देशज कुंजी / विपिन चौधरी
इस बड़ी सी पोली के ठीक बीचोंबीच सिर्फ एक मूंज की चारपाई बिछी हुई है. दाई तरफ कि दीवार पर तीन बड़ी-बड़ी तस्वीरें पोली के इस रूखेपन को दूर करने की असफल कोशिश में है. इन तस्वीरों में से एक तस्वीर में बाऊजी में यानि वीरभद्र सिंह खुली जीप का दरवाज़ा खोल कर खड़े हुए दिखाई दे रहे हैं. दूसरी तस्वीर में वे दौनाली बन्दूक और विजयी मुस्कान दोनों को धारण किये हुएखड़े हुए हैं.
तीसरा ग्रुप फोटोग्राफ है, जिसमें ढेर सारे फौजी तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी के साथ सीना फुला कर अपूर्व आत्मविश्वस के साथ खड़े दिखाई पड़ रहे हैं. इस तस्वीर में भी बाऊजी को पहचान पाना ज़रा भी कठिन नहीं है. कुर्सी पर बैठे हुए फौजियों की दूसरी पंक्ति में वे दायें से तीसरे नंबर पर हैं. कुछ और करीब आने पर तीनों तस्वीरों पर दर्ज तारीख और वर्ष आराम से पढ़े जा सकते हैं. जो भी आगंतुक इस पोली से होकर घर के भीतर जाता है उसकी नज़रें इन तस्वीरों पर ठहर जाया करती हैं और तब हो ना हो बरबस ही ये तीनों श्वेत-श्याम तस्वीरें, कई रंगों में मुस्कुरा उठती होंगी.
पिछले कई बरसों से मूंज की यह चारपाई और इन तीनों तस्वीरों की यही पोजिशन थी मानों ये निर्जीव चीजें अपनी कुंडली में इसी तरह से बाऊजी की पोली में जमे रहने का विधान लिखवा कर आई हों. बाऊजी का रहन-सहन भले ही विदेशी रंग लिए हो पर मन और आत्मा से वे एक देसी इंसान थे. वैसे भी ठेठ खलिस देहातीपन से लबरेज लोगों को अपने आस-पास कृत्रिम चीज़ों का जमावड़ा सुहाता नहीं है. हमारे बाऊजी भी उन लोगों की श्रेणी में आते हैं जो जीवन की खूबसूरती को कच्चेपन से जोड़ कर देखते हैं.
दोपहर के वक्त बाऊजी मूंज की इसी खाट पर घड़ी दो घड़ी के लिए आराम किया करते थे. आज इस वक्त भी बाऊजी चारपाई पर लेटे हुए थे लेकिन आज उनकी इस नश्वर देह में एक भी साँस बकाया नहीं थी. पीठ के बल सोने की स्वाभाविक अवस्था को देख कर एक बार तो यही अनुमान लगाया जा सकता था कि हो ना हो बाऊजी हर रोज़ की तरह शवआसन का अभ्यास कर रहे हैं सहजता पर जितनी पकड़ बाऊजी की थी उतनी पकड़ धारा पर कम ही लोगों की बपौती हुआ करती है. उसकी इसी सहजता से हीमानों उनके इस घर को प्राणवायु मिलती थी और इसी सरलता के कारण घर काकाम काज चलता हो. पोली के बड़े से मुख्य दरवाजे और एक दर्जन खिड़कियों के कारण गर्मियों में साफ और शीतल हवा एक दरवाजे से प्रवेश करती और दूसरे से निकल भागती. हवा के इस भाग-दौड़ के कारण यह बैठक हमेशा एक ठंडे सुकून से भरी रहती.
