देवदूत / राजा सिंह

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दद्दू ने मुझे बुलवाया था। किन्तु कुछ अप्रत्याशित कारणों से मैं जा न सका। वस्तुतः मैंने उन्हें उपेक्षित श्रेणी में रख दिया था। क्योंकि वे ईश्वर के देवदूत बन गए थे जो मुझे कतई नापसंद था। वे मुझे और शेखर को अपना शिष्य मानते थे परंतु मैंने कभी उन्हें गुरु का दर्जा नहीं दिया था। हालाँकि शेखर उनसे बहुत प्रभावित था। वह उसके बड़े फुफेरे भाई थे, हम दोनों की उम्र से करीब पंद्रह वर्ष बड़े। इस कारण से वह उन्हें बेहद सम्मान, प्यार, प्रणाम और गुरु मानता था और कभी भी आज्ञा उल्लंघन नहीं करता था। मैं भी शेखर की तरह उन्हें बड़ा भाई मानता और दद्दू कहने लगा था।

कई बार उनसे मिलने का मन किया था। अकसर घूमते हुए उनके स्थान की तरफ़ क़दम बढ़ जाते किन्तु एक हल्की-सी हिचक-सी उभर आती और मैं पूरी तरह उससे ढक जाता, क़दम वापस खींच लेता। दद्दू ने बाह्य सम्बंधों को पूरी तरह तिलांजलि देते हुए अंदर के सम्बंधों में प्रवेश करते हुए ऊपर से सम्बंध स्थापित कर लिए थे जो हमारी पहुँच से बाहर थे। उनके कहे को ही स्मरण करता हूँ... “किसी समय हम तीन तरह के सम्बंध बनाते है, हमारे बाहर, हमारे भीतर और हमारे ऊपर। बाहर के सम्बंध है सांसारिक और अंदर के सम्बंध आध्यात्मिक, तथा ऊपर के सम्बंध ईश्वर से। यह बात वागीश शास्त्री गुरु जी ने जीवन की सार्थकता के विषय में कही। उन्होंने बाह्य और आंतरिक सम्बंध पूर्णरूप से आत्मसात कर लिए थे अब सिर्फ़ ऊपर से सम्बंध विकसित करना रह गया है, जिसके लिए वे सतत प्रयत्नशील हैं-“... ऐसा उन्होंने कहा था। शेखर और मैंने स्वीकृति में सिर हिलाया था और यह जीवन की आधारभूत संरचना है समझ कर कंठस्थ की थी। किन्तु उनकी थ्योरी के अनुरूप ढालने में असफल रहे थे। मैंने अपने आप को ढीला छोड़ दिया था और जानबूझकर जाने से गुरेज करने लगा।

आज रविवार है। पार्क के एक कोने में अपने आप से झिझकता, सिकुड़ता बैठा हूँ। मुझे लगा कि मैं उनसे भाग रहा हूँ, जो ठीक नहीं है। मुझे उनका यह भ्रम भी दूर करना था कि आंतरिक और ऊपर के सम्बंधों के लिए मैं बहुत मुश्किल में हूँ और रहस्यमय ढंग से उन पर आश्रित हूँ। मुझे अपने भीतर एक अजीब-सी बेचैनी महसूस होने लगी।

