देवरियाताल, तुंगनाथ चोपता / भीकम सिंह
इस बार तुंगनाथ देवरियाताल चौपता ट्रैक के लिए यूथ हॉस्टल एसोसिएशन ऑफ इण्डिया का आधार शिविर सारी गाँव में है। जहाँ तक पहुँचने के लिए हरिद्वार से ऋषिकेश, श्रीनगर, रूद्रप्रयाग, तिलवाडा, अगस्त्यमुनि होते हुए उखीमठ पहुँचना होता है, ये सभी नगर राष्ट्रीय राजमार्ग-अट्ठावन पर हैं, जिनका इन दिनों पुनःनिर्माण और उन्नयन चल रहा है। उखीमठ से बाईं ओर का रास्ता मदमहेश्वर की ओर जाता है, जो पंचकेदार में दूसरे स्थान में माना जाता है, यहाँ भगवान शिव की नाभी की पूजा होती है यह भी रूद्रप्रयाग जनपद में नौ हज़ार आठ सौ सत्तर फुट की ऊँचाई पर स्थित है और सीधा थोड़ा चढ़ाई वाला सारी गाँव को जाता है, सात हज़ार पाँच सौ फुट की ऊँचाई पर रुद्रप्रयाग जनपद में ही लगता है।
दो हज़ार इकीस का तेरह अक्टूबर है, वर्षा ऋतु का अवसान हो चुका है, घाटियाँ स्थानीय घास और पुष्पों से आच्छादित हैं, दो घंटे गाड़ी ड्राइव करके हम उखीमठ से सारी गाँव पहुँचे, यह गाँव उषा और अनिरूद्ध की प्रणय कथा के लिए भी जाना जाता है। यहाँ सेव, आडू के साथ स्थानीय पुष्प हैं, पर्यटन और कृषि इस गाँव का मुख्य स्रोत है, पूरा गाँव ओक और रोड़ोडेंड्रोन के जंगल से घिरा है। यही हमारे ट्रैक का आधार शिविर है। आधार शिविर पर पहुँचते-पहुँचते हमें शाम के छह बज गए हैं, शिविर में हम पहुँचे तो ट्रैकर्स के लिए पकौड़ियाँ उतारी जा रही थीं और खुशबूदार चाय सफ़र की थकान मिटाने के लिए पर्याप्त थी, डॉक्यूमेंटेशन के कुछ देर बार तक हम वाई.एच.ए.आई. की कैंटीन में बैठकर सारी गाँव की संध्या को देखते रहे, जहाँ से सीढ़ीनुमा खेतों का दृश्य सुन्दर दिखाई दे रहा है। कैंटीन ट्रैकर से भरा है, कुछ फोटोग्राफी का आनंद ले रहे हैं, तो कुछ महिला ट्रैकर के मोटापे पर टिप्पणी का, यहाँ से देवरियाताल साढ़े पाँच किलोमीटर दूर नौ हज़ार पाँच सौ फुट की ऊँचाई पर है जहाँ हमें कल प्रस्थान करना है, ऐसा निर्देश गुलजार जी दे रहे हैं, कैम्प लीडर हैं। हमने अपनी गाड़ी नीचे के रास्ते पर खड़ी कर दी है और सामान उतारकर आवंटित कक्षों में जाने लगे हैं। डिनर के लिए फिर इसी कैंटीन में आना है।
हम सभी छह साथियों को दो कक्ष आवंटित किए गए हैं जिसमें संजीव वर्मा, अशोक भाटी और मैं एक कक्ष में हैं दूसरे कक्ष में भारतेन्दु, रितेश और इरशाद हैं, जहाँ तक परिचय की बात है, मुझे छोड़कर सभी एडवोकेट हैं और जनपद न्यायालय, गौतमबुद्धनगर में प्रैक्टिस करते हैं। हम फ्रैश होकर डिनर के लिए तैयार हो गए, तो इरशाद ने कहा कि यूज एण्ड थ्रो वाली प्लेटें निकालूँ या खाने के बर्तन मिलेंगे? तो अशोक भाटी ने चुटकी ली; इरशाद भाई बर्तन खाने हैं या खाना, इरशाद ने चिल्लाकर कहा, "अब कान तो मत खा"। हम कैंटीन पहुँचे, तो पता चला कि हमारे लिए ही खाना बाक़ी है सभी ट्रेकर खा कर जा चुके हैं सरसों का साग, गहथ की दाल, भात के साथ और चूल्हे की रोटियाँ देखकर मैंने वाह... कहा तो भारतेन्दु ने टोक दिया कि खाना खाने से पहले ही वाह... लेकिन भरपेट खाने के बाद सभी को वाह... वाह करनी पड़ी।
