दूसरे चेहरे / से.रा. यात्री
कई घंटे बस का सफर करके जब उसने दरवाजे के सामने खड़े होकर दस्त़क दी तो किसी अज्ञात विचार से उसका समस्तर शरीर सिहर उठा। प्रायः तीन बजे का समय रहा होगा-लगता था कि घर के सभी लोग सो रहे हैं या मकान के दूसरे भाग में हैं। शायद यही सोचकर जब वह सीढ़ियों पर मुड़ने लगा तभी अन्दहर से सांकल खड़की और द्वार खुल गया। उसने दरवाजे की ओर लौटकर वन्द ना को देखा और कुछ पल स्त ब्धे होकर देखता रह गया। वन्दसना के मुख से सहसा निकाला, “...आप? आइए, आइए, अन्दर आ जाइए।” बन्द ना आगे बढ़ गयी, वह सिर झुकाकर उसके पीछे चल दिया। वन्दकना चौक पार करके बराण्डे् में होती हुई बड़े कमरे में चली गयी। चौकी पर रखा हुआ टेबिल फैन पूरी रफ्तार से चल रहा था। उसके निकट ही खाट पर वन्दुना की बच्चीी सोई पड़ी थी। कमरे में और कोई नहीं था-शायद वन्दटना बच्चीु के साथ सो रही थी। वह कुछ क्षण खड़ा रहा-कुछ करने या कहने के लिए, तय नहीं कर पाया। वन्दचना के बैठने के लिए कहने पर उसने इधर-उधर नजर डाली-कहीं कोई कुर्सी या स्टूाल कुछ नहीं था। उसने सोचा खाट पर तो बच्चीए के पास वन्दडना बैठेगी-इसलिए वह कुछ झिझकते हुए पंखे के पास चौकी पर बैठ गया। वह बाहर से धूप में चलकर आया था-पसीने से सारे कपड़े भीग गये थे, सिर और माथे से पसीना गर्दन पर बहकर सारी कमीज भिगो रहा था। उसने चौकी पर बैठे-बैठे ही एक पैर लम्बाा फैलाकर पीछे को तनते हुए पतलून की जेब से रूमाल निकाला और मुंह और गर्दन का पसीना पोंछकर रूमाल से बांहें रगड़ने लगा। इसके बाद उसने ऐंठे और कुचले हुए रूमाल से मुंह को हवा करना शुरू कर दिया-फिर नीचे सिर झुकाकर फू-फू करने लगा। वन्द ना ने उसे एक गिलास पानी लाकर दिया। गिलास लेकर उसने अपने पास चौकी पर रख लिया और उसके किनारे पर अंगुलियां गड़ाकर फेरने लगा। उसने एकाकए सिर ऊपर उठाया जैसे-उसे सहसा कुछ याद आया हो। उसने देखा, वन्दकना खाट पर नहीं थी, वह जंगले के पास दीवार का सहारा लिये खड़ी थी और उसकी ओर ही देख रही थी। उसने फिर सिर नीचे झुका लिया और कुछ सोचता रहा-समझ नहीं पाया कि वन्दीना से क्याफ कहे। उसे वन्दाना की चुप्पीह से लगा कि शायद उस जैसा ही द्वन्द्वक वन्द ना के मन में है। उसने कुछ देर बाद वन्ददना से पूछा, “तुम क्याद जल्दीह ही आयी हो?”
