दूसरा सिंदूर / कुबेर

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पश्चिमी क्षितिज में शाम की लालिमा छाने लगी थी। सूरज अस्ताचल में छिप चुका था। दिनभर की तपन प्राणियों को बेचैन कर देती है। ऊपर से बरसता हुआ लू और नीचे से तवे के समान तपती धरती। मई-जून की तपन कष्टदायी तो होता ही है, ऊमस भरा भी होता है। इसी वजह से मीनू आज एक पृष्ठ भी नहीं पढ़ पाया था। शोध कार्य अंतिम चरण में था। संध्या का आगमन कुछ राहत लेकर हुआ था।

मीनू को आज शांत वातावरण मिला था। पिताजी किसी काम से बाहर गए हुए थे। माँ, गुड्डी और पप्पू छः बजे की फिल्म देखने चले गये थे। मीनू घर में अकेला था। वातावरण में कुछ शीतलता आने से मीनू ने राहत की सांस ली। छत के एक कोने में कुर्सी डालकर वह अपने अध्ययन में व्यस्त हो गया। पता नहीं क्यों; काफी प्रयास करने पर भी वह आज अपना ध्यान किताब में एकाग्र नहीं कर पा रहा था। मन बेचैन हो रहा था। किताब बंदकर वह प्रकृति की छटा को निहारने लगा। लालिमा छटने लगी थी। सूरज अस्त होते-होते जैसे धरती को सिन्दूरी चादर से ढक देना चाहता था। नीचे सड़क पर भीड़ बढ़ने लगी थी।

पैरों की आहट से मीनू का ध्यान टूटा। पड़ोस की छत समान ऊँचाई की थी और दोनों घरों की दीवारें लगी हुई थी। श्वेत परिधान में लिपटी मृणालिनी एड़ियों के बल खड़ी होकर और दानों हाथों को ऊपर की ओर तानकर अंगड़ाई ले रही थी। मीनू की उपस्थिति से शायद वह अनभिज्ञ थी। अंग-अंग से फूटता यौवन, यौवन का सौन्दर्य और सौन्दर्य की महक, सब कुछ था पर श्रृंगारहीन, श्रीहीन और सुस्मिति रेखाओं से भी हीन। मीनू ने जैसे उसे पहली बार देखा हो। शायद पहली बार ही देखा था, कम से कम इस नजर से। उसका मन उसके सौन्दर्य के इन्द्रजाल के सम्मोहन से बंध सा गया। यही है बाल-विधवा मिनी। वह अतीत की गहराइयों में डूबता चला गया।

मृणालिनी को परिवार के सभी लोग मिनी कहकर ही पुकारते थे। दोनों परिवारों के संबंध काफी मधुर थे। मिनी मीनू से छोटी थी। दानों एक ही स्कूल में पढ़ते थे। स्कूल से लेकर घर आँगन तकदोनों साथ-साथ रहते, खेलते और बचपन की मासूम शरारतें करते। शरारत करने में मिनी अव्वल थी। मीनू गंभीर प्रकृति का था। मिनी का मन पढ़ाई में कम औार शरारत करने में ज्यादा लगता था। अपनी शरारतों से वह सबको पेशान करती और इन्हीं शरारतों के कारण वह सबकी दुलारी भी थी।

अब उनकी सारी शरारतें पता नहीं कहाँ तिरोहित हो गई हैं।

मीनू चोर दृष्टि से मिनी को लगातार निहारे जा रहा था। पल भर के लिए तो वह सकपकाया। कहीं चोरी पकड़ ली गई तो? मिनी बाल-विधवा थी। अनेक प्रश्न मीनू को उद्वेलित करने लगे। बाल-विधवा होना अपराध है क्या? बाल-विधवा की उपाधि देकर दुनिया किसी जीती-जागती युवती को मुर्दानी जिंदगी जीने के लिए विवश क्यों करती है? यौवन का सुख, जिंदगी की सरसता, होठों की हँसी और चेहरे की लालिमा से वंचित करने वाली सजा समाज उसे किस अपराध के बिना पर दे रही है? निरपराध को ऐसी कठोर सजा क्यों? क्या इसलिए कि वह एक औरत है? यही नियम मर्दों पर क्यों लागू नहीं होता?