सुबह उठे तो पूर्वी पहाड़ी पर धूप फैलने लगी थी, हरा रंग अच्छी तरह से प्रकट हो रहा है, लाल चोंच वाली चिड़िया लय में कुछ कहे जा रही है, संजीव वर्मा ने फोटो लेना चाहा तो उड़ गई और दूर वृक्ष पर जा बैठी, कुछ देर बाद सुबह की चाय आ गई। तभी जानकारी मिली कि आज ही कोई बेंगलूरू से आया है परिचय हुआ, वह दर्शन है, जिस मोटी महिला का शाम मज़ाक बना रहे थे, वे मेरे पास आई और पूछा मेरा चश्मा देखा है-मैंने हाँ कह दी तो वह बोली थैंक्स गॉड! कहाँ है? मैंने कहा कल शाम जब आप पहन रही थीं, तब देखा था, सब हँस पड़े, वह मायूस हो गई, परिचय हुआ वह माधवी मेहता है, एक सौ बीस किलो वज़न के साथ गुजरात से आई है। कुल जमा हम अठारह हैं जिन्हें अभी ट्रेकिंग के लिए देवरियाताल निकलना है, ग्रुप लीड़र हरी झंडी दिखाकर चला गया, दो गाईड़ हमारे साथ हैं, अठारह का करवाँ ऊँची-ऊँची चढ़ती पगडण्डी पर बढ़ने लगा सबसे आगे अशोक भाटी है और पीछे माधवी मेहता। लंच पैक मिला नहीं है क्योंकि आज का ट्रैक साढ़े पाँच किलोमीटर का है, वहीं पर लंच मिलेगा, घने रोड़ोडेंड्रोन वाला जंगल शुरू हो गया है, मात्र पगडण्डी खुली है अथवा चलने से खुल गई है। आड़े तिरछे सीधे लेटे रोडोडेंड्रोन फैले हैं, मानो भौगोलिक पट्टे पर कब्जा करने की होड़ मची हो। गाइड ने सीटी बजाकर सबको रुकने के लिए कहा है, घने जंगल में एक साथ चलना है, सब माधवी मेहता की प्रतीक्षा कर रहे हैं, दाईं ओर चौड़ा-सा ताल दिखाई दे रहा शायद वही देवरिया ताल है जहाँ आज यानी चौदह अक्टूबर दो हज़ार इकीस को रुकना है। बाईं तरफ़ टैंट भी दिखाई दे रहे हैं, कहीं-कहीं बकरियाँ, गाएँ चराने वाले चरवाहे बैठे हैं, गाइड ने गिनती शुरू कर दी है, सोलह पर रुक गई है, संजीव वर्मा रोडाडेंड्रोन की पृष्ठभूमि में मेरी फोटो शूट कर रहे हैं तभी उन्हें मोनाल दिखाई दिया और वह लगभग चीखे, भाई साहब! मैंने देखा कि कुछ दिखाई नहीं दिया, अलबत्ता, अशोक भाटी की आवाज़ सुनाई दी-अरे! कहाँ मर गई माधवी।
सुबह के ग्यारह बज चुके हैं, सारी गाँव के इक्के-दुक्के निवासी खच्चर के साथ कन्धों पर आड़ी लाठी टिकाकर आ-जा रहे हैं, उनके दोनों हाथ रिलेक्स मूड में हिल रहे हैं। पहाड़ी महिलाएँ सिर पर बोझा (चारा) उठाए जा रही हैं, धूप चढ़ चुकी है, एक साथ सभी का स्वर गूँजा... आ गई... आ गई ...
