दृष्ट और अदृष्ट / गीताधर्म और मार्क्सीवाद / सहजानन्द सरस्वती
यह कहा जा सकता है कि गीता ने जब कर्मवाद को माना है तो भाग्य या प्रारब्ध का सवाल हमारे भौतिक कामों में भी आई जाता है। अठारहवें अध्यानय के 'अधिष्ठानं तथा कर्त्ता' से लेकर 'पंचै ते तस्यहेतव:' (14, 15) तक दो श्लोकों में साफ ही कहा है कि जो कोई भी भला या बुरा काम किया जाता है उसके पाँच कारण होते हैं, जिनमें एक दैव, प्रारब्ध या भाग्य भी है, जिसे तकदीर भी कहते हैं। गीता ने स्वीकार कर लिया है कि प्रारब्ध का हाथ दुनिया के सभी कामों में होता ही है। इसमें शक की जगह हई नहीं। फिर तीसरे अध्या्य के 'यज्ञाद्भवति पर्जन्यो यज्ञ: कर्मसमुद्भव:' (14) में भी साफ ही कर्म और यज्ञ को वृष्टि के द्वारा अन्नादि के उत्पादन में और इस तरह भौतिक कार्य चलाने में कारण ठहराया है। चौथे अध्याय के 'नायं लोकोऽस्त्ययज्ञस्य' (31) श्लोक में भी स्पष्ट ही कह दिया है कि यज्ञ के बिना इस दुनिया का काम चली नहीं सकता। छठे अध्या्य के 37 से 48 तक के श्लोकों में इसी कर्म का संबंध मनुष्यों के जन्म और स्वभाव के साथ जोड़ के 45वें में कह दिया है कि 'अनेक जन्मों में यत्न करने के बाद ही उसका दिल-दिमाग ठीक हो जाने पर मनुष्य मोक्ष का भागी होता है' - “अनेक जन्मसंसिद्धस्ततो याति परांगतिम्।” इस तरह कर्मों का संबंध पुनर्जन्म के साथ लगा हुआ है और पुनर्जन्म का तो अर्थ ही है यह भौतिक शरीर। सोलहवें अध्याय के 19, 20 श्लोकों में आसुरी संपत्ति वालों के दुष्कर्मों के फलस्वरूप उनकी दुर्गति और नीच योनियों में उनका जन्म बताया गया है। दूसरे अध्या्य के 'बुद्धियुक्तो जहातीह' (50) श्लोक में पुण्य-पाप का जिक्र है। इधर-उधर के श्लोकों में भी यही बात है। इस तरह गीता में जानें कितनी ही जगह यही बात पाई जाती है। इसलिए यह तो मानना ही होगा कि भाग्य और भगवान का दखल इस दुनिया के भौतिक कार्यों में गीता को भी मान्य है।
बात तो कुछ ऐसी ही मालूम पड़ती है और अगर इस पर कुछ ज्यादा खोद-विनोद न किया जाए तो इसी नतीजे पर पहुँचना अनिवार्य हो जाएगा। यह ठीक है कि ऐसा होने पर भी हमारा पहले का मंतव्य ज्यों का त्यों रह जाता है। क्योंकि यह जो कर्मवाद की बात अभी-अभी कही गई है वह तो गीताधर्म है नहीं - वह गीता की अपनी चीज नहीं है। इसके बारे में तो अधिक से अधिक इतना ही कह सकते हैं कि सामान्यत: उस समय के समाज और शास्त्र में जो कुछ कर्म-संबंधी बातें और धारणाएँ प्रचलित थीं, जो सिद्धांत आमतौर से इस संबंध में माने जाते थे, उन्हीं को अक्षरश: अनुवाद करके गीता ने लिख दिया है। ऐसा करने में उसका प्रयोजन कुछ न कुछ है। बावजूद इन सभी बातों के योग और ज्ञान के आश्रय लेने पर मनुष्य बंधनरहित हो जाता है, यही बात दिखलाने और योग, ज्ञान या भक्ति के मार्ग के महत्त्व को बताने के ही लिए उन कर्मफलों और विविध गतियों का उल्लेख गीता करती है, जो आस्तिक समाज में प्रचलित थीं और हैं। गीता का उनके अनुमोदन या उनकी यथार्थता से कोई ताल्लुक नहीं है। यह उसका ध्ये य हई नहीं। यदि उन प्रसंगों और पूर्वापर विचारों को देखा जाए तो यह बात साफ हो जाएगी। गीता के श्लोकार्थ के समय हम भी यह बात साफ दिखाएँगे।
