देवयानी / भाग-2 / पुष्पा सक्सेना

Gadya Kosh से
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पुत्र की मृत्यु का शोक मनाते एक सप्ताह भी नहीं बीता था कि गाँव के चौधरी के साथ कल्याणी और उनके अमर की बेटी देवयानी, उनके घर आ पहुँची। देवयानी के उदास निष्प्रभ चेहरे पर बुद्धि प्रदीप्त आँखें अनायास ही अमर की याद दिला गईं। विषाद की प्रतिभा सरीखी कल्याणी ने आंसू भरी आँखों के साथ सास-श्वसुर के पाँव छूने चाहे तो दोनों ने पाँव पीछे खींच, अस्फुट शब्दों में न जाने क्या कहा। चौधरी ने स्थिति स्पष्ट कर दी -

“अमर बाबू तो देवता थे। उन्होंने तो गाँव की काया ही पलट दी। ये तो गाँव वालों का ही दुर्भाग्य था, अमर बाबू छोड़कर चले गए। न जाने कैसा जानलेवा बुखार चढ़ा, हज़ार जतन के बाद भी पारा नीचे ही नहीं उतरा।”

“डॉक्टर कुछ नहीं कर सका ?” भर्राए गले से कमलकांत इतना ही पूछ सके।

“अब क्या कहें, हमारी किस्मत ही खराब थी। डाक्टर बाबू, किसी शादी में कहीं दूर के शहर गए हुए थे। कम्पांउडर से जो बन पड़ा, किया। शहर लाने का वक्त अमर बाबू ने दिया ही कहां ? सोचा गया बुख़ार है, चला जाएगा।” चौधरी ने लंबी साँस ली।

“ये सब इसी की वजह से हुआ है। मेरा बेटा बेइलाज चला गया।” कल्याणी पर जलती दृष्टि डाल

अमर की माँ रो पड़ी।

“ऐसी बात नहीं है, माँजी। कल्याणी बिटिया ने तो उस दिन से दाना-पानी ही छोड़ दिया है। होनी को कौन टाल सकता है। अमर बाबू गाँव के अस्पताल को बढ़ाना चाह रहे थे। शहर से दो नए डाक्टर आने वाले थे, पर होनी को कुछ और ही मंज़ूर था।” चौधरी ने अँगोछे से आँसू पोंछ डाले।

“हम यहां नहीं रहेंगे, हम अपने घर जाएँगे, माँ।” देवयानी ने बात कहकर दृढ़ता से ओंठ भींच लिए, ठीक वैसे ही जैसे अपनी तकलीफ़ छिपाने को अमर ओंठ भींचकर दर्द सह जाता था।

“नहीं, देवयानी बिटिया। अब यही तुम्हारा घर है। ये तुम्हारे बाबा-दादी हैं।” चौधरी ने देवयानी को समझाना चाहा।

“नहीं, हमारा इन दोनों से कोई रिश्ता नहीं हैं, इन्हें तुम वापस ले जाओ, चौधरी।” रूखी आवाज़ में कमलकांत ने कहा।

“साहब जी, इस बिटिया की क्या ग़लती है। ये तो आप के बेटे की अखिरी निशानी है। क्या इसमें आपको अपने बेटे की झलक नहीं मिलती ?” कमलकांत की दृष्टि देवयानी पर पड़ी तो वे चौंक उठे। बिल्कुल अमर जैसा सौम्य-तेजस्वी चेहरा, वैसे ही आँखों में कुछ कर गुजरने की आग जैसे धधक रही थी। निःशब्द कल्याणी ने कमलकांत के हाथ में एक चिट्ठी पकड़ा दी।

चिट्ठी अमर की थी। पिता के सामने कभी न झुकने के उसके निर्णय को, बेसहारा युवा पत्नी और मासूम बेटी के भविष्य ने झुकने को विवश कर दिया। पत्र में चंद पंक्तियाँ थीं-

पूज्य पापा,

पिछले कुछ दिनों से तबियत ठीक नहीं चल रही है। न जाने क्यों ऐसा आभास-सा हो रहा है, मानों मेरा अंत निकट है। ये पत्र कल्याणी के पास आपके नाम छोड़ रहा हूँ। अगर कभी मैं न रहूँ तो इसे आप तक पहुँचाना उसका दायित्व है।

एक अनुरोध है, अपने इस नालायक बेटे की ग़लती की सज़ा कल्याणी और देवयानी को मत दीजिएगा। मेरे अपराध में इनकी कोइ भागीदारी नहीं है। अगर मैं न रहा तो इन दोनों को अपनी शरण में ले लीजिएगा। इन्हें अकेले छोड़ना सुरक्षित नहीं होगा।

आपके प्रति अपने कर्तव्य नहीं निभा सका, इसका दुख है। बहुत सी ग़लतियों के लिए आपसे क्षमा मिली है। इस बार भी माफ़ करेगें न ?

