूख नहीं है, संभव ने कहा और करवट बदल ली।

फ्अरे क्या हो गया। अस्नान वेफ बाद भी भूख नाँय चमकी। तभी न इतनी सींक सलाई देही है। मैंने सबिता से पहले ही कही थी, इसे अवेफले ना भेज। यहाँ जी ना लगे इसका। नानी पास खड़े खटोले पर अधलेटी हो गई। उम्र के साथ-साथ नानी की काया इतनी संक्षिप्त हो गई थी कि वे फैल - पसर कर सोती तो भी उनके लिए खटोला पर्याप्त था। पर उन्हें सिकुड़कर, गठरी बनकर सोने की आदत थी।

गंगा को छूकर आती हवा से आँगन काफ़ी शीतल था। ऊपर से नानी ने रोज़ की तरह शाम को चौक धो डाला था। नींद और स्वप्न के बीच संभव की आँखों में घाट की पूरी बात उतर आई। लड़की का आँख मूँदकर अर्चना करना, माथे पर भीगे बालों की लट, कुरते को छूता उसका गुलाबी आँचल और पुजारी से कहता उसका सौम्य स्वर ‘हम कल आएँगे।’

संभव की आँख खुल गई। यह तो वह भूल ही गया था। लड़की ने कल वहाँ आने का वचन दिया था। संभव आशा आौर उत्साह से उठ बैठा।