अभी-अभी एक मक्खी बाऊजी के ठीक माथे पर बैठ भिनभिनाने लगी थी और साथ ही वह अपने आगे के दोनों हाथों को इस तरह से रगड रही थी मानों अपने हाथों पर लगी मिटटी को झाड रही हो. बाऊजी और मक्खी दोनों का यह ठेठ द्रश्य इतना जीवंत प्रतीत हो रहा था कि देखने वाला एकबारगी बाऊजी की मृत देह को देख कर भ्रम में पड़ जाये. लग रहा था मानों अभी मक्खी की भिनभिनाहट से खिन्न हो कर बाऊजी बडबड़ाते हुए अपने कंधे पर रखा अंगोछा लेकर इस शैतान मक्खी को उड़ा कर ही छोडेंगे पर इस भ्रम को भ्रम ही रह जाना था क्योंकि बाऊजी आज सवेरे ही मृत देह में तब्दील हो चुके थे. आज भोर होते ही तंदरुस्त और अनुशासित जीवन जीने वाले बाऊजी को मौत ने अचानक से अपनी मोटी रस्सी से इस कदर पटखनी दी थी कि पूरा गांव ही भौचक्का रह गया था. गांव का गाडीवान रामदरश अपने शोकाकुल चेहरे से बाऊजी के प्लाट में जमा हुए लोगों को बता रहा था कि उसने कल ही तो बाऊजी को प्रसन्नचित्त अवस्था में पैदल-पैदल ही दातून करते हुए गांव की सीवान पर टहल रहे थे. बाऊजी के यूँ अचानक से चले जाने पर इस घर में मुर्दानगी छा गयी थी और जीवन का दैनिक अनुशासन पूरी तरह से डांवाडोल हो गया था. गांव में आज के बाद आने वाले दिन, बाऊजी की सरपरस्ती के बिना बेहद कमज़ोर होने वाले थे. असल बात ये थी कि घर-घर में बाऊजी के आचरण की मिसाल दी जाती थी और गांव के कुछ गुरूर में डूबे पुरुष अपने आप को बाऊजी से कमतर दिखा कर घर की महिलाओं के सामने अपनी फजीहत नहीं करवाना चाहते थे. अपने घर का अनुशासान तो घर के कई बुजुर्ग मुस्तैदी से संभाल रहे थे. पर बाऊजी तो जैसे पूरे गाँव का अनुशासन अपनी घनी मूछ के लपेटे में बांध कर चलते थे. जबकि ना तो बाऊजी धोलपुर गांव के सरपंच थे ना कोई नामी पहलवान. उनका परिचय तो महज फौज से रिटायर हो कर अपने पुश्तैनी गांव धोलपुर में लौटे एक सामान्य नगरिक से ज्यादा नहीं था.
क्या आज बाऊजी की देह के साथ उनका तेज़ वायुमंडल में कहीं विलीन हो जायगा ? उनके दुनिया से कुच कर जाने की खबर फैलने के बाद ढेर सारे गांव वाले और उनके नाते रिश्तेदारों का जमघट भी एक शोर की तरह इस शांत घर में घुस आया था. आज इस जमघट में वे लोग भी शामिल हो गए थे जो बाऊजी के जीते जी कभी उनके अरीब-करीब भी नहीं फटके थे. बाऊजी की ठसक उनके कई रिश्तेदारों को बुरी तरह से खटकती थी. यहाँ तक की खुद उनके ही पांच बड़े भाईयों ने यह कह कर बाऊजी की जमीन का एक बड़ा हिस्सा दबा लिया था कि वीरभद्र तो शहर में नौकरी कर रहा है गाँव की जमीन जायदाद का क्या करेगा. उनके मन में हमेशा यही रहता था की इसने तो शहर जा कर खूब पैसे जोड़े हैं. अपने इस नौकरीशुदा भाई से बाकि अनपढ़ और कम पढ़े लिखे लोग जबरदस्त ईर्ष्या रखते.
