देवदूत / अलका सैनी
तरह-तरह के विचारों की उधेड़-बुन में रेवती ने अपने बॉस के कमरे में प्रवेश किया, इससे पहले कि वह कुछ कहती, उसके बॉस प्रशांत ने रेवती को बैठने के लिए कहा और बेल बजाकर चाय मंगवा ली।
“सर, मै आपसे कुछ कहना चाहती हूँ“, हिचकिचाते हुए रेवती बोली।
“मै भी कई दिनों से तुमसे कुछ कहना चाहता था। मै तुम्हारी बहादुरी से बहुत प्रभावित हूँ। तुम ना केवल प्रतिभावान हो बल्कि बहुत गुणवान भी हो। मै चाहता हूँ "। कहते-कहते वह रुक गया
कुछ देर कमरे में शान्ति छायी रही फिर गहरी सांस भरते हुए प्रशांत ने फिर से कहना शुरू किया।
“रेवती मै तुम्हे चाहने लगा हूँ और तुमसे शादी करना चाहता हूँ पर शायद दूसरी बिरादरी का होने के कारण तुम्हारे घर वाले मुझे पसंद न करे "
रेवती तो खुद प्रशांत से यही बात करना चाहती थी जैसे उसके मन की बात उसने बिना कहे भांप ली हो।वह मन ही मन भगवान् को धन्यवाद देने लगी कि वो तो बहुत पहले से ही प्रशांत को अपना मान चुकी थी।
“सर, आप तो जानते हो कि मेरे घर वाले बहुत रूढ़िवादी हैं और ऊपर से मेरे साथ उस रात का वाकिया जो कि मेरे जीवन के लिए अभिशाप बन गया है “यह कहते ही रेवती ने रोना शुरू कर दिया।
“उस रात वाली घटना में तुम्हारा कोई कसूर नहीं। बल्कि तुम्हे तो तुम्हारी बहादुरी के लिए मेडल मिलना चाहिए।रेवती घबराओ मत, जब तक तुम्हारे घर वाले इस शादी के लिए तैयार नहीं होंगे मै तुम्हारा इन्तजार करूँगा। उस घटना को एक बुरा सपना समझ कर भूल जाओ। और अब हमारे में कोई औपचारिकता नहीं है मुझे सर मत कहा करो "
रेवती बचपन से ही बहुत ही शरारती लड़की थी, हर किसी से चाहे वह अखबार वाला हो, दूध बेचने वाला हो, सब्जी वाला हो या फिर पोस्टमेन हो सभी से बेझिझक दिल खोल कर बातें कर लेती थी। उसकी दुनिया में आदमी हो या औरत सब सज्जन लोग थे।लड़कों के साथ साइकिल चलाना, कंचे खेलना उसकी रोज की दिनचर्या थी और जब कभी साइकिल से गिर जाती या फिर कंचे खेलती हार जाती थी तो सब लड़के उस पर हंसने लगते थे।उस पर उसे इतना गुस्सा आता था कि वह उन्हें खूब बुरा भला कहती। एक बार लड़कों के साथ मुकाबला करते तेज रफ़्तार से साइकिल चलाते हुए गिरने से उसकी हाथ की हड्डी भी टूट गई थी, आखिर थी तो नाजुक ही पर करना चाहती थी लड़कों से मुकाबला। कुल मिलकर वह अत्यंत साहसी लड़की थी और नेतृत्व करने के भी सारे गुण उसमे विद्यमान थे। मगर समाज में लड़के और लड़की को लेकर फैले हुए विभेद के कारण उसके मन में विद्रोह की ज्वाला भी धधकती थी। उसे बहुत खराब लगता जब उसकी माँ उसके भाई को हर समय कान्हा-कान्हा कह कर पुकारती उसके पीछे-पीछे घूमती रहती। जब रेवती को अपनी माँ की बातों पर गुस्सा आता तो उसकी माँ उसे सफाई देते हुए कहती,
