देवकी-यशोदा / सुधा भार्गव
ज्ञानु और भानु सहोदर भाई, एक ही माँ के जाये और इत्तफाक की बात कि दोनों की शादियाँ भी दो सगी बहनों से हुईं जिनके नाम थे किरन और सिमिरन। बड़े भाई के विवाह के समय ही छोटा भाई सिमिरन को दिल दे बैठा था और जिद पर अड़ गया कि शादी करूंगा तो इसी से वरना क्वाँरा ही रहूँगा। खुले दिमाग वालों को कोई एतराज न था। दादी ने जरूर दबी आवाज में कहा था –एक ही घर की दो लड़कियां फलती नहीं पर पढ़ी –लिखी पीढी के सामने इन दक़ियानूसी विचारों का क्या मूल्य।
विवाह के बाद बड़े भाई के आँगन में दो बालक किलकारी मारने लगे, चारों तरफ बसंत छिटका पड़ता। लेकिन शादी के आठ साल के बाद भी छोटा भाई पितृ सुख से वंचित रहा। सिमिरन की व्यथा बड़ी बहन किरन से छिप न सकी। उसने बातों ही बातों में इशारा भी किया –किसी गरीब का बच्चा गोद ले लो। तुम्हारी बगिया में फूल भी खिल जाएगा और निर्धन के घर का चिराग भी पल जाएगा। पर सिमिरन को तो एक ही रट लगी थी –परिवार के बालक को ही आँचल की छांह दूँगी। उसकी इस जिद के कारण सबके दिमाग बड़ी उलझन में थे कि परिवार का बच्चा कहाँ से लाया जाय।
एक रात किरन गहरी नींद में थी कि पति की आवाज सुन कर चौंक पड़ी –किरण, क्या तुम सो गईं?
-रात सोने के लिए ही बनी है सो मैं सो गई। क्या अब भी मेरे लिए कोई काम बचा है?
-हाँ, काम तो है।
पति के गंभीर स्वर ने उसकी नींद उड़ा दी और वह उठकर बैठ गई।
-बोलो, तुम्हारे हृदय में कौन सा सागर मंथन हो रहा है।
-यही कि टुननू चार साल का हो रहा है, अब हमें तीसरे बच्चे के लिए सोचना चाहिए।
-तुम्हारा दिमाग खराब हो गया है, दो बच्चे कम हैं क्या?
-लड़की के बिना घर में साज सिंगार नहीं दीखता, पायल की झंकार नहीं सुनाई देती।
-मगर इस बार भी लड़का हो गया तो ---।
-तो क्या --। हम उसे भानु को दे देंगे।
विस्मय से किरन का मुंह खुला का खुला रह गया। उसे अपने पति से ऐसी आशा न थी।
-सोच लो –अंतिम निर्णय तुम्हारा ही रहेगा। बड़ी सहजता से ज्ञानु बोला और सो गया।
किरन उस रात करवटें ही बदलती रही। उसकी आँखों के आगे मातृत्व के लिए तड़पता बहन का चेहरा घूम गया। मैं घर का बच्चा चाहती हूँ –यह वाक्य हथौड़े की सी चोट करता उसके कानों में बजने लगा। वह खुद से ही प्रश्न –उत्तर करने लगी
-क्या मैं अपने बच्चे को दूसरे की गोद में डाल सकूँगी? नहीं –नहीं मैं इतना बड़ा त्याग नहीं कर सकती। मैं अपनी ममता का गला कैसे घोंट सकूँगी।
अतीत के चिंदी –चिंदी किए कागज के टुकड़े न जाने कहाँ से उड़कर आए और एक कहने लगा –
भावुकता में आकर अपने जिगर के टुकड़े को दूसरे की झोली में न डाल,त्याग की देवी होने का नाटक न कर। दूसरे के बच्चे को अपना समझकर पालना बड़ा कठिन है। इतिहास न दोहरा वरना तेरी दशा भी तेरी माँ जैसी होगी।