आपका लाड़ला बेटा,

अमर..........

चिट्ठी के एक-एक शब्द में मानों अमर साकार था। दिवंगत बेटे की अंतिम इच्छा का तिरस्कार कर पाना संभव नहीं था। कल्याणी और देवयानी को घर में जगह ज़रूर दे दी गई, पर उनके प्रति दुर्भाव में कमी नहीं आई। जब-तब बेटे की मौत के लिए कल्याणी को जिम्मेदार ठहरा, सास ताने देकर भड़ास निकालती रहती। जेठ और जिठानी की आंखों में तो खटकती ही, उन्हें डर जो था कहीं पिता की जायदाद में से देवयानी को भी हिस्सा न मिल जाए।

हवेली जैसे घर में एक छोटा-सा कोठरीनुमा कमरा देख, देवयानी को अपने पिता का खुला छोटा सा प्यारा घर याद हो आया।

“माँ, बाबा का घर इतना बड़ा है, पर हमें ये छोटा-सा कमरा क्यों दिया गया हैं इसकी खिड़की इतनी छोटी है कि हवा भी नहीं आयेगी।”

“ऐसे नहीं कहते, देवयानी। अब हमारा यही घर है। हम दोनों के लिए इतनी जगह काफ़ी है, बेटी।” माँ की आँसू भरी आँखें देखकर, देवयानी जैसे सब समझ गई।

“हाँ, माँ। हमारे लिए ज्यादा जगह क्यों चाहिए। हम दो ही तो हैं। पापा तो चले गए।” कल्याणी बेटी को सीने से चिपटा रो पड़ी।

कल्याणी की आँखों से झरते आँसुओं को अपनी हथेली से पोंछती देवयानी ने माँ को बच्चों-सा दिलासा दिया।

“पापा कहते थे, रोना अच्छी बात नहीं है, माँ, बड़े होकर हम तुम्हारे लिए खूब बड़ा सा घर बनवाएंगे।”

आदत के अनुसार पहली सुबह देवयानी पाँच बजे सवेरे उठ गई। गाँव में रोज़ अमर के साथ ताज़ी हवा में घूमने के बाद झरने के ठंडे पानी से हाथ-मुँह धो, उगते सूर्य को प्रणाम कर घर लौटती थी। कल्याणी उनके लिए गर्म दूध का ग्लास तैयार रखती। इस नए घर में सुबह छह बजे तक सन्नाटा था।

सात बजते-बजते रोहन और रितु को स्कूल भेजने की तैयारी का शोर शुरू हो गया। कल्याणी कमरे में पूजा कर रही थी। आवाज़ें सुन, प्रसन्न मुख देवयानी बाहर आ गई। रोहन और रितु स्कूल यूनीफ़ॉर्म पहने तैयार थे। मेज़ पर दोनों के लिए दूध के ग्लास रखे हुए थे। दादी दोनों से दूध पीने के लिए मनुहार कर रही थीं। रितु ने मुँह बनाकर दूध के प्रति वितृष्णा जताई तो देवयानी ताज़्जुब में पड़ गई। चट मेज़ से दूध-भरा ग्लास उठा, एक सांस में दूध खत्म कर, विजयी निगाह से रितु को देखा था।

“देखा रितु दीदी, हम कितनी जल्दी दूध पी लेते हैं।” चेहरे पर हँसी आ भी न पाई थी कि रागिनी-ताई का ज़ोरदार थप्पड़, देवयानी के गाल पर आ पड़ा था।

“भुक्कड़, लड़की, रितु का दूध पी गई। दूसरे के हिस्से की चोरी करते शरम नहीं आती।”