चाय की दुकान के पिछवाड़े की तरफ़ एक बड़ी शिला पर बैठा गाईड उठा, दूर पगडण्डी पर माधवी के साथ ऊर्जा को देखकर फिर गिनती करने को कहा, तो दूर से ही ऊर्जा के अठारह कहने पर गाईड की बाँछें खिल गई। रुकसैक पीठ पर लाद सभी आगे जाने के लिए चल पड़े। कुछ क़दम चढ़कर मैंने देखा माधवी चारों ओर खुलते जा रहे रोडोडैंड्रोन के जंगल को जैसे आँखों में भर रही है और हाँफते हुए ऊर्जा से कह रही है देखो बीच-बीच में धूप फैली है, मैंने देखा, सूरज अभी पश्चिम के पहाड़ से बहुत पीछे है, इसलिए कुछ पहाड़ी छाया में दीख रही है, मैं भी कुछ डग भरकर रुकता हूँ तो अशोक भाटी भी सिगरेट निकाल लेता है।
अब थोड़ा सपाट भूमि शुरू हो गई है, टैंट लगे हुए स्पष्ट दिखाई दे रहे हैं। यह इस ट्रैक का पहला कैंप है। पन्द्रह अक्टूबर को बनियाकुण्ड, दूसरा कैंप सोलह अक्टूबर को तुंगनाथ पहुँचेंगे। एक विशिष्ट स्थापत्य वाला मन्दिर भी दिखाई दे रहा है उसी के प्रांगण को विस्तार देकर उसी में टैंट लगाए गए हैं, एक टैंट में तीन ट्रैकर्स की व्यवस्था है। लड़कियों के टैंट बाई दिशा की ओर है, उनका वाशरूम भी उसी दिशा में है, गाइड ने बता दिया। लंच तैयार है।
दो बजे लंच करने के बाद सभी की इच्छा हुई कि देवरियाताल का सूर्यास्त देखा जाय। सभी ने अपना रुकसैक टैंट में जमा दिया है, पानी की बोतल और ताश की गड्डी लेते हुए अशोक भाटी ने कहा, चलो भाई साहब, आज सूर्यास्त से पहले मैं और रितेश आपको हरा देंगे, मैंने हँसते हुए जवाब दिया, नहीं तो अग्नि स्नान करोंगे? हाँफते हुए माधवी ने पूछा, स्वीप खेलते हो क्या? मैंने ना कहा तो अशोक भाटी ने खिलखिलाकर कहा... उसमें भाई साहब को हार का डर रहता है। अशोक भाटी को लगभग डाँटते हुए संजीव वर्मा ने कहा, चल भी...ई! सारे वकील मिलकर भाई साहब को हरा देंगे। ठीक इसी क्षण मैंने देखा कि पश्चिम दिशा के सिरे पर सूर्य चमक रहा है, देवरियाताल जिस ढलान पर है उस ओर की पगडण्डी रोडोडेंड्रोंन से ढकी हुई है, बीच-बीच में हवा की सनसनाहट श्रव्य हो रही है, तीन दिशाओं में देवरियाताल की सुन्दरता एकदम दृष्टि को बाँध रही है, चौथी दिशा में छोटी पहाड़ी और उसके ऊपर एक रस्टोरेंन्ट दिख रहा है, दूर पर्वतों की दो-तीन शृंखलाएँ हैं जिन पर हल्के बादल हैं, अशोक भाटी ने ताश फैंट दिए हैं, इरशाद इकलौता दर्शक है, माधवी अपनी सहेलियों के साथ ताल की फोटो शूट कर रही है, मैस का एक कर्मचारी उसी ताल से पानी भर रहा है जिसमें हमारा डिनर तैयार होगा।
अहा, ब्यूटीफुल! अशोक भाटी ने कहा-सूर्यास्त का बेहद मनभावन दृश्य हारे हुए अशोक भाटी को सुकून दे रहा है, अस्त होते सूरज की लालिमा चेहरे पर लिये रितेश ताश में बेईमानी का आरोप लगा रहा है, संजीव वर्मा फोटो शूट कर रहा है, भारतेन्दु का मुँह गुटखे के रस से सराबोर है, इरशाद दूब से दाँत कुरेद रहा है, देवरियाताल का मैदान लगभग खाली हो रहा है, सभी कैंप की ओर लौट रहे हैं। सूरज का अस्त होना नई सुबह का संकेत दे रहा है।
अभी भिनसार है, लेकिन चारों दिशाओं से खुले आसमान के तले सोए हुए टैंटों में अभी भी नींद की खुमारी है या देवरियाताल की खूबसूरती के सपने विचरण कर रहे हैं मेरी नज़र आस-पास की पहाड़ियों पर घूम रही है, तभी दर्शन और संजीव वर्मा भी टैंट से निकलते नज़र आए। देवरियाताल के सूर्योदय का फोटो शूट जो करना है। भाई साहब! उस तरफ़ खुले में चलते हैं-संजीव वर्मा ने कहा, तो हम तीनों उस तरफ़ चल पड़े। हमने देखा कुछ ही क्षणों में धूप की सहस्रों पंखुड़ियाँ खुलने लगी, रोड़ोडैड्रोन (बुरांस) की शाखों पर चढ़कर सूर्य झांकने लगा, ये दृश्य अत्यन्त लुभावना है। हमारे टैंट से धुआँ निकलता देख दर्शन बोला, अशोक जी जाग गए हैं शायद। तभी सुबह की चाय आ गई।