याद कर जब तेरा भाई इंदर चाचा को गोद दिया गया –तू बेतहाशा रोई –माँ पछाड़ खाकर सुध –बुध खो बैठी।
एकाएक दूसरा कागज ज़ोर से फड़फड़ाया ---
अरे इंदर तो चाचा के लिए भाग्य ही लेकर आया था। चाची ढलती उम्र में एक कन्या की माँ बन बैठी और पतझड़ में बधाई के स्वर गूंजने लगे। चाचा –चाची की आँखों के आगे दिन -रात तारे झिलमिलाने लगे पर इंदर को तो उन्होंने दूध की मक्खी की तरह निकाल फेंका। अपने खून के सामने गिरगिट की तरह बदल गए वे।
-चुप भी रहो, ऐसा कुछ भी नहीं होगा। किरन झुँझलाकर चिल्ला उठी।
कागज के टुकड़े फरफर करके उड़ गए।
पौं फटने से पहले ही उसने निर्णय ले लिया कि वह सुगंधा बनेगी –सिमिरन की ज़िंदगी को महकाकर रहेगी। एक अनोखी सी ज्योति उसके अंदर से फूट पड़ी।
किरन के पैर भारी होते ही दिल बल्लियों उछलने लगे। उसके परिवार में यह प्रथा थी कि प्रथम बार माँ बनने पर सतमासा ( गर्भ धारण करने के बाद सातवां महीना ) पूजा जाएगा। जिसमें भाई –बंधुओं के आशीर्वाद की बौछार माँ के लिए शुभ होती है। इसी प्रयोजन से उसने कुछ रिशतेदारों को निमंत्रित कर छोटे से उत्सव का आयोजन किया। मेहमानों ने देखा –एक पट्टे पर सिमिरन गोटे की साड़ी पहने बैठी है। बस महिलाओं ने ढोलक की थाप पर गाना शुरू कर दिया –
जच्चा का मुखड़ा दमके जैसे फूल गुलाब का
जच्चा ने बच्चा जाया जैसे मेमसाहब का।
किरन बड़ी बहन होने के साथ –साथ घर की बड़ी बहू भी थी इसलिए सबसे पहले सिमिरन की गोद में मेवा की कोथली और फल डाले, साथ में आने वाले शिशु के लिए उपहार देकर सिमिरन को आशीर्वाद दिया। अब तो देने वालों की झड़ी लग गई। उपहारों के ढेर पर उभरता एक मोहक मुखड़ा सिमिरन को दिखाई दिया जो कहने लगा –माँ, मैं आ रहा हूँ, मेरे चीजों को सँभाल कर रखना। ये प्यार की सौगातें हैं।
बड़ा अजीब –गरीब दृश्य था। शिशु का भार उठाने वाली भाग –भाग कर मेहमानबाजी कर रही थी और हल्की फुलकी बहन आराम से बैठकर बतिया रही थी। पहले –पहल तो आने वाले समझ न पाये कि माजरा क्या है पर जब उन्हें पता चला कि किरन बहन के सूने संसार में वात्सल्य का कोमल पौधा उगाना चाहती है तो वे उसकी प्रशंसा करने लगे।
समय पंख लगाकर उड़ गया। किरन ने चाँद से पुत्र को जन्म दिया। अस्पताल से घर आते ही उसने अपनी आँखों के तारे को बहन के हाथों मे थमा दिया। । सिमिरन न जाने कब से उसे लेने को पागल थी। किरन के स्वस्थ होते ही सिमिरन बच्चे के साथ चंडीगढ़ लौट गई। उनके जाने के बाद किरन बड़ा खालीपन महसूस करती। पड़ोस में किसी बच्चे के रोने की आवाज सुनती तो बेचैन हो जाती –कहीं सिमिरन उसके बेटे को सता तो नहीं रही। बाद में उसे अपनी सोच पर ही शर्म आने लगती। वह रोज किसी न किसी बहाने फोन करती –सिमिरन यह कर लेना, वह कर लेना –हाँ बच्चे की नजर उतारना न भूलना। एक बिछुड़ी माँ की हजार बातें थीं।