“तुम तो शादी करके पराये घर चली जाओगी क्योंकि लडकियां तो होती ही पराया धन है तब हमारे बुढ़ापे की लाठी तो मेरा कान्हा ही बनेगा “
रेवती मन ही मन कुढ़कर रह जाती।उसके बालमन में इस विभेद को लेकर एक आक्रोश पनपता जा रहा था जिसकी खबर उसे स्वयं भी नहीं थी। उसके पिताजी अक्सर उसके खिन्न हुए चेहरे को भांप लेते थे और उसे सात्वना देते हुए कहते थे,
“रेवती बेटे, तुम अपनी माँ की बातों का बुरा मत माना करो, तुम्हे पता तो है वह पुराने जमाने की है और आजकल के बदले समय में भी उसके दकियानूसी विचार बदले नहीं है "
पिता की बातें सुनकर उसे कुछ तसल्ली मिल जाती और वह पिता के सीने से चिपक जाती और मन ही मन सोचती कि हर लड़की को ऐसे ही पिता मिले।
पढ़ाई में भी होशियार होने के कारण रेवती ने अच्छे अंकों में शहर के कालेज से कामर्स में बी.कॉम. की डिग्री हासिल कर ली और साथ वाले ही शहर में एक बैंक में उसे नौकरी भी मिल गई। पर जैसे ही उसने अपनी नौकरी की खबर घर में बताई तो एक तूफ़ान-सा आ गया हो जैसे। उसकी माँ तो बिल्कुल भी उसे बाहर भेजने को तैयार नहीं थी। काफी मुशक्कत करने के बाद उसके पिताजी के बीच-बचाव करने के कारण जैसे-तैसे उसकी माँ तैयार हो गई। नौकरी के साथ-साथ उसने पत्राचार से अपनी आगे की पढ़ाई भी जारी रखी। स्वतंत्र विचारों की होने के कारण नौकरी के साथ उसमे काफी बदलाव आ गया। अब वह अपने मन मुताबिक़ आधुनिक परिधान पहनने लगी और अपने आफ़िस के स्टाफ के साथ बैंक के काम के सिलसिले में लोगों से मिलने बाइक पर इधर-उधर जाने लगी। रेवती की इच्छा थी कि वह समय आने पर अपने विवाह का खर्च भी खुद ही उठाये जब कि उसके पिता बैंक में मैनेजर थे पर फिर भी वह माता-पिता पर किसी तरह का बोझ नहीं डालना चाहती थी।
रेवती की पढ़ाई पूरी होते ही जात बिरादरी वाले उसके माता-पिता को बिन मांगे सलाह देने लगे कि रेवती अब जवान हो गई है इसलिए जल्द ही उसके हाथ पीले कर दो वरना आज कल के जमाने का क्या भरोसा। रिश्तेदारों के बार-बार कहने पर उसके माता-पिता को भी उसके विवाह की चिंता होने लगी। एक बार उसकी माँ ने रिंकी से अकेले में कहा, “रेवती अब तो तुम्हारी पढ़ाई भी पूरी हो गई है और अच्छी नौकरी भी कर रही हो तो हम सोच रहे है कि कोई अच्छा सा लड़का देखकर तुम्हारी शादी कर दे, तुम्हारा क्या विचार है?"