ब्रैकफास्ट के बाद लंचपैक लेकर हम सभी ट्रैकर तैयार हैं, गाइड ने गिनती कर ली है, हमारा कारवाँ रोडोडैड्रोन की छाया तले बनी पगडंडी पर बिखरी सूखी पत्तियों पर चलने लगा। गाइड बता रहा है कि यदि हम लोग यह ट्रैक मार्च-अपै्रल में करते तो सूखी पत्तियों की जगह लाल कारपेट—सा दिखाई देता, उस दौरान देवरियाताल से रोहिणी बुग्याल तक गहरे लाल रंग के फूलों से एक ख़ास क़िस्म की महक भी फूटती है, तभी अशोक भाटी सिगरेट जलाता है और एक गाइड को भी देता है, दूर... दर्शन प्रतीक्षारत बैठा है, उसे सिगरेट के धुएँ से चिढ़ है। चार किलोमीटर चढ़ाई के बाद समतल पगडंडी का रास्ता आ गया है, यहाँ से सारी गाँव भी दिखाई दे रहा है, सभी ट्रैकर ख़ुशी से उछल पड़े, यह आज यानी पन्द्रह अक्टूबर दो हज़ार इकीस का लंच प्वाइंट है, सभी ने टिफिन खोल लिये हैं, दर्शन लम्बी-लम्बी डग भरते मेरी तरफ़ आ रहा है, सर! अचार... वह तो अशोक भाटी रखते हैं, मैंने कहा तो दर्शन अशोक भाटी की ओर मुड़ गया।
दिन का एक बजा है, लंच के बाद सभी इकट्ठा हो गए हैं, गुजराती, मराठी, तेलगू, राजस्थानी लेकिन सभी हिन्दी की मधुरता महसूस करते बीच-बीच में हँसी के फव्वारे छोड़ रहे हैं। अशोक भाटी ने पश्चिमी हिन्दी की खड़ी बोली बाँगरू में कोई जोक सुनाया है, माधवी मेहता कविता लिखती है, दर्शन भी हिन्दी कविता सुनने और पढ़ने में रुचि रखते हैं। मैंने हाइकु कविता सुनाई तो दर्शन ने रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु' का हाइकु-'काँटे जो मिले / जीवन में गुलाब / उन्हीं से खिले' ... रास्ते में कई बार दोहराया, तमिल भाषी होने के बावजूद हिन्दी का बेहतरीन उच्चारण, मैंने 'वाह वाह' कहा तो दर्शन ने थ्री इडियट फ़िल्म वाले स्टाइल (जहाँपनाह तोहफा कबूल करो) में सलाम किया, संजीव वर्मा ने ठहाका लगाया तो रोडोडैड्रोन और ओक के घने जंगल में उसकी प्रतिध्वनि गूँजती रही और हम उतार-चढ़ाव वाले रास्ते पार करके मखमली घास वाले रोहिणी बुग्याल पहुँच गए।
दशहरा का दिन है, मगर इस समय आकाश में हल्के-हल्के बादल हैं, सीढ़ीनुमा खेतों में मक्का का पीलापन और रोहिणी बुग्याल की घास आँखों को तरोताजा कर रही है, चौखम्भा, त्रिशूल और नन्दादेवी पर्वतों का नज़ारा भी दीख रहा है। बनिया कुंड लिखा वन विभाग का साईन बोर्ड जैसे दिखा, सभी थकान भूलकर हँसी मज़ाक करने लगे। सूर्य ओक के घने जंगलों के पीछे अभी भी बादलों में लुक-छिप रहा है। हम गोपेश्वर मार्ग पर खड़े हैं, यहाँ से दस किलोमीटर की दूरी पर कस्तूरी मृग अभ्यारण्य है, गाइड ने बताया कि कस्तूरी मृग उत्तराखण्ड का वन्य पशु है, कस्तूरी मृग को हिमालयन मस्क डियर के नाम से भी जाना जाता है, जो भूरे रंग पर काले-पीले धब्बे लिये होता है, इसके दो दाँत बाहर निकले होते हैं यह सींग विहीन होता है। वर्ष दो हज़ार पन्द्रह से इस अभ्यारण्य में एक-आध ही कस्तूरी मृग दिखाई देता है।
बनिया कुंड में ट्रैकर का मेला-सा लगा है, बनिया कुंड, गोपेश्वर रोड़ पर एक छोटे से बाज़ार के रूप में उग आया है, यूथ हॉस्टल के अतिरिक्त इण्डिया हाइक, एडवेंचर, शिखर ट्रैवल के ट्रैकर भी हैं। यहाँ ट्रेक कराने वाले संगठनों ने स्थानीय लोगों से मिलकर स्थायी टैंट बना लिये हैं। मैंने पहली बार अटैच वॉशरूम टैंट बनिया कुंड में देखे, हम छह को एक टैंट आवंटित कर दिया है, वैलकम ड्रिंक्स के लिए सीटी बज चुकी है, सभी अपना-अपना मग लिये वैलकम ड्रिंक्स लेने जा रहे हैं, रितेश अपना मग लेकर इरशाद की ओर ताक रहा है। वैलकम ड्रिंक्स में स्थानीय रोडोडैड्रोन का शरबत है। बगैर औपचारिकता के हँसी मज़ाक शुरू हो गई है, दर्शन ने एक छोटी-सी डायरी निकाली, मुझे लगा कोई कविता पढ़ेंगे; परन्तु उन्होंने अशोक भाटी से वही जोक सुनाने का आग्रह किया है, तो अशोक ने सुनाना आरम्भ किया, ' एक गाम मैं चार-पाँच बालक धींगामस्ती करै थे, अर् आणे-जाणे वालों का मज़ाक उडावै थे, एक वकील किसी का घर बूज्झण लगा, तो वह बोले-हम तो आडै रिश्तेदारी मैं आरे... हमने नी बेरा। वकील ने सहज स्वभाव में पूछा-रै थारी आडै के रिश्तेदारी है? बालक बोल्ले-"म्हारी माँ ब्याह रखी है आडै।"