मैंने मित्र शेखर को फ़ोन किया है। “तुम्हें कोई जल्दी तो नहीं है ?” उसने पूछा।

“नहीं... ! पुराने दिनों की आदत अब भी भीतर बची रह गई थी, मुझे दद्दू से मिलने के लिए उसके साथ की ज़रूरत थी। मैं कभी भी अकेले उनके पास नहीं गया था। यादों का एक झोंका आया और उड़कर ले चला।...हाँ दोनों उनसे कठिन संस्कृत पढ़ने जाया करते थे। वे संस्कृत विद्यालय के आचार्य थे। संस्कृत शब्दों, वाक्यों का सही उच्चारण सीखते थे। एक बड़े शब्दों-वाक्यों को ठहरकर टुकड़े कर के उचित उच्चारण किया जाता है वह बड़ी सहजता से सिखाते और बुलवाते थे। उन्होंने ईश्वर सम्बंधित कई श्लोक, मंत्र कंठस्थ करवा दिए। वे संस्कृत पढ़ाते कम थे किन्तु धर्म-कर्म-अध्यात्म के विषय में ज़्यादा कहते थे। वे भगवान शिव के उपासक थे और एक दिन उन्होंने हम दोनों को, ‘ऊँ त्रयंबक यजामहे सुगंधि पुष्टिवर्धनम। उर्वरूकमिव बंधनान मृत्योमुक्षीय मातृतात।‘ उन्होंने कहा, इस मंत्र का जाप करने से पित्रदोष, कालसर्प दोष, राहू-केतु तथा शनि की पीड़ा से मुक्ति मिलती है। इसे सुबह साँझ अवश्य जाप किया करें।‘ उनके सान्निध्य में हम अपने में कुछ विशिष्ट, असाधारण-सा अहसास होने लगा था।

दशहरे की रामलीला में वह रावण का पाठ याद किया करते थे। हम दोनों के लिए वह विशिष्ट पास का प्रबंध करते, हम दोनों अत्यंत प्रसन्न रहते थे। रावण के रूप में जब उन्होंने शिव तांडव स्तोत्र का सस्वर पाठ ... “जटाट्वी गलज्जलप्रवाह... से प्रारंभ करके जब अंतिम स्तोत्र ... इमं हिनित्यमेव मुक्त...“ किया। तो हम दोनों मंत्रमुग्ध होकर निहारते रह गए। हम दोनों उनके वाचन से इतने प्रभावित थे कि आगत हर बैठक में उनसे शिव तांडव स्तोत्र अवश्य सुनते। वे मुश्किल से पाँच मिनट लेते, अपनी ओजस्वी वाणी से और हम दोनों को अनुगृहित कर देते।

एक बार वे तपेश्वरी मंदिर में मिले। मैं माँ साथ देवी दर्शन करने हेतु आया था। वहाँ उन्हें पुजारी के रूप में देखकर बेहद आश्चर्य हुआ। मंदिर में दर्शनों हेतु काफ़ी भीड़ थी उन्होंने तुरंत दर्शन की व्यवस्था करवा दी। माँ भी उनसे प्रभावित हुए न रह सकी। मैंने पूछा तो हँसकर बोले, “यूँ ही खाली समय का सदुपयोग कर लेता हूँ।“ न जाने क्यों मेरे भीतर एक अजीब-सी झुरझुरी फैल गई कि शीघ्र ही हम उन्हें एक सामान्य व्यक्ति के रूप में खो देंगे...!

कुछ ही दिन बीते थे कि शेखर ने बताया कि दद्दू ने आचार्य-प्राचार्य की नौकरी छोड़ दी है। अब वे पूरे समय भगवान की सेवा में आ गए है। सुबह मंदिर में पंडिताई और शाम को मंदिर प्रांगण में भक्ति प्रवचन। फूफा की पंडिताई यजमानी चलती नहीं है। घर का ख़र्च चलना मुश्किल है। भाभी-बच्चे, बुआ-फूफा सब दुखी है, उनके कृत्य से। बुआ के घर मातम-सा पसरा-सा रहता है। “क्या करें? दोस्त एक दिन चलते है, उनका प्रवचन सुने-देखे ऐसा क्या कहते है, जो अन्यों से अलग है ?”

हम दोनों ने उनका भक्ति प्रवचन देखा-सुना। ज़्यादा भीड़ नहीं थी। इसलिए सहज ही उनकी नज़र में आ गए। वे कहा रहे थे- ‘सातों सुख सबको मिले, यह कठिन है। इसलिए सात में तीन-चार जितने भी सुख मिले उससे संतुष्ट रहना चाहिए। यदि अनंत सुख का उपभोग करना है तो प्रभु की शरण में आना ही श्रेयकर है॥ प्रभु का रास्ता बड़ा सीधा है और बड़ा उलझा भी। बुद्धि से चलो तो बहुत ही उलझा और भक्ति से चलो तो बहुत सीधा। विचार से चलो तो बहुत दूर और भाव से चलो तो बहुत ही पास। नजरों से देखो तो कण कण में और अंतर्मन से देखो तो जन जन में। स्वयं विचार कीजिए कौन फलदायी है।‘ मैं और रुक न सका। मुझे फूफा-बुआ और भाभी बच्चों के मुरझाए चेहरे, एक साथ दृश्यमान हो रहे थे।

