दृष्टिहीन का संसार और संसार की विकलांगता / जयप्रकाश चौकसे

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दृष्टिहीन का संसार और संसार की विकलांगता
प्रकाशन तिथि :16 मई 2015


विरोधाभास और विसंगतियों के कारण अंधेरा कितना ही घना क्यों न हो, कहीं न कहीं से अनपेक्षित आशा की किरण दिखाई देती है और मन में उल्लास की लहरें चलने लगती हैं। रात घने जंगल में जुगनू के सहारे चला जा सकता है। विगत दिनों जयपुर यात्रा में एक विरल अनुभव हुआ। बच्चों के लिए बनाएं फंतासी गीत में कुछ इस तरह की बात की जाती है कि लंगड़े दौड़ रहे हैं, अंधे देख रहे हैं, बहरे सुन रहे हैं। इस तरह की फंतासी को यथार्थ स्वरूप दिया, भारत रत्न भार्गव और सहयोगी अशोक बांथिया ने। हुआ यह कि जयपुर के हीरा व्यापारी प्रकाश कोठारी ने कोठारीगढ़ में स्थित नाट्यकुलम संस्था में यह विचार प्रकट किया कि भारत रत्न भार्गव दृष्टिहीन बच्चों के साथ नाटक मंचित करें। इस कोठारीगढ़ में चारों और प्राकृतिक छटा है, सुबह मोर भी आते हैं। गिलहरियों में इतना आत्म सन्मान है कि वे हथेली पर रखा दाना ही ग्रहण करती हैं। अत: यह संभव है कि जब प्रकाश कोठारी के मन में यह विचार कौंधा तब वृक्ष पर बैठे किसी यक्ष ने कहा हो 'तथास्तु' और भारत रत्न भार्गव व साथी बांथिया ने यह अजूबा कर दिखाने का प्रण कर लिया।

ज्ञातव्य है कि प्रकाश कोठारी नाट्यकुलम एवं राजस्थान नेत्रहीन कल्याण संघ से भी जुड़े है, भारत रत्न भार्गव ने रॉयल अकेडमी ऑफ ड्रामेटिक आर्ट्स, लंदन व राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय, नई दिल्ली, से प्रशिक्षण पाया है। लंबे समय तक वे आकाशवाणी से जुड़े रहे और 1977 में इंदौर आकाशवाणी केंद्र में उन्होंने मेरा लिखा 'तीसरी सिम्फनी' निर्देशित किया था, जिसमें नायक के लिए जयपुर से नंदलाल शर्मा को आमंत्रित किया था। वर्तमान में भारत एवं नंदलाल जयपुर में सक्रिय हैं। भारत ने बीबीसी में भी कार्य किया है। उम्र के 76वें वर्ष में उन्होंने दृष्टिहीन युवाओं के साथ नाटक प्रस्तुत करने का तय किया, अब उन्हें लगता है शायद इसी कार्य के लिए वे जन्में थे। सारा जीवन पूरे समर्पण भाव से रंगमंच से जुड़े भारत को अब संपूर्ण सार्थकता का पड़ाव मिला है। दृष्टिहीन व्यक्ति के जीवन के दु:ख को समझने के लिए हम मात्र एक पहर भी आंख पर पट्‌टी बांध कर जी नहीं पाते, हम गांधारी के निर्णय का महत्व भी समझ नहीं पाते। इस दु:ख को कुछ हद तक शैलेन्द्र ने 'मेरी सूरत तेरी आंखों' के गीत में प्रस्तुत किया है। 'पूछो न कैसे मैंने रैन बिताई, एक पल जैसे एक युग बीता, युग बीते मोहे नींद न आई...इक जले दीपक, इक जले मन मोरा, फिर भी न जाए मेरे मन का अंधेरा' दृष्टिहीन के संसार में क्या कुछ घटता है, हम नहीं जान पाते।

भारत व सहयोगी बंथिया ने दृष्टिहीन बालकों के रंगमच पर कार्यकलाप के लिए ध्वनी का सहारा लिया, अनथक ढंग से इस पर लंबे समय तक कार्य किया। मुंशी प्रेमचंद्र की कथा 'ईदगाह' से प्रेरित नाटक 'जश्न-ए-ईद' रचा गया और सुखाड़िया विश्वविद्यालय के डॉ.प्रेम भंडारी ने संगीत रचा। दृष्टिहीन कलाकारों के साथ काम करने की प्रक्रिया अपने आप में एक शोध का विषय है। सबसे बड़ी बात यह कि इस नाटक में भाग लेने वाले अठारह दृष्टिहीन लोगों के जीवन में नई आशा जागी है, नए उत्साह की लहर पर वे सवार हैं। उनके वे संगी साथीे भी रोमांचित हैं। इसी संस्था का एक दृष्टिहीन युवा चित्रकारी कर रहा है। कोई आश्चर्य नहीं कि संसार के सभी ईश्वरी कमतरी के शिकार लोग इससे प्रेरणा लेकर सार्वजनिक जीवन में सक्रिय हो जाएं। सब तरह से समर्थ लोगों ने तो अन्याय व असमानता आधारित दुनिया बनाई है।

यह संभव है कि ये लोग अवाम को उसकी मानसिक अपंगता से मुक्त कराएं और बेहतर व्यवस्था रचें। दृष्टिहीन के संसार में समानता तो है और अंधकार भी समान रूप से बंटा है, तो शायद ये ही लोग हमें प्रकाश पर समानता के पाठ पढ़ाएं। ये दृष्टिहीन सबको समान रूप से रेवड़ियां बांटेंगे, नेत्रवाले तो अपने अपनों को ही सताकर रेवड़ी बांट रहे हैं। क्या ईश्वरीय नियामतें अन्याय रचती हैं? दरअसल सत्ता और विपुल धन आंखों पर काली पट्‌टी बांध देते हैं। इस नाटक के कुछ सफल मंचन हो चुके हैं और कुछ दर्शकों को यह संदेह भी हुआ कि कहीं ये कलाकार दृष्टि के धनी तो नहीं हैं। नाट्यकुलम अपने इस प्रयोग को अखिल भारतीय स्वरूप देना चाहता है। 'जश्न-ए-ईद' का मंचन इंदौर और मुंबई में सितंबर-अक्टूबर में संभव है। 25 जनवरी 1938 को जन्में यह नाट्‌यकर्मी अपने नाम को ही सार्थक करनेका प्रयास कर रहा है -'भारत रत्न'।