“हमने चोरी नहीं की, रितु दीदी को दिखाना चाहते थे, हम कितनी जल्दी दूध पी सकते हैं।” रोती देवयानी के गाल पर उँगलियाँ उभर आई थीं।” दादी ने वहीं से दासी को आवाज़ दी थी-

“कमली इस भुक्कड़ लड़की को चाय दे- दे। देख, रात की रोटी पड़ी हो तो वो भी दे दे। न जाने कहाँ की पेटू आई है।”

“नहीं, हम बासी रोटी नहीं खाते।” सुबकती देवयानी इतना ही कह सकी।

“ओह् हो, तो क्या महारानी जी गाँव में मोहन भोग खाती थीं। सुना अम्माजी ये गाँव की छोकरी कैसी बातें बनाती है।” रागिनी के चेहरे पर आक्रोश झलक आया था।

अपमान से देवयानी की आँखें जल उठीं। उसके पापा कहते थे बच्चों को चाय नहीं पीनी चाहिए, पर उस दिन के बाद से देवयानी को जो मिल जाता गले से नीचे उतार लेती।

दो-चार दिनों में ही कल्याणी अपनी स्थिति समझ गई। घर में उसकी स्थिति पुत्रवधू की नहीं, दास-दासी से भी बदतर थी। कम से कम उनसे नफ़रत तो नहीं की जाती। देवयानी को ये समझ पाना मुश्किल लगता घर के दूसरे लोग और उसके समवयस्क उससे बात क्यों नहीं करते। रोहन और रितु के पास जाने पर वे उसे हिकारत की निगाह से देख, मुँह मोड़ लेते।

देवयानी गाँव के स्कूल की सबसे मेधावी छात्रा थी। उसे पिता की बुद्धि और माँ का सौम्य सौंदर्य मिला था। न जाने क्यों उसे स्कूल भेजने की बात कोई नहीं सोचता। रितु और रोहन को ललक से स्कूल जाते देखती। कभी-कभी रितु या रोहन उससे अपना बैग कार तक पहुंचाने को कहते तो देवयानी खिल जाती। बैग उठाए देवयानी मानो खुद को स्कूल जाता महसूस करती।

बार-बार अपनी पुरानी किताबों के पृष्ठ पलटती देवयानी थक चुकी थी।

“माँ, हम भी रितु दीदी के साथ स्कूल जाएँगे। हमे घर में अच्छा नहीं लगता।”

“अच्छा, बेटी। तेरे बाबा से बात करूँगी।” सच्चाई ये थी श्वसुर से कुछ माँगने का कल्याणी में साहस नहीं था। वह तो उनकी निगाह में अपराधिन थी, जिसने उनके बेटे को उनसे छीना था।

एक दिन रितु की किताब पढ़ती देवयानी ऐसी अभिभूत थी कि रितु का आना उसे पता ही नहीं चला। अपनी किताब देवयानी के हाथ में देख, रितु का पारा चढ़ गया। गुस्से में किताब छीनने के प्रयास में किताब का एक पृष्ठ फट गया। अब तो रितु ने घर सिर पर उठा लिया।

“मम्मी, इस लड़की ने मेरी किताब फाड़ दी, इसे घर से निकाल दो।”

बेटी को रोता देखा, बिना कुछ पूछे रागिनी ने देवयानी को धुन डाला।

“जिसका खाएगी, उसी को परेशान करेगी। ख़बरदार जो कभी आगे से रितु या रोहन के कमरे में पैर भी धरा। बहुत मारूँगी, जो फिर रितु की किताब चोरी से पढ़ी।”

देवयानी स्तब्ध रह गई। शरीर की चोट से ज़्यादा उसके मन पर जो चोट लगी, उसे माँ से छिपाए रखने की समझ उसमें आ गई थी। दुखी माँ को और दुख पहुँचाने से क्या फायदा ? जिस दिन देवयानी को रितु की पुरानी फ़्राकें पहनने को दी गई, वह विद्रोह कर वैसी

“हम पुरानी फ़्राकें नहीं पहनेंगे। हमे भी नई फ़्राक चाहिए।”

“ऐसा नहीं कहते बेटी। बड़ी बहन की फ़्राक पहनने से कोई छोटा थोड़ी हो जाता है।”

माँ के कहने पर देवयानी ने वो ढीली-ढाली, लंबी फ़्राक पहन ली, पर उसे देख, रोहन का हंसते-हँसते बुरा हाल हो गया।