अचानक मेरे मस्तिष्क में कुछ बेतुका विचार क्रोध गया। कुछ अन्यतम, बिल्कुल अलग सा, या प्रतिक्रिया- वश मैंने कक्षा नौ में क्रिश्चियन कॉलेज में अंग्रेज़ी माध्यम से प्रवेश ले लिया। कानपुर का वह ईसाई कॉलेज अंग्रेज़ी के मामले में बहुत सख्त नहीं था। आपस में हम हिन्दी में भी बात कर सकते थे, कोई प्रतिबंध नहीं था। सुबह की प्रार्थना यद्यपि बाइबल के नीति वचन से होती थी और उन्हें हिन्दी में हिन्दी के अध्यापक श्री भगवान दास कहते थे जिसे हम सब बच्चे दोहराते थे और सब कुछ तो याद न रहा किन्तु इसु के क्रॉस में कहे वचन अभी तक अंकित थे।... “हे ! परम पिता, इन्हें क्षमा कर, क्योंकि ये नहीं जानते की यह क्या कर रहे है?”... “जो सोच विचार के बुराई करता है उसे दुष्ट कहते है।“

शुरू से ही कक्षा में मेरे साथ में सरताज आलम, अल्बर्ट सुनील और राजेन्द्र सिंह मौना सिख जुड़ गए थे। हम चार थे और जमकर धमाल मचाते और गंभीरता से पढ़ते। हम लोगों के बीच एक नारा प्रचलित था- ‘खुदा की बाते ख़ुदा से करना, हमारा कोई ख़ुदा नहीं है।... ये जो हमको सजा मिली है, हमारी कोई ख़ता नहीं है।‘ ... हम ये जान गए थे कि ‘ईश्वर एक है और विभिन्न संस्कृतियों में भिन्न भिन्न तरह से पहचाना जाता है। इसलिए मेरे ईश्वर या तुम्हारे ईश्वर से जुडने की बात नहीं है, यह हमारे ईश्वर से जुडने की बात है...”

वे मिले थे। घर में ही थे। मुझे लगा की जैसे वे प्रतीक्षा कर रहे थे कि क्रिश्चियन स्कूल में जाने की कोई सफ़ाई दूंगा। हालाँकि ख़ुद मेरे लिए यह क्रिया बहुत ही अस्वाभाविक थी। किन्तु अब मैं प्रमाण सहित अपने को सही सिद्ध करने की ज़िद में था। वे चुपचाप खड़े थे।

मैंने उनके कृत्य (नौकरी छोड़ने) को अत्यंत अनिश्चित और कमजोर लहजे में प्रतिवाद किया। यह स्वाभाविक नहीं था। कोई अदृश्य ताकत मुझे रोक रही थी।

दद्दू हँसे, “तुम्हें ग़लतफहमी हुई है । मैं वह नहीं हूँ जिसे तुम जान रहे हो?” उन्होंने बड़े ही सहज और संयत स्वर में कहा। उनकी आँखों में अजीब-सी तसल्ली थी, जैसे यह बात कह कर, उन्होंने स्वयं अपने को तसल्ली दी हो !

