देवनगर की वर्ण-व्यवस्था / प्रतिभा सक्सेना
वर्णो मे पूज्य दो परम- वर्ण - एक ‘ॐ’- सृष्टि का आदि स्वर, दूसरा 'श्री- जो सारे सौन्दर्य एवम् समृद्धि को धारण कर हमें धन्य कर रही है को सादर नमन करते हुए मैं इस देवनगर की वर्ण-व्यवस्था और वर्ण-व्यवहार की वार्ता-कथा प्रारम्भ करती हूँ ---
अपनी वर्णमाला, देवनागरी के अक्षरों की! कभी ध्यान दिया है आपने ?भरे-पुरे परिवारों का एक पूरा संसार बसा है। स्त्री-पुरुष -बच्चे, देशी-विदेशी सब मिल - जुल कर रहते हैं। सबकी अपनी आकृति, अपनी प्रकृति है। आत्म- विस्तार करने की वृत्ति इनमे भी है - मात्राएँ लगाकर ये लोग बड़ी स्वतंत्रता से अपने हाथ पैर फैला लेते हैं, पर अपनी कालोनी में अपनी छतों के नीचे बड़ी सभ्यता से रहते हैं। पति-पत्नी , बच्चे, बूढ़े सब तरह के लोग है एक दूसरे से निबाह कर चलने मे विश्वास करतेहैं। कभी-कभी अतिक्रमण होते हैं, तू-तू मैं-मैं भी होती है फिर समझौता कर सब अपने-अपने काम से लग जाते हैं।
सबसे ऊपर महत्वपूर्ण लोगों का निवास है -फिर पाँच पंक्तियों मे, पाँच-पाँच लोग बसे हैं। नीचे की पंक्ति में आठ लोग लाइन से रहते -है यद्यपि उनमे आपस में परस्पर विशेष संबंध नहीं हैं। और तीन लोग संकर है। वैसे तो कालोनी के सब लोग एक दूसरे से जुड़ने मे परहेज़ नहीं करते पर इन तीनो का रूप ही निराला है, इसलिए इन्हे सबसे पीछे डाल दिया गया है।
वी।आई।पी। लोगों की लाइन मे जो सोलह लोग थे अब उनमे से बारह ही दिखाई पड़ते हैं। चार लम्बी-लम्बी दाढ़ी-मूछोंवाले वृद्ध थे, उन्हे अधिकतर वृद्धाश्रम मे भेज दिया जाता है। कुछ का यदा-कदा आगमन होता रहता है। एक हैं ऋषि टाइप के। अक्सर आजाते हैं। पर उनके बड़े भाई और दो जटिल दाढ़ियोंवाले आति वृद्ध लोग कभी दिखाई नहीं पड़ते - लगता है स्वर्ग सिधार गये! ऋषि अपना प्रतीक - चिह्न यहीं छोड़े रहते हैं जिससे संसार का कल्याण हो सके। वैसे भी ये साधक टाइप के लोग इन लोगों की दुनियाँ में दखल नहीं देते। हाँ, विशेष पर्वों -अनुष्ठानो और संस्कृतमूल के शब्दों का काम उनके बिना नहीं चलता। बाकी के बारह लोग आपस में रिश्तेदार हैं।
अ और आ सगे भाई हैं उनकी छतें पास-पास हैं। दोनों का स्वभाव थोड़ा अलग है। इ और ई उनकी पत्नियाँ हैं, दोनो बहुओं के एक-एक बच्चा है 'उ’और 'ऊ'। दोनो साथ खेलते हैं। शकलें तो देखिए ज़रा, लगता है छोटा बिना कपड़े पहने उठ कर चल दिया और बड़ा भी नंगा-पुतंगा उसके पीछे भागा! नंग-धड़ंग एक दूसरेके पीछे भागे जा रहे हैं ऊं-ऊँ चिल्लाते! बड़े रूने हैं। ज़मीन पर लुढ़कते-पुढ़कते रहते हैं, उनकी मात्राएँ तो हमेशा ज़मीन पर पड़ी रहती हैं। उनकी माएँ छोटी-बड़ी इ, दोनों देवरानी-जिठानी बहुत व्यस्त रहती हैं। बच्चों को सम्हालती हैं किसी तरह, पर ज़मीन पर घिसटती, लड़कों की मात्राएं सम्हालना उनके भी बस का नहीं है। लोक-भाषावाले इन्हे बड़ा प्यार करते हैं। बुला-बुला कर पास बिठाए रखते है। उनका प्यारा उ हर जगह चलता है -खातु, मातु, सुनु, जगु और तो और, ओ उन्हें नहीं रुचता। उसे हटाकर उ को चिपकाए रहते हैं जैसे मानो, जानो, चलो को -मनु,जनु,चलु बना कर। हमारी कामवाली र से तो बचती है पर उ उसका बड़ा लड़ैता है -खर्च को खच्चु कहती है।बड़ेवाले-ऊ- को भी प्यर करते हैं पर थोड़ा कम। जैसे, मरयादू यादू भोर को भोरू आदि। । आजकल लोग बड़ा समझ कर ऊ को अधिक मान दे देते हैं -मधु को मधू!