“ऐ रितु, देख, हमारे घर एक बंदरिया आई है। नाच बंदरिया, नाच।”

दोनों भाई-बहनों की हंसी ने देवयानी को रूला दिया। उसके बाद देवयानी ने रितु की फ़्राक कभी नहीं पहनी।

उस दिन रितु अपने खाने का डिब्बा स्कूल ले जाना भूल गई। रागिनी परेशान थी, कैसे रितु के पास डिब्बा पहुँचाए। अचानक सामने खड़ी देवयानी को देख, उसे समस्या का समाधान मिल गया। देवयानी के हाथ खाने का डिब्बा थमा, निर्देश दिए थे-

“देख, ये डिब्बा रितु के हाथ में ही देना। वो पाँचवी क्लास में हैं और हाँ भूलकर भी ये मत कहना तेरा रितु से कोई नाता है। पूछने पर कह देना तू गाँव से आई है। समझ गई न ?।

हामी में सिर हिला, देवयानी, रितु के स्कूल उड़कर पहुंच जाना चाहती थी।

रितु का स्कूल देख, देवयानी विस्मित रह गई। ये तो एक नई दुनिया थी। इतना बड़ा स्कूल, इतने बड़े खेल के मैदान और इतने ढेर सारे हँसते-खिलखिलाते बच्चे। काश् देवयानी भी उनमें से एक होती।

पाँचवी कक्षा के बाहर खड़ी देवयानी कक्षा में पढ़ाए जाने वाले पाठ को सुनती अपना स्कूल जाने का मकसद भूल गई। टीचर ने एक सवाल पूछा, क्लास के बच्चों में से किसी का हाथ जवाब देने के लिए नहीं उठा। बाहर खड़ी देवयानी से नहीं रहा गया, मीठी आवाज़ में पूछा-

“टीचर जी, हम इसका जवाब बता सकते हैं। बताएं-

“हाँ-हाँ, जरूर बताओ, पर तुम कौन हो, यहाँ बाहर खड़ी हो ? टीचर ने ताज़्जुब से देवयानी को देखा।

सवाल का ठीक जवाब देकर देवयानी ने बताया, वह रितु का डिब्बा पहुँचाने आई है।

“तुम कहाँ पढ़ती हो, देवयानी ?”

“हम गाँव में पढ़ते थे। शहर आकर हम स्कूल नहीं जाते। माँ कहती है, जिसके पापा नहीं होते, वो पढ़ने नहीं जाते।”

देवयानी का उदास मुँह देखकर टीचर का मन भर आया। देवयानी के सिर पर प्यार से हाथ धर कर कहा-

“ये सच नहीं है, देवयानी। तुम एक बुद्धिमान लड़की हो। तुम्हें खूब पढ़ना चाहिए। भगवान तुम्हारी मदद ज़रूर करेंगे।”

उत्साह से उमगती देवयानी ने टीचर की बात बताकर माँ से कहा, वो ज़रूर पढे़गी, भगवान जी जरूर उसकी मदद करेंगे। कल्याणी की आँखें छलछला आईं, आज अगर अमर होते तो क्या उनकी दुलारी बिटियां की ये स्थिति होती। अमर तो कल्याणी को भी बी.ए. की परीक्षा दिलाने को तैयार कर रहे थे, पर बेटी के जन्म के बाद कल्याणी का स्वास्थ्य खराब हो गया और पढ़ाई पूरी न हो सकी। अमर का कहना था, औरत को इस लायक बनना चाहिए कि ज़रूरत के वक्त किसी पर आश्रित न रहे। काश कल्याणी बी.ए. करके, अपने पाँवों पर खड़ी हो पाती। अचानक कल्याणी जैसे चैतन्य हो आई। जो उसके साथ हुआ, उसकी बेटी के साथ नहीं होना चाहिए।

कल्याणी को अपने सामने देख कमलकांत चौंक गए। धीमी आवाज़ में कल्याणी ने विनती की-

“ एक विनती है, पापा जी ?”