बालक का नाम रखा गया दीपक जिसने कोना –कोना उजास से भर दिया था। उसकी तुतलाहट और भोली बातों से सिमिरन और भानु के दिन सुनहरे और रातें चांदी सी हो गईं।
दीपक की पहली वर्षगांठ पर ज्ञानु और किरन अपने बच्चों सहित चाडीगढ़ पहुँच गए। सिमिरन को तो अपने लाडले से फुर्सत ही नहीं थी। यह देख किरन को संतोष ही हुआ और उसने गृहस्थी का पूरा काम सँभाल लिया। बेटे की अच्छी परवरिश की खातिर सिमिरन ने लगी लगाई नौकरी छोड़ दी और घर बैठे ही कंसलटेनसी का काम करने लगी। इत्तफाक से उसे एक दिन दिल्ली जरूरी मीटिंग के लिए जाना पड़ा। सुबह जाकर शाम को ही लौटना था। परंतु समस्या यह थी कि दीपक को उसके पीछे से संभालेगा कौन?वह तो अपने पिता के हाथ से भी दूध नहीं पीता था। किरन ने आश्वासन दिया –तुम बेफिक्र होकर जाओ। मैं तो हूँ।
सिमिरन चली तो गई पर उसका जी दीपक में ही पड़ा रहा। इधर सुबह के आठ बजे दीपक सोकर उठा और सारे घर में माँ को ढूंढ आया। किरन ने बड़े प्यार से उसे गोद में लिया और घायल हिरनी की तरह अपने छौने को कलेजे से लगा लिया। दीपक इसके लिए तैयार न था। वह तो हिचकियाँ भरकर रोने लगा। अब तो सब पुचकारते –बहलाते थक गए। उसने दूध की एक बूंद हलक से नीचे नहीं उतारी। बच्चा भूखा तो माँ भूखी –किरन से भी कुछ नहीं खाया गया। हारकर उसने फोन खटखटा ही दिया –सिमिरन, दीपक सुबह से भूखा है। काम खतम होते ही जल्दी आ जाओ।
वह मीटिंग में बैठने ही वाली थी कि किरन का फोन आ पहुँचा। वह उल्टे पाँव लौट पड़ी। उसने तुरंत टैक्सी मँगवाई और बारह बजे तक घर पहुँच गई। उसे देखते ही भानु तो बौखला ही गया –अरे तुम यहाँ –इतनी जल्दी काम खतम हो गया!
-काम तो बाद में होता रहेगा। मेरा बेटा कहाँ हैं? पूछती हुई सिमिरन अंदर की ओर दौड़ी। उसने उसे अपने सीने से ऐसे चिपका लिया मानो माँ –बेटे को बिछुड़े सदियों बीत गई हों। दीपक ने अधखुली आँखों से अपनी माँ को देखा और माँ –माँ कहता उसके आँचल में छिप गया। माँ –बेटे के मिलन को देखकर किरन सोच रही थी –दीपू बहुत भाग्यशाली है जो उसने सिमिरन जैसी माँ पाई। बच्चे की खातिर उसकी बहन अपना काम अधूरा छोडकर चली आई। शायद वह ऐसा नहीं कर पाती।
उसको सोच में पड़ा देख ज्ञानु समझ गए कि उनकी पत्नी के दिमाग में क्या चल रहा है। वे भी बिना बोले न रह सके –किरन तुम देवकी हो तो सिमिरन यशोदा मैया से कम नहीं। माँ होने के लिए जरूरी नहीं कि 9 मास तक गर्भधारण किया जाए। जो स्नेह के जल से नन्हा पौधा सींचे, अपनी ममता की खाद उसमें डाले, सर्दी –गर्मी सहते हुए रात –दिन उसकी देखभाल करे वही सच में माँ है।