देशत्व रक्षा का उपाय / बालकृष्ण भट्ट
जिस जाति में देशानुराग का असर बना है वहाँ देशत्व गुण की कमी नहीं है और जिस देश के निवासियों में देशत्व गुण विद्यमान है वही देश वहाँ के रहने वालों के लिए सुख की सब सामग्रियों से भरा-पुरा मानों स्वर्णभूमि है। भारत के पुराने इतिहासों के पढ़ने से मालूम होता है कि यहाँ के लोगों में भी किसी समय देशत्व गुण विद्यमान था जिस गुण के रहते वे स्वतंत्रता देवी कृपापात्र हो सुख से जीवन बिताते थे। प्राचीन समय यद्यपि इन दिनों की भाँति बाह्म विज्ञान की उन्नति यहाँ नहीं भई थी तो भी इस समय के लोगों में आध्यात्मिक योग्यता इतनी चढ़ी-बढ़ी थी जिससे देशानुराग की कमी उनमें नहीं थी जिसके प्रेम में वे 'दुर्लभ भारते जन्म' की गीत सदा गाते रहे। आज उसी गुण के प्रभाव से परम पवित्र यह भारत भूमि वर्तमान् दशा में यहाँ के उन्नतिशील थोड़े से लोगों को नेत्रशूल सी खटका करती है। देशानुराग शून्य यहाँ की वर्तमान् जनता की जो शोचनीय दशा हो रही है उसका उदघाटन मानो पीसे हुए को फिर पीसना है किंतु इस लेख से इस समय हमारा प्रयोजन देशत्व रक्षा का सरल तथा सुख साध्य उपाय का बतलाना या ढूँढ़ना है।
हमको संदेह है कि भारत के इस अस्त-व्यस्त उच्छृंखल जमाने में नक्कारखाने में तूती की आवाज की भाँति हमारा कहना लोगों को कब रुचेगा वरन् उनके कान तक पहुँचाना दुर्घट है। जब हम इस बात पर ध्यान देते हैं कि यहाँ के लोगों में देशत्व की मात्रा क्यों घट गई तब हमको इस देशानुराग की कुंजी यथार्थ विद्या का अभाव का होना मालूम पड़ता है। या तो ये लोग नई रोशनी से ऐसा चौंधियाय गए कि इनके आँख की बीनाई ही जाती रही अथवा नई सभ्यता से इनको इतना कष्ट पहुँचा है कि जिस कष्ट से पीड़ित हो रातों दिन सिवाय अपनी चिंता के और कुछ इनके ध्यान ही में नहीं आता। जिस देश में सभ्यता ने लोगों को केवल नौकरी करना सिखाया है वहाँ हम देशत्व की क्या आशा कर सकते हैं। धन हीन गरीबों को जाने दीजिये धन संपन्न भी नौकरी करना फैशन समझने लगे हैं। जिस देश में धर्म में कुछ गड़बड़ होने से महा कोलाहल मचता था आज वही देश वासियों की नौकरी में कुछ भी गड़बड़ होने से हलचल मच जाती है। रेलवे कांफ्रेंस में देशियों को 30/- से अधिक की नौकरी की जगह देने की बात गवर्नर जनरल की कौंसिल तक पहुँच गई 200/- मासिक से अधिक की नौकरी मिलने पर गवर्नमेंट आफ इंडिया की मंजूरी की बात सुन देशवाले हाय नौकरी हाय नौकरी कह उछलने-कूदने लगे। हा। प्रिय पाठको क्या यह वही आप का देश नहीं है जहाँ के निवासी। 