“क्या कहना चाहती हो ?” रूखे स्वर में कमलकांत ने पूछा।

वो देवयानी को खूब पढ़ाना चाहते थे। कहते थे उसे डाक्टर बनाएँगे। उनकी ये इच्छा आप ही पूरी कर सकते हैं, पापा जी।” कल्याणी का स्वर निरीह हो आया।

“मैं क्या कर सकता हूँ ? आवाज़ में फिर वही रूखापन था।

“देवयानी को स्कूल में दाखिल करा दीजिए। मैं घर का सारा काम करूँगी, जो कहेंगे, वैसा करूँगी। देवयानी का भविष्य बना दीजिए।” कल्याणी की आँखें भर आईं।

दूसरे दिन खाने की मेज़ पर कलमलकांत ने शशिकांत से कहा-

“मेरे ख्याल में देवयानी को स्कूल भेजा जाना चाहिए। शशि तुम रितु के सकूल में देवयानी का भी नाम लिखा दो।”

“क्या-आ ? आप क्या कह रहे हैं, पापा ? रितु के स्कूल की फ़ीस कितरी भारी है, क्या आप जानते हैं ?”

“वाह! पापाजी, गाँव की लड़की को आप उतने बड़े अंग्रेजी स्कूल में भेजना चाहते हैं। वो भला वहाँ की लड़कियों के सामने सिर उठाकर बात कर पाएगी ? अगर पैसा फ़ालतू है तो कहीं दान कर दीजिए। रागिनी की आवाज़ का रोष छिपा नहीं था।

“अरे इनकी तो उमर के साथ बुद्धि ही ख़त्म होती जा रही है। उस दिहातिन लड़की को मेम साहब बनाना चाहते हैं।” कमलकांत की पत्नी ने भी बेटे-बहू का साथ दिया।

“अगर रितु के स्कूल में नहीं पढ़ सकती तो किसी दूसरे स्कूल में तो नाम लिखाया जा सकता है। आख़िर लड़की को अनपढ़ तो नहीं रखा जा सकता है।

“ठीक है, पास ही में सरकारी स्कूल है। ड्राइवर से कह दूँगा, उसका नाम उसी स्कूल में लिखा दे।”

पहले दिन स्कूल जाती देवयानी का चेहरा खुशी से चमक रहा था। स्कूल घर के पास ही था, इसलिए पैदल जाना आसान था। घर के दास-दासियों के पास देवयानी को पहुँचाने-लाने के लिए व्यर्थ का समय कहाँ था ? कल्याणी ने खुशी-खुशी ये दायित्व ले लिया। रागिनी ने ताना देकर कहा-

“हां-हां, इसी बहाने कल्याणी बाहर की सैर कर आया करेगी।”

स्कूल की बातें देवयानी पूरे उत्साह से सुनाती। उसकी टीचर महिमा दीदी बहुत अच्छी हैं। वो देवयानी को बहुत प्यार करती हैं। पहली ही परीक्षा में हर विषय में पूरे अंक लाकर देवयानी ने महिमा जी को विस्मित कर दिया।

“तुम्हें घर में कौन पढ़ाता है, देवयानी ?”

“अब तो कोई नहीं पढ़ाता। जब तक पापा थे, वे मुझे ही नहीं, पूरे गाँव के बच्चों को पढ़ाया करते थे, दीदी।” गर्व से देवयानी ने बताया।

“तुम्हारी माँ तुम्हें नहीं पढ़ाती, देवयानी ?”

“मां को घर के बहुत सारे काम करने पड़ते हैं, दीदी। उन्हें पढ़ाने का वक्त कहाँ से मिलेगा ?” देवयानी के चेहरे पर उदासी छा गई।

“क्यों तुम्हारे घर के और लोग काम नहीं करते ?”

नहीं, दीदी। घर के नौकर-ताई और दादी के कहने से काम करते हैं। माँ को सबका काम करना होता है। माँ की मदद कोई नहीं करता। देवयानी के उज्ज्वल मुँह पर उदासी की छाया तैर गई।

“ऐसा क्यो, देवयानी ?”

