दूसरे विश्वयुद्ध की 80वीं सालगिरह / जयप्रकाश चौकसे

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दूसरे विश्वयुद्ध की 80वीं सालगिरह
प्रकाशन तिथि : 31 अगस्त 2019


प्रथम विश्वयुद्ध समाप्त होने के 21 वर्ष पश्चात 1 सितंबर 1939 को दूसरा विश्वयुद्ध प्रारंभ हुआ, जिसके अंतिम चरण में जीत सुनिश्चित होने के बावजूद अमेरिका ने अनावश्यक रूप से हिरोशिमा और नागासाकी पर आणविक बम विस्फोट किए। आणविक विकिरण के दुष्प्रभाव आज भी जापान में देखे जा सकते हैं। विगत 80 वर्षों में विश्वयुद्ध नहीं हुआ परंतु सरहदें सुलगती रहीं और दूसरे विश्वयुद्ध में मारे गए लोगों से अधिक लोग इन सरहदों पर शहीद हुए। वाहन दुर्घटनाओं में मरने वालों की संख्या भी युद्ध में मरने वालों की संख्या से अधिक है। कुपोषण और कैंसर से मरने वालों की संख्या भी कम नहीं है। जुल्मी शासकों के कारण अनअभिव्यक्त विचारों से बनी दर्द की गठानों के साथ मरमर कर जीने वालों की संख्या भी कम नहीं है।

आणविक बम बनाने की टेक्नोलॉजी की चोरी हुई और आज अनेक देशों के पास बम हैं। सभी जानते हैं कि किसी एक पागल शासक द्वारा किया गया विस्फोट मानव प्रजाति के अस्तित्व को ही समाप्त कर सकता है। कुछ नेता अपने मानसिक विलासी व्यायाम करते समय अपनी आणविक मसल्स पर गर्व करते हैं। ज्ञातव्य है कि शरीर सौष्ठव के लिए मांसपेशियां बनाने के उद्‌देश्य से कसरत की जाती है। कसरत से मांसपेशियां टूट जाती हैं और कुछ समय बाद अपने पुनर्निर्माण में वे दुगनी हो जाती हैं गोयाकि मसल्स बनाना, मसल्स तोड़ने का काम है। बार-बार युद्ध की बात करना वैचारिक मसल्स को तोड़ने के समान है। नफरत और आपसी वैमनस्य की नई मांसपेशियां नष्ट की गई मसल्स से बड़े आकार की होती हैं।

अनेक देशों के पास आणविक बम हैं, जिस कारण भय का संतुलन बना हुआ है। मौजूदा समय में विश्व शांति आपसी सद्भावना के कारण कायम नहीं है वरन भय और एक-दूसरे पर शंका के कारण बनी हुई है। ओम शांति ओम का अर्थ है ज्ञान प्राप्त हो जाने पर जन्मी शांति परंतु वर्तमान की शांति भय और नफरत से जन्मी है। यह कमोबेश भ्रमम जन्मम शांति है। एक शक्तिशाली देश का नेता अपने कक्ष में लगे आदमकद आईने के सामने खड़ा होता है तो उसे आईने में दुश्मन देश का नेता नज़र आता है गोयाकि आईने मनुष्य के भीतर छिपे भय को ही प्रतिबिम्बित कर रहे हैं।

दूसरे विश्वयुद्ध में अमेरिका ने साधन दिए, धन लगाया। इंग्लैंड के तत्कालीन प्रधानमंत्री विन्सटन चर्चिल ने बुद्धि का निवेश किया परंतु रूस ने सबसे अधिक मनुष्य खोए। आम ब्रिटिश नागरिक युद्ध के समय किफायत का अर्थ इतना अधिक जानता था कि एक व्यक्ति हाथ में सिगरेट लिए दूसरे सिगरेट पीने वाले का इंतजार करता था ताकि माचिस की एक तीली का अधिकतम उपयोग हो सके। आज वैश्विक मंदी द्वार पर दस्तक दे रही है। अवाम को जीवनशैली में किफायत व बचत लानी चाहिए, जबकि अवाम अनावश्यक वस्तुओं को महंगे दाम में खरीद रहा है। फल, दूध, सब्जी और अनाज से अधिक मोबाइल खरीदे जा रहे हैं। एक लिपिस्टिक के दाम बंदूक की एक गोली के बराबर होते हैं। फैशन उद्योग की कमाई खेती से अधिक है। फैशनेबल जूतों के दाम सिर पर पहनने वाले हैट या टोपी से अधिक हैं।

दूसरे विश्वयुद्ध से प्रेरित अनगिनत फिल्में बनी हैं। मानवीय करुणा से ओतप्रोत फिल्में तत्कालीन रूस में बनी हैं जैसे 'बैलॉड ऑफ ए सोल्जर', 'क्रेन्स आर फ्लाइंग' इत्यादि। अमेरिका में बनी 'द लॉन्गेस्ट डे' भव्य फिल्म है। एक वर्ष भारत में आयोजित अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोह में फिल्म प्रदर्शित हुई, जिसका नाम था 'द डे आफ्टर'। इस फिल्म में तीसरे विश्वयुद्ध के बाद क्या हो सकता है। इसका आकल्पन प्रस्तुत किया गया था। युद्ध में आणविक शस्त्र के प्रयोग के कारण सारे मनुष्य मर जाएंगे केवल काॅकरोच बचे रहेंगे, क्योंकि उनके शरीर में रक्त नहीं होता, जिसके कारण आणविक विकिरण का प्रभाव नहीं होता। गोयाकि पूरे विश्व में तिलचट्‌टे ही बचे रहेंगे।

साहिर लुधियानवी ने इस दुश्चिंता को इस तरह अभिव्यक्त किया है- 'गुजश्ता जंग में तो घर बार ही जले, अजब नहीं इस बार जल जाए तन्हाइयां भी, गुजश्ता जंग में तो पैकर (शरीर) ही जले, अजब नहीं जल जाए इस बार परछाइयां भी'। शक्तिशाली देश जानते हैं कि युद्ध भयावह है, अत: वर्तमान में बाजार कुरुक्षेत्र बना हुआ है। माल बेचने की होड़ लगी है। चीन ने घटिया माल से पूरे बाजार को पाट दिया है। अब हमें बाजार से गुजरना है पर खरीददार नहीं बनना है।