मेरे दिल में संदेह अब भी था... दुविधा थी... ईर्षा थी... । मैंने उनकी नियति सूंघ ली थी। जिन लोगों को अपने माँ बाप से ज़्यादा देवी-देवताओं पर विश्वास हो उनका हश्र पागलखाने में ही होता है।

दद्दू अब विधर्मी लोगों को सनातन धर्म में लाने हेतु प्रयत्नशील हो गए थे। वे रविवार को केंट स्थिति चर्च जाते और हर शुक्रवार को रेल बाज़ार मस्जिद। प्रार्थना के बाद निकलती भीड़ में वह अपने सनातन धर्म को श्रेष्ठ बताते हुए वापस मूल धर्म में आ जाने को आग्रह करते। थोड़े दिनों तो विधर्मी भीड़ ने बर्दाश्त किया फिर उन पर पिल पड़े और उन्हें भुरता बना दिया।

जब मैं उनसे अस्पताल में मिला था, उन्हें समझने और समझाने की कोशिश की थी, वे एक क्षीण मुस्कराहट से लिप्त हो गए थे। दूर किसी अनजान बिन्दु पार टिकी उनकी सपनीली आँखें रह रह कर एक वहशी सोच-क्रोध से चमक उठती। बार-बार मुझे ख़्याल आता है और अचरज होता कि उनकी उपस्थिति से आसपास के लोग घर-परिवार के लोग प्रभावित क्यों नहीं होते? शायद वे सब उनकी परिधि के भीतर होते है, परिधि के बाहर के लोग नहीं।

दद्दू पगलखाने ले जाए गए थे। भयानक बात यह थी कि दद्दू मृत नहीं हुए थे, वे पागल हो गए थे। मृत व्यक्ति के आंतरिक रहस्य उसी के साथ दफन हो जाते है, किन्तु पागल व्यक्ति के रहस्य ज्ञात हो सकते है। किन्तु मृत और पागल का हम कुछ बिगाड़ नहीं सकते। अब वे धर्मी विधर्मी दोनों के लिए पागल थे।

मैं कल्पना भी नहीं कर सकता था कि प्रतिदिन की जीवन जीते हुए भी वह एक अलग दुनिया में रह रहे थे। हम सब से बाहर की दुनिया, जिसमें हम सब का प्रवेश असंभव था।

एक अरसा बीत गया था। शेखर से कभी बात हो जाती थी। दद्दू के विषय वह कुछ ठोस नहीं बता पाया था कि वह कहा है, कैसे है ? शेखर वही संस्कृत विद्यालय में हिन्दी का अध्यापक हो गया और मैं सिविल इंजीनियर आगरा में पोस्ट हो गया।

दद्दू समय की गर्त में खो गए थे। मैं सोचता कि उनके भीतर काफ़ी बीहड़ जंगल रहा होगा, जिसके अंदर हम दोनों प्रवेश नहीं कर पाए। क्या यह उनके सुख या दुख का अंत था ? बाह्य आंतरिक एवं ईश्वरीय संपर्कों की एक सीमा होनी चाहिए? जिसके पार जाना अतिरेक श्रेणी में आता है? कई प्रश्न ऐसे थे जिनका उत्तर दद्दू के पास होता, या शायद नहीं भी ? एक बार उन्होंने कहा था- ‘हम मानवीय नहीं आध्यात्मिक जीव हैं, आध्यात्मिक अभ्यास को जिसे साधना कहते है, समर्पित हुए अधूरा है। जैसे हमारे गंतव्य तक पहुँचने के अनेक रास्ते हैं, ईश्वर से जुडने के भी अनेक रास्ते है, जो धर्म और संप्रदाय की सीमाओं से आगे जाते है। कुछ लोग प्रार्थना का अभ्यास करते है, जो स्वानुभूति का सरल किन्तु बेहद प्रभावशाली तरीक़ा है। आध्यात्मिक शक्ति विकसित करने के लिए मेरा पसंदीदा तरीक़ा है ध्यान करना। इसका मतलब है, प्रतिदिन कुछ समय अपने मस्तिष्क को पवित्र विचारों पार केंद्रित करते हुए ईश्वर के नाम का मंत्र जपते हुए बिताता हूँ। इसके द्वारा हमें तनाव से मुक्ति मिलती है। हमारा उद्देश्य साफ़ हो जाता है, जिससे हम अधिक रचनात्मक हो जाते है। ध्यान का गंभीर प्रभाव यह है कि हमारे भीतर श्रेष्ठ गुण विकसित करता है और हम श्रेष्ठ से श्रेष्ठतम बन जाते है।‘