ये जो ए,ऐ है। थोड़े असभ्य टाइप के हैं। जब ये अकेले होते हैं तो और अक्खड़ हो जाते हैं तू-तुकार पर उतर आते हैं। हाँ, जब किसी के साथ आते हैं तो समुचित सत्कार पा जाते हैं। थोड़े झक्की हैं, पर कभी बड़े सभ्य बन जाते हैं। जब बुलाए जाते हैं तो शान से तुर्रा लगाकर पहुँचते हैं। तब आया -गया को भी आए -गए बना कर सम्मान देने का काम करते हैं। ऐ फिर भी थोड़ा गंभीर है,इसलिए उर्दू-दाँ लोग ऐ का ज्यादा सत्कार करते हैं, ए को धीरे से चलता कर देते हैं देखिए- 'ऐ, मुसाफिर’मे। ओ,औ समझदार हैं, दूसरों की इज़्ज़त करना जानते हैं। ऊपर के कोने वाले दो घरों के लोगों में जरा नहीं पटती। अ बिन्दी लगाकर मगन हो गया है। नक्शेबाज़ी पर उतरता है तो सिर पर चाँद -तारे लगा लेता है इसके नख़रे देखने लायक होते हैं। पीठ पर दो बिन्दियों का बोझ लादे अः से उसकी जरा नहीं पटती।अक्सर अकेला रह जाता है -अः। छोड़िये उससे कुछ कहने का मन नहीं करता, भगवान बचाए। दोनो बहुएँ इ,ई जब उसे देखती हैं तो मुँह दबा कर हँसने लगती हैं।
इसके आगे काफ़ी बड़ी बस्ती फैली है -- बड़े कायदे से हरेक के वर्ग को ध्यान मे रखते हुए पँक्तियाँ बनाई गई हैं। सुनियोजित ढंग से बसाई गई है ये देवनगरी। पाँच पंक्तियों के आगे आठ और तीन, ग्यारह घर आखिरी छोर तक फैले हुए दिख रहे होंगे! मिले जुले लोग है -बाद वाले तीन क्षत्रज्ञ जन्म से ही संकर हैं, कोने मे बसा दिया गया है इन्हें। कुछ विदेशी भी घुस आए हैं उनको मकान नहीं एलाट किये गये। बड़ा इन्फ़ेक्शन फैलाये है कालोनी मे। अंग्रेज़ी शासन का फ़ायदा उठा कर एक तो वी।आई।पी। कालोनी में जा घुसा, सिर पर टोप लगाए मुँह गोल-गोल करके बोलता है ऑफ़िस और कॉलेज में हमेशा दिखाई देगा।
दूसरी लाइन के तीन लोगों को पहले छूत लगी। उस समय की राज भाषा फारसी का असर इन पर आ गया। पहले क,ख,ग पर असर पड़ा - ग के गले मे बुरी तरह ख़राश होगई वह गरगराने। लगा,ख खाँसी से ग्रस्त हो खखारने लगा, क को कै हो जाएगी ऐसा अंदर से जी होने लगा।इसी वर्ग का घ घुघ्घू की तरह बैठा देखता रहा, ये नहीं हुआ कि डाक्टर को बुलाये। परिणाम स्वरूप आगे की लाइनो के दो लोगों तक छूत फैली और च- वर्ग का ज और प- वर्ग का फ भी उसकी चपेट में आगए। इन लोगों को चिह्नित करने के लिए एक हकीम ने उन्हें नुक्ते दे दिए, जब जरूरत होती है चिपका लेते हैं। कभी तो लगता है कि उन तीनो को नुक्ते लगाए देख इन दोनो को भी शौक चर्राने लगा था। झ झगड़ालू प्रकृति का ठहरा, ज बेचारा उससे अपनी रक्षा के लिए भी नुक्ता लगा लेता है। इधर फ़ की लेकप्रियता नुक्ते के कारण इतनी बढ़ गई कि फ को दुनिया ने नकार ही दिया! लोगों को लगता है फ अशुद्ध है फ़, शुद्ध -जबकि बात इससे ठीक उलटी है। बिन्दी लगाने के शौकीन ड और ढ भी निकले -पर उसे लगा कर ड लड़खड़ाने लगता है,जैसे पाँव के नीचे रोडा आ गया हो। और ढ तो लुढ़क ही जाता है। और ण के बारे में तो कुछ पूछो मत,बडा नंगा आदमी है-एकदम बेशर्म है।