'सेवा न किंचिदस्तीति' कह कर एक समय सेवावृत्ति को गर्हित समझ इसकी उपेक्षा किया करते थे। अवश्य यह सब भुगतमान जो हम भुगत रहे हैं शिक्षा की प्रणाली के बिगड़ जाने ही से है। यह आप का वही भारतवर्ष है जहाँ अध्यापक अपने विद्यार्थियों को विद्या पढ़ाने के साथ ही साथ आत्म गौरव, कुलाचार, कुल धर्म, उद्योग, उत्साह, सुखपूर्वक निर्वाह आदि की नित्य शिक्षा देते थे अब इस समय क्या कोई बता सकता है कि वर्तमान किसी विद्या मंदिर में इन बातों की शिक्षा पढ़ने वाले को दी जाती है। स्कूल और कालेजों से ताजे निकले नव युवकों से जिन्होंने भारत की हिस्ट्री को घोट कर पी डाला है। पूछिए, कि क्या हिंदुओं में भी कभी कोई ऐसा धर्मनिष्ठ उत्साही देशानुरागी हुआ है जिसने देश की रक्षा में अपने थोड़े से सहकारियों के साथ अपने प्राण-समर्पण किए हैं तो दाँत बाय के रह जाएँगे और इस प्रश्न का उत्तर देते न बनेगा। मिशन स्कूल तथा आर्य समाज के पाठशालाओं में तो देव पितर तीर्थ आदि में श्रद्धा उपजाने वाली शिक्षा दी ही नहीं जाती किंतु हमारे लोगों में ऐसा कोई भी पाठशाला नहीं देखा जाता जिसमें हिंदुओं की धर्म नीति के अनुसार देशत्व संरक्षण की यथार्थ शिक्षा बालकों को दी जाती हो। इन दिनों की वर्तमान शिक्षा का फल यह होता है कि देशत्व का अभाव दिन-दिन बढ़ता जाता है और क्यों ऐसा न हो जब बालकों को बाल्य अवस्था ही से उनके मन में बैठाया जाता है कि आर्य लोग वास्तव में यहाँ के असली पुराने बाशिंदे न थे वरन् कहीं बाहर से आय यहाँ बस गए थे। स्वदेशाभिमान को नष्ट कर देने की कैसी अच्छी युक्ति है पर यह युक्ति सर्वथा निर्मूल और भ्रांत है। जिस जाति ने अपनी पूर्ण उन्नति के समय अपने किसी ग्रंथ में अपने पूर्व निवासस्थान का नाम तक न दिया वरन् 'दुर्लभं भारते जन्म' का राग गाते ही रहे उस आर्य जाति को बाहर से आई मन क्योंकर जीती मक्खी निगल बैठें। पर हमारी इस बात को समझेगा ही कौन? आर्य जाति के संस्कार द्वारा जो कुछ उनमें देश की सहानुभूति आई थी वह सब बाल्य अवस्था ही से सी-ए-टी कैट-कैट माने बिल्ली। जी-ओ-डि-डाग-डाग माने कुत्ता रटते-रटते थोथी पड़ गई। अब तो सिवाय कुत्ता बिल्ली के दूसरी बात उनके मस्तिष्क में धँसती ही नहीं क्या किया जाय। अंगरेजी की भाँति हमको फारसी उर्दू पढ़नेवाले की भी दुर्दशा देख पड़ती है, फारसी पढ़े लिखों में तहजीब और तकल्लुफ इतना समा जाता है कि अंत को सर्व शून्य रह जाता है। मखतब में पढ़े हुए बालकों को यह नहीं मालूम कि रेखागणित, बीजगणित, इतिहास किसका नाम है आदि से अंत तक उन्हें गुल-वुल बुल तेग, अव्रू, माशूक की नजाकत और उसके हुस्न का बयान पढ़ते-पढ़ते उनकी इतिश्री हो जाती है देशात्व की महक तक पास नहीं फटकने पाती। अस्तु अब मातृभाषा संस्कृत पढ़नेवालों को लीजिए तो अंगरेजी, फारसी पढ़नेवालों को सांसारिक सुखों का कुछ आभास भी मिल जाता है और सभ्य समाज में दाखिल हुए माने जाते हैं। टोल में पढ़े संस्कृत वालों की मिट्टी सब से ज्यादह पलीत है कौमुदी की फक्किका और सूत्रों पर न्यास और खण्डन मंडन घोखते-घोखते विद्यार्थी को तीन जन्म चाहिए। हाँ इतना अभियान इन विद्यार्थियों को अलबत्ता हो जाता है कि हिंदी पढ़ने में वे अपनी बेइज्जती मानते हैं। श्लोक कहो एक घड़ी में