मेरे जेहन से दद्दू का ज्ञान पूर्णरूपेण ख़त्म हो चुका था। लेकिन अचानक वे दिख गए.।

पगलखाने में कुछ अतिरिक्त बैरकों का निर्माण होना था जिसके प्रारम्भिक सर्वेक्षण के लिए मैं गया था। उन पुरानी बैरकों से गुजरते हुए एक व्यक्ति पर निगाह टिक गई, रुक गई। कृषकाय शरीर और बुझी चेतना के ऊपर दमकती हुई आंखें कुछ अलग-सा आभास दे रही थीं। दुख तकलीफ और यातना से भरे पड़े उसके चेहरे पर फीका और धुँधला-सा आलोक अब भी विद्यमान था। पता नहीं ऐसा क्यों लग रहा था कि यह व्यक्ति बाह्य रूप से अदृश्य है किन्तु आंतरिक रूप से इसका अस्तित्व मेरे भीतर मौजूद है? कुछ पल उसे देखता रहा फिर आगे बढ़ गया।...

“जरा ठहरिए... !” एक पुकार। लगा कि ... एक निरीह अनुरोध...आवाज, मेरा पीछा कर रही है... आदी ... आदित्य...? मैं हैरान ... सचमुच में हैरान रह जाता हूँ। ... क्या दद्दू... ? मैं बहुत पीछे के वर्षों में लौट जाता हूँ... एक आवाज़ उभरती है- ‘तुम बेशक मुझे भूला दो मैं नहीं...’ वह आवाज़ हस्तक्षेप करती है जो अचानक दिल के अंधेरे कोने से निकाल कर, मुझे प्रताड़ित करने लगती है। दहकने लगता हूँ ... पुरानी छुअन की याद डँसने लगती है।

वापस उनकी तरफ़ लौटते हुए एक अजीब-सा सुख हुआ कि वह वही है... दद्दू... !

मैं उसके निकट आता चला गया इतना निकट कि... हम दोनों के चेहरे इतने पास थे कि अन्यों के शोर बावजूद, मैं उन्हें सुन सकता था।

“मैं पागल नहीं हूँ !” उन्होंने चेताया।

मैं कुछ देर चुपचाप उन्हें घूरता रहा, जैसे यक़ीन करना चाहता हूँ।

“तुम मुझे यहाँ छोड़कर जा नहीं सकते।‘ उन्होंने मरी आवाज़ में कहा।

एक बारगी लगा कि मैं कमजोर, असहाय, त्रस्त चेहरे को तोड़ दूँ संदेह अनिश्चय से मेरे स्वर में एक तनाव खिच आया था दद्दू ?

“हाँ... ।... मैं यही रहूँगा...? इस बार उनके होंठ एक अप्रत्याशित हंसी में फैल गए। उस हंसी में एक विवश निरीहता छिपी थी। मुझे ओशो रजनीश का कथन याद आया... “दुनिया में सबसे सफल इंसान वही है, जिसे टूटे को बनाना और रूठे को मनाना आता है।“

मैं दहल गया था और उन्हें वहाँ से आज़ाद कराकर अपने घर ले आया। मुश्किल से एक दो दिन ही बीते थे कि वह कानपुर जाने के ज़िद करने लगे। रोकना मैं भी नहीं चाहता था किन्तु अपने साथ और कुछ ठीक हो जाने के बाद। यहाँ उनके अकेलेपन में तीव्र आकांक्षा होती है कि उनके अकेलेपन में झांककर देख सकूँ। क्योंकि तब मुझे अजीब-सा भ्रम हुआ था कि वह उन अकेले लोगों में है, जो अकेला होने पर भी सारी दुनिया साथ लेकर चलते है।

एक अर्धरात्रि को वह फिर लापता हो गए। यह वही रात थी जब मैंने उनसे पूछा था, दद्दू ऐसा क्या था कि आप को विश्वास आया था कि आप देवदूत है, आपको देवत्य या ईश्वरत्व प्राप्त है? वह मुस्कराने लगे, पर उनकी आँखें मुझ पर थीं। वे मुझे ध्यान से पढ़ने लगे, उनमें एक आश्वासन था।