कुछ मुँह उठाकर हँसे, दर्शन की डायरी खुली रही, मेरे से गाँम का मीनिंग पूछा तो अशोक भाटी बोल पड़ा-दर्शन भाई! अभी गाम पर ही हो। सभी अपने-अपने टैंटों में जाने को चल पड़े।
सोलह अक्टूबर दो हज़ार इकीस की सुबह के साढ़े पाँच बजे हैं, टैंट तक शाख़ बढ़ाए ओक पर बैठा पक्षी प्रभात का स्वागत कर रहा है, उसका नीलिमा लिये रंग अनोखा प्रतीत हो रहा है। दूर कस्तूरी मृग अभ्यारण्य ध्यानास्थ है, गोपेश्वर मार्ग पर आवाजाही शुरू हो गई है। हम तुंगनाथ जाने के लिए रुकसैक भर रहे हैं। वजनदार रुकसैक पीठ पर लादकर हम कुछ देर में निकल पड़े, तो मैंने कहा-"गुड बाय बनियाकुंड।"
बनियाकुंड ऊखीमठ गोपेश्वर मार्ग पर है, यहाँ से चार किलोमीटर की दूरी पर तुंगनाथ चोपता। इस मार्ग के इर्दगिर्द उमंग का भाव जगाने वाली चेतना का अनुभव करते हुए हम तुंगनाथ चोपता पर आ गए हैं। यहाँ ट्रैकर्स / पर्यटकों के लिए सजाई दुकानें, होटल और खच्चर हैं। मंदिर के प्रवेश द्वार पर पीतल का घंटा लटका है, बाईं तरफ़ पत्थर की शिलापट्टी पर मंदिर के बारे में जानकारी है। महाभारत के युद्ध में पांडवों द्वारा अपने चचेरे भाई बंधुओं, गुरु का वध करने के उपरान्त आत्मग्लानि से बचने के लिए व्यास ऋषि की सलाह से भगवान की स्तुति के लिए, उनका दर्शन पाने के लिए पांडव भगवान शिव का पीछा कर रहे थे, जो गुप्तकाशी में गुप्त हो गए थे, तत्पश्चात् शिव ने शरीर के पाँच भाग किए, पंच केदार के रूप में जाने जाते हैं। जिसमें तृतीय केदार के रूप में तुंगनाथ की पूजा की जाती है। इस शिला से साढ़े तीन किलोमीटर पैदल मार्ग है, जिसे पत्थर व चट्टानों को काटकर आसान बना दिया है, ताकि खच्चरों से भी आया जा सके। धूप चढ़ चुकी है और हम चढ़ने की तैयारी कर रहे हैं। यहाँ से नीचे का दृश्य सुन्दर दिखाई दे रहा है। भारतेन्दु रितेश और इरशाद बड़बड़ाते हुए आगे चले गए हैं, मैं संजीव वर्मा और अशोक भाटी चाय की दुकान की एक बेंच पर बैठ गए हैं, प्रवेश द्वार पर लकड़ी की दीवारों और ढलवाँ छप्पर से बनी है, धुएँ से काली हो गई है, उसी दुकान पर स्थानीय बुज़ुर्ग बैठे हैं, खच्चर से यात्रियों को ले जाते हैं, दुकान के बगल में भी तम्बू लगाकर खच्चरों को खड़ा किया गया है, अशोक भाटी उनसे बात कर रहा है, मैंने संजीव वर्मा के साथ चाय पीनी शुरू कर दी है। संजीव वर्मा ने चाय की चुस्की लेते हुए कहा-भाई साहब! ये पांडव यहाँ आए होंगे? पांडव कहाँ नहीं पहुँचे? परन्तु यहाँ चाय पीकर नहीं गए होंगे, मैंने हँसकर कहा।
पश्चिमी दिशा की ओर पर्वत शिखरों पर धूप बिछी हुई है पूर्व में रोडोडेंड्रोन की छाया हमारे पैदल मार्ग पर पड़ रही है, नीले आकाश में छितरे हुए सफेद बादल तैर रहे हैं, इक्का दुक्का तीर्थयात्री खच्चर पर बैठा आँखों में कुतूहल भरे खच्चर के टप-टप की लय से अपनी कमर हिलाते हुए रास्ते में बढ़ रहा है, अशोक भाटी ने गति बढ़ा दी है दर्शन मेरे से हाइकु सुनाने का निवेदन कर रहा है, मैं उसे रामेश्वर काम्बोज हिमांशु का एक और हाइकु सुनाता हूँ, तो अशोक भाटी बिना सुने ही वाह-वाह कर देता है, लगभग आधा किलोमीटर चलने पर मैं और दर्शन एक शिला पर बैठ जाते हैं, सामने हरीचांस हरियाली पर धूप फैली हुई है, हमारे कुछ मित्र कुछ देर तक घास पर बैठे रहे, तब संजीव वर्मा हमारा फोटो शूट करते हैं, तभी अशोक भाटी चिल्लाया वह देखों माधवी!
