दृश्य / हेमन्त शेष
अगर पेड़ों पर पत्ते रुके थे, तो फसलों पर बालियाँ, ताल में पानी ठहरा था- तो पगडंडी पर गोखरू के कांटे, खेत की मेडों पर उगे ग्वारपाठे, झोंपडियों पर खपरैल, मंदिर में महादेव, बाडों में मवेशी, गलियों में कुत्ते, घरों में औरतें, पनघट पर मटके, लालटेन, बिलकुल हिल नहीं रहे थे, छींका जो छत से लटका था, अनाज रखने की कोठी, चौक में सूखी लकडियाँ, उपलों के ढेर, बुझा हुआ चूल्हा, साफा-बंधे हुए सिर – सब के सब जैसे एक फ्रीज़्ड-शॉट में जड़ थे. स्तब्ध.
गाँव में हर चीज़ सभ्यता के शुरूआती दौर की याद दिलाती इतनी ठहरी थी कि कहने की इच्छा हो आई- ‘जमा हुआ समय’ देखने के लिए पुरातत्ववेत्ता गाँव भी जा सकते हैं. अगर कोई भी मुझ से इस नज़ारे की प्राचीनता पूछता तो बिना रेडियो कार्बन डेटिंग के भी मैं यही कहता जिंदगी की यह शैली कम से कम ढाई तीन हज़ार पुरानी तो है ही.
तभी मैंने देखा एक बहुत बड़ी घटना की तरह एक गाय, एकाएक कहीं से आयी, जो भूरे रंग की थी.
मैं बेहद उत्तेजित हो गया, उस गाय को लेकर बेहद उत्सुक; क्यों कि चलती हुई गाय के आने पर अब दृश्य में बहुत संभावनाएं थीं. वह गाय कहीं भी जा सकती थी, कुछ भी कर सकती थी....मसलन चरने के लिए घास ढूँढना, गुस्से में आ कर किसी के पेट में सींग घुसाने से लेकर रम्भाने तक का काम, गोबर, सिर हिलाना, जुगाली, पूँछ से मक्खियाँ उड़ाना, मुंह से झाग निकालना, नथुने फुलाना, पेड़ से रगड़ कर कमर खुजलाना...कुछ भी! लगने लगा कि फिल्म का फ्रेम गाय के आने से कुछ तो आगे बढ़ेगा ही...
पर मेरी उम्मीदों पर पानी फेरते एक घने नीम की छाया में, जो हवा के बावजूद अपनी डालियाँ ज्यादा नहीं हिला रहा था, गाय पहले अगले फिर पिछले–चारों पाँव मोड़ कर बैठ गयी और आँखें बंद कर ऊंघने लगी...