"मेरी शादी के लिए इतनी चिंता क्यों कर रही हो, मेरे से जल्द पीछा छुड़ाना चाहती हो ना! आज तक तो मेरी चिंता की नहीं।जब मै अच्छे से सेट हो जाउंगी तो अपने बलबूते पर अपनी शादी कर लूंगी आज के बाद मुझे शादी के बारे में कभी मत पूछना।"
बहुत ही कर्कश आवाज में रेवती ने अपनी माँ को जवाब दिया।शुरू से रेवती के मन में अपनी माँ के रवैये के कारण आक्रामक तेवर घर चुके थे। वह मन ही मन सोचा करती थी कि अगर उसके बेटी होगी वह अपनी बेटी से कभी भी इस तरह का बर्ताव नहीं करेगी।
उसकी माँ बात-बात पर रेवती पर छीटाकशी करने से बाज नहीं आती थी, “तुम्हारे जैसी लडकियां जब ससुराल जायेंगी तो खानदान की नाक जरुर कटवायेंगी। तुम्हे तो कोई भी बात कह दो तो गुस्से से आग बबूला हो जाती हो। माँ होने के नाते तुम्हारे विवाह की चिंता मै नहीं करुँगी तो क्या पड़ोसी करेंगे? "
रेवती से भी रहा नहीं जाता था, “माँ, तुम तो हर समय ऐसी बातें करती हो जैसे मेरी सौतेली माँ हो। पिताजी से भी समय-असमय झगडा करती रहती ही और रानी सती की तस्वीर के सामने बैठकर सारा दिन रामचरित मानस पढ़ती रहती हो। कभी भी समय निकाल कर धैर्य से किसी के मन की बात जानने की भी कोशिश की है और बचपन से ही अपने दकियानूसी विचारों के कारण मेरे साथ पक्षपात करती आई हो "
ये सब बातें सुनकर उसकी माँ एक कोने में बैठ कर रोने लगती और भगवान् से मन ही मन प्रार्थना करने लगती कि भगवान् रेवती को सन्मति कब देगा।
ऐसे ही हर समय माँ-बेटी के बीच में अंतर्कलह चलता रहता था।कई बार उसके पिताजी के हस्तक्षेप के बावजूद भी कोई समाधान नहीं निकल पाता था।
एक जीवन की घटना ने रेवती के जीवन को इस कदर बदल दिया जिसकी उसने कल्पना भी नहीं की थी।उसका घर शहर से दूर एक अलग-थलग जगह पर हवेलीनुमा बना हुआ था। आस-पास कोई भी और घर नहीं बना हुआ था। बस आस-पास खेत, कुछ कंपनियों के मुख्यालय और कुछ वर्कशाप आदि थे जो कि रात के समय बंद हो जाते थे।रेवती हर छुट्टी को अपने घर आ जाया करती थी इसलिए अगले दिन रविवार था इसलिए वह अपने घर पर ही थी। उस रात को कुछ सेंधमारों ने उसके घर की खिड़की से दबे पाँव उसके घर में प्रवेश किया।घर में तीन-चार बड़े हाल नुमा कमरे बने हुए थे। एक कमरे में उसके माता-पिता और और एक कमरे में उसका छोटा भाई और तीसरे कमरे में वह सोई हुई थी।रेवती वाले कमरे में एक बड़ी सी अलमारी पड़ी थी।चोरों ने बारी-बारी सब कमरों की सेंध ली। रेवती के कमरे को छोड़कर उन्होंने सारे कमरे बाहर से बंद कर दिए और रेवती वाले कमरे की अलमारी तोडनी शुरू की।एक चोर रेवती के मुँह में कपड़ा ठूंस कर उसे बाँधने लगा तो रेवती की नींद खुल गई, रेवती की समझ में कुछ नहीं आया पर उसने उस चोर के हाथ को काट लिया तो दर्द के मारे चोर ने रेवती के मुँह पर जोरदार तमाचा मारा। रेवती को मुकाबला करता देख दोनों चोर मिलकर उसे मारने लगे।
