दृष्टिकोण / उमेश मोहन धवन

Gadya Kosh से
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रविवार का दिन था। राजेंद्र बाबू के घर सुबह से ही मित्रों का आना जाना लगा हुआ था। शाम पाँच बजे बड़ी बहू की नज़र सोफे पर पड़े एक काले पर्स पर पड़ी। उसने पर्स खोलकर देखा। उसमें काफी रुपये थे। उसने पर्स पास बैठी अपनी देवरानी को दिखाया और बोली। “शायद किसी मिलने वाले की जेब से गिर गया होगा। अभी चल के माँ जी को बताती हूँ। हो सकता है इस पर्स में से ही कोई पता या फोन नम्बर मिल जाये तो इसके मालिक को खबर कर दी जायेगी।”

पर छोटी बहू का विचार कुछ और था। उसने धीरे से जेठानी को समझाया “ अरे दीदी किसी को खबर करने की क्या जरुरत है? जब सुबह से कोई माँगने नहीं आया तो अब क्या आयेगा। सोच रहा होगा कि कहीं गिर विर गया होगा रास्ते में कहीं। इतना मोटा पर्स है। जरुर इसमें तीन चार हजार तो होंगे ही।” बाहर बरामदे में बैठी माँजी सबकुछ सुन रही थीं और सोच रही थीं कि देखो ये दोनो बहुयें हैं तो एक ही घर की, पर फिर भी दोनो के दृष्टिकोण में कितना फर्क है।