पर बाऊजी मस्त आदमी थे, एकदम बेफिक्रे. गधे की तरह काम करना और शेर की तरह सोना वाली कहावत में यकीन करने वाले. पोली में बिछी इसी खाट पर सो कर बाऊजी को परम सुकून मिलता था. गाँव में बिजली सिर्फ कहने को आती थी और कुछ देर दर्शन दिखा कर तुरंत ही लौट जाती और आती भी तो इतनी धीमी वोल्टेज में कि उससे बेहतर तो लालटेन की रौशनी ही बढ़िया दिखे. ऐसी रुखी गर्मियों में यह पोली दोपहर के आराम के लिए अच्छी आरामगाह साबित होती वैसे भी बुढापे में नींद इतनी गाढ़ी कहाँ होती है. बाऊजी की नींद तो इतनी कच्ची थी कि पास के गुज़रते जानवरों के रंभाने से ही वे जाग जाते, बाऊजी के घर के ठीक पास से एक कच्ची गली होकर एक बाडे में खुलती थी जहाँ कुम्हारों के ढेर सारे अधपके घर थे. कुम्हारों के इस चोकोर भूखंड में एक ओर ढेर सारे घड़े और सुराही बने रहते. उसी के ठीक सामने गधों को बांधने का बड़ा बेडा हुआ करता था. पूरे गांव में घड़े, सुराही, हुक्के और दीयों की सप्लाई इसी कुम्हार मोहल्ले से हुआ करती थी कई बरस पहले कभी इस जगह पर मंगलू का कच्ची दीवारों से बना हुआ छप्पर ही हुआ करता था. बाद में समय के साथ-साथ मंगलू काका बूढे होते गए और उनका परिवार बढ़ता गया. उनकी आठों संतानों की वंश वृद्धि होती गयी और यहाँ एक बड़ा सा कुम्हार मोहल्ला स्थापित हो गया. इस बड़े से कुनबे में लड़कों की चाह में लड़कियों की एक बड़ी फौज खड़ी होती चली गयी. ढेर सारे बच्चों में सिर्फ दो ही लड़के पढ़ने जाते थे बाकी बच्चे दिन भर गली में खेला करते थे. इसी कारण यहाँ बच्चों की दिन रात धींगा- मस्ती लगी रहती. कई बार तो बाऊजी खेत से लौट कर पोली में आराम कर रहे होते और बच्चें शोर मचाते गली में दौड़ रहे होते. उनके शोर से बाऊजी की नींद खुल जाती और वे छड़ी लेकर बाहर की ओर तेज़ क़दमों से लपकते, छड़ी और बाऊजी के रोबीले चेहरे को देख कर बच्चे एकबारगी तो सहम उठते पर कुछ ही देर में उनकी गुस्से को भूल कर फिर से नया शोर-शराबे वाला खेल शुरू कर देते.
बच्चे आज भी शोर मचाते हुए इस कच्ची गली में चक्कर लगा रहे हैं. पोली के दरवाजों और खिड़कियों से हवा सांय-सांय कर आ-जा रही है. पर आज बाऊजी असीम शांति धारण कर चुके हैं और उनके आस-पास की अठखेलियाँ करने वाली हवा भी आज स्तब्ध है. बाऊजी के देहावासन की खबर सुन कर आस-पड़ोस की महिलाएं अपना काम छोड कर बाऊजी के घर दौडी चली आ रही हैं. शांति बुआ दो घर छोड कर तीसरे मकान में रहती है उसने आते ही बाऊजी के चेहरे पर से चादर को धीरे से उठाया और बाऊजी के चेहरे पर फ़ैली शांति को देख कर अचंभित हो अपने मुहँ पर हाथ रख लिया. बाऊजी के चेहरे को देख कर हैरान होने वालों की कमी नहीं है क्योंकि उनके चेहरे की ताज़गी को देख कर मुर्दापन का अहसास कदापि नहीं हो रहा है. उनके मृत चेहरे पर पसरा तेज़ कहीं ना कहीं देखने वालों के मन में एक हैरानी पैदा कर रहा है.
इबे और जणे भी आवंगे
उरे एक दरी और बिछा के रानी की माँ.
शांति बुआ पड़ोस की दूसरी बुआ को संबोधित करते हुए कहती हैं.
खूब हिम्मती हैं शांति बुआ भी. अपने दो जवान बेटों की अर्थियां देखी है जीवन में ना जाने कितनी अर्थियां देखी थी उसने पर उसे महिलाओं वाला रोना- धोंना कभी रास नहीं आया पर उसकी आँखों में एक छोड दूसरा आँसू नहीं टपका कभी.