कोड़ियों बना डालें पर हिंदी में एक मामूली चिट्ठी लिखने को कम से कम दिन भर तो चाहिए उसमें भी मुहावरेदार शुद्ध हिंदी न लिख सकेंगे। इस विद्वत्ता पर अभियान और क्रोध इतना कि 10 या 15 पंडित इकट्ठे हो जाएँ तो शांति रक्षा के लिए पुलिस की आवश्यकता पड़े। देश क्या है? देशत्व क्या है? इन बातों से उन्हें प्रयोजन ही क्या? जिस संस्कृत की स्तुति सबों ने एक स्वर से की है। उन संस्कृत पाठियों की यह दशा और हिंदुओं को संस्कृत की ओर इतनी उपेक्षा देख किस परिणामदर्शी का हृदय नहीं विदीर्ण होता होगा। देशत्व की कुंजी शिक्षा की जब यह दशा है तो देशत्व रक्षा की आशा तो निरी दुराशा और खपुष्प के समान है।
रोग होने से उसके शमन के लिए लोग औषधियाँ ढूँढ़ते हैं। इस देश में इस महा व्याधि की औषधि खोज के निकालना परिणाम दर्शियों का कर्तव्य नहीं बल्कि धर्म है तो एक ऐसे संस्कृत के विश्वविद्यालय की आवश्यकता है जिससे पूर्व और पश्चिम को बहने वाली दोनों नदियों का संगम हो और नदियाँ अपने अमोघ जल से यहाँ के लोगों को आप्लावित करती रहें। ईश्वर की कृपा से अब यहाँ बहुत से ऐसे लोग हो गए हैं जो दोनों के अमृत रस को भरपूर अनुभव कर चुके हैं। उनको उचित है कि दोनों के बीच कोई ऐसा रास्ता निकालें जिसमें न पूर्व की अधिक सीमा दबे न पश्चिम ही को कोई शिकायत का मौका रहे। पं. माधो प्रसाद मिश्र का स्वतंत्र देशोद्धारक उद्देश्य वास्तव में उत्साहवर्द्धक है उक्त पंडितजी जबानी जमा खर्च करने वालों का अनुकरण न कर बंगालियों के पड़ोसी कलकत्ते के धनी मारवाड़ियों से इतने थोड़े समय में एक लाख रुपये का चंदा विशुद्धानंद विद्यालय के निमित्त करा लेना सहज नहीं है; इसको देशत्व गुण कहते हैं, उक्त पंडितजी जिस गुण की मूर्ति हैं। काम करनेवालों को ऐसों का उदाहरण लेना चाहिए जो तभी हो सकता है जब निरस्वार्थ भलाई के काम में तत्पर हो। जब तक किंचित् भी निज स्वार्थ की दुर्गन्धि लगी है ऐसे बड़े काम का पूरा होना असंभव है।
सच तो यों है कि आत्मसमर्पण और देशत्व का बड़ा धनिष्ठ संबंध है वरन यों कहना चाहिए कि देशानुराग महारत्न की आत्मत्याग खानि है। उत्तम शिक्षा, धन संपत्ति, वीरता, उत्साह आदि की कमी हम लोगों में इस गिरी दशा पर भी नहीं है अभाव केवल इसी का है कि अणुमात्र भी मात्र भी अपनी हानि सहना गँवारा नहीं करते। बहुधा देखने में आता है कि अपने थोड़े से फायदे के लिए मुल्क का बहुत बड़ा नुकसान करा देना कोई ऐब या बुराई नहीं है जहाँ ऐसी समझ है वहाँ देशत्व रक्षा की चर्चा चलना भी मूर्खता है। ईश्वर कुछ ऐसी प्रेरणा करें कि हम लोगों में ऐसे पुरूष रत्न पैदा हो जाएँ जिनमें देश का अनुराग परस्पर की सहानुभूति आत्मसमर्पण का अंकुर भली भाँति प्रस्फुटित हो तब देशत्व की रक्षा भी सब तरह पर संभव है किंतु भारत के ऐसे दिन कहाँ जो ईश्वर की कृपा दृष्टि का पात्र हो और उन्नतिशाली देशों की गणना में अगुआ बनें।