दूसरा सच: सराहनीय लघुकथाएँ / रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’
दूसरा सच (लघुकथा-संग्रह) रूप देवगुण, प्रकाशकः पंकज प्रकाशन,सी-8/15ए, लारेंस रोड, दिल्ली-35, पृष्ठः 96; मूल्यः तीस रुपये
‘दूसरा सच’ रूप देवगुण की 51 लघुकथाओं का संग्रह है। इन्हें ‘मानवीय सम्बन्धों की लघुकथाएँ’, ‘शिक्षा-जगत् की लघुकथाएँ’ और ‘विविध पक्षीय लघुकथाएँ’ तीन खण्डों में बाँटा गया है। यह विभाजन विशेष सर्कसंगत नहीं जान पड़ता।
मानवीय सम्बन्धों की लघुकथाओं में ‘और वह’, ‘जगमगाहट’, ‘दूसरा सच’ श्रेष्ठ लघुकथाएँ हैं। ‘और वह’ का बेरोज़गार युवक अपने नौकरी-पेशा बूढ़े पिता की मृत्यु की विकृत सोच में डूब जाता है ; परन्तु दूसरे ही पल पिता के झुर्रीदार चेहरे से टपकते स्नेह की स्मृति उसे इस बीमार सोच से उबार लेती है। मानस-पटल पर उभरे दो परस्पर विरोधी भाव लघुकथा को विश्वसनीय बनाने में सफल हुए हैं। ‘जगमगाहट’ हिन्दी की बेहतर लघुकथाओं में से एक है। इस कथा की युवती बॉस की वासना से बचने के लिए दो बार नौकरी छोड़ चुकी है। तीसरी नौकरी में भी उसे हर समय आशंकाएँ घेरे रहती हैं। उसे लगता है कि यहाँ अपना अस्तित्व बचाना कठिन होगा। एक दिन बॉस के साथ उसे पुरानी फ़ाइलों की चैकिंग के लिए एक भीतरी कमरे में जाना पड़ता है। उसके मन में आशंकाओं के सर्प फन उठाने लगते हैं। अचानक बिजली गुल हो जाने पर उसे बॉस की साजिश समझकर काँप उठती है। तभी ‘देखो, तुम्हें अँधेरा अच्छा नहीं लगता। तुम्हारी भाभी को भी अच्छा नहीं लगता। जाओ, तुम बाहर चली जाओ।’ बॉस के इस वाक्य से उसे लगता है जैसे पूरे कमरे में उजाला भर गया हो। युवती के अन्तर्द्वन्द्व का सूक्ष्म चित्रण किया है। ‘दूसरा सच’ की बड़ी बेटी को घर के लिए शोषण का शिकार होना पड़ता है। सुजीत का अच्छा होना एक सच है। वह अच्छा क्यों दिखता है, परिवार इसे क्या जाने?
दूसरे खण्ड में शिक्षा-जगत् में व्याप्त भ्रष्टाचार, नपुंसकता, अवसरवादिता, कर्त्तव्यहीनता को उजागर करने वाली लघुकथाएँ हैं। इनमें ‘सूत्रधार’, ‘युगप्रभाव’, ‘उसे लगा’, ‘जिसकी लाठी उसकी भैंस’ प्रमुख हैं। तीसरे खण्ड में ‘मंथन’, ‘सोच’, ‘सड़ांध’ और ‘नुस्खा’ लघुकथाएँ उल्लेखनीय हैं। मंथन और सोच में मानवीय गुणों के प्रति आस्था प्रकट की है। ‘नुस्खा’ में ईमानदारी से काम करने वाले दुकानदार की छटपटाहट है। रूप देवगुण जी ने अधिकतर बेनाम पात्रें से ही काम चला लिया है। भाषा संयत एवं शालीन है। सभी रचनाएँ सोद्देश्य हैं।
-0- आजकल मासिक , अक्तुबर 1991( लघुकथा विशेषांक, पृष्ठ-43)