श्लील -अश्लील का कोई विचार नहीं। हो सकता है नागा साधु हो या दिगंबर जैन संप्रदाय का अनुयायी हो।कभी-कभी अपने रूप में कुछ परिवर्तन कर लेता है -र के साथ दो लंबवत् लकीरें जोड कर नई शक्ल अपना लेता है। हो सकता है लोगों के कहे-सुने कुछ लिहाज आया हो, या सद्बुद्धि जाग गई हो।
हाँ, उस विदेशी के आगे हमारा फ उपेक्षा का पात्र बन गया। मेरा भतीजा मेरे पति से कहता है 'फ़ूफ़ाजी’और अंग्रेज़ी मे भी एफ़ यू एफ़ ए लिखता है। मैने कहा,’फ़ूफ़ा नहीं फूफा होता है।’वह बोला, 'अशुद्ध बोल रही हैं बुआ जी। ‘उसकी अम्माँ ने हिन्दी मे एम।ए। किया है और मुझसे काफ़ी बाद, उनकी नॉलेज तो मुझसे ज्यादा अप-टू- डेट होनी चाहिये! पर वह भी अपने लड़के को सही समझ रही थी। भाई भी पढ़ा-लिखा है, मैने उसकी तरफ़ देखा, सोचा शर्म से सिर झुका लेगा। पर वह बेटे को गर्व से निहारे जा रहा था। मेरे कहने पर सिर झटक कर बोला, 'आजकल का ट्रेन्ड यही है।’नई पीढ़ी से भयभीत होगा बेचारा!
फ तो ऐसा त्याज्य हो गया है जैसे उसमे फफूँद लग गई हो, वैसे अब लोग फ़फूँद कहते हैं। हमारी एक आदरणीया हैं,वे कालेज की सहायिका फूलमती को ‘फ़ूलमती’कह कर आवाज़ लगाती हैं, समझती हैं कि उनने उसे शुद्ध कर दिया, और हम कुछ लोग चुपके-चुपके हँसते कि उसे मूर्ख बना रही हैं।
मैं लड़कियों को पढ़ाती हूँ न! तो इस सब पर सोच-विचार करने का खूब मौका मिलता है। समाज के सभी वर्गों तक मेरी पैठ हो जाती है क्योंकि लड़कियाँ हर वर्ग की पढ़ने आती हैं।परिवेश और परिवार का प्रभाव भाषा पर पड़े बिना नहीं रहता। लड़कियों के नामो से मै उनके बारे मे बहुत सी बातों का पता लगा लेती हूँ। हर नाम कुछ सोचने-समझने का मौका देता है।एक बार क्लास में उपस्थिति लेते समय नाम आया-’वीना ‘मै सोचने लगी यह क्या, न तत्सम , न तद्भव! 'बीना’किसी तरह से शुद्द नहीं - वीणा होता या बीना होता! कभी-कभी सोच मे लीन होकर मै मुँह से बोल जाती हूँ।
सोचा लड़की से पूछूँ, ‘वीना कहाँ है ?’वह नहीं आई थी।
एकदम मुँह से निकल गया, ‘यह तो संकर है! '
उसकी पक्की सहेली रही होगी खड़ी हो गई,’दीदी, वह ब्राह्मण क्षात्रा है।’
यह तो नया वर्ण निकल आया, मुझे आश्चर्य हुआ - ब्राह्मण और क्षात्रा ?मैने कहा, 'क्षात्रा नहीं क्षत्रिया कहो।’
मैं विचार कर रही थी पिता ब्राह्मण और माता क्षत्रिय होंगे, मैने पूछा, 'उसके माता -पिता की इन्टरकास्ट मैरिज है ?'।
लड़की तो आई नहीं थी पर उसके घर ख़बर पहुँच गई।
दूसरे दिन उसकी माता-श्री अवतरित हुईं।
'दीदी जी, काहे बदनाम कर रही हो हमे ?'