नानी को झकझोरते हुए बोला, फ्नानी, नानी चलो खा लें मुझे भूख लगी है।य् नानी की नींद झूले वेफ समान थी, कभी गहरी, कभी उथली। उथले झोटे में उन्हें धेवते की सुध आई। वे रसोई से थाली उठा लाईं। संभव ने बहुत मगन होकर खाना शुरू किया, फ्वाह नानी! क्या आलू टमाटर बनाया है, माँ तो ऐसा बिलवुफल नहीं बना सकतीं। ककड़ी का रायता मुझे बहुत पसंद है।य् खाते-खाते संभव को याद आया आशीर्वचन की दुर्घटना तो बाद में घटी थी। वह कौर हाथ में लिए बैठा रह गया। उसकी आँखों वेफ बीच आगे वुफछ घंटे पहले का सारा दृश्य घूम गया। पुजारी का वह मंत्रोच्चार जैसा पवित्रा उद्गार ‘सुखी रहो, पूफलो-पफलो, सारे मनोरथ पूरे हों। जब भी आओ साथ ही आना।’ लड़की का चिहुँकना, छिटककर दूर खड़े होना, घबराहट में चप्पल भी ठीक से न पहन पाना और आगे बढ़ जाना। संभव ने विचलित स्वर में कहा, फ्मुझे भूख नाँय। मैं तो यों ही उठ बैठा था।य् सारी रात संभव की आँखों में शाम मँडराती रही। उसकी श्यादा उम्र नहीं थी। इसी साल एम.ए. पूरा किया था। अब वह सिविल सर्विसेश प्रतियोगिताओं में बैठने वाला था। माता-पिता का खयाल था वह हरिद्वार जाकर गंगा जी वेफ दर्शन कर ले तो बेखटवेफ सिविल सेवा में चुन लिया जाएगा। लड़का इन टोटकों को नहीं मानता था पर घूमना और नानी से मिलना उसे पसंद था। अभी तक उसवेफ जीवन में कोई लड़की किसी अहम भूमिका में नहीं आई थी। लड़कियाँ या तो क्लास में बाँयी तरप़् ाफ की बेंचों पर बैठनेवाली एक कतार थी या पिफर ताई चाची की लड़कियाँ जिनवेफ साथ खेलते खाते वह बड़ा हुआ था। इस तरह बिलवुफल अवेफली, अनजान जगह पर, एक अनाम लड़की का सद्य-स्नात दशा में सामने आना, पुजारी का गलत समझना, आशीर्वाद देना, लड़की का घबराना और चल देना सब मिलाकर एक नयी निराली अनुभूति थी जिसमें उसे वुफछ सुख और श्यादा बेचैनी लग रही थी। उसने मन ही मन तय किया कि कल शाम पाँच बजे से ही वह घाट पर जाकर बैठ जाएगा। पौड़ी पर इस तरह बैठेगा कि कल वाले पुजारी वेफ देवालय पर सीधी आँख पड़े। उसने तो लड़की का नाम भी नहीं पूछा। वैसे वह हरिद्वार की नहीं लगती थी। वैफसी लगती थी, संभव ने याद करने की कोशिश की। उसे सिप़्र् ाफ उसकी दुबली पतली काया, गुलाबी साड़ी, और भीगी-भीगी श्याम सलोनी आँखें दिखीं। उसे अप़् ाफसोस था वह उसे ठीक से देख भी नहीं पाया पर यह तय था कि वह उसे हशारों की भीड़ में भी पहचान लेगा। अभी चिड़ियों ने आँगन में लगे अमरूद वेफ पेड़ पर चहचहाना शुरू ही किया था कि नानी ने आवाश दी, फ्लल्ला चलेगा गंगाजी, आज बैसाखी है।य् 2022.23 154 / अंतरा 154/अंतरा संभव को लगा वह रातभर सोया नहीं है। नानी की मौजूदगी में जैसे उसे संकोच हो रहा था। उसने कहा, फ्तुम मेरे भी नाम की डुबकी लगा लेना नानी, मैं तो अभी सोउँफगा।य् नानी द्वार उढ़काकर चली गईं, तो लड़वेफ ने अपनी कल्पना को निर्द्वंद्व छोड़ दिया। आज जब वह सलोनी उसे दिखेगी तो वह उसवेफ पास जाकर कहेगा, फ्पुजारी जी की नादानी का मुझे बेहद अप़् ाफसोस है। यकीन मानिए, पंडित जी मेरे लिए भी उतने ही अनजान हैं। जितने आपवेफ लिए।य् लड़की कहेगी, फ्कोई बात नहीं।य् वह पूछेगा, फ्आप दिल्ली से आई हैं?य् लड़की कहेगी, फ्नहीं हम तो... वेफ हैं।य् बस उसवेफ हाथ पते की बात लग जाएगी। अगर उसने रुख दिखाया तो वह कहेगा, फ्मेरा नाम संभव है और आपका?य् वह क्या कहेगी? उसका नाम क्या होगा। वह बी.ए. में पढ़ रही होगी या एम.ए. में? इन सवालों वेफ जवाब वह अभी ढूँढ भी नहीं पाया था कि नानी वापस आ गईं। फ्ले तू अभी तक सुपने ले रहा है, वहाँ लाखन लाख लोग नहान कर लिए। अरे कभी तो बड़ों का कहा कर लो।य् लड़वेफ की तंद्रा नष्ट हो गई। नानी उवाच वेफ बीच सपने नौ दो ग्यारह हो गए। लड़वेफ ने उठते-उठते तय किया कि इस वक्त वह घाट तक चला तो जाएगा, पर नहाएगा नहीं। हाथ-मुँह धोकर प्रार्थना कर लेगा। वुफछ देर पौड़ी पर बैठ गंगा की जलराशि निहारेगा। लौटते हुए मथुरा जी की प्राचीन दुकान से गरम जलेबी खरीदेगा और वापस आ जाएगा। उसने वुफरते की जेब में बीस का नोट डाला और चल दिया। वास्तव में पौड़ी पर आज अद्भुत भीड़ थी। गंगा वेफ घाट से भी चौड़ा मानव-रेला दिखाई दे रहा था। भोर की आरती हो चुकी थी। लेकिन भजन शोर-शोर से चले जा रहे थे। नारियल, पूफल और प्रसाद की घनघोर बिक्री थी। भीड़ लड़के ने दिल्ली में भी देखी थी, बल्कि रोज़ देखता था। दफ़्तर जाती भीड़, ख़रीद-फ़रोख़्त करती भीड़, तमाशा देखती भीड़, सड़क क्रॉस करती भीड़। लेकिन इस भीड़ का अन्दाज़ निराला था।