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मीनू पुनः अतीत में खो गया। मिनी कक्षा पाँच में पढ़ती थी, जब उसकी शादी समवय की एक सजातीय बालक से कर दी गई थी। कितनी खुश थी मिनी। बड़ी चपलता से उसने सात फेरे घूम लिए थे। वह भी तो कितना खुश था? पिछले साल ही तो उन दोनों ने अपने गुड्डे-गुड्डी की शादी रचाई थी। दोनों के पांव जमीन पर पड़ते न थे। मुहल्ले के सारे हमजोली इस शादी में शामिल हुए थे।बहुत ही उल्लास का वतावरण था। मीनू को अब भी याद है, मिनी की गुड़िया की मांग भरते-भरते उसने डिबिया का सारा सिन्दूर मिनी की मांग में उड़ेल दिया था। मिनी जोर-जारे से तालियाँ बजाकर नाचने लगी थी। पर बाद में उन दोनों को खूब सजा मिली थी। माँ ने डाटते हुए समझाया था, लड़कियों की मांग में उसका दूल्हा ही सिन्दूर भर सकता है। मिनी की मांग में सिन्दूर उड़ेलने के कारण मीनू को भी मां ने खूब डाट लगाई थी, पिटाई भी हुई थी। मीनू को पिटता देख मिनी को बहुत दुख हुआ था।

और इस वर्ष मिनी की शादी हो रही थी। जैसे गुड्डे-गुड्डी की ही शादी रचाई जा थी। मीनू तो उस झण की प्रतिक्षा कर रहा था जब मिनी की मांग भरने की सजा उसके दूल्हे को मिलने वाली है; और उसकी भी वैसे ही पिटाई होेगी, जैसे उसकी हुई थी। पर यह क्या, उसे डाटने की बात तो दूर, लोग उस पर फूल बरसा रहे थे? मीनू को आश्चर्य हुआ। फिर भी मिनी और मीनू दोनों ही खुश थे, गुड्डे-गुड्डी की शादी जो हुई थी।

और साल भर बाद मिनी के घर खूब रोना-धोना हुआ। लोग मिनी को गले लगा-लगा कर रो रहे थे; कह रहे थे, उसका तो भाग फूट गया है। वह विधवा हो गई है। मिनी स्तब्ध थी। लोग छाती पीट-पीट कर इतना प्रलाप क्यों कर रहे हैं? मिनी ने ऐसा कौन सा अपराध कर लिया है कि सब उसे अभागन, कुलक्षणी, पापन और न जाने क्या-क्या कहकर धिक्कारे जा रहे हैं? जलीकटी सुना रहे हैं?

मां-बाप लोगों की उलाहना और बेटी के दुख को सहन नहीं कर पाए; उसे ननिहाल भेज दिया गया। निःसंतान मामा-मामी ने उसे अपनी संतान की तरह प्यार दिया। मिनी ने पूरी पड़ाई-लिखाई वहीं रहकर पूरी की। शादी-ब्याह और फिर विधवा होने का मतलब अब वह अच्छी तरह समझ चुकी है। मीनू को भी पढ़ाई के सिलसिले में बाहर ही रहना पड़ा। विधवा होने का मतलब अब वह भी अच्छी तरह से समझ चुका है।

दस वर्ष ऐसे ही गुजर गए। गर्मी की छुट्टियों में दोनों की कभी-कभी भेट हो जाया करती थी। मिनी अब वह मिनी नहीं रह गई थी जिसके साथ कभी उसने गुड्डे-गुड्डी की शादी रचाई थी। सामना होने पर आँखें चुराकर चुपचाप वह आगे बढ़ जाया करती थी। मीनू को भी पढ़-लिखकर कुछ बनना था। वह अपनी पढ़ाई में ही व्यस्त रहने लगा था।

