देखी जमाने की यारी बिछड़े सभी बारी-बारी / जयप्रकाश चौकसे

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देखी जमाने की यारी बिछड़े सभी बारी-बारी
प्रकाशन तिथि : 12 अप्रैल 2019


शायर कैफी आजमी की जन्मशती मनाई जा रही है। उनका जन्म उत्तर प्रदेश के आजमगढ़ के गांव मजवां में 1919 को हुआ था। इस गांव में 20वीं सदी के प्रथम चरण में बच्चे के जन्म का समय और तारीख कहीं लिखकर रखना संभव नहीं था। उन्होंने 1951 से 1997 तक विविध फिल्मों में लगभग दो सौ साठ गीत लिखे। ज्ञातव्य है कि साहिर लुधियानवी ने गुरुदत्त की प्यासा के लिए गीत लिखे थे। इस संजीदा फिल्म की सफलता का श्रेय साहिर के गीत और सचिनदेव बर्मन को दिया जाता है। साहिर लुधियानवी ने यह तय किया था कि उनका गीत लेखन का मेहनताना फिल्म के संगीतकार को दिए जाने वाले मेहनताने के बराबर होगा।

इस निर्णय के कारण बलदेव राज चोपड़ा ने संगीतकार रवि के साथ साहिर की जोड़ी बनाई। गुरुदत्त ने अपनी सबसे अधिक महत्वाकांक्षी फिल्म 'कागज के फूल' के लिए सचिन देव बर्मन के साथ कैफी आजमी को लिया। यह गौरतलब है कि एक अन्य फिल्मकार की आत्म-कथात्मक 'मेरा नाम जोकर' की तरह 'कागज के फूल' भी असफल रही। किंतु दोनों ही फिल्मकारों ने सफल फिल्में बनाकर शानदार वापसी की। राज कपूर ने 'बॉबी' तो गुरुदत्त ने 'चौदहवीं का चांद' से वापसी की। बहरहाल, कैफी आज़मी ने 'कागज के फूल' के सार्थक गीत लिखे। 'अरे देखी जमाने की यारी, बिछड़े सभी, बिछड़े सभी बारी बारी…' बहुत लोकप्रिय हुआ।

इसी फिल्म के लिए कैफी आज़मी का लिखा गीत 'वक्त ने किया क्या हसीं सितम/ तुम रहे न तुम, हम रहे न हम' आज भी गुनगुनाया जाता है। गोयाकि वक्त के सितम का कोई असर इस गीत पर नहीं हुआ। यह गीत तो वर्तमान समय की राजनीति को भी बयां करता है कि कोई भी दल पहले की तरह नहीं रहा। कोई अपने किसी आदर्श पर कायम नहीं है।

चेतन आनंद ने अपनी अधिकांश फिल्मों के गीत कैफी आजमी से ही लिखाए। दोनों के बीच खामोशी का रिश्ता था। चेतन आनंद दो वाक्य में गीत की सिचुएशन बयां करके चुप बैठ जाते। कैफी आजमी भी खामोश रहते। इस तरह ये हमसफर खामोशी के पुल पर मिलते थे। घंटों दोनों एक-दूसरे के आमने-सामने इसी तरह बैठे रहते थे। कैफी आजमी कागज पर लिखना प्रारंभ करते और इस काम में बड़ी महीन-सी आवाज होती थी और खामोशी भंग हो जाती थी। चेतन आनंद की 'हकीकत' के लिए लिखे कैफी आजमी के गीत खूब लोकप्रिय हुए।

वर्ष 1956 में प्रदर्शित फिल्म 'जिंदगी' का एक गीत इस तरह है, 'वृंदावन से जड़ी मंगाई हिमालय से बूटी/ और काशी जी में धोई, भिगोई, अयोध्या में घोटी/ ढलते चंद्रमा ने पीसी, छानी/ चढ़ते सूर्य को खाई/ चालीस कतरे अमृत डाला तब ये बनी है दवाई/ राजे क्या महाराजे, कैसे साधु जोगी, वैद्य ने ऐसी दवा न देखी होगी/ चमचा भर जिसे खिला दो, रोग रहे ना रोगी..'। इस अंदाज को ब्याज स्तुति कहते हैं।