इसके विपरीत गीताधर्म के नाम से जो कुछ हमने कहा है और जिसका उल्लेख सत्रहवें अध्याहय में आया है वह गीता की निजी चीज है, अपनी देन है। द्वितीय अध्यासय वाले योग को जिस प्रकार हम गीताधर्म मानते हैं और स्वीकार करते हैं कि वह उसकी खास देन है, ठीक यही बात यहाँ भी है। श्रद्धापूर्वक कर्म करना ही असल चीज है। श्रद्धा से ही कर्मों का रूप निर्णीत हो जाता है। इसीलिए कर्म सोलहों आना व्यक्तिगत चीज है, यह बात भी गीताधर्म है। उस योग की ही तरह यह चीज भी और कहीं पाई नहीं जाती है। इसलिए गीताधर्म और मार्क्सधवाद में कोई भी विरोध नहीं है यह जो हमने पहले कहा है वह ज्यों का त्यों बना रह जाता है और इस प्रकार हमारा अपना काम सिद्ध हो जाता है - पूरा हो जाता है। जो चीज या जो विषय - जो सिद्धांत - अन्यान्य ग्रंथों और मतवादों में पाया जाए उसे भला गीताधर्म कैसे कहेंगे? और यही बात कर्मवाद के संबंध में भी है। यही कारण है कि हमारे हरेक कामों में पाँच कारणों को गिना के उनमें जो दैव या भाग्य को भी गिनाया है, ठीक उसी के पूर्व के श्लोक 'पंचैतानि महाबाहो', 'सांख्ये कृतान्ते प्रोक्तानि' (13) में साफ ही कहा है कि सांख्यमत या सांख्यसिद्धांत में ऐसा माना गया है।
फिर भी इस संबंध में कुछ बातें जानने की हैं। इससे गीताधर्म के यथार्थ महत्त्व को समझने में आसानी होगी। प्राय: हजारों साल पहले एक अपूर्व प्रतिभाशाली नैयायिक विद्वान उदयनाचार्य हो गए हैं, जिनने ईश्वरवाद और धर्म-कर्म की सिद्धि पर कई अपूर्व ग्रंथ लिखे हैं। इन्हीं में एक का नाम न्यायकुसुमांजलि है। उसमें एक स्थान पर इसी दैव, प्रारब्ध, अदृष्ट या अपूर्व - दैव को ही अपूर्व तथा अदृष्ट भी कहते हैं - के संबंध में लिखते हुए लिखा है कि सांसारिक पदार्थों की उत्पत्ति के लिए दो प्रकार के कारण माने जाते हैं, दृष्ट और अदृष्ट। कपड़ा तैयार करने में जिस प्रकार सूत, जुलाहा, करघा वगैरह प्रत्यक्ष या दृष्ट कारण हैं, उसी प्रकार सभी पदार्थों के ऐसे ही कारणों को दृष्ट कारण कहते हैं। मगर इनके अलावा जो दूसरा कारण है और प्रयत्क्ष दीखने वाला नहीं है उसे अदृष्ट कहते हैं। उदयनाचार्य ने कहा है कि यह अदृष्ट कारण कोई स्वतंत्र या करामाती चीज नहीं है। उसका काम है दृष्ट कारणों को जुटाने में ही सहायक होना - 'अदृस्यदृष्ट सम्पादनेनैव चारितार्थ्यात्'। यह अदृष्ट, दैव या प्रारब्ध दूसरा कुछ नहीं करता! यह नहीं होगा कि सूत, जुलाहा, करघा आदि सभी प्रत्यक्ष कारण जुटे हों तो भी अदृष्ट के करते कपड़े के तैयार होने में देर लगेगी।