रास्ते में तीर्थयात्रियों के साथ खच्चरों की आवाजाही बढ़ने लगी है, थोड़ी-सी चढ़ाई के बाद छोटा-सा झरना दिखाई देता है, जिसका प्रवाह रोडोडेंड्रोन ने मोड दिया है, छलकते पानी से संजीव वर्मा ने पानी की बोतल भरी मैंने देखा माधवी टेढ़ी-मेढ़ी होते हुए बढ़ी चली आ रही है और इच्छाशक्ति / हिम्मत के नए-नए अर्थ खुलते जा रहे हैं।
मंदिर के बाईं ओर केन्द्र सरकार का अल्पाइन शोध संस्थान है, वहाँ जाना प्रतिबंधित है, वैसे भी लम्बे बुग्याल से घुमावदार रास्ता पार करके वहाँ तक पहुँचना है। अब धूप भी लग रही है अल्पाइन शोध संस्थान को दूर से देखकर ऐसा लगता है कि हम अतीत और वर्तमान में एक साथ खड़े हैं। यहाँ लकडी से बना छोटा-सा अस्तबल है, उसमें कुछ खच्चर खड़े हैं आज कैम्प का अन्तिम दिन है तुंगनाथ मंदिर। बस एक सौ मीटर की दूरी पर है, तीर्थयात्री और ट्रेकर्स के उल्लास की छुअन मुझे छू-छू कर जा रही है। कुछ ऊपर चढ़ा, तो रास्ते के दोनों किनारों पर छोटी-छोटी खाने-पीने और पूजा सामग्री की दुकानें सजी हैं, थोड़ी देर में हम मंदिर परिसर में पहुँच गए। जहाँ पत्थर की पुरानी मूर्तियाँ हैं, खुले में बैठा हुआ नंदी और लम्बा-सा त्रिशूल प्रवेश द्वार से दिखाई दे जाता है। मुख्य मंदिर के चारों तरफ़ अवस्थित अलकनन्दा, भैरवनाथ की मूर्तियाँ हैं, मैं मंदिर के अन्दर गया, वहाँ एक फुट लम्बा पत्थर है। इसकी भी एक किंवदंती है कि इसे पांडवों ने भगवान शिव को प्रसन्न करने के लिए स्थापित किया था। यहाँ से हमें डेढ़ किलोमीटर ऊपर चन्द्रशिला जाना है। काफ़ी घुमावदार रास्ता पार करके जाना है। अब धूप भी लग रहे थी, कहीं-कहीं नुकीले पत्थर विशिष्ट आकृति वाले लग रहे हैं। अभी हम चल ही रहे हैं कि दूर उल्लास से उफनता समवेत स्वर सुनाई दिया, जो हमारे युवा साथियों का है, वे चन्द्रशिला पर पहुँचे हैं और उसी का उत्सव सेल्फी ले-लेकर और हो-हो कर के मना रहे हैं। मैंने देखा चारों ओर पर्वतमालाएँ हैं नंदा देवी, त्रिशूल, केदार और बंदरपूँछ का बर्फ से आच्छादित व्यू दिखाई दे रहा है। जो कल्पना से ज़्यादा भव्य और सुंदर है फिर से तीन सौ साठ डिग्री घूमकर दृश्यों पर नज़र डाली, नीचे फैली हुई घाटी पर नज़र डाली, अल्पाइन शोध संस्थान, बुग्याल आदि, तेरह हज़ार एक सौ तेईस फुट ऊँचाई से भी भव्य दीख रहे हैं। यहाँ के शांत और रमणीक वातावरण का अद्भुत नजारा आँखों को एक अलग सुकून दे रहा है। साथ ही यहाँ बहती ठंडी-ठंडी हवा और उसकी सर सराहट मन को शांति प्रदान कर रही है एक किंवदंती यह भी है कि श्रीराम ने पश्चाताप के फलस्वरूप चन्द्रशिला की इसी पहाड़ी पर ध्यान किया था और भगवान शिव से क्षमा याचना की थी। इन दिनों चन्द्रशिला पर एक टोटका लोकप्रिय है यहाँ पर्यटक छोटे-छोटे पत्थरों की चट्टे लगाकर घर बनने की मन्नत माँगते हैं जिस कारण जगह-जगह पत्थरों के चट्टे कतारों में अनुशासित-से दिखाई दे रहे हैं। घास से घिरे एक छोटे से शिला खंड पर मैं बैठ गया हूँ। हमारे ग्रुप के कुछ साथी ट्रैकर वापिस चलने को कह रहे हैं, कुछ ने तेज डगों से लौटना शुरू कर दिया है। हमने भी निश्चय किया कि लौटा जाए। सूरज अभी वृक्षों के सिर पर दिख रहा है।