कैफी आजमी का उपरोक्त गीत गंगा-जमुनी संस्कृति को ही रेखांकित करता है, जिसने हमें सृजनधर्मी लोग दिए। शैलेन्द्र, इंदीवर, अनजान, जोश मलीहाबादी, मजरूह सुल्तानपुरी, हसरत जयपुरी, नीरज इत्यादि सभी गंगा-जमुनी संस्कृति की देन थे। कैफी साहब ने 'कागज के फूल' में एक गीत यह भी लिखा था, 'एक दो तीन और पांच छह और सात आठ और नौ/ एक जगह सब रहते थे, झगड़े थे पर उनमें सौ/..एक बेचारा तन्हा तन्हा फिरता था आवारा सा, सिफर (शून्य) मिला उसे रस्ते बेकीमत आवारा सा/ एक ने पूछा तुम हो कौन, उसने कहा मैं सिफर हूं, एक ने सोचा मैं सिफर हूं/ एक ने सोचा भी क्या सबसे छोटा और कमतर मिल गए/ दोनों और बन गए दस, चमका उनकी किस्मत का तारा…' फिल्म में एक शिक्षिका गांव के बच्चों को इस गीत के द्वारा गिनती सिखाती है।

इसका जिक्र हमें याद दिलाता है कि कैफी आजमी के दामाद जावेद अख्तर ने भी गिनती का इस्तेमाल करके 'तेजाब' के लिए माधुरी दीक्षित पर फिल्माया गीत लिखा था, 'एक दो तीन, चार पांच छह, सात आठ नौ, दस ग्यारह बारह तेरह/ तेरा करूं, तेरा करूं दिन गिन गिन के इंतज़ार/ आजा पिया आई बहार …।

चेतन आनंद की 'हकीकत' के लिए एक सैनिक अपनी प्रेमिका से मिलकर लाम पर जा रहा है। गीत है, 'मैं यह सोचकर उसके दर से उठा था कि वह रोक लेगी/ मना लेगी मुझको, कदम ऐसे अंदाज में उठ रहे थे कि आवाज बुला लेगी मुझको/ हवाओं में लहराता आता था दामन कि दामन पकड़कर बिठा लेगी मुझको/ मगर उसने रोका, न उसने मनाया, न दामन ही पकड़ा, न मुझको बिठाया न आवाज ही दी/ न वापस बुलाया मैं आहिस्ता आहिस्ता बढ़ता आया, यहां तक कि उससे जुदा हो गया मैं।'

चेतन आनंद की ही पद्य में लिखी 'हीर-रांझा' की पटकथा भी कैफी आजमी ने लिखी थी। ज्ञातव्य है कि पृथ्वी नाटक मंडली के सारे सदस्य रेल की तीसरी श्रेणी के डिब्बे में यात्रा करते थे। सभी एक साथ भोजन करते थे। किसी भी सदस्य को सितारा नहीं माना जाता था। एक बार शौकतजी ने अपने पति कैफी साहब से कहा कि इस यात्रा के समय वे कम से कम पचास रुपए अपने जेब खर्च के लिए चाहती हैं। बहरहाल, रेलवे स्टेशन पर ट्रेन निकलते वक्त कैफी साहब दौड़े-दौड़े आए और अपनी पत्नी को पैसे दिए।

पूरी यात्रा में शौकतजी मगन थीं कि उनके शौहर ने उन्हें पैसे दिए। कुछ समय बाद पृथ्वीराज कपूर ने शौकत से पूछा कैफी साहब को पचास रुपए की जरूरत क्यों थी? वे तो फक्कड़ शायर हैं, पैसे उनके लिए कुछ मायने ही नहीं रखते। इस तरह कैफी साहब ने 'तेरा तुझको अर्पण क्या लागे मेरा' को रेखांकित किया। जाने कहां गए वो दिन जब ऐसे जिंदादिल लोग रहते थे।