'मैं क्यों बदनाम करूँगी ?क्या बात हो गई ?'
वह तो लड़ने पर आमादा हो गई, ‘कल आपने उसे संकर कहा ?भरी किलास के सामने कहा हम ठाकुरों की बेटी हैं भाग कर बाम्हन से सादी कर ली ?--जरूर किसी ने उड़ाया होगा, दुस्मनन की कमी है यहाँ ?असली कनौजिया बाम्हनन की बेटी हैं हम! '
'लड़कियों ने कहा था ब्राह्मण क्षात्रा है। '
उसकी पक्की सहेली फिर खड़ी हो गई, 'आपने संकर कहा तो हमने बताया था कि ब्राह्मण है। और इस्टूडेन्ट है तो क्षात्रा तो कहेंगे ही। '
बड़ा बबाल हो गया उस दिन! मैंने अपनी बात समझाने की हर तरह कोशिश की लेकिन --छोड़ो अब कहने से क्या फ़ायदा ?
सही और शुद्ध के पीछे मेरी अक्सर ही लोगों से चख-चख हो जाती है।
दूसरे क्लास मे गई तो सोचा इन लोगों को बता दूँ क्षात्र और छात्र में क्या अन्तर है।मैंने मनोरंजक ढंग से शुरू करना चाहा,’क्यों भई, छ में क्या गन्दगी लगी है, जो ज़बान पर लाने मे परहेज़ है ?नहाई-धोई लड़कियों को छ बोलते ही छूत लग जाती है?’बोलते-बोलते मैं सामने की ओर देख रही थी। एक लड़की को लगा मैं उससे कह रही हूँ। उसने पास बैठी वाली को कोहनी से ठहोका, वह खड़ी होकर बोली, ‘यह तो आज ही सिर धोकर आई है। '
'अरे, सिर धोकर क्यों आई है ?'
लड़कियाँ मुँह घुमाकर मुस्करा रही हैं।
‘मुँह घुमा लेंगी पर छ नहीं बोलेंगी,’हाँ,छूत लग जायगी न।'
‘ऐसे मे उस तरफ़ बैठती हैं ‘एक की आवाज़ आई।
उसके इशारे की ओर मेरी निगाह गई -एक बेञ्च पर दो लड़कियाँ बैठी सकुचा रहीं थीं।
वो छ बोल सकती होंगी मैंने सोचा, पर उन्हें और द्विविधा में डालना ठीक नहीं समझा।
यह छ है भी थोड़ा छिछोर टाइप का, हर जगह जा घुसता है और क्ष को निष्कासित कर देता है। स्थानीय लोगों की तो ज़ुबान पर चढ़ा रहता है -अच्छर, सिच्छा, राच्छस, लच्छिमी हर जगह छछूँदर सी पूँछ लिये हाजिर! अक्सर अपने साथ च को भी चिपका लेता है।च की वैसे है भी चिपकने की आदत!कुछ जरूरत से ज्यादा समझवाले असली छ से भी परहेज़ करते हैं।हमारी एक मित्र हैं, नाम नहीं बताऊँगी वे बुरा मान जायेंगी, इच्छा को इक्षा कहती हैं।
