देव नागरी लिपि की उपेक्षा / सुधेश

Gadya Kosh से
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मैं प्राय: देखता हूँ कि देवनागरी लिपि की व्यापक उपेक्षा हो रही है। इस उपेक्षा के कई ढंग हैं। एक यह कि समाचार पत्रों में, दूरदर्शन के विभिन्न चैनलों में अनेक सूचनाएँ और विज्ञापन देवनागरी के बजाए रोमन लिपि में दिये जाते हैं। अनेक कम्पनियाँ अपने उत्पादों के विज्ञापन बड़े, बड़े बोर्डों पर बड़े अक्षरों में जो हिन्दी लिखवा रही हैं वह रोमन लिपि में है। हिन्दी के समाचार पत्र भी ऐसे विज्ञापन छापते हैं। इस उपेक्षा का एक दूसरा ढंग मैं प्राय: फेसबुक पर देखता हूँ। कई कवि और शायर अपनी रचनाएँ पहले देव नागरी में, फिर उस के नीचे रोमन लिपि में लिखते हैं। यह देवनागरी की स्पष्ट उपेक्षा नहीं है लेकिन एक छद्म उपेक्षा तो है। इस ढंग से यह ध्वनि निकलती है कि सब देवनागरी नहीं समझते, इस लिए रचना रोमन में दी गई। शायद उन का यह विचार है कि उन की रचना रोमन लिपि के माध्यम से ज़्यादा पाठकों तक पहुँचेगी, क्योंकि बहुत से लोग देवनागरी लिपि नहीं जानते या सीखना नहीं चाहते। क्यों नहीं चाहते? क्योंकि उन्हें हिन्दी से एलर्जी है? हिन्दी देवनागरी लिपि में लिखी जाती है, इसलिए उन्हें इस लिपि से भी एलर्जी है। यह भी सम्भव है कि बहुत से लोगों ने किसी भी स्तर पर हिन्दी नहीं पढ़ी, इसलिए वे देवनागरी लिपि नहीं जानते। इस की जड़ में मूल कारण यह है कि प्राथमिक शिक्षा का माध्यम अनेक राज्यों में हिन्दी नहीं है। पंजाब की एक हिन्दू शायरा है जो अपने शेरों को हमेशा रोमन लिपि में लिखती हैं। उन्होंने यदि किसी स्तर पर हिन्दी पढ़ी भी हो पर उन्हें देवनागरी लिपि में टाइप करना नहीं आता होगा। ऐसी कठिनाई हिन्दी के अनेक रचनाकारों, पाठकों की हो सकती है। पर यदि वे थोड़ा प्रयास करें तो देवनागरी में टाइप करना सीख सकते हैं। क्या उनका न सीखना देवनागरी की उपेक्षा नहीं है? ऐसे कई कवि और शायर मैं फेसबुक पर देखता हूँ, जो अपनी रचनाएँ रोमन लिपि में छापते हैं। उन पर प्रतिक्रियाएँ भी अनेक पाठक रोमन लिपि में लिखते हैं। कारण वही कि वे देवनागरी लिपि में टाइप करना नहीं जानते। देवनागरी के प्रति एक व्यापक उपेक्षा उर्दू शायरों, पाठकों में मिलती है। भारत में जो उर्दू के शायर हैं, उन में से अधिकांश देवनागरी लिपि नहीं जानते। शायद वे सीखना भी नहीं चाहते। उन के शेर मुशायरों में सुने और सराहे जाते हैं। सुनने में तो उर्दू और हिन्दी एक जैसी हैं। उन के चाहने वाले जितने मुसलमान हैं, उन से कम हिन्दू नहीं होंगे। पर जब उर्दू रचनाओं की पुस्तकें छपवाना होता है, तो वे देवनागरी में छपवाई जाती हैं। पर क्यों? एक कारण तो यह कि फ़ारसी लिपि में छापने वाले छापाख़ाने कठिनाई से मिलते हैं और दूसरा कारण यह कि देवनागरी में छपी उर्दू शायरी की पुस्तकें खूब बिकती हैं। पर यह देवनागरी के प्रति लगाव का सूचक नहीं, बल्कि मुनाफ़े और अधिक प्रसिद्धि के प्रति लगाव का सूचक है।