“हमारे पापा जो नहीं हैं, दीदी।” देवयानी की गंभीरता से कही गई बात ने महिमा जी के दिल को छू लिया। ये नन्हीं बच्ची अपनी स्थिति से कैसे समझौता कर रही है। उस दिन के बाद से महिमा जी, देवयानी पर विशेष ध्यान देने लगीं। खाने की छुट्टी के वक्त देवयानी के डिब्बे में रूखी रोटी और शायद रात की बासी सब्ज़ी देख, महिमा जी, देवयानी की स्थिति पूरी तरह समझ गईं। देवयानी की मेंधा उन्हें विस्मित करती, एक बार बताई गई बात देवयानी के मस्तिष्क में कम्प्यूटर की तरह अंकित हो जाती।

आठवी की परीक्षा में देवयानी को हर विषय में पूरे अंक मिले थे। पहले नम्बर पर आई देवयानी ने, अपना रिपोर्ट-कार्ड, बाबा को बड़े उत्साह से दिखाया।

“बाबा, हम पूरे क्लास में फ़र्स्ट आए हैं। महिमा दीदी कहती हैं, हमे कुछ बनके दिखाना हैं।”

रिपोर्ट-कार्ड देखते, कमलकांत की आँखों में चमक आ गई। उनका अमर भी हमेशा पहले नम्बर पर आता था। चाय पीते कमलकांत जी ने सबको बताया-

“देवयानी अपने क्लास में फ़र्स्ट आई है। उसे कुछ इनाम मिलना चाहिए।”

“क्यों नहीं, उस स्कूल में पढ़ने वालों में देवयानी की स्थिति अंधों में काने राजा वाली ही तो है। रितु के स्कूल में पढ़ती तो देखते।” व्यंग्य से रागिनी ने ओंठ टेढ़े किए।

“अगर हम रितु दीदी के स्कूल में पढ़ते तो भी हम फ़र्स्ट आते,-ताई। हम हमेशा पहले नम्बर पर रहे हैं।” कुछ अभिमान और खुशी से देवयानी ने जवाब दिया।

“हाय राम, ज़रा देखो तो बित्ते भर की छोकरी और गज़ भर की जुबांन। बड़ों से बात करने की तमीज़ नहीं है।” रागिनी का क्रोध फूट पड़ा।

“अरे, सब माँ का सिखाया-पढ़ाया है। ऊपर से चुप रहती है, पर अंदर से पूरी घुन्नी है।” अमर की माँ ने हामी भरते हुए, कल्याणी के प्रति अपना आक्रोश जताया।

“नहीं, माँ हमें कभी ग़लत बात नहीं सिखातीं।” देवयानी की आँखें छलछला आईं।

उस बहसा-बहसी में देवयानी के इनाम की बात वैसे ही आई-गई हो गईं उस दिन के बाद से देवयानी अपना पूरा ध्यान पढ़ाई में लगाने लगी। उसके पापा कहते, अगर मन में पढ़ने की इच्छा हो तो कहीं भी स्कूल लग सकता है। पापा जब भी दूसरे गांवों तक ऊँट पर जाया करते तो साथ जा रही देवयानी को भूगोल और गणित के पाठ पढ़ाया करते। न जाने कितनी कविताएँ तो उसने ऊंट की सवारी में ही याद की थीं। देवयानी ने जब ये बात रितु और रोहन को बताई, तो वे ठठाकर हँसे पड़े। भला ऊंट की पीठ पर भी सकूल लग सकता हैं ? देवयानी को चिढ़ाने के लिए अब उन्हें एक और बात मिल गई। अब उसका नया नाम “ऊँट वाली लड़की” पड़ गया। बिना प्रतिवाद किए, देवयानी ने सबसे अपने को काट लिया। अब पुस्तकें ही उसकी मित्र थीं। महिमा जी उसे नई-नई किताबें देतीं और देवयानी उन्हें पा, खिल जाती।

धीमे-धीमे, देवयानी के ज़रिए महिमा जी को देवयानी और उसकी माँ की वास्तविक स्थिति ज्ञात हो गई। देवयानी की बातों में उनका अपना अतीत झाँकता लगता। देवयानी की तरह कभी वे भी चाचा के आश्रय में रहने को बाध्य हुई थीं, पर देवयानी तो अपने पिता के घर में ही तिरस्कृत थी। महिमा जी की आँखों के सामने उनके अतीत के चित्र उभरते आ रहे थे।

पिता की आकस्मिक मृत्यु के बाद, आठवीं कक्षा पास माँ के सामने अपनी तीन बेटियों का पेट भरने की समस्या थी। चाचा को माँ और बेटियाँ फूटी आँखों न सुहातीं”