“हां, अभी परसों ही।”
फिर दोनों चुप हो गये। उसने सोचा, बच्ची् को लेकर कुछ बातें की जा सकती हैं। कुछ कहने से पहले उसने पानी का गिलास उठा लिया और एक सांस में ही आधा गिलास खत्मर कर दिया। पानी के गिलास को चौकी पर रखकर उसने हथेली से ढक लिया और दूसरे हाथ की कुहनी जांघ पर टिकाकर ठोड़ी हाथ में ले ली। सड़क की ओर खुलने वाले जंगले की ओर उसकी आंखे गयी और सींखचों के पार जाली में अटक गयीं। जाली के उस पार एक नीला पर्दा, जिसका रंग बिल्कुकल चितकबरा हो गया था, अब भी लटक रहा था। जाली तीन ओर से उखड़कर छज्जें की शकल में ऊपर उठ गयी थी और पर्दे को पूरी तरह धकेल रही थी, मगर पर्दा अभी फटा नहीं था। उस जंगले के पास कोई चारपाई नहीं थी। वह कभी नहीं भूलता कि उस जंगले के पास वह चारपाई के सिरे पर बैठ जाया करता था...सांझ को उगते हुए तारे वह जंगले के ऊपरी छोर से चमकते हुए देखा करता था।
वह वहां बैठने की बात पर कुछ और सोचना चाहता था लेकिन अपने सिर को झटका देकर इस निष्फाल सोचने से छुटकारा पा लिया। अब सोचने की क्यास जरूरत है...वह तो वन्दंना के न होने पर ही ठीक है...अब तो वन्दाना ही सामने है। वन्दसना की उपस्थिति का खयाल करके उसे एक लापरवाह राहत महसूस हुई। उसने वन्द ना की ओर देखने के लिए मुंह उठाया...वन्दकना उसके बहुत निकट थी...वह झुककर पंखा उसकी ओर मोड़ रही थी। उसने पंखे की तली पर हाथ रखकर कहा, “रहने दो, बच्चीम को हवा नहीं लग पायेगी।” मगर वन्दपना ने पंखा उसकी ओर मोड़ ही दिया।
उसे लगा, उसने वन्द ना से कुछ बातें ही नहीं कीं ; वह पूछने लगा, “राजकोट से ही आयी हो न?”
“नहीं, हम लोग लखनऊ से आ रहे हैं।”
“अच्छा.।”
उसने 'अच्छाा', कह तो दिया किन्तुह उसकी चेतना में 'हम लोग' टकरा गया। 'हम लोग' कौन? वन्दकना और उसकी बच्चीच? जिस बात के बारे में वह प्रारम्भउ में पूछना चाहता था उसने अब पूछा, “बाकी लोग कहां हैं?”
“सब लोग बाहर बड़े कमरे में हैं-मैं बेबी को सुलाने इधर चली आयी थी।”
किन्तु किंचित् मुस्कु राकर कहा, “सिर्फ बेबी को सुलाने? अब क्याब दोपहर में तुम नहीं सोतीं?” उसे वन्दतना के दोपहरी में सोने की आदत का ध्याकन आ गया। उसने अपनी बात से वन्द?ना के चेहरे पर होने वाली प्रतिक्रिया को लक्ष्यो नहीं किया। सोचने लगा, इस तरह हथेली पर चिबुक रखकर किंचित मुस्कवराकर बात कहने से उसका अपना मुंह कैसा लगता होगा? उसने अपने स्विरूप की कल्पहना की, बायां गाल तो हथेली के नीचे दब गया है; दायीं आंख भी कुछ छोटी हो गयी है; पंखे की हवा चेहरे पर पड़ने से माथे पर झूलने वाला बालों को रूखा गुच्छाद अब अनियंत्रित होकर हवा में फरफरा रहा है।