हम सभी चोपता की भीड़-भाड़ भरी सड़क को पार करते हुए बद्रीनाथ धाम की ओर जाने वाले सड़क पर खड़े हैं, संजीव वर्मा ने वीड़ियों बनानी शुरू की, मगर भारतेन्दु और रितेश की रुचि बद्रीनाथ दर्शन में है, बद्रीनाथ धाम यहाँ से लगभग एक सौ अस्सी किलोमीटर है। गोपेश्वर तक एन.एच. एक सौ सात ए, उसके बाद बद्रीनाथ धाम तक एच.एन. सात पर चलना है। सभी ने बद्रीनाथ धाम जाना तय किया, हम दो कारों में बैठे, एक में भारतेन्दु, रितेश और इरशाद और एक में मैं, संजीव वर्मा और अशोक भाटी। चोपता से बाहर निकलते ही रमणीय मार्ग शुरू हो गया है घाटी अब गहरी होती जा रही है, वन सघन होता जा रहा है, वन विभाग ने जगह-जगह नारे लिखे हैं, भारतेन्दु की कार आगे निकल गई है, संजीव वर्मा झल्ला उठा, अशोक भाटी बड़बड़ाते हुए इरशाद को फ़ोन लगा रहा है, अरे! इतना तेज क्यों दौड़ रहे हो, साथ-साथ चलो। कहते सुनते हम सूर्यास्त तक गोपेश्वर आ गए, बहुमंजिला होटल दिखाई दिया और हमारी कारें होटल की तरफ़ मुड़ गई।
आनन्द होटल के डूरमेटरी रूम से निकलकर हम तीसरे फ्लोर पर बने रेस्टोरेंट में खाना खाने चले गए। लगभग एक घंटा बाद संजीव वर्मा ने रूम में बैठकर ताज़ा अपडेट्स चैक किए, लगातार फ़ेसबुक और व्हाट्सएप पर फोटो अपलोड करना उनकी दिनचर्या का हिस्सा है और सोशल साइट्स के अपडेट करना उनको तरोताज़ा रखने में मदद करता है, जबकि रितेश और भारतेन्दु के कारण ही बद्रीनाथ धाम की यात्रा का कार्यक्रम बना; लेकिन उनकी बोतलें खुलने और गरम-गरम पकौड़ों से लगा कि हम किसी ओर काम से आए हैं, जो भी हो हम छह के छह इस ट्रैक और बद्रीनाथ की यात्रा से खुश हैं, बावजूद इसके कि पूरे ट्रैक की थकान हमारे चेहरों से झलक रही है, हाँ भारतेन्दु और अशोक भाटी के होठों पर अभी भी सिगरेट के धुएँ की रंगत बनी हुई है। सतरह अक्टूबर दो हज़ार इकीस, ये बद्रीनाथ धाम है दोपहर का एक बजा है, प्रशासन ने बारिश का अलर्ट जारी कर दिया है पुलिस सायरन से तीर्थयात्रियों को गंतव्य पर लौटने का निवेदन कर रही है। अशोक भाटी गाड़ी के शीशों पर लगे धुंधलके को साफ़ करने लगता है संजीव वर्मा गाड़ी से बाहर निकलकर रितेश, भारतेन्दु और इरशाद को खोजने में मशगूल हैं बद्रीनाथ धाम पर घुमड़ते बादल किसी भी समय बरस पड़ने की चेतावनी दे रहे हैं। हवा के झोंको ने ठंड का माहौल बनाना शुरू कर दिया है। शायद वह लोग चले गए हैं, बहुत देर खोजने के बाद संजीव वर्मा की आवाज़ आई, मोबाइल का नेटवर्क भी काम नहीं कर रहा, उचटती हुई निगाह पार्किंग स्थल पर डालते फिर संजीव वर्मा ने कहा-हम भी चलें क्या? मैंने और अशोक भाटी ने सहमति जताई तो सतरह अक्टूबर दो हज़ार इकीस की दोपहर