“मरने वाले खुद तो चले गए, अपना बोझा हमारे सिर छोड़ गए। चार-चार प्राणियों का पेट भरना क्या आसान बात है।” चाची मुहल्ले की औरतों के सामने अपना दुखड़ा रोतीं।

सच्ची बात तो महिमा को कुछ दिनों बाद समझ में आई। पिता की मृत्यु के बाद भोली माँ से ज़ायदाद के कागज़ों पर धोखे से दस्तखत करा, उन सबका हिस्सा चाचा ने हड़प लिया। दिन-रात काम करने के बाद भी बचे-खुचे खाने पर ही संतोष करना पड़ता। तीनों लड़कियाँ जल्दी ही अपनी स्थिति समझ गई थीं। माँ सेन्हों ने कभी कोई माँग नहीं की।

चाचा के घरन के पास समाज-सेविका शांता बहिन जी आसपास की लड़कियों को पढ़ाया करती थीं। एक दिन महिमा उनके पास पहुँच गई।

“हम भी पढ़ना चाहते हैं, बहन जी।”

“वाह ! ये तो बड़ी अच्छी बात है। कुछ पढ़ना-लिखना जानती हो ?” बहन जी ने प्यार से पूछा

”नवीं पास की थी, मैट्रिक की परीक्षा की तैयारी की थी, पर बाबूजी नहीं रहे।”

“कोई बात नहीं, इस साल तुम मैट्रिक की परीक्षा दे सकती हो?”

“कैसे, बहन जी। चाची हम बहनों को पढ़ाई की इजाज़त नहीं देंगी।”

“ये ज़िम्मेदारी मेरी है, मैं तुम्हारे चाचा-चाचा से बात कर लूँगी।”

चाचा के घर आई, शांता बहन जी उन चारों की स्थिति देख द्रवित हो गईं। चाची को समझाया, लड़कियाँ पढ़-लिखकर चार पैसे कमा सकती हैं, वर्ना उन्हें पूरी ज़िंदगी ढोना होगा। बात चाची की समझ में आ गई। सुबह जल्दी उठकर तीनों बहनें घर के काम निबटा, शांता बहन जी के पास पढ़ने जाने लगीं। महिमा की माँ बहुत सुंदर कशीदाकारी और सिलाई जानती थीं। शांता बहन जी ने माँ को रात की कक्षा में पढ़ाना शुरू कर दिया।

तकलीफ़ें उठाकर भी अन्ततः तीनों की मेहनत रंग लाई। महिमा ने बी.ए. परीक्षा पास कर ली और माँ ने मंट्रिक की परीक्षा पास करके, सिलाई-कढ़ाई में डिप्लोमा ले लिया। शांता बहन जी के सहयोग से माँ को एक सिलाई-स्कूल में नौकरी मिल गई। महिमा ने प्राइवेट स्कूल में नौकरी करते हुए टीचर्स ट्रेनिंग भी पूरी कर ली। माँ-बेटी दोनों की नौकरी के बाद शांता बहन जी ने उन्हें अलग घर लेकर रहने की सलाह दी थी। महिमा जी को याद है, वो दिन उन सबके लिए कितनी बड़ी खुशी का दिन था। माटी के गणेश जी की स्थापना कर उन्होंने नई जिंदगी की शुरूआत की थी। आज महिमा जी, उनकी माँ और बहनें, नौकरी करके आत्मसम्मानपूर्ण जीवन जी रही हैं। महिमा जी को महसूस हुआ उन्हें जो जीवन शांता बहन जी की मदद से मिला है, उनका फ़र्ज़ है, वैसा ही जीवन देवयानी और उसकी माँ का दिलाने में सहयोग दें।

दो दिन बाद घर की छुट्टी के बाद महिमा जी ने देवयानी से कहा-

“देवयानी, आज मुझे अपने घर ले चलोगी ?”

“आप हमारे घर चलेंगी, दीदी ?” खुशी से देवयानी का मुह चमक उठा।”

"हाँ, देवयानी। ले चलोगी अपने घर?”