जाण आल्या खातर रोण नै किस धोरे टेम स आज के बखत मै, शांति बुआ अक्सर बोला करती.
आज इस वक्त जब बाऊजी जैसा सज्जन आदमी एस दुनिया से कुच कर गया है तो हमेशा धीरज धारण करने वाली शांति बुआ का मन भी बेहद व्याकुल हो गया उठा हैं. उसके चेहरे पर दुख का भाव काफी गाढेपन से मौजूद दिखाई दे रहे हैं.
वीरभद्र बाऊजी का स्वभाव कड़क था जो अरसे से फौजी अनुशासन के निकट रह कर उनके आस-पास ही बस गया था. उनके इसी रूआब भरे व्यक्तित्व से घर और बाहर के लोग अजीब सा भय खाते रहे हैं. उनके नज़दीक का सारा संसार चाहे बदल गया हो या बदलने की तैयारी कर रहा हो पर बाऊजी अपनी अंतिम घड़ियों तक पुराने वाले खालिस बाऊजी ही रहे. चालीस साल फौज की नौकरी से रिटायरमेंट के बाद बाऊजी की इच्छा बाकी उम्र अपने पुश्तैनी गांव धोलपुर में रहने की थी दूसरी ओर उनकी धर्मपत्नी सीता देवी को गांव की ओर रुख करना भी गंवारा नहीं था. फौजी महौल की शान, बड़े शहरों की आरामपरस्ती और सरकारी ताम-झाम की मजमा उन्हें भा गया था. गांव जाने के नाम पर वे कई दिन मुह फुलाए रही लेकिन हमेशा की तरह बाबूजी की ही चलनी थी और अंत में उनकी ही चली.
यह बात अलग है कि कुछ दिन गांव में बिताने के बाद बाऊजी ने महसूस किया कि इतना सहज और आसन नहीं हैं आज के दिन गांव में गुज़र-बसर करना. पर जो परिस्तिथियों से हार मान ले वह फौजी ही क्या. ऐसा खुद पिताजी का ही मानना था.
पांचवी कक्षा से ही गांव की देहरी लाँघ कर शहर के सरकारी स्कूल में पढ़ने चले गए थे बाऊजी, वहाँ हॉस्टल की अच्छी सुविधा थी सो बारहवीं तक वहीं पढ़े.बारहवीं करते ही फौज की नौकरी के फार्म भर दिए और जल्द ही भर्ती का पत्र भी आ गया बाऊजी के नाम. फिर तो एक सीधी लकीर खींच गयी बाऊजी की जिंदगी में, जिस पर वे सधे क़दमों से चलते चले गये. इस बीच उन्हें दो प्रमोशन भी मिले और अपने चारों बच्चों को पढ़ा लिखा कर उनकी शादियाँ भी कर दी. नौकरी से रिटायर्मेंट पाते ही अपने गांव की राह पकड़ी यह सोच कर कि गाँव के सोंधेपन का रच बस कर जम कर जीवन का मज़ा लेंगे.
लेकिन सोचा हुआ कम ही फलित होता है भले आदमी के नसीब में. वह तो बाऊजी के रूआब का ही असर था की उनकी गांव के अराजक माहौल में उनकी निभ गई वरना वहाँ के लोगों का हिसाब किताब काफी बुरा था. बाऊजी की अकड और उनका ठसक भरा पहनावा, उनकी ठाठ-बाठ उनके अपने ही भाईयों को नहीं सुहाती थी. बाद के कई वर्षों तक गांव में रहने के बाद बाऊजी को गांव के सभी लोग मानने लगे और फिर उसके बाद तो पूरा गांव सराहना करता नहीं थकता था. सब एक सुर में कहा करते, वीरभद्र फौजी जैसा सलीकेदार मानुष गांव में एक भी नहीं.
बढ़िया पहनने के शौकीन बाऊजी कभी धोती-कुर्ता, तो कभी पैंट-बुशर्ट में नज़र आते. गांव से शहर की ओर निकलने वाली पक्की सड़क पर जाने के लिए जब बाऊजी इस्त्री किये साफ़-सुथरे सलीकेदार कपडे पहन कर गुजरते तो राह चलते गांव के लोग बिना पलक झपकाएं उन्हें देखते रह जाते. बाऊजी की भलमानसिहत के असर से गांव के कुछ बुजुर्ग पर पहले की बनिस्पत अब सीधे हो चले थे.