उसने देखा, वन्दाना उसके सामने खाट पर बैठकर बच्चीय को थपथपा रही है-शायद हवा न लगने के कारण बच्चीा गर्मी से व्यादकुल होकर करवटें बदल रही थी। उसने पंखे का हैंडिल पकड़कर बच्चीय की ओर कर दिया। पंखे का स्विच टूटा हुआ था, तभी पंखा केवल एक ओर हवा फेंक रहा था। वन्दकना ने उससे कुछ नहीं पूछा; फिर भी उस मौन से उसे लगा कि वह वन्द ना से बराबर बातें कर रहा है। बहुत वहले भी वे दोनों कहां ज्याटदा बातें करते थे; बातें करने के लिए तो वे लोग कापी पर कुछ लिखकर एक-दूसरे की ओर बढ़ाते रहते थे। लिखने में काफी देर लग जाती थी और वक्तो निकल जाता था। मगर अब लिखकर बातें करने को भी शायद कुछ नहीं है। वह चुपचाप हाथ पर ठोड़ी टिकाये सामने के कलैण्डखर पर देखता रहा और दांतों से निकले होंठ को दबाता रहा, किन्तु अपनी उस मुद्रा के प्रति भी वह इतना सचेत था कि वह उसके मन में पूरी तरह मूर्त्त हो उठी।
दरवाजे पर खड़े होकर कई बार की तरह सोचा जरूर था कि शायद इस बार वन्द।ना मिले लेकिन वन्दजना पहले कभी नहीं मिली थी। इस बार अप्रत्या शित रूप से उसने ही दरवाजा खोला था-वह उसी कमरे में थी। जिसमें उसके होने की वह कल्पसना करता था मगर वह वन्देना से कुछ नहीं कह रहा था; मानो बहुत कम बोलना ही अपनी निरीहता को मुखर करने का साधन था। शायद अज्ञात में ही वह वन्दंना के मन में कोई पश्चापत्ताप जगाना चाहता था; अपने चेहरे के प्रत्येहक कोण से किसी गहरे आशय को व्यीक्तक करना चाहता था। बोलने में उसे रस नहीं था, शायद भाषा के माध्यहम से उसे खोखलेपन की अनुभूति होती थी। अब की बार जब उसने वन्दरना की ओर देखा तो बच्चीा की आंखें खुली हुई थीं और वह अलसाई हुई मां के ऊपर टांगें रखे उसीकी ओर बांहें फैला दीं। बच्ची एकटक उसकी ओर देखती रही। वन्दईना ने उसे उठाकर खाट पर बैठा दिया और उससे कहा, “जाओ, उनके पास।”
बच्चीओ ने उसके पास आने का कोई प्रयत्ना नहीं किया, वह फिर लेट गयी और उसने उसकी ओर से करवट बदल ली। हथेली पर ठुड्डी रखे-रखे उसकी बांह दर्द करने लगी किन्तुं उसने हाथ नहीं हटाया। अब उसने बायें हाथ वाली अंगुली बांधकर ठोड़ी और होंठों के बीच रख ली और अंगूठे के पास वाली अंगुली को दांतों से काटने लगा। उसने अपनी प्रत्येंक मुद्रा की कल्परना की और शायद बहुत कुछ व्युक्त करने का सन्तोीष पा लिया। वन्दुना जार्जेट की साड़ी पहने थी। ब्लाछउज का 'पीस' भी उसी के साथ का था। उसके बाल खाट पर लेटने के कारण अस्तय-व्य स्ता हो गये थे। माथे पर शायद उसने नहाने के बाद बिन्दी लगायी थी जो पसीने से सारे मस्तवक पर फैल गयी थी। मांग में सिन्दूगर की रेखा बहुत गहरी और मोटी दिखाई पड़ रही थी। उसने उस रेखा को गहरी दृष्टि से देखा और दायीं ओर घूमकर कलैण्डऔर पर चप्पूी चलती कश्मी री युवतियों को देखने लगा।
वह एकाएक उठ खड़ा हुआ और उसने पूरी तरह अनुभव किया कि वह बहुत कुछ कह चुका है और उसे अपना यों एकाएक उठना इस भेंट की चरम परिणति लगी। उसने सोचा, उसे यों ही उठना चाहिए था। वह वन्दंना से एक भी शब्दम कहे बिना चल दिया। कमरे के बीच में जाकर वह कुछ समय के लिए रूका, उसने जंगले और उस पार लगी उखड़ी जाली को ध्यारन से देखा और उचटती नजर से वन्दरना को देखते हुए बराण्डे से निकलकर चौक पार करता हुआ मकान के दूसरे हिस्सेज में पहुंच गया।
