देशप्रेमियों का जुलूस / राजकिशोर
वे जा रहे हैं। वे संसद की ओर जा रहे हैं। वे एक-दूसरे के खिलाफ वोट देने जा रहे हैं। वे सभी के सभी देशप्रेमी हैं। वे एक-दूसरे को देश का दुश्मन मानते हैं। एक को गिराना है। एक को बचाना है। नहीं गिरी तो देश अमेरिका के हाथ में बंधक हो जाएगा। नहीं बची तो देश कमजोर हो जाएगा। देश को बचाने का जज्बा इतना मजबूत है कि पुरानी दोस्तियाँ-दुश्मनियाँ भुला दी जा रही हैं। पुरानी टोलियाँ टूट चुकी हैं। नई टोलियाँ बन रही हैं। दोनों के पीछे देशप्रेम का दीवानापन है। हाय मेरा देश!
दिल्ली में ही रहता हूँ। बताया जाता है कि देशप्रेमियों का शहर है। होगा। पर इतने देशप्रेमियों को मैंने एक साथ कभी नहीं देखा। सभी के सभी देशप्रेमी जत्थों में बँटे हुए हैं। कुछ जत्थे छोटे भी हैं - तीन-तीन, चार-चार के। जिसके पास जितने लोग हैं, उन्हीं को ले कर वह देश बचाने निकल पड़ा है। इस महासंग्राम में हर एक की कीमत है। कोई-कोई अकेले भी चल रहा है। अकेला है तो उसकी कीमत और ज्यादा है।
सबसे आगे कम्युनिस्टों का जत्था है। वह अपने को सबसे बड़ा देशप्रेमी मानता है। वह बहुत पुराना देशप्रेमी है - सन बयालीस से ही। उसका नारा है - करार से इनकार है...बाकी सब स्वीकार है। आखिर चार साल से वह सब कुछ स्वीकार करते हुए ही चल रहा था। महँगाई बढ़ने लगी, तो उसने वक्तव्य जारी कर दिया। गरीबी कम नहीं हुई, तो उसने प्रधानमंत्री को पत्र लिख दिया। पेट्रोल की कीमत बढ़ाई गई, तो उसने एक छोटा-सा जुलूस निकाल दिया। लेकिन सरकार को चोट नहीं पहुँचाई। दरअसल, देशप्रेम में वह इस कदर डूबा हुआ था कि चार साल में उसे पता ही नहीं चल पाया कि वह जिस सरकार का समर्थन कर रहा था, वह देशप्रेमी नहीं है। जब परमाणु करार का मामला आया, तब जा कर यह भेद खुला। ये तुरंत सरकार से अलग हो गए। अब सरकार को गिराने जा रहे हैं। उत्तेजना का स्तर देखते हुए लग रहा है कि ये दिल्ली की नहीं, वाशिंग्टन की सरकार को गिराने जा रहे हैं।
कांग्रेस का जत्था सबसे बड़ा है। वह बड़े आत्मविश्वास के साथ आगे बढ़ रहा है। उसके नेता मनमोहन सिंह गंभीर मुद्रा बनाए हुए धीरे-धीरे चल रहे हैं। बीच-बीच में कोई युवा सांसद नारा लगा देता है - परमाणु करार होके रहेगा...नहीं हुआ तो खून बहेगा। यूरेनियम यूरेनियम...मिलेनियम मिलेनियम। एक युवा पत्रकार मुसकरा कर पूछती है - यह यूरेनियम क्या होता है? सांसद गंभीरता से जवाब देता है - कुछ भी होता हो। पर वह है देश हित में। उसके बिना हम प्रगति नहीं कर सकते। एक और युवा पत्रकार राहुल गांधी से पूछता है - अगर आपकी सरकार गिर गई तो? राहुल जवाब देते हैं - देश हित में हम ऐसी सैकड़ों सरकारों को गिरने दे सकते हैं। हमारे लिए देश पहले है, सरकार बाद में।
मायावती आज अलग ही धज में हैं। वे सांसद नहीं हैं, पर अपने सांसदों का मनोबल बढ़ाने के लिए और इस पर नजर रखने के लिए कि कोई छिटक न जाए, खुद अपने जत्थे का नेतृत्व कर रही हैं। उनका मानना है कि परमाणु करार देश के हित में नहीं है, क्योंकि वामपंथी उसके विरोध में हैं। वामपंथी इस समय सबसे बड़े देशप्रेमी हैं, क्योंकि वे बहुजन समाज पार्टी का साथ दे रहे हैं। बहुजन समाज पार्टी देश हित में है, क्योंकि मायावती उसकी नेता हैं। एक पत्रकार जानना चाहती है - आपके प्रधानमंत्री बनने में कितनी देर है? मायावती के होंठों पर मुसकराहट आ जाती है - हो सकता है, इस सरकार के गिरने के बाद ही...राजनीति संभावनाओं का खेल है। यहाँ कब नहीं पूछते, कौन और कैसे पूछते हैं।
मुलायम सिंह और अमर सिंह कंधे से कंधा मिला कर चल रहे हैं। मुलायम बीच-बीच में अपने मुसलमान सांसदों पर एक नजर डाल लेते हैं कि कहीं कोई भाग तो नहीं गया। दोनों के चेहरे पर दुविधा की धुंध है। कभी मुलायम अमर सिंह से पूछ लेते हैं - हमारे सभी काम हो जाएँगे न? कभी अमर सिंह
मुलायम सिंह को याद दिलाते हैं - एक भी बात भूलिएगा नहीं, मेरी इज्जत का सवाल है।
भाजपा का जत्था सर्वाधिक संगठित और अनुशासित है। लालकृष्ण आडवाणी की बाँछें खिली हुई हैं। उनकी बेसब्री देखते ही बनती है। कब मनमोहन हटें, कब हम बैठें। वे एक पत्रकार को बयान लिखवा रहे हैं - हम परमाणु शक्ति के पक्ष में हैं। पर करार का यह प्रारूप हमें मंजूर नहीं। दरअसल, यह परमाणु करार देश हित में नहीं, हमारे हित में है। उसकी राख पर हमारा पुनर्जन्म होगा। सत्ता में आने के बाद हम इस करार को अपने ढंग से लागू करेंगे। तभी इस जत्थे का एक कार्यकर्ता नारा लगाता है - 'पिछली बार राम था...अबकी बार वाम है।'
जेल से छूट कर आए सांसदों की चाल में अलग की अकड़ है। वे मानो यह घोषणा करते हुए चल रहे हैं कि हम जेल में हैं तो क्या, देश हित के मामले में किसी से पीछे नहीं हैं।
मेरे भीतर भी देशप्रेम की भावना हिलोर लेती है। पर समझ में नहीं आता, किस जत्थे में शामिल हो जाऊँ। सभी की आँखों में नशा है। सभी के हाथों में खून है। अपने आपसे कहता हूँ - बेटा, यह इक्कीसवीं शताब्दी है। अब देशप्रेमी होना पहले की तरह आसान नहीं रह गया। असके लिए सबसे पहले देश पर कब्जा करना पड़ता है।