दूर से रोती हुई औरतों का समूह बाऊजी के घर की ओर बढ़ता चला जा रहा था. रोने के हुनर में प्रोफेशनल दो बुजुर्ग महिलाएं इस समूह की अगुवाई कर रही थी. इस समूह की महिलाओं की उम्र साठ साल से ऊपर की थी. इन सबके दांत टूट चुके थे, नज़र धुंधली पड़ चुकी थी पर सामाजिक सक्रियता इन महिलाओं में अब भी उतनी ही तेज़-तर्रार थी. तब तक शांति चाची ने अपनी दोनों लड़कियों की मदद से पोली में दरी बिछा ली थी.
मूंज की चारपाई से बाऊजी की मृत देह को नीचें उतार लिया था.
दिन ढलने को था, साँझ से पहले मृत देह को दाग देना जरूरी था इसलिये घर के सामने के प्लाट में बनी बैठक में बैठे पुरुष लोग बार-बार सन्देश भिजवा रहे थे कि सारे काम काज निपटा लो, जल्दी दिन ढलने वाला है. घर के तीन पुरुष बाऊजी को स्नान करवाने लगे उनकी अनामिका से सोने की अंगूठी उतार ली गयी अब नाते- रिश्तेदार अपने साथ लाई नई लोई और चादर उनकी देह पर डाल रहे थे जिसे बाऊजी के बड़े साले साहब उतार कर एक ओर रखते जा रहे थे. बगल में कपड़ों की ढेरी को बाद में गांव के गरीबों में बांटा जाना था. इन् सभी क्रियाओं को बाऊजी की पत्नी सीता देवी फटी आँखों से देखे जा रही थी.
सीता देवी एक सीधी-साधी महिला थी. जैसे ही घर में महिलाओं का नया समूह आता वैसे ही उनका साथ देने के लिए सीता देवी भी ज़ोर-ज़ोर से रोने लगती. बार-बार रोने से सीता देवी ही हालत पतली हो गई थी. वहाँ बैठी औरतों को यह भी सुध नहीं थी कि उन्हें आराम करने को कह दे. अब तो हालत यह हो गई थी कि सीता देवी की आँखों से आँसू सूख गए थे. अब वह रो नहीं रही थी रोने का अभ्यास कर रही थी क्योंकि इतनी देर तक रोना किसी के लिए भी सम्भव नहीं था और ना रोने पर जगहसाई का भी डर था. इसलिए सीता देवी लगातार रोती जा रही थी. इस गमी के माहौल में भी सीता देवी समाज के नियमों से बेखबर नहीं थी, दुःख की इस दारुण घड़ी में भी वह अपने आचरण पर लगातार नज़र जमाए हुए थी. समाज की परिपाटी ही कुछ ऐसी थी कि यहाँ अपने दुःख की अभिवयक्ति पर भी समाज के दिशा निर्देश लागू हो रहे थे वे आज इस पोली में बैठी महिलाओं के वयवहार से साफ दिखाई दे रहे थे. वे लंबे घूंघट निकाल कर दहाड़े मार कर रोती हुई आती फिर सीता देवी के पास आकर कुछ देर बात करती और फिर दूसरी महिलाओं के झुण्ड की ओर मुड जाती और किसी दूसरी बातों का सिलसिला शुरू कर देती. जब पोली महिलाओं से भर गयी और बैठक पुरुषों से तो कुछ लोग भीतर के कमरों में बैठ गए. बाऊजी के घर की दीवारें कई सालों से सफेदी की मांग कर रही थी पर बाऊजी इस ओर से पूरी तरह बेखबर थे. कमरे की दीवारों में शुभ पर्वों में लगाए हुए थापे दिखाई पडते थे.
बाऊजी ने अपने घर में एक कच्ची रसोई तौर पर इसलिए रखी थी ताकि उसमें हारा और चूल्हा रखा जा सके. इस कच्ची रसोईघर में जगह-जगह मंडने छपे हुए थे.
