दृश्य का प्रभाव और अवचेतन की छवि / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि :03 नवम्बर 2015
इतवार को अजय देवगन की फिल्म 'दृश्यम' टीवी पर दिखाई गई। फिल्म का नायक चौथी कक्षा तक पढ़ा है परंतु स्वयं के परिश्रम से उसने अपनी मध्यम वर्ग की ग्रहस्थी जमा ली है। एक रात अनिमंत्रित अतिथि उनके घर घुस जाता है और उसकी कमसिन उम्र की बेटी से दुष्कर्म करना चाहता है। मां और बेटी उससे संघर्ष करते हैं और मां की एक मार से वह मर जाता है। तब नायक आकर परिवार को संभालता है और मृत शरीर को अपने अहाते में गाड़ देता है। उसने अपने वीडियो पार्लर के व्यवसाय में अनेक अपराध फिल्में देखी हैं और सिनेमा के उसी अनुुभव से वह न केवल सबूत मिटाता है वरन् ऐसी झूठी कहानी भी रचता है कि हादसे के दिन वह अपने परिवार सहित पंजिम गया था तथा दो बार जाता भी है। बस कंडक्टर, रेस्त्रां, एटीएम इत्यादि जगह वह अपने सपरिवार मौजूद होने के अकाट्य प्रमाण भी पैदा कर लेता है। मृत लड़के की मां पुलिस की आला अफसर है और वह अपनी पूरी शक्ति अपराधी को पकड़ने में लगाती है।
फिल्म में आला अफसर कहती हैं कि जो मनुष्य देखता है, उस पर यकीन कर लेता है और इसी प्रवृत्ति का लाभ अपराधी ने उठाया है। वह बार-बार लोगों के मन में यह बात जमा देता है कि घटना के दिन वह पंजिम में धार्मिक अनुष्ठान में गया था। वह यह भी जानता है कि परिवार की नन्ही बच्ची अपने माता-पिता को पिटते देखेगी और स्वयं बच्ची की पिटाई होती है तो वह बता देती है कि अहाते में कुछ गाड़ा गया है, इसलिए उसने मृत देह को अपने अहाते से निकालकर उसके घर सामने बन रहे नए थाने की जमीन में गाड़ दिया है और अपने अहाते में एक कुत्ते की मृत देह गाड़ दी है। पुलिस के आला अफसर को जैसे ही उसके वीडियो व्यापार की बात मालूम पड़ती है, वह समझ जाता है कि सिनेमा के स्कूल से निकला यह छात्र बहुत चालाक है। यहां यह गौरतलब है कि प्राय: सिनेमा पर यह आरोप लगाया जाता है कि उसकी प्रेरणा से लोग अपराध करते हैं, जबकि अपराध का इतिहास मनुष्य इतिहास के समान पुरातन है। सिनेमा में राम-सीता की कथा भी बनाई गई है और आज भी फिल्मों पर हमारी मायथोलॉजी का गहरा असर है परंतु मनुष्य प्रवृत्ति है कि वह नैतिक पाठ अनेदखा करतै है परंतु बुराई जल्दी ग्रहण कर लेता है। इसी तरह समाज भी अपने परिवर्तन में कुछ अनचाही चीजों को शामिल कर लेता है। सिनेमा में प्रस्तुत अच्छाई या बुराई दर्शक अपनी सुविधा से चुनता है, अत: सिनेमा अपराध की गंगोत्री नहीं है वरन् आर्थिक खाई की कोख से अपराध जन्म लेते हैं और मनुष्य की गरीबी ही सबसे बड़ी समस्या है, जो नैसर्गिक नहीं है वरन् गरीबी का उत्पाद किया जाता है, किसी देश में अधिक और किसी में कम।
दृश्य का प्रभाव गहरा पड़ता है और वह मनुष्य की स्मृति में स्थायी रूप से जम जाता है परंतु टेक्नोलॉजी ने ऐसे-एेसे अजूबे रचे हैं कि एक लेन्स विशेष के प्रयोग से दस हजार की भीड़ दस लाख की दिखाई जा सकती है। आज टेक्नोलॉजी आपको सत्य की रचना से अधिक झूठ रचने में मदद देती है। कबीर ने भी कहा था कि कानों से सुनी नहीं परंतु आंखन देखी पर भरोसा करना। फिल्म जगत के गीतकार शैलेंद्र पर कबीर का प्रभाव है, वह शायद सभी रचनाधर्मी लोगों पर है। शैलेंद्र ने 'जागते रहो' के गीत में लिखा है, 'किरण परी गगरी छलकाए, ज्योत की प्यास बुझाए, मत रहना अखियन के भरोसे…जागो मोहन प्यारे..।'
फणीश्वरनाथ रेणु का जन्म बिहार में हुआ और शैलेंद्र के पिता तथा दादा बिहार में जन्मे थे परंतु केवल इस कारण शैलेंद्र ने रेणु की कथा पर 'तीसरी कसम' नहीं बनाई। उन्होंने तीसरी कसम इसलिए बनाई कि उसमें प्रस्तुत जीवन मूल्य के पतन को वे स्पष्ट रूप से भविष्य में घटित होते देख पाए और वे यह भी कहते थे कि तीसरी कसम के नायक की तरह गंवई गांव के भोले लोग आने वाले युग में संभवत: नज़र नहीं आएंगे। वे सेल्युलाइड पर हीरामन को अमर करना चाहते थे। मुझे कई बार तो लगता है कि शैलेंद्र के अवचेतन में गहरे पैठे रेणु और उनका नायक हीरामन ही उनसे अमर गीत लिखवा रहा था। बहरहाल, बिहार रेणु या शैलेंद्र के पथ पर चलेगा या पूंजीवादी समाज के पश्चिमी जीवन मूल्यों को पसंद करेगा, यह फैसला तो 8 नवंबर को होगा। हम तो तमाशबीन हैं, दूर बैठे तमाशा देखेंगे।