“ज़रूर दीदी, पर हमारा कमरा बहुत छोटा है। हम बस दो ही लोग हैं, न.......।” तुरन्त अपने छोटे कमरे के लिए देवयानी ने सफ़ाई दे डाली।

देवयानी के साथ कल्याणी के पास पहुँच महिमा जी ने, कल्याणी को चौंका दिया।

“अरे, आप यहाँ ?” कल्याणी हड़बड़ा-सी गई।

“क्यों, क्या एक बहन अपनी दूसरी बहन के घर नहीं आ सकती ?” सहास्य महिमा जी ने कहा।

“नहीं-नहीं, ऐसी बात नहीं है। मुझे अपनी बहन कहकर आपने मेरी ज़िंदगी की एक बहुत बड़ी कमी पूरी कर दी।” कल्याणी की आँखों में आँसू झिलमिला उठे।

“ठीक है, तो आज से हमारा रिश्ता पक्का हुआ। हम दोनों बहनें हैं, और देवयानी, मैं तुम्हारी मौसी हूँ। अब तुम मुझे दीदी नहीं, मौसी कहोगी, समझीं।”

“समझ गई, मौसी।” मुस्कराती देवयानी ने सबको हँसा दिया। महिमा जी ने कमरे में दृष्टि डाली तो एक अल्मारी में समाज-शास्त्र, हिन्दी आदि की किताबें देखकर पूछ बैठीं -

“ये किताबें क्या देवयानी के पापा की हैं?”

“नहीं, वो चाहते थे, हम बी.ए. करके अपने पाँवों पर खड़े होने लायक बन सकें। ये सब हमारी किताबें हैं।”

“वाह ! मतलब तुमने बी.ए. की पढ़ाई की तैयारी की थी ?”

“हाँ, पर बीच में देवयानी के जन्म के बाद मेरा स्वास्थ्य इतना ख़राब हो गया कि परीक्षा नहीं दे सकी। उसके बाद तो वो खुद ही चले गए।” कल्याणी का स्वर भीग गया।

“अमर जी की इच्छा पूरी करना क्या तुम्हारा फ़र्ज़ नहीं बनता है, कल्याणी ?”

“मतलब ? मैं समझी नहीं, महिमा।”

अमर जी तुम्हें आत्मनिर्भर बनाना चाहते थे और तुम पराश्रयी जीवन जी रही हो। क्या ये जीवन, उनकी इच्छा का अपमान नहीं है ?”

“मैं क्या कर सकती हूँ ? मेरी स्थिति बहू की नहीं, एक आश्रिता की है, महिमा।”

“तो अपनी इस स्थिति को सुधारो, कल्याणी। तुम्हें भी सम्मानपूर्ण जीवन जीने का अधिकार है।”

“मैं क्या करूँ, महिमा ?” कल्याणी का स्वर करूण था।

“इन किताबों पर जमी धूल झाड़कर भूले हुए पाठ दोहराओ, कल्याणी। अगले वर्ष तुम्हें बी.ए. की परीक्षा देनी है।”

“सच, मौसी ? क्या माँ भी पढ़ेगी ?” देवयानी ताली बजाकर हँस पड़ी।

कल्याणी की आँखों के सामने एक नई दुनिया की तस्वीर खोलकर, महिमा जी चली गईं। कल्याणी के साथ देवयानी ने अल्मारी से पुस्तकें उतार, मेज़ पर सजा दीं। पुस्तकों कें पृष्ठों के बीच अमर का मुस्कराता चेहरा साकार था। अमर कहता -

“पढ़ाई पूरी करके तुम्हें गाँव की स्त्रियों को सही अर्थों में शिक्षित करना है, कल्याणी, तभी तुम मेरी सच्ची जीवन-संगिनी बन सकोगी।”

“अच्छा जी, क्या अभी हम आपकी सही जीवन संगिनी नहीं है ?” मान भरे स्वर में कल्याणी कहती।

“तुम मेरी जीवन-संगिनी नहीं, मेरा जीवन हो, कल्याणी।” अमर की प्यार भरी दृष्टि कल्याणी को सराबोर कर जाती।

सारे काम निबटाने के बाद देर रात तक कल्याणी किताबों में सिर झुकाए, पाठ दोहराती रहती। पुस्तकें खोलते ही जैसे अमर उसके पास आ बैठता। अब समस्या परीक्षा देने की थी। महिमा जी ने कमलकांत जी से विनम्र निवेदन किया-

“अमर जी अपनी पत्नी को आत्म निर्भर बनाना चाहते थे। उसके लिए किताबें खरीदी थीं। बेटे की इच्छा पूरी करके आप उनकी आत्मा को शांति पहुँचा सकते हैं, पापा जी।”