इस भीड़ में एकसूत्रता थी। न यहाँ जाति का महत्त्व था, न भाषा का, महत्त्व उद्देश्य का था और वह सबका समान था, जीवन के प्रति कल्याण की कामना। इस भीड़ में दौड़ नहीं थी, अतिक्रमण नहीं था और भी अनोखी बात यह थी कि कोई भी स्नानार्थी किसी सैलानी आनंद में डुबकी नहीं लगा रहा था। बल्कि स्नान से ज़्यादा समय ध्यान ले रहा था। दूर जलधारा के बीच एक आदमी सूर्य की ओर उन्मुख हाथ जोड़े खड़ा था। उसके चेहरे पर इतना विभोर, विनीत भाव था मानो उसने अपना सारा अहम त्याग दिया है, उसके अंदर ‘स्व’ से जनित कोई कुण्ठा शेष नहीं है, वह विशुद्ध रूप से चेतनस्वरूप, आत्माराम और निर्मलानंद है।

एक छोटे से लड़के ने लगभग हँसते हुए उसका ध्यान भंग किया। भैया, आप नहीं नहाएँगे?

संभव ने गौर किया। जाने कब पौड़ी पर उसके नज़दीक यह बच्चा आ बैठा था। उसका भाल चंदन चर्चित था। चेहरे पर चमकीली ताज़गी थी।

अकेले हो ?

नहीं बुआ साथ हैं।

कहाँ से आए हो ?

रोहतक

अब वापस जाओगे? नहीं — बच्चे ने चमकीली आँखों से बताया,— अभी तो मंसा देवी जाना है, वह उधर। बच्चा सामने पहाड़ी पर बना एक मंदिर इंगित से दिखाने लगा।

यह स्थल संभव को पहले दिन से ही अपनी ओर खींच रहा था। लेकिन नानी ने उसे बरज दिया था, — ना लल्ला मंसा देवी जाना है तो क्या वह झूलागाड़ी में तो बैठियो न। रस्सी से चलती है, क्या पता कब टूट जाए। एक बार टूटी थी, हज़ारन मरे - गिरे थे। जाना है तो चढ़कर जाना, उसका महातम अलग है।"

संभव बहुत शारीरिक मेहनत में यक़ीन नहीं करता था। बरसों से कुरसी पर बैठ पढ़ते-पढ़ते उसे सक्रियता के नाम पर हमेशा किसी दिमागी हरकत का ही ध्यान आता था। उसे यहाँ सुबह-सुबह नानी का झाड़ ू

