दूसरी परंपरा की खोज / नामवर सिंह / भूमिका
परम्परा के समान ही खोज भी एक गतिशील प्रक्रिया है । फिर भी इस यात्रा में पड़ाव आते हैं । यह पड़ाव, दुर्भाग्य से, तभी आया, जब पण्डित जी न रहे । यह छोटी-सी पुस्तक उस पड़ाव का अनुचिन्तन है । इसमें न पण्डित जी की कृतियों की आलोचना है, न मूल्यांकन का प्रयास । अगर कुछ है तो बदल देने वाली उस दृष्टि के उन्मेष की खोज, जिसमें एक तेजस्वी परम्परा बिजली की तरह कौंध गयी थी । उस कौंध को अपने अन्दर से गुजरते हुए जिस तरह से मैंने महसूस किया, उसी को पकड़ने की कोशिश की है । सफल कहाँ तक हो सका, इसका उत्तर ’परम्परा की दूसरी खोज’ ही देगी । सम्भव है, इसमें मेरी अपनी खोज भी मिल जाय !
कोशिश यही रही है कि न किंचित अमूल लिखा जाय, न अनपेक्षित । वैसे, स्वयं पण्डित जी ने ’मेघदूत’ की टीका में मल्लिनाथ को प्रणाम करके इस आदर्श में थोड़ी-सी छूट स्वयं ले ली थी । वे समर्थ थे । यह छूट लेने की धृष्टता मैं नहीं कर सकता था । सो, कुछ ’अनपेक्षित’ भले ही आ गया हो, ’अमूल’ अपने जाने नहीं कहा है । इसीलिये कदम-कदम पर उद्धरण देने पड़े हैं । उद्धरणों की बहुलता से प्रवाह में शायद बाधा पड़ी है । पर प्रमाण के लिये प्रवाह का त्याग क्षम्य होना चाहिये । कहते हैं वाल्टर बेन्जामिन एक पुस्तक सिर्फ उद्धरणों की ही लिखना चाहते थे । काश, मैं ऐसा कर पाया होता !