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मेरठ की एक शायरा गुलजेब जेबा हैं, जो अब लन्दन में रहती हैं और उसी शहर को अपना घर बताती हैं। उन्होंने लन्दन के किसी मुशायरे में बिना गाये अपनी एक गजल पढ़ी, जिस की सूचना तथा वह गजल मुझे हाल में पढ़ने को मिली। फेसबुक पर सैंकड़ों पाठकों ने उसे पसन्द किया और सैंकड़ों लोगों ने उस पर अपनी टिप्पणियाँ लिखीं। सब अंग्रेज़ी में या रोमन लिपि में लिखित उर्दू में, लेकिन किसी ने फार्सी लिपि में टिप्पणी नहीं की। टिप्पणी करने वाले सब मुसलमान। क्या वे भी उर्दू की फ़ारसी लिपि की उपेक्षा नहीं कर रहे हैं? जैसे भारत में बहुत से हिन्दी लेखक और पाठक देवनागरी की उपेक्षा कर रहे हैं। ऐसा नहीं कि वे फ़ारसी लिपि नहीं जानते, क्योंकि उन्हों ने फेसबुक पर गुलजेब जेबा की गजल फ़ारसी लिपि में पढ़ कर ही अपनी टिप्पणियाँ लिखीं। कवयित्री ने लन्दन में अपनी गजल फ़ारसी लिपि में टंकित की। निष्कर्ष यह कि देवनागरी के सांथ उर्दू की फ़ारसी लिप की भी उपेक्षा हो रही है। अंग्रेजीं और और उस की रोमन लिप का वर्चस्व दूर दूर तक फैला हुआ है। देवनागरी लिपि की उपेक्षा के कई कारणों का मैं ने पहले उल्लेख किया। एक कारण यह भी बताया हिन्दी पाठक, रचनाकार और हिन्दी प्रेमी बडी संख्या में ऐसे हैं जो देवनागरी में टंकण नहीं कर पाते। गूगल और माइक्रोसॉफ़्ट कम्पनियों ने हिन्दी टूल विकसित कर लिये हैं, जिन की मदद से देवनागरी में टाइप किया जा सकता है। स्मार्ट फ़ोन, लैपटॉप्, आईपैड, आईफ़ोन और कम्प्यूटर लाखों भारतीयों के पास है, जिन से वे देवनागरी में टंकण कर सकते हैं। सुविधा उपलब्ध होने पर भी वे देवनागरी के बजाए रोमन लिपि में टाइप करते हैं। इस का मूल कारण हे हिन्दी और देवनागरी के प्रति अरुचि। बहाना यह बताया जाता है कि देवनागरी में टंकण कठिन है। सीखने की कोशिश करने पर यह कठिनाई नहीं रहती। कई दशकों पहले विनोबा भावे के प्रयास से दिल्ली में देवनागरी लिपि परिषद की स्थापना हुई थी। यह संस्था अब भी विद्यमान है। इसे हर वर्ष भारत सरकार अनुदान देती है। इस का मुख्य उद्देश्य है देवनागरी लिपि को प्रचलित एवम् प्रसारित करना। इस की त्रैमासिक पत्रिका नागरी लिपि संगम छप रही हे। वर्षों बाद भी यह संस्था अपने उद्देश्य की प्राप्ति नहीं कर पाई. नागरी लिपि परिषद या सरकार ने क्या इस पर मन्थन किया कि देवनागरी लिपि सर्वत्र प्रचलित क्यों नहीं हुई? दिन पर दिन वह प्रयोग से बाहर होती जा रही है।

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विदेशी कम्पनियों के अधिक संख्या में भारत आने के बाद यह धारणा फैली है कि अंग्रेजी के माध्यम से नौकरी मिलेगी। ऐसा वातावरण बन गया है कि हिन्दी एक सफ़ेद हाथी है और अंग्रेजी एक दुधारू गाय है जो नौकरी रूपी दूध देगी। तो ऐसे वातावरण में हिन्दी और उस की देवनागरी लिपि की उपेक्षा हो रही है। ऐसे में चेतन भगत नाम का अंग्रेज़ी लेंखक प्रचार कर रहा है