बड़े कमरे में खूब गहमागहमी थी। कई लड़कियां फर्श पर बिछी जाजिम पर बैठी ताश खेल रही थीं। वन्द ना के पति पत्ते समेट रहे थे। वन्दरना की छोटी बहन शैलजा और बाकी शायद उसकी सहेलियां थीं। दादी मां चौकी पर दीवार का सहारा लिये बैठी थीं। उसे देखकर सब लोग एकाएक हड़बड़ा उठे; वह भी कुछ हतप्रभ-सा होकर दरवाजे से थोड़ा आगे बढ़कर खड़ा हो गया। दादी मां ने माथे पर हाथ टेढ़ा रखकर उसे पहचाना “कौन, बिन्नू़? कब आये बेटा?” उसने अपनी ओर देखती हुई कई जोड़ी आंखों से घबराकर आंखें नीची कर लीं और वन्दाना के पति को हाथ जोड़कर नमस्का र करने लगा। उन्हों ने पत्ते छोड़ दिये और उठकर उससे हाथ मिलाया। उन्हों ने भी दादी मां का सवाल दुहराया, “कब आना हुआ; क्याठ सीधे ही आ रहे हैं?” उन्हेंक शायद ठीक से पता भी नहीं था कि वह कहां से आ रहा है; इसलिए शायद उन्हों्ने ऐसा गोलमोल प्रश्नं किया था। उसने नहीं बताया कि वह अन्दतर वन्दकना के पास बैठा था। बोला, “समझिए सीधा ही आ रहा हूं।” वह दादी मां के पास बैठने लगा तो वन्दकना के पति बोले, “इधर आइए न कुर्सी पर, आपके दर्शन तो अर्से बाद हुए!” और सोचने लगा कि उससे पिछली मुलाकात कब हुई थी। वह पलंग पर पांव लटकाकर बैठ गये और मुख पर स्निग्धस मुस्का!न लाकर उसकी ओर देखने लगे। वह पलंग के पास बिछी एक कुर्सी पर ही बैठ गया और बोला, “संयोग ही समझिए जो आपसे भेंट हो गयी; मुझे तो आपके आने का बिल्कु ल ही पता नहीं था।” और अकस्माित उसके मुंह से एक ऐसी बात निकल गयी तो वह शायद उनसे नहीं वन्दलना से कह सकता था, “अब आप लोग तो परदेशी हो गये हैं।” उसकी बात सुनकर उनके मुख पर एक बहुत ही प्या री मुस्कािन उभरी और उन्होंतने उसके दोनों हाथ अपने हाथों में लेकर दबा दिये।
उसने देखा कि लड़कियां उसके आ जाने से कुछ उखड़ गयी हैं-वन्दथना के पति से वे लोग जिस आत्मीदयता से वार्तालाप कर रही थीं, और ठहाके लगाकर ताश खेल रही थीं; वह सब उसके आ जाने से एकाएक छिन्नि-भिन्न हो गया है। उन्होंेने कनखियों से उसकी ओर देखा और शायद उसके आगमन के महत्त्वन को समझने की कोशिश करने लगीं। कुछ देर वाद दादी मां उठकर अन्द र चली गयीं और लड़कियां भी वहां से उठकर इधर-उधर हो गयीं। यों उन्होंदने जाने में कई मिनट लगाये; मानो उन्हेंम यह तय करने में देर लगी कि उसकी उपस्थिति में वे लोग वहां बैठें या नहीं। वन्दनना की छोटी बहन उन्हेंे गलियारे में निकालकर लौट आयी और उसने स्टोेव पर चाय का पानी रख दिया। वह वन्दहना के पति से गुजरात के रहन-सहन और जलवायु के विषय में बातें करता रहा और वह अपने विभाग से संबंधित बहुत-सी बातें कर रहा है जब कि वन्द ना के विवाह के बाद वह उनसे केवल एक बार और वह भी वर्षों पहले मिला था। वन्दरना के पास आधा घण्टाद बैठकर भी वह चार वाक्य कठिनाई से बोल पाया था, यह खयाल आने पर उसके मन में निरीहता जाग उठी किन्तुठ उसने इसे अपने संबंधों की विशेषता मानकर एक दीर्घ सांस ली। उसे लगा, बातें करने के बाद कुछ नहीं रह जाता; जो अभाव उत्पिन्न करता है वह अवसर का मौन ही होता है। वह बातें वन्दकना के पति से कर रहा था किन्तुव वन्दिना से बातें न करने की बात सोचकर उसे विचित्र-सा अभिमान हो रहा था।