बाऊजी के घर में बरसों पुरानी चीज़ों से मुलाकात भी हो जाए तो चौंकयेगा मत. घर के संग्राहलय में शोभा बढ़ाने वाली कई चीजों के अलावा ओर भी कई चीजें थी मसलन उन्नीस सौ पैंतीस में बनी चौडे सिक्के वाली पेंसिले. उन्नीस सौ बीस में निर्मित जोहानसन का बेबी पावडर से ले कर बरसों पुराने संदूक और पेटियां. बाऊजी का भीतर का कमरा तो मानों एक गुप्त तहखाना था. मजाल है की कोई उसमे जाने की कोई जुर्रत करे. उस बिना ताले के कमरे में बाऊजी का डर एक चौकीदार का काम करता था. बाऊजी के बेटों को तो पिताजी के स्वाभव की सही जानकारी थी पर इस घर में ब्याह कर आई बहुये शुरू-शरू में घर की इन अजायबी चीजें को देख यदा-कदा नाक सिकोड़ती थी पर बेचारियों की कहीं कोई सुनवाई नहीं होती थी. वे मन मसोस कर रह जाती थी. तब उनके पति घर में ज़रा सी ओट पा कर अपनी रूठी हुई पत्नियों से मनुहार करते हुए कहते, यह पिताजी का घर है यहाँ उन्हीं का राज़ चलेगा. हमेशा से यही होता आया है. हम सभी बहन- भाइयों और माँ ने इसमे कभी दखल नहीं दी. तुम भी इस परम्परा को निबाहों और कृपया करके अपना राज़ अपने घर में जा कर ही चलाना.
बाबूजी के इन अजीबों गरीब आदतों पर ज्यादा ध्यान ना दे तो बाऊजी बेहद दयालु और मेहनतकश जीव थे. इस उम्र में भी रोज़ कोसों मील दूर खेत में जाते थे. कुछ ही दिन पहले उन्होंने एक स्कूटर के लिया जिससे पड़ोस के शहर से सब्जी-तरकारी लाने में सुविधा होती थी.
हर दिन बाऊजी के घर कोई ना कोई कुयें का डोल खींचने वाली मोटी रस्सी, जेली, मिटटी के तेल का बड़ा पीपा, फ्रिज से बर्फ, फौजी कैंटीन से मिलने वाली सस्ती शराब लेने आए खड़े रहते. बार-त्यौहार में बाऊजी से पैसे लेने के लिए भी लोग अक्सर आते रहते.गांव का धूसर कोना शहरी रंग में रंगने को जैसे तैयार ही बैठा रहता था और जब उसे शहर की चीज़ मिलती वह उसे तुरंत लपक लेता. गांव के रंगरूट जब गांव से शहर की और जाते तो कभी टेप रिकॉर्डर के आते. जिसमे चलने वाले चलताऊ गानों का शोर गानों का शोर, दूर कच्ची गलियों तक का सफर तय कर आता. जिसे सुन कर गांव की नई नवेली बहुएं शर्मा जाती और बुजुर्ग नाक सिकोडते.
गांव के खाते-पीते लोगों ने अपने घर-आंगन को धूर तक सीमेंट से पक्का करवा लिया था. वही बाऊजी का कहना था कि घर में कच्चा फर्श जरूर होना चाहिए इससे घर की तासीर ठंडी रहती है.
एक समय था जब इस आंगन में बाऊजी के दो बेटे और दो बेटियों से घर में खासी चहल-पहल रहा करती थी. समय के साथ बेटों को तो बहुयें शहर की रंगीनियों में ले कर गुम हो गयी और बेटियां भी देर सवेर अपने ससुराल चली गयी. इस अरमान से बनाये गये घर में रह गये दो जन, बाऊजी और उनकी पत्नी सीता देवी. अब सीता देवी को एस प्रौढ़ उम्र में घर का बड़ा और कच्चा आंगन लीपना पड़ता था और बाऊजी के शौक के लिए रोज़ कुएं से एक मटका पानी लाना पड़ता तो वह बुरी तरह से झींकती पर बाऊजी के कहे का पालन करने के सिवा उसके सामने और कोई चारा नहीं था वह इस बात को अच्छी तरह से जानती थी.