समय के साथ अब वे समाज की रूढ़ियों और बाल-वैधव्य की दारूणता को और भी गहराई से समझने लगे थे।

इस वर्ष मीनू की पढ़ई पूरी होने वाली थी। परीक्षाओं की अंतिम तैयारियाँ वह घर पर रहकर ही पूरी करना चाहता था। स्नातक की परीक्षा समाप्त कर मिनी भी मां-बाप के पास आई हुई थी। माह भर का समय बीत चुका था। वह रोज ही मीनू के घर आती। चाचा-चाची, गुड्डी और पप्पू से वह खुलकर बातें करती; पर मीनू से सामना होने पर वह कतरा कर बाहर चली जाती। वैधव्य के अभिशप्त दामन में आवृŸ, दारूण-दुख की आँसुओं से भीगी चुप्पी इतनी सहजता से कैसे मुखरित होती? रूढ़ियों की तंग कोठरियों से झांक रहा समाज उसके वैधव्य की कोरी दामन पर चरित्रहीनता का आरोप लगाने में देरी करेगा क्या?

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आज काफी समय से वह मिनी को एकटक देखे जा रहा थां। पहले इस रूप में उसने मीनू को कभी नहीं देखा था। कितनी सुंदर थी वह, तन से भी और मन से भी। कितना मोहक था उसका यौवन। क्या उसके मन में अरमान नहीं होंगे? क्या अब शरारत करने के लिए उसका मन नहीं मचलता होगा? क्या इस सफेद परिधान ने उसका सब कुछ आवृŸ कर रखा है? क्या पूर्णमासी के चांद को समाज की रूढ़ियों ने ग्रस लिया है?

मिनी सिंदूरी आकाश को अपलक निहारे जा रही थी और मीनू उसके सूने निरभ्र मांग को। काश, आकाश अपने विशाल सिन्दूरी फलक से चुटकी भर सिन्दूर लेकर उसकी सूनी मांग को सजा देता। मीनू के मन में आया कि वह मिनी से कुछ बातें करे। पर शब्द होठों पर आकर विलन हो जाते थे। अचानक किताब हाथों से फिसलकर फर्स पर जा ंिगरी। फर्स पर किताब के टकराने की आवज से मिनी सचेत हुई। आँचल को संभालते हुए उसने देखा, मीनू झुककर अपनी किताब उठा रहा है। कुछ देर वह यूँ ही खड़ी रही। इधर चोरी पकड़े जाने का अहसास हाने पर मीनू की हालत बुरी हो रही थी। मिनी से रहा नहीं गया। समीप आकर बोली - “घर में अकेली बोर हो रही थी। समय कट नहीं रहा था। ढलते हुए सूरज को देखना अच्छा लगता है, इसीलिए छत पर आ गई थी। चाची, पप्पू वगैरह तो होंगे न घर पर? ठहरो मैं अभी आती हूँ।” और वह तेजी से पलटकर गायब हो गई। मीनू ने बताना चाहा कि अभी घर पर कोई नहीं है, पर उसने इसके लिए अवकाश ही नहीं दिया।

आते ही उसने पूछा - “चाची, पप्पू, कोई नहीं है घर पर?”

मीनू ने सिर हिलाकर कहा - “नहीं।” मिनी के इस अप्रत्याशित आगमन से वह असहज हो गया था। थोड़ी देर के लिए चुप्पी छा गई। चुप्पी को तोड़ते हुए मीनू ने ही कहा - “सिर में दर्द हो रहा है। नीचे हॉटल से चाय पीकर आता हूँ, तुम बैठो।”

“जरूरत क्या है हॉटल जाने की। तुम बैठो, मैं चाय बनाकर लाती हूँ।”

“तकलीफ न उठाओ।”

“तकलीफ कैसी? पराई हूँ इसलिए?”