अब अगर हम इस दार्शनिक विचार पर गौर करते हैं तो कर्मवाद की सारी दिक्कतें दूर हो जाती हैं। ईश्वरवाद के ही सिलसिले में यह बात कही जाने के कारण महत्त्व और भी बढ़ जाता है। यदि ऐसा न मानें तो बड़ी गड़बड़ होगी और रसोई बनानेवाला चावल, पानी, लकड़ी, आग, चूल्हा, बरतन वगैरह रसोई के सभी सामानों को जुटाके भी भाग्य का मुँह देखता बैठा रहेगा। फलत: सभी जगह गड़बड़झाला हो जाएगा। पाचक महाशय अदृष्ट महाराज की बाट जोहते रहेंगे। मगर उनका दर्शन होगा ही नहीं! और तटस्थ दुनिया कहेगी कि यह कैसी मूर्खता की बात है अदृष्ट का सिद्धांत! इसमें तो कोई अक्ल मालूम होती ही नहीं। इसीलिए दार्शनिक नैयायिक की हैसियत से उदयनाचार्य ने बहुत ही सुंदर समाधान करके सारा झमेला ही मिटा दिया। यह भी नहीं कि अदृष्ट का अर्थ केवल पूर्व कर्म, दैव या प्रारब्ध ही हो। अदृष्ट का अर्थ है जो न दीखे - जो प्रत्यक्ष न हो। इसलिए ईश्वर, उसकी इच्छा वगैरह जो भी ऐसे कारण माने जाते हैं सभी इसमें आ गए और सभी का समाधान उदयनाचार्य ने किया है। क्योंकि दलील तो सभी के लिए एक ही है और गड़बड़ भी वही एक ही है।
हाँ, तो इस सिद्धांत के अनुसार यदि हम देखते हैं तो हमें कोई गड़बड़ नहीं मालूम होती। मजदूरों की लड़ाई के सिलसिले में हड़ताल का मौका आने पर सारी तैयारी हो गई और मजदूर लड़ने जा रहे हैं, या लड़ रहे हैं, इस विश्वास के साथ कि विजय होके ही रहेगी। इसी बीच भाग्यवादी और भगवान का ठेकेदार कोई पादरी, पंडित या मौलवी आके उन्हें बहकाता है कि कुछ न हो सकेगा, तुम्हारी तकदीर ही खराब है, तुम पर भगवान ही रंज है। तुम लोग हारोगे जरूर। मिलवाले पर भगवान खुश जो हैं, उसका भाग्य सुंदर जो है, उसका करम चंदन से लिखा जो गया है! बस, सारा मामला बिगड़ता है - उसके बिगड़ने का खतरा हो जाता है। मगर अगर उदयनाचार्यवाली दार्शनिक बात और युक्ति मान लें, तो फिर ऐसी बेहूदा बातों की गुंजाइश ही नहीं रह जाती। उस दशा में इन गुरु-पुरोहितों या मौलवी-पादरियों की बेहूदगी को जगह है कहाँ? हड़ताल की सफलता का सारा बाहरी या दृष्ट सामान जब होई गया तो अब अदृष्ट - भाग्य या भगवान - अलग कहाँ रह गया? यह तो सारी शैतानियत है। अमीरों के दलालों ने यह कुचक्र खुद रचा है जो निराधार और बेबुनियाद है। उन्हें तो उलटे यह कहना चाहिए कि हड़ताल की तैयारी में कोई कसर रहने न दो। बस, भगवान और भाग्य तुम्हारे साथ हैं और जरूर जीतोगे। यही उचित और कर्मवाद के सिद्धांत के अनुसार है।
और गीता का क्या कहना? वह तो हमारे यत्नों और कोशिशों को ही सब कुछ मानती है। वह अदृष्ट की परवाह न करके काम में मुस्तैदी से जुट जाने पर ही जोर देती है। वह कहती है कि जब सभी सामान मौजूद हैं तो जीत तो होगी ही, कार्यसिद्धि तो होगी ही। फिर आगा-पीछा क्यों? वह तो यहाँ तक कहती है कि जीतने-हारने का क्या सवाल? हमें तो काम करने का ही हक है। हमारे बस की चीज तो यही है। हम फल-वल की फिक्र करके काम से, संघर्ष से क्यों मुड़ें? यह तो नादानी होगी। वह तो पीछे मुड़ने वालों को कहती है कि छि:-छि: क्या मुँह दिखाओगे जब दुश्मन हँसेंगे और लोग गालियाँ देंगे? इस तरह बेइज्जती से जीने की अपेक्षा तो काम करते-करते और लड़ते-लड़ते मर जाना लाख दर्जे अच्छा है। इसमें शान है, प्रतिष्ठा है, इज्जत है। इससे न सिर्फ लड़ने और काम करने वालों का, बल्कि उनके साथियों का भी सिर ऊँचा होता है। फिर और चाहिए ही क्या? इससे बढ़के और हई क्या?