लगाना, चक्की चलाना, पानी भरना, रात वेफ माँजे

बरतन पिफर से धो-धोकर लगाना, सब कष्ट दे रहा था। वह एतराश नहीं कर रहा था तो सिप़्र् ाफ इसलिए कि महश चार दिन रुककर वह नानी की दिनचर्या में हस्तक्षेप करने का अधिकारी नहीं बन सकता। संभव ने बच्चे से कहा, फ्अगर गिर गए तो?य् बच्चा हँसा, फ्इतने बड़े होकर डरते हो भैया? गिरेंगे वैफसे, इतने लोग जो चढ़ रहे हैं।य् शहर वेफ इतिहास वेफ साथ-साथ संभव उसका भूगोल भी आत्मसात करना चाहता था। इसलिए थोड़ी देर बाद वह अटकता भटकता, उस जगह पहुँच गया जहाँ से रोपवे शुरू होती थी। रोपवे वेफ नाम में कोई धर्माडंबर नहीं था। ‘उषा ब्रेको सर्विस’ की खिड़की वेफ आगे लंबा क्यू था। वहीं मंसा देवी पर चढ़ाने वाली चुनरी और प्रसाद की थैलियाँ बिक रही थीं। पाँच, सात और ग्यारह रुपए की। कई बच्चे ¯बदी-पाउडर और उसवेफ साँचे बेच रहे थे, तीन-तीन रुपए। उन्होंने अपनी हथेली पर कलात्मक ¯बदियाँ बना रखी थीं। नमूने की खातिर। उससे पहले संभव ने कभी ¯बदी जैसे शृंगार प्रसाधन पर ध्यान नहीं दिया था। अब यकायक उसे ये ¯बदियाँ बहुत आकर्षक लगीं। मन ही मन उसने एक ¯बदी उस अज्ञातयौवना वेफ माथे पर सजा दी। माँग में तारे भर देने जैसे कई गाने उसे आधे अधूरे याद आकर रह गए। उसका नंबर बहुत जल्द आ गया। अब वह दूसरी कतार में था जहाँ से वेफबिल कार में बैठना था। सभी काम बड़ी तत्परता से हो रहे थे। जल्द ही वह उस विशाल परिसर में पहुँच गया जहाँ लाल, पीली, नीली, गुलाबी वेफबिल कार बारी-बारी से आकर रुकतीं, चार यात्राी बैठातीं और रवाना हो जातीं। वेफबिल कार का द्वार खोलने और बंद करने की चाभी ऑपरेटर वेफ नियंत्राण में थी। संभव एक गुलाबी वेफबिल कार में बैठ गया। कल से उसे गुलाबी वेफ सिवा और कोई रंग सुहा ही नहीं रहा था। उसवेफ सामने की सीट पर एक नवविवाहित दंपति चढ़ावे की बड़ी थैली और एक वृ( चढ़ावे की छोटी थैली लिए बैठे थे। संभव को अप़् ाफसोस हुआ कि वह चढ़ावा खरीदकर नहीं लाया। इस वक्त जहाँ से वेफबिल कार गुशर रही थी, नीचे कतारब( पूफल खिले हुए थे। लगता था रंग-बिरंगी वादियों से कोई ¯हडोला उड़ा जा रहा है। एक बार चारों ओर वेफ विहंगम दृश्य में मन रम गया तो न मोटे-मोटे प़् ाफौलाद वेफ खंभें नशर आए और न भारी वेफबिल वाली रोपवे। पूरा हरिद्वार सामने खुला था। जगह-जगह मंदिरों वेफ बुर्ज, गंगा मैया की धवल धार और सड़कों वेफ खूबसूरत घुमाव। नीचे सड़क वेफ रास्ते चढ़ते, हाँपफते लोग। लिमका की दुकानें और नाम अनाम पेड़। बहुत जल्द उनकी वेफबिल कार मंसा देवी वेफ द्वार पर पहुँच गई। यहाँ पिफर चढ़ावा बेचने वाले बच्चे नशर आए। संभव ने एक थैली खरीद ली और सीढ़ियाँ चढ़कर प्रांगण में पहुँच गया। नाम मंसा देवी का था पर वर्चस्व सभी देवी-देवताओं का मिला जुला था। 2022.23 ममता कालिया/157 एकदम अंदर वेफ प्रकोष्ठ में चामुंडा रूप धारिणी मंसादेवी स्थापित थीं। व्यापार यहाँ भी था। मनोकामना वेफ हेतुक लाल-पीले धागे सवा रुपए में बिक रहे थे। लोग पहले धागा बाँधते, पिफर देवी वेफ आगे शीश नवाते। संभव ने भी पूरी श्र(ा वेफ साथ मनोकामना की, गाँठ लगाई, सिर झुकाया, नैवेद्य चढ़ाया और वहाँ से बाहर आ गया। आँगन में रुद्राक्ष मालाओं की अनेक गुमटियाँ थीं, जहाँ दस रुपए से लेकर तीन हशार तक की मालाओं पर लिखा थाµ‘असली रुद्राक्ष, नकली साबित करने वाले को पाँच सौ रुपए इनाम।’ एक तरप़् ाफ हलवाई गरम जलेबी, पूरी, कचौड़ी छान रहे थे। मेले का माहौल था। संभव वापस वेफबिल कार की कतार में लग गया। वापसी का रास्ता ढलवाँ था। कार और भी जल्द नीचे पहुँच रही थी। इस बार संभव वेफ साथ तीन समवयस्क लड़वेफ बैठे हुए थे वह वेफबिल कार की ढलवाँ दौड़ देख रहा था कि यकायक दो आश्चर्य एक साथ घटित हुए। वह बच्चा जो पौड़ी पर उसवेफ करीब आकर बैठ गया था, दूर पीली वेफबिल कार में नशर आया। बच्चे की लाल कमीज़ उसे अच्छी तरह याद थी। हालाँकि इतनी दूर से उसका चेहरा स्पष्ट नज़र नहीं आ रहा था ।