‘वह नींद नहीं थी स्वप्न या दिवास्वप्न भी नहीं...। उनकी आवाज़ कही दूर आती-सी लगी...’मौत, पहले मैंने सोचा हत्या... ? बलात्कार ...ये नहीं... नहीं? पूरे कमरे को आलोकित करती सामने जो खड़ी है, अवश्य वह स्वर्ग की देवदूत होगी ? उसे भरपूर देखने के लिए मैंने कोशिश की, भारी आँखों ने एक बार फिर देखा वह नहीं थी। जब वह देवदूत नहीं है तो वह मरा भी नहीं है। फिर क्या वह सदेह स्वर्ग में है ? विश्वास नहीं आता... वह स्वर्ग था और उसे देवदूत नियुक्त किया गया है? निश्चय ही उसे अपनी सूरत देवदूत-सी लगी। देवदूत का ख़्याल आते ही उसके आधे सोये दिमाग़ को झिंझोड़ दिया। आश्वस्त होते ही उसने आंखें खोल दी और अपने को देवदूत होने की घोषणा कर दी। किन्तु स्वर इतना धीमा था कि किसी के लिए सुनना मुश्किल था। माँ ने धीमी आवाज़ सुनने के लिए उसके चेहरे के पास खिसक आई, अपना मुख उसके चेहरे के ऊपर झुका लिया। एक लंबी सांस खींचकर अपनी जलती अनकहे खोल दी। आश्चर्य अपनी हालत से ज़्यादा उनके अविश्वास पर दिलचस्पी हो रही थी... कौन-सा तरीक़ा बच रह गया है अपने भ्रमजाल में डोलते-विचरते रहने का ?बच्चा बाहर आओ, इसी दुनिया में रहो।... मेरे मन में बेचैनी दौड़ गई। मैंने कहा फ़िक्र मत करो। सब ठीक होगा ! ...

कुछ ही पल गुजरे थे कि परत दर परत वह आच्छादित पारदर्शिता रूप में सामने खड़ी थी॥ उनकी बर्फीली नज़र धुँधलकें पर प्रहार को प्रस्तुत, सितारों में भटकती, उसे जकड़ती हुई, फिर दर्द से तनी नसों को सहलाती-दुलारती राहत भरी, अँधेरे की परत दर परत गिरते हुए जाल की मरीचिका ... भ्रांति, निंद्रा, दुखद-सुखद छवि जिस पर आहिस्ता-आहिस्ता बढ़ता सुकून।... उत्तेजित हो उठा।... सोने और जागने के फ़र्क़ को भूल गया और समय के झुरमुटों पर ठहरी उसकी आवाज़ को कहते सुना... “हूँ...”... पर ऐसे ही दूर होती आवाज़ ने कहा, “देवदूत हो तुम।” कही दूर से आती उसकी आवाज़ की स्वीकारोक्ति ने बाँधकर देवत्व दिया। ... आँख खुलते ही उसने अग्नि देखी... नरक की आग... धूँ...धूँ... धकधकती ज्वाला... परिपक्व अग्नि शिखाए... कहीं कहीं नीली लौ... लगा कि वह उसमें गिरता जा रहा है। कोई धकेल नहीं रहा है... वह सहज स्वाभाविक रूप से उसमें प्रवेश कर रहा है... वह जल रहा है किन्तु कोई कष्ट नहीं है... आग की सुर्ख लपटों और चका-चौध के बीच वह दूसरे छोर पार निकल आया है। वह जला नहीं था बल्कि और स्वच्छ होकर बाहर निकला है ... नहीं, वह मरा कदापि नहीं... वह देवदूत बन गया है। भीतर से चीख उभरी पर कोई शब्द नहीं हुआ।...