जब अर्जुन इसी आगा-पीछा में अपने कर्तव्य से विमुख हो रहा था, तो कृष्ण ने दूसरे अध्या य से ही शुरू करके अठारहवें तक जानें बीसियों बार उसे ललकारा और कहा कि क्या नाहक मरने-मारने की फिक्र नादानों की तरह कर रहे हो? तैयार हो जाओ, डट जाओ, कमर बाँध लो, दृढ़ संकल्प के साथ लड़ो। यह नामर्दों की-सी बातें क्या कर रहे हो? ये बातें तुम्हारे जैसों के लिए मुनासिब नहीं हैं, जेबा नहीं देती है। जरा सुख-दु:ख बरदाश्त करने की हिम्मत तो करो। इस विश्वास के साथ भिड़ तो जाओ कि जरूर फतह होगी। फिर तो बेड़ापार ही समझो। ये बातें अक्लमंदी की नहीं हैं जो तुम कर रहे हो। तुम धोखे में पड़ के आगा-पीछा कर रहे हो, खबरदार! जरा सुनिए, - 'धीरस्तत्र न मुह्यति' (2। 13), 'तांस्तितिक्षस्व' (2। 14), 'तस्माद्युध्यस्व' (2। 18), 'उभौ तौ न विजानीत:' (2। 19), 'कं घातयति हंति कम्' (2। 21), 'नानुशोचितुमर्हसि', 'न शोचितुमर्हसि' (2। 25-27, 30), 'का परिदेवना' (2। 28), 'न विकम्पितुमर्हसि' (2। 31), 'पापमवाप्स्यसि' (2। 33), 'उत्तिष्ठ युद्धायकृतनिश्चय:' (2। 37), 'युद्धाय युज्यस्व' (2। 38), 'कुरु कर्माणि' (2। 48), 'योगाय युज्यस्व' (2। 50), 'नियतं कुरु कर्म त्वं' (3। 8), 'मुक्तसंग: समाचर' (3। 9), 'कार्य कर्म समाचर' (3। 19),'कर्त्तुमर्हसि' (3। 20), 'युध्यस्व विगतज्वर:' (3। 30), 'कुरु कर्मैव' (4। 15), 'कृत्वापि न निबध्यते' (4। 22), 'उत्तिष्ठ भारत' (4। 22), 'योगिन: कर्म कुर्वन्ति' (5। 11), 'कार्यं कर्म करोति' (6। 1), 'तस्माद्योगी भव' (6। 46), 'युध्य च' (8। 7), 'योगयुक्तो भव' (8। 27), 'तत्कुरुष्वमदर्पणम्' (9। 27), 'यसो लभस्व' (11। 33), 'निमित्तमात्रं भव' (11। 33), 'युध्यस्व' (11। 34), 'मत्कर्मपरमो भव' (12। 10), 'न हिनस्त्यात्मनात्मानम्' (13। 28), 'मा शुच:' (16। 5), 'कर्म कर्तुमिहार्हसि' (16। 24), 'कर्म न त्याज्यं' (18। 3), 'न त्याज्यं कार्यमेव' (18। 5), 'कर्माणि कर्त्तव्यानि' (1। 6), 'कर्मण: संन्यासो नोपपद्यते' (18। 7), 'न हंति न निबध्यते' (18। 17), 'संसद्धिं लभते' (18। 45), 'स्वकर्मणा तमभ्यर्च्य' (18। 46), 'स्वधर्म: श्रेयान्' (18। 47), 'कर्मकुर्वन्नाप्नोति किल्विषम्' (18। 47) 'सहजं कर्म न त्यजेत्' (18। 48), 'न श्रोष्यसि विनंक्ष्यसि' (18। 58), 'यदहंकारमाश्रित्य न योत्स्ये' (18। 59), 'प्रकृतिस्त्वां नियोक्ष्यति' (18। 59), 'करिष्यस्यवशोऽपि तत्' (18। 60), 'करिष्ये वचनं तव' (18। 73), इत्यादि। इन उद्धरणों से स्पष्ट है कि पचास बार से ज्यादा अर्जुन पर ललकार पड़ी है। शायद ही कोई अध्यावय है जिसमें यह बात नहीं आई है। गीता में कर्म की ललकार ओतप्रोत है - यह कर्म की ललकार गीता की रग-रग में भिनी हुई है और कर्मयोग उसका कारण है।