रेवती ने तुरंत ही हकीकत को भांप लिया। उसे लगा कि वह किसी घोर मुसीबत में है। उसे लगा कि चोरों ने उसके माता-पिता और भाई को या तो बेहोश कर दिया है या फिर उनकी जान खतरे में है। ऐसा सोचते ही कि शायद अब उसे अकेले ही इनका मुकाबला करना है एक अनजान शक्ति उसके शरीर में प्रवेश कर गई। उसने जोर-जोर से चिल्लाते हुए पास में पड़ी एक लाठी से चोरों पर प्रहार करना शुरू कर दिया। चोरों को इस तरह के मुकाबले की एक लड़की से बिल्कुल उम्मीद नहीं थी इसलिए वह घबरा गए और वहाँ से नौ दो ग्यारह हो गए।रेवती का सर चकरा रहा था। चोरों को भागता देखकर वह बरामदे तक गई और अपने माता-पिता के कमरे की चिटकनी खोलकर वहीँ बेहोश होकर गिर गई। इतनी देर में रेवती की आवाजें और शोर गुल सुनकर उसके माता-पिता जाग गए थे और दरवाजा खोलने का भरसक प्रयास कर रहे थे। वे अपनी फूल-सी कोमल लड़की को इस तरह देखकर घबरा गए। सारा माजरा समझते ही वह सोच में पड़ गए कि आखिर उनकी बेटी ने किस तरह से खतरनाक गुंडों का सामना किया होगा। रेवती की सांस तो चल रही थी परन्तु आँख और चेहरे पर लगतार प्रहार के कारण चेहरा नीला पड़ गया था और गर्दन पर भी तमाचे के निशान पड़ गए थे।
सुबह होते-होते घर पर पुलिस आ गई और तरह-तरह की तहकीकात करने लगी। रात की घटना की बात सब जगह आग की तरह फ़ैल गई और उनके घर पर मित्रों, रिश्तेदारों और पड़ोसियों का तांता लगना शुरू हो गया। लोग आपस में तरह-तरह की बातें करने लगे। कोई रेवती की हिम्मत की दाद दे रहा था तो कोई चोरों को कोस रहा था तो कोई चोरी के माल के बारे में जानने को उत्सुक था। किसी-किसी को आज कल के समय में जान माल को लेकर अनिश्चितता सता रही थी।इस तरह हर कोई अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त कर रहा था। कोई-कोई तो रेवती को ही कसूर वार ठहरा रहे थे।
लोग बातें कर रहे थे कि इतने अच्छे कपड़े बाहर पहन कर जाएगी तो आवारा लोग तो पीछा करेंगे वरना इसके यहाँ होने पर ही चोर घर में क्यों घुसेंगे। आज तक तो कोई आया नहीं घर में चोरी करने।जितने मुँह उतनी बातें थी। रेवती के कानों में भी सब बातें पड़ रही थी।डाक्टर ने रेवती की मरहम पट्टी कर दी और उसे आराम करने की सलाह दी। उसके बैंक में जब बात पहुँची तो उसके साथी लोग उसका हाल-चाल पूछने उसके घर पर आए।सभी सहानुभूति जता रहे थे और रेवती की बहादुरी की तारीफ़ भी कर रहे थे। उसके बॉस प्रशांत ने तो उसकी तारीफ़ में यह तक कह दिया,
“रेवती तुम तो रियल हीरो हो।मुझे नाज है कि तुम्हारे जैसी बहादुर लड़की हमारे बैंक में काम करती है।"
प्रशांत की प्रशंसा पाकर रेवती को बहुत आत्मबल मिला जिससे ना उसके बाहरी घाव भरने में मदद मिली बल्कि उसके बेचैन मन को भी बहुत तसल्ली मिली।
एक दिन जब वह बाज़ार अपने पिताजी के साथ कुछ जरुरी काम से गई तो एक दुकानदार से बोले बिना रहा नहीं गया, “गुप्ता जी, क्या यह वही लड़की नहीं है जिसके लिए कुछ आवारा गुंडे घर में घुस आए थे कोई अप्रिय घटना तो नहीं घटी?”