वह अंगूठे के पास निकली चप्पकल की एक कील अंगूठे के नाखून से खुरचता रहा और वन्दाना के पति से उनके अवकाश की अवधि के विषय में बातें करता रहा। अब तक चाय बन चुकी थी। शैलजा ने बिना किसी औपचारिकता के हमेशा की तरह चाय का प्याहला उसके हाथ में थमा दिया। इसी समय वन्दकना कमरे में आयी और मानो पूर्व निश्चय के अनुसार निःसंकोच भाव से पलंग पर अपने पति के पास बैठ गयी। उसने अपनी कुर्सी पीछे खिसका ली और उठकर चाय का प्यााला रेडियो के पास मेज पर रख दिया। उसने वन्द ना और उसके पति को एक-दूसरे के प्रायः बहुत निकट देखा; उसने इस दृश्य से उस कसक को जगाने की कोशिश की जो छह वर्ष पूर्व वन्द्ना के विवाह में उस समय बेसाख्ताय जाग उठी थी जब टीके की रस्म के समय लाल चुनरी में गठरी-सी बनी वन्दतना को उसके मामा ने उसके पति के पास पलंग पर लाकर एक बेजान बोझ की तरह पटक दिया था। उसे याद था कि वन्दिना अपने पति से सटकर एकदम सिमट-सिकुड़ गयी थी।
उसने सामने बैठी वन्दिना और उसके पति को एक बार यों ही दृष्टि डालकर देखा, वन्दनना निश्चिन्तो भाव से बैठी रही। उसे वन्दपना की विदा के समय प्लेोटफार्म की याद ताजा हो आयी। गाड़ी चलने के वक्तस वह भीड़ में सबसे पीछे दुबका-छिपा खड़ा था, वन्दआना शादी के जोड़े में लिपटी हुई थी। उसकी आंखें और नाक लाल हो गयी थीं। सन्यासे के झुटपुटे में फर्स्टत क्लाास के कूपे की रोशनी में उसकी नथ दमक रही थी और रोने और थके होने की वजह से उसका सौंदर्य और भी अधिक निखर उठा था। वन्दहना की आंखें बार-बार भीड़ में किसीको खोजती थीं मगर वह भीड़ में बिलकुल सिमटा हुआ खड़ा था। उसका पति दूसरे दर्जे में बैठे मित्रों से प्लेिटफार्म पर खड़ा बातें कर रहा था। वन्द ना के पिता व चाचा अंदर कूपे में उन चीजों को बहुत व्य स्तता से रखवा रहे थे जिनकी रास्ते में दम्पंति को आवश्याकता थी। आखिर वन्द ना की परेशान नजरों ने उसे खोज ही लिया था। नरेन्द्रा भागता हुआ उसके पास आया था और कंधे पर हाथ रखकर उसे पीछे घसीट ले गया था। तभी वन्दजना की नजर उसपर पड़ गयी थी और वन्द ना की आंखें उसकी आंखों से एक क्षण को टकरा गयी थीं। वन्द्ना की उस दृष्टि से कोई बड़ा-सा गोला उसकी छाती से उठकर गले में अटक गया था और सामने सब कुछ धुंधला पड़ गया था। किन्तुर वह भीड़ में आगे न बढ़ा था; यहां तक कि आंखें उठाकर उससे दोबारा वन्दलना की ओर देखा तक भी नहीं गया था। हां, गाड़ी चल पड़ने पर जब वन्दखना का पति वन्दवना के पास जाकर खड़ा हो गया था तो उसने अपना हाथ उठाकर हिला दिया था।
सहसा स्वाखस्य्ा और तारूण्यद से दमकते वन्दपना के चेहरे की ओर उसकी दृष्टि गयी-वन्दकना जब विवाह के बाद लौटी थी तो उसकी गुलाबी रंगत एकदत पीले रंग में बदलकर विवर्ण हो गयी थी। उसके मुंह से आवाज भी कठिनाई से निकली थी। जब उसने एकांत पाकर उससे कहा था, “सब चीजें इतनी ठीक होने पर भी तुम्हें क्या हो गया है?” तो वन्द्ना ने अपनी व्य थित थकी उदास आंखें उठाकर कहा था, “बाहर से सब ठीक होने पर ही क्याह सबथ ठीक हो जाता है?” वन्दना के झरे हुए गुलाब की पंखुडियों-से सिकुड़े सफेद होंठों को देखकर उसकी उत्कथट इच्छा हुई थी कि अपना सिर किसी सख्तप चीज से टकरा दे या पागल हो जाये। दर्द से चीख उठने के संवेग को उसने बड़ी कठिनाई से दबाया था।