कि हिन्दी को रोमन लिपि में लिखना चाहिए और कुछ हिन्दी लेखक उस की बात का समर्थन कर रहे हैं। उन का नाम लेना व्यर्थ है, क्योंकि अपने घर में फूट डालना ठीक नहीं है। यह चेतन भगत अंग्रेज़ी का गुलशन नन्दा है, जिस के सस्ते कामुक उपन्यास लाखों में छपते और बिकते थे। वही मार्ग चेतन भगत ने पकड़ा है, जो हिन्दी भाषी होने पर भी हिन्दी की जड़ काट रहा है। लगता है कि यह किसी व्यापक षड़यन्त्र का भाग है। हिन्दी को रोमन लिपि में लिखने के आग्रह पहले भी किये गये, लेकिन वे अनसुने रहे। रोमन लिपि में हिन्दी लिखने लिखवानें का प्रायोगिक रूप विदेशी कम्पनियों के विज्ञापनों में देखने को मिलता है। विदेशियों की देखादेखी यह काम भारतीय कम्पनियों ने भी शुरु कर दिया है, जो कितना भी हास्यास्पद हो चल रहा है। इस का विरोध क्या हिन्दी सेवी संस्थाओं ने किया? इस बारे में दिल्ली की देवनागरी परिषद ने क्या किया? अपनी पत्रिका में देवनागरी का ढोल पीटने से क्या काम चल जाएगा?

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वास्तव में देवनागरी और हिन्दी भाषा के प्रश्न एक दूसरे से जुडे हैं। हिन्दी के प्रचार के साथ देवनागरी के प्रयोग पर भी बल देना होगा। इसी प्रकार देवनागरी को अपनाने के प्रचार के साथ हिन्दी के प्रचार प्रसार की समस्याओं को भी हल करना होगा। पर नागरी लिपि परिषद केवल नागरी लिपि का प्रचार करती है, चाहे उस से कोई प्रभावित हो या न हो। एक बार नागरी लिपि परिषद की एक सभा में बोलते हुए मैं ने आग्रह किया कि इस परिषद को नागरी लिपि के साथ हिन्दी भाषा के प्रचार की समस्याओं पर भी ध्यान देना चाहिये। परिषद के अध्यज्क्ष मेरे भाषण के तुरन्त बाद उठ कर मंच पर आए और मेरी बात का खण्डन किया, मानों मैं ने परिषद के अहित में कोई बात कह दी हो। क्या लिपि को भाषा से अलग कर देखा जा सकता है? क्या लिपि की समस्या भाषा की समस्या नहीं है? तर्क दिया जाता है कि एक लिपि में अनेक भाषाएँ लिखी जा सकती हैं, जैसे रोमन लिपि में अँगरेजी के साथ फ़्रांसीसी, जर्मन, इतालवी, लैटिन, पोलिश, हंगेरियन रूसी आदि लिखी जा रही हैं, तो हिन्दी भी रोमन में लिखी जाए तो दुनिया में अधिक फैलेगी। पहले कभी उर्दू वालों से कहा गया था कि वे उर्दू को देवनागरी में लिखें तो उर्दू का हित होगा। क्या उर्दू वालों ने इसे माना, बल्कि कहा गया कि तब उर्दू की पहचान मिट जाएगी। हिन्दी को रोमन लिपि में लिखा जाए तो क्या हिन्दी की पहचान नहीं मिटेगी? तात्पर्य यह है कि लिपि किसी भाषा का अभिन्न अंग है। जिन बोलियों की कोई लिपि न हो उन के लिए किसी उपयुक्त लिपि को अपनाया जा सकता है।देव नागरी लिपि की उपेक्षा केवल लिपि की उपेक्षा नहीं है, बल्कि उस में हिन्दी की उपेक्षा भी निहित है। हिन्दी को नागरी लिपि के बजाए रोमन में लिखने की कोशिशों में प्रच्छन्न हिन्दी विरोध भी शामिल है। खुल कर हिन्दी विरोध सम्भव नहीं हुआ तो यह ढंग निकाला गया कि इसे इस की लिपि से अलग कर दिया जाए।