'ठ ‘को तो देखो गठरी बाँधे है, बिल्कुल ठग जैसा।बड़ी जल्दी ठायँ-ठायँ पर उतर आता है।अपने पूर्ववर्ती को कुछ समझता ही नहीं। हरियाणा की औरतें 'उठा ले’बोलती हैं तो बेचारे छोटे उ को गायब कर देती हैं, उसकी कोई कदर ही नहीं और ठ पहले से शुरू हो जाता है -उच्चारण निकलता है -'ट्ठा ले! ',इकट्ठा को कहेंगी 'कठ्ठा'। 'इ’की लोकप्रियता से ईर्ष्या करती होंगी! सीधे-सादे वर्णों को तो कोई धरे नहीं गाँठता! इन वर्णों में आपसी लाग- ड़ाँट चलती रहती है।य़ और ज मे खींच- तान मची रहती है,व और ब मे प्रतिद्वंदिता चलती है।बँगला भाषा के प्रभाव से ब बोलने का शौक बढ़ता जा रहा है-वासु को बासु विमला को बिमला वन को बन बोलना फ़ैशन में आगया है। ण और न आपस में उलझते हैं। उधर क और ख एक दूसरे की जगह हथियाने को तैयार रहते हैं। अक्सर ही ख की जगह क आ बैठता है -भूका, जिजमान बस्तु गनेस वगैरा-वगैरा।अब तो व की भ से भी बजने लगी है लोग अमिताभ को अमिताव कहने मे ज्यादा शान समझते हैं या फिर उनके मुँह इतने कोमल होते होंगे कि भ के उच्चारण से छाले पड़ने का डर होगा।
कुछ लोगों को स संदिग्ध लगता है श पर विश्वास है। पर अहिंसावादीलोग श की शक्ति से घबरा कर स को अपना लेते हैं। वे शंकर को संकर मानते है और शब्दों में 'सुसीला',’सुकुल', 'सायद’वग़ैरा का प्रयोग करते हैं।इधर हिंसा वृत्तिवाले संघर्ष को शंघर्ष कह कर समझते हैं कि उसकी भीषणता और बढ़ गई है।हमारी एक प्रभावशाली सीनियर, शासन को साशन कह कर परम संतुष्टि पाती हैं कि उनने शासन की सत्ता मे परिवर्तन कर दिया हैं।क और च वर्गों के कोनेवाले सदस्य ङ और ञ बुलाते ही मदद को दौड़ पड़ते थे। पर नकिया कर बोलने के कारण लोग उनसे बचने लगे, उनकी जगह ऊपरवाले अं की बिन्दी छुटा कर लगा लेते हैं।
अरे हाँ,ऊपरवाले दंपतियों की बात तो भूल ही गई मै! ये लोग हैं-दो भाई अ,आ और उनकी पत्नियाँ इ,ई। अ और इ दोलो पति-पत्नी बड़े परोपकारी हैं - अ ने तो जीवन ही सेवा में लगा दिया है। बिना कहे ख़ुद मदद को पहुंच जाता है।उसके बगैर तो सारे वर्णों की बोलती बन्द रहती है। उसकी पत्नी 'इ’बहुत सुशील, सुसंस्कृत महिला हैं। जहाँ बैठती हैं सज जाती हैं। लोगों को वे इतनी अच्छी लगती है कि शौकिया उन्हे बुला कर बिठाए रखते हैं - देखिये- रहिता, कहिता, कैशिल्या अहिल्या इनमे हर जगह छोटी बहू इ को बुला कर बैठा लिया गया है?आ और ई की भी राममिलाई जोड़ी है। दोनो तुनक-मिजाज़! ई तो कुछ ज्यादा ही लम्बी है- शिरोभूषण पहनने की शौकीन! मिजाज़ ऐसा कि,हमेशा चिल्ला कर बोलती हैं। लोग इनसे बचने की कोशिश में रहते हैं।उनके पति 'आ’की भी चीख -पुकार मचाने की आदत है।दोनो हमेशा कुहराम मचाये रहते हैं!