"नहीं ऐसी कोई बात नहीं है “ऐसा कहते हुए रेवती के पिता ने दूसरी दुकान की तरफ रुख कर लिया मगर रेवती का संवेदनशील मन तड़प उठा।
उधर दूसरी तरफ उनकी बिरादरी के कुछ लोग खड़े थे, उनको आता देख उसके पिता से कहने लगे, “इस हादसे के बाद आप कितना भी दहेज़ खर्च कर लो मगर आपकी बेटी की शादी अब बिरादरी में होना तो काफी मुश्किल है “
रेवती के मन में एक-एक बात शूल की तरह चुभ रही थी कि क्या यही समाज है? कि उसकी हिम्मत की दाद देने की बजाय कितनी कडवी बातें मुँह से निकालने से बाज नहीं आते है। उसे जात बिरादरी के नाम से नफरत होने लगी कि ये समाज के ठेकेदार है क्या?। उसे लगा कि इससे अच्छा उसकी जान ही चली जाती उस दिन तांकि उसके माता-पिता को उसकी वजह से शर्मिंदगी भरी बातें तो ना सुननी पड़ती।
ये सब बातें सुन-सुनकर रेवती के कान पक गए थे इसलिए उससे रहा नहीं गया और अपने पिता से बोली, “चलिए पिताजी, घर चलिए, बस हो गई जितनी खरीदारी होनी थी"
“रुको रेवती, पहले पूरा सामान तो लेले, तुम्हारी मम्मी ने जो सामान की लिस्ट दी थी उसमे से अभी काफी चीजें बाकी है “
"रहने दो पिताजी, बाद में ले लेना मेरे सर में दर्द हो रहा है "
उसे अपने सर में भारीपन महसूस हो रहा था और जी मिचला रहा था। घर जाते ही किसी से बिना कुछ कहे वह औंधे मुँह बिस्तर पर लेट गई। पिताजी को इस बात का अहसास हो गया था कि सबकी बातों की वजह से ही रेवती का मन उदास हो गया था। उसके पिताजी के कहने पर उसकी माँ ने कमरे में जाकर रेवती को समझाने का प्रयास किया,
“देखो रेवती बेटे, दुनिया वालों की बेसिर पैर की बातों का बुरा नहीं मानते। लोगों को तो बातें करने का कोई ना कोई बहाना मिलना चाहिए “।
रेवती ने अपनी माँ की बातों पर कोई प्रतिक्रिया नहीं जताई। उसके भीतर तो लोगों की बातों के कारण अपनी अस्मिता को लेकर एक भयंकर तूफ़ान उथल-पुथल मचा रहा था।बचपन से लेकर अपनी माँ के पक्षपात व्यवहार से लेकर, घर में माता-पिता के बीच घरेलु झगडे, और अब बिरादरी वालों की घटिया टीका-टिपण्णी से वह भीतर ही भीतर टूटती जा रही थी। उसे अपनी बिरादरी के ठेकेदारों से नफरत हो गई थी। उसके लिए कई अच्छे-अच्छे रिश्ते भी आए पर उसने अपनी दकियानूसी बिरादरी में शादी करने से साफ़ इनकार कर दिया।
रेवती की इस तरह की आक्रोश भरी बातें उसकी माँ ने कभी नहीं सुनी थी। उसे रेवती के व्यवहार पर क्रोध भी आ रहा था उस पर दया भी आ रही थी मगर उस नाजुक समय में उसने चुप रहना बेहतर समझा। अपनी माँ को चुप हुआ देखा कर रेवती ने सब घर वालों के सामने ऐलान कर दिया, “आप सभी मेरी शादी की चिंता छोड़ दे, मैंने अपनी पसंद का वर ढूँढ लिया है "
“अपनी पसंद का वर? “क्या कह रही हो? उसके पिता ने हैरान होते हुए कहा “कौन है वह? "
“समय आने पर सब बता दूंगी, बस यही कि वह अपनी जाति का नहीं है "
यह सुनकर उसके पिता का कलेजा तो फटने को हो गया ऊपर से वे हृदय रोगी थे। इकलौती बेटी का इस तरह का निर्णय सुनकर उनके पसीने छूटने लगे। क्या रह जाएगी उनकी जात बिरादरी में इज्जत? यही कि एक उच्च अधिकारी होने के बावजूद भी अपनी बेटी का विवाह अपनी जाति में नहीं करवा सके। सभी लोग यही ताना मारेंगे ना कि बिरादरी में लड़कों की कमी पड़ गई जो इस तरह की हिमाकत कर रहे हैं।यही सब सोचते-सोचते पिता का चेहरा पीला पड़ने लगा और वह गश खाकर नीचे गिर गए। सबने मिलकर बड़े प्रयास के साथ उन्हें किसी तरह बिस्तर पर आराम करने के लिए लिटाया और रेवती को समझाने लगे, “देखो रेवती तुम्हारे पिता एक तो पहले से ही हृदय रोगी है और ऊपर से तुम्हारी जाति के बाहर शादी का निर्णय वह बर्दाश्त नहीं कर पायेंगे ऐसा ना हो कि उन्हें कुछ हो जाए "
“हर बात आप लोग मेरे सर पर क्यों थोप देते हो। हर गलत बात की मै ही जिम्मेवार क्यों बन जाती हूँ लड़की हूँ इसीलिए ना...."