तेरह साल की थी सीता देवी जब उसने धोलपुर गांव के दर्शन किये थे. निरक्षर सीता देवी इतने बरसों से सिर्फ दो ही शब्दों से परिचित हो सकी थी. वे दो शब्द थे उसका खुद का नाम सीता देवी और पति वीरभद्र सिंह का नाम. बैंक में हस्ताक्षर के लिए इस नाम की जरुरत पडती. बाऊजी, सीता देवी को अक्षर ज्ञान से परिचित करवा कर थक गये थे. लेकिन सीता देवी पढाई में अपनी अरुचि के चलते इतना ही लिख-पढ़ सकी.
कहते हैं कि किसी आदमी के बारे में उस वक्त पता चलता है कि वह कैसा है जब उसके चले जाने पर कई जोड़ी भर-भर रोती हैं. पोली में बैठी भतेरी काकी रुंधे गले से बोली –
वीरभद्र जिसा माणस गाम मैं दूसरा कोणी, कदे किसी लुगाई कानी देखा भी कोनी, जद भी माहरे घरा आंदा खंगार के ही दरवाजे भीतर बड़ा करदा.
पडोस के कुम्हार गली की चाची रामरती ने भी बाऊजी के चरित्र के पक्ष को मजबूत करते हुए कई पुरानी बातें बताई. रामरती ने बरसों बाऊजी के घर में काम किया था. उनके नेक स्वभाव के वह साक्षी रही थी. अब उसके बूढे शरीर ने साथ छोड दिया है बस दिन-रात अपनी बहुयों को गाली दे कर ही वह अपने दिन बिताया करती हैं.
कितने ही लोग एक किसी ना किसी दिन परम गति को प्राप्त हो जाते हैं पर यहाँ पर बाऊजी जैसे खालिस इंसान के चले जाना सबके लिए दुःख क सबब बन गया है. अभी- अभी पोली में एक नई बहस उठ खड़ी हुई है कि दिवंगत बाऊजी का काज किया जाये. उनकी दोनों बेटियां काज की इस प्रथा का यह कहते हुए विरोध कर रही हैं कि उनके पिताजी की उम्र अभी इतनी नहीं थी कि उनका काज किया जाये. काज की इस प्रथा में बुजुर्गों कों नाचते-गाते शाही विदाई दी जाती हैं.
जब यह खबर पोली में बैठी महिलाओं तक पहुँची तो कुछ की सहमति इस काज प्रथा में नहीं दिखी. खासकर बाऊजी की दोनों बेटियां का कहना था कि बाऊजी की उम्र अभी इतनी नही थी की उनका काज किया जाये. उन्हें अभी कई बरस और जीना था. उधर बाऊजी की निर्जीव देह भी कसमसाने लगी थी. वे स्वयं भी गाँव की कई प्रथाओं का विरोध करते थे.
पिछले वर्ष बाऊजी के दूर के भतीजे लगने वाले गजोधर के युवा लड़के की सड़क में हुई मृत्यु के बाद उसकी युवा पत्नी को उसके जेठ का लत्ता ऊढाने ( जिस के अनुसार दिवंगत की पत्नी को उसके जेठ से पुनः विवाह करना होता है) का पुरजोर विरोध किया था. बाऊजी के पक्ष में कई युवा लोगों के आ जाने पर यह नियोजित प्रसंग टल गया था और उस बहू को आगे की पढाई के लिए शहर भेज दिया था.
आज गांव के यही लकीर के फ़कीर लोग अपनी प्रथाओं को ढोल बजाते हुए उनके काज की तैयारी करने की बाते कर रहे हैं. उधर शांति चाची अचानक से उठ कर पुरुषों की बैठक में आ गई है और अपनी बुलंद आवाज में घोषणा कर रही है
कोई मानस काज का नाम ना ले, थोड़ी तावल करो काज का टेम निकला जा स.