बद्रीनाथ से संजीव वर्मा ने ड्राइविंग शुरू की। बारिश की फुहारें, खिड़की से अंदर आने लगी तो संजीव वर्मा ने खिड़की के काँच चढ़ा लिये, पड़पड़ाते पानी पर वाईपर फिसलने लगा और पहाड़ी ढालों पर गाडी भी चालीस-पचास की गति से चलने लगी। बीच-बीच में खुराफाती पत्थर सड़क पर गिर जाते तो साँसे रुक-सी जाती। इस समय नेशनल हाईवे सात पहाड़ों के साथ भीग रहा है, हरे पेड़ पानी से निखर रहे हैं और उनके पैरों की ज़मीन धीरे-धीरे खिसक रही है। जिससे हम तीनों का ब्लड प्रेशर बढ़ रहा है, पत्थर के सड़क पर गिरते ही हम चिंता से घिर जाते हैं, पिपलकोटी में रुक जाते हैं, जहाँ ब्रैक फास्ट किया था-अशोक भाटी बड़बड़ाया अरे उन दुष्टों को तो फ़ोन लगा कहाँ पहुँच गए-संजीव वर्मा ने अशोक भाटी को लगभग डपटते हुए कहा, वैसे ही एक छोटा—सा पत्थर गाड़ी के ऊपर गिरा, तो मायूसी की एक गहरी छाया हमारे चेहरों पर बैठ गई, जो इरशाद का फ़ोन आने पर उतरी। मुझे कोई ठीक अंदाजा नहीं है कि क्या समय हुआ था किन्तु घना अँधेरा था वाहनों की लाइट से ही सड़क, घाटी और मोड़ दिखते, पानी बरसने की आवाज़ आ रही है यानी बारिश तेज होने लगी है, पीपलकोटी दिखाई दिया तो कुछ जान में जान आई। यह छोटा-सा कस्बा अपने मिज़ाज में अलग है, अलग इस मायने में कि यहाँ के खाने-पीने की दुकानों में लूट-कपट कम है, बद्रीनाथ के मुकाबले, यह सचमुच आश्चर्य की बात है कि पीपलकोटी खाने में गुणवत्ता के लिए बिल्कुल अलग कस्बा है। हम यहीं सर छुपाने की जगह खोजने लगे, कोई होटल दिख नहीं रहा है, अन्ततः जी.एम.वी.एन. का टूरिस्ट हाऊस दिखा, हम जैसे-तैसे बारिश में भीगते-भागते टूरिस्ट हाऊस में पहुँचे-किसी तरह मैनेजर को एक कमरे के लिए राजी किया। कमरा सादा और बाथरूम बेहद छोटा था, फिर भी हमने सीढ़ियाँ चढ़कर सामान जमा दिया। संजीव वर्मा अभी भी इरशाद, रितेश और भारतेन्दु को लेकर चिंतित है। तभी मझोले कद का टूरिस्ट हाऊस कर्मचारी प्रकट हुआ, तो हमने दो चाय का ऑर्डर दे दिया। शाम के छह बजे हैं, बादल अभी भी आपस में गुँथते जा रहे हैं, काली घटाओं ने आसमान को घेर लिया है, बूँदों की हल्की—सी फुहार खिड़की से आ रही है। हाथ-मुँह धोकर मैं और संजीव वर्मा चाय पीने बैठे, अशोक भाटी ने सिगरेट सुलगा ली है। थोड़ी देर बाद वही मझोले कद वाला कर्मचारी आया और पूछा, "खाना कब लेंगे सर?"
"आठ बजे" , हमारा समवेत स्वर निकला। तभी बादलों की जोरदार गड़गड़ाहट हुई तो संजीव वर्मा को फिर इरशाद, रितेश और भारतेन्दु की चिंता हुई। अशोक भाटी ने संजीव वर्मा को एक नज़र देखा और मुँह बिचका दिया। इस बार संजीव वर्मा हँस पड़े और हमने निश्चय किया कि निश्चिंत होकर खाना खाया जाए और सुबह होने का इन्तजार किया जाए, भाड़ में जाएँ।
"खाना तैयार है" , (यह आवाज़ मझोले कर्मचारी की आई) हम खाना खाने बैठ गए। सुबह उठे और अपना सामान गाड़ी में लादकर दादरी, ग्रेटर नोएडा की ओर चल पड़े।