देनदारी / दीपक मशाल
उम्र के सातवें दशक में कदम रखते अवध किशोर की साइकिल भी उसी की तरह हो चली थी। बाकी सब तो चलाया भी जा सकता लेकिन उस चेन का क्या करते जो इतनी पुरानी और ढीली पड़ गई थी कि हर दस कदम पर ही उतर जाती। अपना खुद का कोई ख़ास काम ना होने की वजह से उसे घर के सामान लाने के इतने काम दे दिए जाते कि सारा दिन निकल जाता। वो भी साइकिल के बिना तो दिन भर में भी पूरे ना हों। आज उसकी छोटी सी वृद्धावस्था पेंशन हाथ आई तो सोचा कि पहले नई चेन ही डलवा लेते हैं।
पैसे लेकर घर पहुंचा ही था कि उसके हाथ में हरे-हरे नोट देख बेटा बोल पड़ा, “दद्दा दो महीना पहलें तुमने चश्मा और जूता के लाने जो पैसा हमसे लए ते वे लौटा देओ, हमे जा महीना तनख्वाह देर से मिलहे और मोटरसाइकिल की सर्विस जरूरी कराने है।”
अवध किशोर ने पैसे उसे देते हुए इतना ही कहा, “हाँ बेटा हम तो भूलई गए ते कि तुम्हाई कछू देनदारी है हमपे, अच्छो रओ तुमने याद दिला दई”।