विशाल समुद्र ... पानी का दायरा बढ़ रहा है पर उसके भीतर निर्द्वंद्व पानी समाता जा रहा है... सागर की विशालकाय ऊँची ऊँची लहरे उसे समेटे भीतर और भीतर खींच कर तलहटी में खड़ी कर देती है... नीले परिधान में सजी देवदूत उसी का स्वागत करने को खड़ी है... उससे एक ही ध्वनि उच्चारित होती है तुम देवदूत हो...चंद क्षणों में वह किनारों में था, बिना भीगा बगैर गीला। क्योंकि वह देवदूत है। फिर वह दिखाई देता है हिमालय के ऊतुंग शिखर पर धवल हिमराशि के विशाल ढूह पर और उसमें वह नंगे वदन, शिव आराधना करता हुआ। हिम सुंदरी उसे प्रमुदित निहार रही है... इसके अंदर कोई जी रहा है... वह धीमे से हंसा। इतनी ठंड में वह मर नहीं रहा है बल्कि भावावेश में उसका ग़ौर वर्ण एक तीखी चमक के साथ उभर रहा है... वह कोई देवदूत तो नहीं... ?... निश्चय ही... हिमसुंदरी आश्वस्त करती है। भयभीत, पुलकित, सम्मोहित वह उसको देखता रह जाता हूँ। उसकी चाल में एक अजीब-सा चेतन पैनापन था। उनका लिया हर क़दम एक कंपकंपाते रहस्य-रोमांच से भरा था। जिसकी विद्युत तरंगे उनके शरीर से फूटकर मेरे शरीर को झंझनाएँ दे रही थी। इतने अभिभूत चेतन भाव से आज तक मैंने किसी की मौजदगी महसूस नहीं की थी। उसकी उपस्थिति मुझ पर सदैव की तरह हावी हो चुकी थी। मैंने उसका विश्लेषण करना ही नहीं, सोचना भी बंद कर दिया था। मंत्र-मुग्ध मैं वही करता जा रहा था जो वह करती या वह जो करवाना चाह रही थी।... फिर बोझिल पलकों ने साथ छोड़ दिया था।

सुबह पत्नी ने बताया, ‘वे नहीं है।‘ मैंने उन्हें वहाँ ढूँढ़ने की कोशिश नहीं की। मैंने शेखर से पूछा उसने बताया कानपुर में नहीं है... जब कोई आदमी ज़िन्दगी से बहुत बहुत प्यार करता है तो उसके लिए मरना बेहद दुरूह होता है। कुछ लम्हों के लिए देवदूत मिल भी जाए तो और बात है, पर देवदूत ज़्यादा लमहों के लिए नहीं होते, यह सोचकर मैं हंसा।

मैं लखनऊ में था। पत्नी की ज़िद के खातिर शनि मंदिर आया था। शनि देवता पर तेल चढ़ाने। किसी ज्योतिषी ने बताया था कि मेरी प्रगति रुकी हुई है। उसे गति देने के लिए यह आवश्यक है। मंदिर प्रांगण के एक कोने में स्थिति चबूतरे पर वे दिखे। कोई ज्योतिष पत्रा देख रहे थे। यकायक मुझे सामने देखकर उनकी आँखों में गहरा विस्मय छलक आया।

“दद्दू...! आप बिना बताए चले आए ? मैंने बहुत ही कोमल स्वर में शिकायत की।

“आपने हमें सेवा का मौका ही नहीं दिया।“ पत्नी ने कहा।

‘आपने मुझे पगलखाने की क़ैद से मुक्ति दिलवाई यह सबसे बड़ा अहसान किया।‘ दद्दू ने कृतज्ञ स्वर में कहा। यह कहते हुए उनकी आँखों की कोर गीली हो गई थी।... ‘फिर अपना घर भी तो देखना था।‘

‘कहाँ है भाभी और बच्चे ?’ मैंने उत्सुकता से पूछा।

‘यही है... मिलवाता हूँ।‘ दयनीयता और हंसी के मिले जुले भाव से उन्होंने हमारी तरफ़ देखा।

मंदिर परिसर में स्थित उनके निवास के मुख्य दरवाज़े पर उनकी नेम प्लेट जड़ी थी-पंडित वागीश शास्त्री, ज्योतिषाचार्य...

‘शेखर को पता है ?’ मैंने पूछा।

“आप बता देना।‘ एक खिसियानी-सी मुस्कराहट उनके होंठों पर सिमट आई थी।