देवी / लावण्या नायडू
जनवरी की उस शाम धारासार बरसात शुरू हो गई थी। वह नखशिख भींगा हुआ था और जंगल में पेड़ के नीचे खड़ा कांप रहा था, तभी जोर की बिजली कड़की और उसने देखा, उस पेड़ के ठीक पीछे एक मकान था। उसने चारों ओर देखा, अब अँधेरा भी जल्दी होने की आशंका बढ़ती देख, कोई और उपाय भी नज़र नहीं आया तो उसके पैर उस मकान की तरफ बढ़ चले। ज्यादा बड़ा मकान नहीं था, दरवाज़े और खिड़कियाँ भी बंद थी। दरवाज़े की कड़ी बजाकर उसने आवाज़ लगायी
"कोई है, सुनिये बाहर बहुत तेज़ बारिश हो रही है। क्या आज रात के लिये या केवल बारिश रुकने तक आप मुझे आश्रय दे सकते हैं? बड़ी मेहरबानी होगी।"
अंदर से कोई आवाज़ नहीं आयी। वह वहीं दीवार से सट कर खड़ा रहा। कुछ देर बाद किसी ने हलका-सा दरवाज़ा खोला
"सुनिये मैं आपको अंदर नहीं आने दे सकती किंतु ये छाता ले लिजिये, शायद कोई मदद हो जाये। रुकिये मैं नीचे रख देती हूँ, बारिश के पानी से शुद्धि हो जाये तब उठाइयेगा।"
"मैं कुछ समझा नहीं।"
"मैं अभी अपवित्र हूँ ना इसलिये। वह क्या है ना मैं रजस्वला हूँ, हर महीने पांच दिन मुझे हमारे इस कोठरी में आकर अकेला रहना पड़ता है" लड़की ने बाहर बाती जलाते हुए कहा।
"तुम्हें यहाँ सुनसान अकेले में डर नहीं लगता?"
"पहले लगता था, मैं बहुत रोती भी थी। माँ से मेरा रोना देखा नहीं जाता तो वह यहाँ बाहर सोती थी और मैं अंदर। फिर" वह अचानक चुप हो गई
"फिर क्या"
"अब माँ हमेशा मेरे साथ रहती है" उसने दरवाज़ा थोड़ा और खोला और एक चंदन की माला चढ़े तस्वीर को देखकर मुस्काई। मुस्कुराते हुए जैसे उसका गला भर आया था।
"तुम्हारे गाँव में कोई कुछ बोलता नहीं?"
"नहीं" उसकी आवाज़ में सहजता थी।
"ये तो गाँव के हर घर में हर स्त्री के साथ होता है फर्क सिर्फ़ इतना है किसी को कोठरी मिलती है किसी के नसीब में झोपड़ी" बोलती हुई वह चौखट के उस तरफ बैठ गई।
खड़ा खड़ा वह भी थक चुका था तो चौखट के इस तरफ वह भी बैठ गया।
"तुम्हारा खाना?"
"अंदर चुल्हा है, बना लेती हूँ जो कुछ सामान रखा हो उसमें।"
"तुम इतनी छोटी, खाना बना लेती हो?" उसके आवाज़ में आश्चर्य।
"हाँ, मैं तो बहुत स्वादिष्ट खाना बनाती हूँ" बोलते हुए उसकी आँखों में चमक आ गई, शायद थोड़ी उस बाती की भी रौशनी आँखों में घुल गई थी।
"आप कुछ खायेंगे?" लड़की ने बड़े उत्साह से पूछा पर अगले ही पल "पर आप तो अभी मेरे हाथ का नहीं खा सकते" लड़की का चेहरा मुरझा गया।
"क्यों नहीं खा सकता?"
"अरे बाबा मैं अपवित्र हूँ अभी, बताया तो था"
लड़की की मासूमियत पर वह मन ही मन मुस्काया। कुछ देर दोनों चुपचाप बैठे रहे। फिर उसने अपने बैग से अपनी कुछ दवाई निकाली, कुछ सोचकर वापस अंदर रखने लगा।
"क्या हुआ, आपने अपनी दवाई वापस अंदर क्यों रख दी?"
"मैं खाली पेट दवाई नहीं ले सकता तकलीफ़ होगी, पर"
"पर क्या"
"दवाई नहीं लिया तो भी मेरी तबीयत बिगड़ सकती है।"
उसने तिरछी नज़र से लड़की को देखा
"ओह! अब?"
"क्या कर सकते हैं? तुम कुछ खाने को दे नहीं सकती, मेरे पास कुछ खाने को है नहीं"
लड़की गंभीरता से सोचने लगी फिर धीरे से बोली
"सुनो मैं तुम्हें खाना देती हूँ पर तुम ये बात किसी को मत बताना। वादा करो"
"वादा"
"अरे ऐसे नहीं अपने सर पर हाथ रखकर बोलो"
वो फिर उसके भोलेपन पर मुस्कुरा दिया और सर पर हाथ रखकर बोला "वादा। अब खुश?"
"हाँ। अब रुको मैं तुम्हारे लिये खाना लेकर आती हूँ।"
थाली में दही-चावल, प्याज और आग में सिके पापड़ लाकर उसके सामने रख दिये।
वो ऐसे पलक झपकते थाली साफ कर गया जैसे कई दिनों का भूखा था।
"कैसा लगा खाना?"
"अमृत" वह आँखें बंद कर बोला जैसे वह स्वाद में खो जाना चाहता था, उस स्वाद को अपने आत्मा तक पहुँचाना चाहता था।
लड़की मुस्कुरादी।
दोनों ने रातभर बहुत बातें की। सुबह तड़के बारिश भी रुक चुकी थी। वह उठकर जाने लगा, एक पल के लिये पलटकर उस लड़की को देखा और बोला "तुम अपवित्र नहीं हो, ना ही कोई भी रजस्वला स्त्री कभी अपवित्र होती है। तुमने मुझे आश्रय दिया, भोजन करवाया। वह भोजन मेरे लिये प्रसाद समान था। तुम्हारा नाम पूछ सकता हूँ?"
लड़की आँखों में आंसू और होठों पर मुस्कान लिये बोली "देवी"
"तुम सच में देवी हो" बोलकर उसने लड़की के आगे हाथ जोड़े और वहाँ से चला गया।
थोड़ी दूर चलने पर उसे एक ट्रेक्टर मिला।
"गाँव में नये लगते हो भैया, रातभर तेज़ बारिश में कहाँ रुके थे?" ट्रेक्टर वाले ने पूछा
"वो जो सड़क किनारे कोठारी नुमा मकान है, वहाँ एक छोटी बच्ची देवी ने मुझे आश्रय दिया।"
ट्रेक्टर में बैठे लोग एक दुसरे को देखने लगे।
उस कोठरी में लड़की की माँ के तस्वीर के बाजू में उस लड़की की भी चंदन की माला चढ़ी तस्वीर थी जिसकी मौत उस कोठरी में सांप डसने से हुई जब वह रजस्वला थी और कोठरी में अकेली थी। वहाँ उसे बचाने वाला कोई नहीं था।