उसने अपना सिर झटका। पुरानी बातें सोचकर उसका मस्त।क भन्नान उठा। शैलजा ने मेज से चाय का ठंडा प्या ला उठाकर भर्त्ससना से उसकी ओर देखा और किंचित् डांटकर बोली, “अपनी फिलासफी के चक्क र में कर दिया न चाय का नाश।” वह बदले में हंसने लगा और हाथ बढ़ाकर उससे चाय लेने लगा पर शैलजा ने ठंडी चाय उसे नहीं दी। दूसरा प्या ला लेकर जब वह फिर मेज पर रखने लगा तो वन्दपना के पति हंसकर बोले, “क्योंह बेचारी को तंग करते हैं...इसके नाराज होने से अपना तो कोई पुरसाहाल न होगा।” और उन्हों ने कनखी से वन्दंना की ओर देखा। वन्दरना पर इस टिप्पहणी की प्रकट रूप से कोई प्रतिक्रिया नहीं हुई। वह निस्पृाह बनी रही। उसने प्यााला होंठों से लगा लिया और प्लेसटफार्म के छोर पर खड़े हाथ उठाते एक आदमी की धुंधली-सी तस्वी र उसकी आंखों में उभर आयी किन्तु शैलजा के बोलने से चौंककर अपनी पतलून पर उसने चाय का प्यााला छलका लिया।
चाय पीने के बाद वन्द ना के पति हाथ बढ़ाकर बोले, “अच्छाछ, रात को आपसे भेंट होगी...अब तो मैं जरा एक गाड़ी देखने जा रहा हूं। ये लोग कहते हैं...अच्छी कैडलक गाड़ी हैं, अधिक पुरानी भी नहीं है; देखूं शायद सौदा पट जाये।” यह कहने के साथ वह बाथरूम चले गये। शैलजा भी चली गयी, शायद उनको कपड़े आदि देने के लिए। वन्दनना और वह कमरे में अकेले रह गये। उसने छत की ओर आंखें उठाकर तेजी से घूमते पंखे को देखा-गति की तीव्रता से उसके परों का कुछ पता नहीं चल रहा था। उसने पंखे की गति को वन्द ना के साथ जोड़ना चाहा कि तभी वन्दंना बोली, “इतना कमजोर क्यों हो गये...अब भी अपनी परवाह नहीं करते?” उसने एक पल वन्दीना की आंखों में देखा और उसे लगा उसके पांव पृथ्वीअ से बहुत ऊपर उठ गये हैं। वह एकाएक उठ पड़ा और रेडियो के पास जाकर खड़ा हो गया। उसने अपनी अंगुली से रेडियो के शीशे पर लगी धूल को रगड़कर पोंछ दिया और दूसरे दरवाजे से बाहर निकलने की सोचने लगा। किन्तुर वह बाहर गया नहीं। न जाने किस दुर्दम उत्कडण्ठाद से भरकर वह फिर अपनी कुर्सी पर जाकर बैठ गया।
सन्यावह के बढ़ते अन्धुकार में वे दोनों छायाओं जैसे घुलते रहे...कोई बात दोनों के मुख पर नहीं उभरी। उसे कई बार वक्तस के तेजी से बीतने का अहसास हुआ और हृदय का स्पलन्द.न बढ़ गया। उसने किसी घनिष्ठ सन्दकर्भ को पकड़कर बीच में लाने की कोशिश की लेकिन अन्धेकार की घाटी में डूबते वर्षो के अन्त्राल पर कई आकृतियां उभरीं और विलीन हो गयीं। उसने वन्द ना के प्रश्ना की अनुगूंज को मन में दुहराया, 'अब भी अपनी परवाह नहीं करते?' उसे अपनी निरीहता पर ममता हो उठी। उसने उस वाक्यद और निरीहता को कठोर होकर किसी दूसरे को संकल्पे कर दिया। उसे लगा, यह किसी उपन्याास का वाक्यी है जो पृष्ठोंद की भूल-भुलैया में खोये किसी व्यमक्ति का मर्म है। उसे हैरत हुई...खुशी भी हुई कि उसकी तीव्र बेचैनी और उष्णूता अब रंचमात्र भी उसमें बाकी नहीं है।
शैलजा ने कमरे में आकर बत्ती जला दी और उन दोनों को गुमसुम बैठे देखकर भीतर लौट गयी। वह कुर्सी से उठकर खड़ा हो गया और वहां से एकदम चले जाने के लिए सड़क की ओर निकल गया।