“जो मेरी किस्मत में लिखा होगा मै सहन कर लूँगी। मुझे वैसे भी सब कुछ सहन करने की आदत पड़ गई है “रेवती ने बड़े ही रूखे स्वर में उत्तर दिया।
रेवती के इस उत्तर ने घरवालों को स्तब्ध कर दिया।और उन्होंने उसे दुष्ट, कुल्टा ना जाने क्या-क्या कहकर संबोधित किया और वहाँ से चले गए
अब रेवती अकेली रह गई थी। उसने अभी तक अपने मन की बात किसी से नहीं कही थी ना ही उसने कोई लड़का देख रखा था।वह एकांत में शांत होकर अपने मन को टटोलने लगी।रह-रह कर उसकी आँखों के सामने उसके बॉस प्रशांत का चेहरा घूमने लगा और उसे उनके कहे शब्द याद आ रहे थे कि "रेवती तुम एक बहादुर लड़की हो, मुझे तुम पर नाज है "।उसका बॉस प्रशांत उससे था तो दो साल ही बड़ा मगर अपनी प्रतिभा के बल पर वह बैंक का मैनेजर बन गया था। गोरा रंग, लम्बा कद, चेहरे पर गाम्भीर्य और होंठों पर सदा मुस्कराहट थिरकती रहती थी।मन ही मन वह अपने बॉस को पसंद करती थी और अब उस हादसे के बाद तो वह उनकी बहुत इज्जत भी करने लगी थी।रेवती जानती थी कि उनके परिवार वाले शुद्द शाकाहारी है और प्रशांत के परिवार में खाने-पीने को लेकर इस तरह की कोई रोक-टोक नहीं थी।अगर वह मान भी गया तो क्या सांस्कृतिक विभेद उनके रिश्ते में दरार पैदा नहीं करेगा।परन्तु वह इतने समय में प्रशांत को काफी जानने लगी थी कि वह बहुत समझदार इंसान है और कभी भी उसे मंझधार में नहीं छोड़ेंगे।
तभी कमरे में चपरासी चाय लेकर आ गया तो प्रशांत ने रेवती को चाय लेने को कहा, “रेवती, चाय लो। अरे, कहाँ खो गई हो? अपने दिमाग पर ज्यादा जोर मत डालो सब ठीक हो जाएगा।"
यह कहते-कहते प्रशांत उठकर रेवती के पास आ गया और उसने अपना हाथ रेवती के हाथ पर रख दिया।
“प्रशांत, आपका दिल कितना बड़ा है, सच में आप एक बहुत ही महान इंसान हो। इंसान की पहचान उसके व्यक्तित्व से होती है ना कि जात बिरादरी से “
रेवती के मन में माँ का खौफ, पिता की बिमारी, जात बिरादरी का डर, इत्यादि विचार उसके मस्तिष्क को कुरेद रहे थे। इस नाजुक समय में उसे लगा कि प्रशांत जैसे कोई मसीहा या कोई देवदूत बनकर उसके जीवन में आ गया हो जिसके लिए वह बरसों से इन्तजार कर रही थी।जिसे वह किसी कीमत पर ठुकराना नहीं चाहती थी। जो बिन कहे उसके मन को समझता था।उसका मन हो रहा था कि वह उसके क़दमों में अपना सर झुका दे और अपने जीवन की बागडोर हमेशा के लिए उसे सौंप दे।