और बच्चे से सटी हुई जो दुबली, पतली, श्याम सलोनी आकृति बैठी थी, वह थी वही लड़की, जो कल शाम के झुटपुटे में हर की पौड़ी पर उससे टकराई थी ।

संभव बेहद बेचैन हो गया। वह दाएँ-बाएँ झुक-झुककर चीह्नने की कोशिश करने लगा। उसका मन हुआ पंछी की तरह उड़कर पीली केबिल कार में पहुँच जाए ।

बहुत जल्द केबिल कार वापस नीचे पहुँच गई।

संभव ने आगे-आगे जाते बच्चे को लपककर कन्धे से थाम लिया और बोला, कहो दोस्त ?

बच्चे ने अचकचाकर उसकी ओर देखा, "अरे भैया। रुककर बोला, हमने सोचा, जब हमारा दोस्त नहीं डरता तो हो जाए एक ट्रिप।

तभी आगे से एक महीन सी आवाज़ ने कहा, "मन्नू घर नहीं चलना है।"

बालक मन्नू ने कहा, "अभी आया बुआ।"

सम्भव ने अस्फुट स्वर में पूछा, "ये तुम्हारी बुआ हैं।"

"और क्या" मन्नू ने साश्चर्य जवाब दिया।

"हमें नहीं मिलाओगे, हम तो तुम्हारे दोस्त हैं।"

मन्नू वाकई उसका हाथ खींचता हुआ चल दिया, "बुआ, बुआ, इनसे मिलो, ये हैं हमारे नए दोस्त..."

उसने प्रश्नवाचक नज़रों से सम्भव को देखा, "अपना नाम ख़ुद बताइए।" वह अपना नाम बताता, इससे पहले उसी महीन मीठी आवाज़ ने कहा, "ऐसे कैसे दोस्त हैं तुम्हारे, तुम्हें उनका नाम भी नहीं पता ? अब संभव ने गौर किया, बिलकुल वही कण्ठ, वही उलाहना, वही अन्दाज़ । पुलक से उसका रोम-रोम हिल उठा। हे ईश्वर ! उसने कब सोचा था, मनोकामना का मौन उद्गार इतनी शीघ्र शुभ परिणाम दिखाएगा ।

लड़की ने आज गुलाबी परिधान नहीं पहना था पर सफ़ेद साड़ी में लाज से गुलाबी होते हुए उसने मंसा देवी पर एक और चुनरी चढ़ाने का संकल्प लेते हुए सोचा, मनोकामना की गाँठ भी अद्भुत, अनूठी है, इधर बाँधो उधर लग जाती है...।

"पारो बुआ, पारो बुआ, इनका नाम है..." मन्नू ने बुआ का आँचल खींचते हुए कहा ।

"सम्भव देवदास" सम्भव ने हँसते हुए वाक्य पूरा किया । उसे भी मनोकामना का पीला-लाल धागा और उसमें पड़ी गिठान का मधुर स्मरण हो आया ।