वैसे ऊपर वाले सारे ही लोग हमेशा औरों की मदद के लिये दौड़ते रहते है।मजबूरी में खुद नहीं जा पाते तो अपनी मात्राओं को भेज देते है।बाहरवाले नये लोगों को मात्राओं में भ्रम हो जाता है। इस बारे मे मेरे पति ने अपनी एक अलग ही थ्योरी बनाई है - -
मात्रा छोटी होने पर, महत्व और आकार छोटा- जैसे चिटी, चिंटी,च्यूँटी, चींटी और चींटा इन पाँचों का अंतर देखिये, चिटी -(छोटी इ है और बिन्दी भी नहीं है)सबसे छोटी, जोआँखो को बड़ी मुश्किल से दिखाई देती हैं। चिंटी -(छोटी इ होते हुए भी इसमे बिन्दी लगी है)जरा सी बड़ीवाली जिसमे दो बिन्दु स्पष्ट दिखते हैं, तीसरी है च्यूँटी-जैसे किसी ने चिकोटी काट ली हो, इसी से शब्द ‘च्यूँट लेना ‘बना है। चींटी-(बड़ी ई के साथ बिन्दी भी है) उससे भी बड़ी जो,हर जगह लाइन बनाये चलती दिखाई देती हैं,अन्त मे चींटा -खूब बड़ा, ऊँचा-पूरा,उसे आप सब जानते हैं।। लघु और दीर्घ मात्राओं के प्रयोग से सब के रूप स्पष्ट हो गये।।इसी प्रकार उ और ऊ मे भी उन्होने अंतर किया है। वे रामपुर, रुद्रपुर मे तो उ लगाते है पर सिंगापुर,को सिंगापूर लिखते है, कहते हैं, 'इतना बड़ा नगर है, छोटी मात्रा कैसे लगेगी?', ऐसे ही नागपूर,कानपूर! शादी के पहले मै शाजापुर मे थी,ये पते मे हमेशा शाजापूर लिखते थे। मैंने कहा इसमे छोटा उ है,कहने लगे,'अरे वाह! तुम रहती हो, उस जगह को छोटी कैसे मान लूँ?’मेरा भाई जब लिफ़ाफ़े पर शाजापूर लिखा देखता तो मेरी ओर देख कर खूब हँसता।मैं क्या करूँ ?कोई मै तो इन्हे ढँढने निकली नहीं थी, तुम लोगों ने खोज निकाला, अब तुम्हीं निपटो!
खोज की बात पर और बताऊँ -मेरी मित्र है विशाखा, मेरे पति उसे कहते हैं-विषाख़ा और लिखते भी ऐसे ही हैं- ख के नीचे बाकायदा नुक्ता लगाकर। कहते हैं यही शुद्ध है (उर्दू पढ़े है, शुरू से)।मै तो चुप लगा जाती हूँ इस डर से कि कहीं ये ख़ा के ऊपर भी बिन्दी न लगा दें! ख़ैर,
वे विभीषण को 'भिभीषणजी’कहते और मानते है।
मैंने बताया,’विभीषण नाम है उसका, भिभीषण नहीं। ‘
बोले,’वह राक्षसकुल का है व में नहीं भ में भयंकरता होती है।
‘तब फिर बाद में जी काहे लगाये हो ?'
‘बाद में वह राम के पक्ष में चला गया इसलिए शाबाशी के लिये बाद में ‘जी’लगा दिया। '
क्या किया जाय सबकी अपनी-अपनी मति!
अपने पड़ोसी के जसोदा को मैने यशोदा करवा दिया। अब वे जादू को यादू और जंग को यंग कहने लगे, कहते हैं -अगर जशोदा में ज का य हुआ है तो यहाँ भी होना चाहिये। ऊपर से सबसे कहते-फिरते हैं मैंने बताया है।
इधर नीचे की लाइन वाला 'र’पक्का बहुरूपिया है-कभी तुर्रा लगा लेता है कभी, कमर मे पटके-सा बँधा, कभी पावों मे अटका। अरे यह तो बूढ़े बाबा ऋ की भी नकल उतारता है फिर झट् से छोटी इ की ओट ले लेता है।
सबका अपना-अपना स्वभाव! आपस में खींचातानी और अतिक्रमण होते हैं, तू-तू मैं-मैं भी चलती है पर फिर सब शान्ति से रहने लगते है। समझ गए है न कि रहना यहीं है,इन्ही सब के साथ!
सज्जनों,वर्ण- व्यवस्था और व्यवहार की चर्चा कर इस समाज को गुमराह करने का मेरा इरादा कतई नहीं है। मेरा विषय वर्णों से संबद्ध है इसलिये अपनी बात कहना सुझे लोकतंत्र सुलभ अधिकार लगा।आप को लगे इससे वर्णो में दुर्भावना या भेद-भाव उत्पन्न होगा तो कृपया ',सभी वर्ण एक समान हैं जिसके मन में जैसा आये बेधड़क लिखे ‘का नारा दे दें!