देवांग / पद्मजा शर्मा

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'माँ, देवांग का अपने ऑफिस की पी आर ओ रूबी के साथ अफेयर है।'

'अदिति, किसी निर्दोष पर झूठे इल्जाम नहीं लगाने चाहिए. माँ उसे समझाइए. ऐसी कोई बात नहीं है।'

'तुम शाम को, रात को फोन पर लगे रहते हो, वह सब क्या है?'

'वो तो ऑफिस के काम से फोन आता है उसका। कैसे मना कर दूं बात करने से?'

'रात को कौनसा ऑफिस होता है?'

'देखिए, आपकी बेटी हदें पार कर रही है। मैं बात बढ़ाना नहीं चाहता हूँ। इसे कहें कि घर चले। घर में काम की कितनी तकलीफ हो रही है। हम सब दु: ख पा रहे हैं।'

'रूबी को लाओ, वह करेगी सारे काम। तुम्हारे और बच्चों के. जब तुम्हारे साथ घूम सकती है। होटल-पिक्चर जा सकती है। बाज़ार जा सकती है तो घर का काम क्यों नहीं कर सकती? तुम्हारी माँ की सेवा क्यों नहीं कर सकती? वैसे तो बहुत मांजी-मांजी करती है। मांजी भी उसकी तारीफ करते नहीं अघातीं।'

'घर भी आती है क्या?'

'हाँ माँ। शनिवार को अक्सर आती है। तब दोनों अकेले ड्राइंग रूम में बैठे रहते हैं। दो-दो, तीन-तीन घंटे। मैं चाय-नाश्ता देने के अलावा अगर वहाँ जाती हूँ तो किसी न किसी काम से मुझे वहाँ से भगा देते हैं।' तू बेटी को होम वर्क करवा दे',' तू रसोई समेट ले',' चाय का एक दौर और हो जाए. 'मैं इनके लिए चाय-नाश्ता बनाऊँ, इन्हें एकांत दूं और बुरा भी न मानू? और हंसती भी रहूँ? ये सब अब मुझसे नहीं होगा। इतना ही वह पसंद है तो घर में डाल लें। घर के काम भी करवाएँ उससे। मैं बेटी की स्कूल के पीटीएम में जाने का बोलूँ तो मीटिंग आ जाती है। मैं बाज़ार जाने का बोलूँ तो थकान आ जाती है। कभी मैं थकान का बोलूँ तो कहते हैं' दिन भर तो घर में पड़ी रहती हो। पड़े-पड़े थक गयी होगी। थोड़ा काम करो थकान दूर हो जाएगी। 'इनसे पूछो घर का काम कौन करता है। कभी नए कपड़े पहनूँ तो पूछेंगे' कितने रुपए की माटी की? 'और खुद रोज नए-नए पहनते हैं। कहते हैं' ऑफिस में स्मार्ट दिखना पड़ता है। 'क्या मैं घर पर हूँ तो भिखारी की तरह रहूँ? कभी बेटी की फरमाइश पर कुछ पकाऊँ, खास डिश बनाऊँ तो कहेंगे' माँ बेटी खाऊ हैं। 'क्या मैं सप्ताह में एक बार भी बेटी की रुचि का ध्यान नहीं रख सकती?'

'जरा-जरा-सी बात पर घर थोड़े ही छोड़े जाते हैं अदिति? यूं तो ऑफिस के काम से सब एक दूसरे के घर आते जाते हैं। मिलते-जुलते रहते ही हैं। फोन भी होते ही हैं। बेटा, दिमाग थोड़ा खुला रख।'

'अरे माँ, शनिवार की ही बात है। बारिश हो रही थी। रात का समय था। ये रूबी को छोडऩे उसके घर जा रहे थे। मैंने कहा-' मैं भी चलती हूँ'। बोले-' तू क्या करेगी? घर का काम सलटा। 'मैंने कहा-' सब काम हो गया है। 'अब ये क्या करते बेचारे। बोले-' चलो। 'माँ गाड़ी के पास की जगह फिसलन भरी थी। रूबी का पांव स्लिप हो गया। ये एकदम से चिल्लाए-' अरे लगी तो नही। 'और उसका हाथ पकड़कर कार तक ले गए. उसके लिए कार का आगे का दरवाजा खोला। वह तो उस रूबी को ही शर्म आ गई. उसने कहा-' अदिति जी बैठेंगी आगे'। हम रूबी को छोड़ आए. वापसी में कार से उतरते हुए मेरा पांव स्लिप हो गया। वह तो शुक्र मनाओ कि पास में पेड़ था। मैंने उसे पकड़ लिया। इन्होंने ये सब देखा और दूर खड़े ही बेाले-' देखकर नहीं चला जाता क्या? '

माँ ने दृढ़ता के साथ कहा-'दामादजी, फिलहाल आप अपने घर जाइए. जिस दिन आपको रिश्तों की नजाकत और अहमियत समझ में आ जाए उस दिन अदिति को ले जाना।'

'माँ, यह बकवास कर रही है और आप भी अपनी बेटी का फेवर कर रही हैं। इस तरह तो आप हमारा घर तुड़वा रही हैं?'

'दामादजी, अपने किए कामों के परिणाम खुद ही भुगतने के लिए तैयार रहना चाहिए. आप अपना समय लीजिए और ठंडे दिमाग से इस पर सोचिए कि कोई आपका घर तुड़वा रहा है या आप खुद ही तोड़ रहे हैं। अब आप जाइए, रात बहुत हो गई है। घर में बच्चे अकेले हैं।'

'ये बच्चों को क्यों छोड़कर आई? उन्हें भी ले आती अपने साथ?'

'कहा था उन्हें। वे बोले हम पापा के साथ ही रहेंगे।'

'तेरे ही सिखाए हुए है वे। साले पिल्लों ने मेरा जीना हराम कर रखा है। मैं ऑफिस देखूं कि घर देखूँ। किस किसकी डिमांड पूरी करूँ?'

माँ बेटी सोफे से उठ खड़ी हुईं। माँ ने दरवाजा खोला और कहा-'दामाद जी, बोलने को हमारे पास भी बहुत है। पर अब आप जाइए.'

देवांग अपने आपको लुटा हुआ-सा महसूस कर रहा था। उसके घर से निकलते ही अदिति ने जोर से दरवाजा बंद कर दिया।

देवांग को लगा कि जिस तरह से दरवाजा बंद हुआ है उससे साफ जाहिर है यह दरवाजा अब आसानी से तो नहीं ही खुलेगा। इसे खुलवाने में बहुत जोर आएगा। वह सोच ही रहा था कि तभी उसका मोबाइल बज उठा। देखा रूबी का था। देवांग ने फोन काट दिया।