मीनू निरूत्तर हो गया। उसके मन ने कहा, ’पराई तुम कब हुई थी जो अब होने लगी।’ पर कह न सका।

मिनी जब आई तो चाय के साथ एक दर्दनिवारक गोली भी लेती आई। बोली - “लो! चाय के साथ यह गोली भी ले लो। दर्द जाता रहेगा।”

मीनू ने कहा - “रख दो, ले लूँगा।”

“नहीं! ऐसे नहीं, तुम मुँह खोलो, मैं खिलाती हूँ। तुम्हारा क्या, किताबों में फिर खो जाओगे, ऐसे कि चाय का ध्यान ही नहीं रहेगा।”

“ऊँगलियाँ दाँतों में आ गया तो?”

“तो क्या? ऐसा पहली बार तो नहीं होगा?”

“पहले की बातें और थी। .... तुम्हें याद है, बचपन के गुड्डे-गुड्डी का खेल, और .....।”

“और क्या?”

“और ..... फिर पिटाई।”

“इसे कैसे भूल सकती हूँ मैं। इसके सिवा मेरे जीवन में और कुछ हआ भी है क्या? मिनी की आवाजें सिसकियों में डूब गई। जो बातें वह कह नहीं पाई उसे सिसकियाँ कह रही थी। थोड़ी देर बाद खुद को संयमित करती हुई मिनी ने कहा - “जाते वक्त चाची ने ही कहा था, तुम्हारे लिए चाय बनाने के लिए।”

“चाची ने? अच्छा जी! तुम्हें पता था कि घर पर मैं अकेला हूँ।”

“हाँ।” मिनी ने कहा, चेहरे पर उभर आये लाज की लालिमा को आँचल के कोरों से ढंकते हुए।

“फिर यह अभिनय क्यों किया?”

मिनी बुरी तरह झेंप गई । शर्म के कारण उसके कपोलों पर लालिमा फैल गई।

“मिनी।”

“अ.....हाँ।”

याद है बचपन की वह घटना, जिसके कारण मेरी खूब पिटाई हुई थी।”

“कैसे भूल सकती हूँ। पिट तुम रहे थे और दर्द मुझे हो रहा था। ... और इसी दर्द में तो मेरे प्राण अटके हुए हैं। यही तो वह सहरा है, चाहे तिनके के समान ही सही, जिसके सहारे मैं जी रही हूँ।”

“आज फिर पिटवाने का इरादा है?”

मिनी की आँखें नम थी। गला रूँधा हुआ था, होंठ कांप रहे थे। शब्द मौन थे। क्या जवाब देती?

“जवाब दो मिनी।”

मिनी का सिर अनायास ही स्वीकृति में हिल गया. - हाँ! आज फिर पिटवाने का इरादा है। और मीनू के सीने पर सिर रखकर वह फफककर रो पड़ी।

“पगली रोती क्यों है। माँ की पिटाई की परवाह ही किसे है? अब तो सारी दुनिया से टकरा जाऊँगा। तुम्हारी आँखों में आँसू अच्छे नही लगते। अब तो हँस दो। दस साल से तुम्हारी एक हँसी के लिए तरस रहा हूँ।”

मिनी ने संयत होकर कहा - “बेफिक्र रहो। अब की बार पिटाई नहीं होगी।”

“सो क्यो?”

“अब सभी राजी हैं।”

“अच्छा जी! तुम्हें कैसे पता?”

“कल ही चाची और माँ इस विषय पर बातें कर रही थी। चाचा और पिताजी की स्वीकृति की भी चर्चा कर रही थी।”

“और छिपकर तुम सारी बातें सुन रही थी।”

“धत्! सुनाने के लिए ही तो ये बातें कही जा रही थी। शायद सीधे-सीधे कहने की वे हिम्मत नहीं जुटा पा रही थीं।”

“और इसीलिए यह नाटक रचा गया है।” कहते हुए मीनू ने मिनी को अपने आलिंगन में बांधना चाहा।

पर मिनी भी सतर्क थी। “न! अभी इंतिजार कीजिए।” कहते हुए वह वह बच निकली और तेजी से सिढ़िया उतरती हुई अपने घर की ओर सरपट दौड़ पड़ी।

सिन्दूरी आकाश ने मानो अपना सारा सिन्दूर मिनी के अस्तित्व पर न्योछावर कर दिया था।