देशप्रेम की फिल्में : कल, आज और कल / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि : 15 अगस्त 2018
स्वतंत्रता प्राप्त करने के पहले भारतीय फिल्मकारों ने ब्रिटिश सेन्सर की आंख में धूल झोंककर देशप्रेम की अलख जगाने वाली फिल्में बनाईं। पौराणिक कथाओं से प्रेरित फिल्मों में देशप्रेम के संकेत दिए गए मसलन महाभारत के पात्र विदुर पर बनाई गई फिल्म में विदुर अभिनीत करने वाला गांधी की तरह चश्मा पहनता है, उन्हीं की तरह धोती बांधता है। दर्शक समझता है कि यह महज पौराणिक आख्यान नहीं वरन् वर्तमान में किए जा रहे स्वतंत्रता आंदोलन का तथ्य है। भालजी पेंढारकर की फिल्म 'वंदे मातरम् आश्रम' का प्रारंभ ही गांधीजी के कथन से होता है कि जो शैक्षणिक संस्थान अपने पाठ्यक्रम में व्यावहारिक तथ्यों को शामिल नहीं करते, वे संस्थान मृत समान हैं। आजादी के सात दशक बाद समय चक्र घूम चुका है और अब पौराणिक कथाओं को सत्य की तरह स्थापित किया जा रहा है। आज खोज-खोज कर देवी देवताओं के आख्यान निकाले जा रहे हैं। आए दिन धार्मिक जुलूस सामान्य आवागमन को थाम देते हैं और मरीज वक्त पर अस्पताल नहीं पहुंच पाते। ज्ञातव्य है कि भालाजी पेंढारकर तिलक की पत्रिका 'केसरी' के सह-संस्थापक रह चुके हैं। व्ही. शांताराम की फिल्म 'उदयकाल' इतिहास प्रेरित फिल्म थी परन्तु उसमें भी देशप्रेम का संदेश था। उन्हीं दिनों महात्मा गांधी के प्रभाव के कारण फिल्में सामाजिक कुरीतियों पर भी प्रकाश डालती थीं। मसलन शांताराम की 'दुनिया ना माने' बेमेल विवाह और स्त्री को खरीदने की आलोचना करती है। कुछ दिन पूर्व ही एक पत्नी को बेचने की खबर प्रकाशित हुई थी गोयाकि थॉमस हार्डी की 'मेयर ऑफ केस्टरब्रिज' बार-बार घटित होती है।
तेइस फरवरी 1932 को गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर ने अपनी ही कृति 'नातिर पूजा' से प्रेरित फिल्म का निर्देशन भी किया था। गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर की रुचि इस नए माध्यम में भी थी। कलकत्ता की 'न्यू थियेटर्स' कम्पनी की सात फिल्में असफल रहीं जिनमें उनकी 'नातिर पूजा' भी शामिल थी। उन्होंने सलाह दी कि शिशिर भादुड़ी के नाटक 'सीता' पर फिल्म बनाई जाए और इसी फिल्म की सफलता ने संस्था को दीवालिया होने से बचा लिया।
आजादी की अलसभोर में रमेश सहगल की दिलीप कुमार और कामिनी कौशल अभिनीत 'शहीद' का प्रदर्शन हुआ। इसमें एक प्रमुख पात्र अहिंसा के रास्ते पर चलता और उसका अभिन्न मित्र हिंसा द्वारा स्वतंत्रता प्राप्त करना चाहता है। नायिका हिंसा द्वारा स्वतंत्रता प्राप्त करने वाले को चाहती है परन्तु उसी की जान बचाने के लिए अंग्रेजों के हिमायती इन्सपेक्टर से विवाह का समझौता करती है। नायक के पिता अंग्रेजों के द्वारा नियुक्त सरकारी वकील हैं। उनके क्रांतिकारी पुत्र का मुकदमा चलता है और इस दोराहे पर वे त्याग-पत्र देते हैं। फिल्म के सारे पात्र परिवर्तन की फ्रेम में जड़े हुए फोटोग्राफ्स की तरह हैं। इन्हीं रमेश सहगल की '26 जनवरी' नामक फिल्म असफल हो गई तो कुछ वर्ष के वनवास के पश्चात ही वे फ़्योदोर दोस्तोयेव्स्की की 'क्राइम एन्ड पनिशमेंट' से प्रेरित 'फिर सुबह होगी' बना पाए। आजादी के बाद के दशक में नेहरू प्रेरित आदर्श पर फिल्में बनती रहीं और उनमें देशप्रेम से अधिक सामाजिक समस्याओं पर प्रकाश डाला गया। उस स्वर्ण युग में शांताराम, मेहबूब खान, अमिया चक्रवर्ती, राज कपूर और गुरु दत्त सामाजिक प्रतिबद्धता वाला मनोरंजन गढ़ते रहे। 'जागृति' जैसी फिल्मों में राष्ट्रप्रेम के गीत होते थे परन्तु मूल उद्देश्य सामाजिक सरोकार ही रहा। 'तूफां से कश्ती' निकालकर लाने वाले ही कश्ती डुबाते भी रहे और भ्रष्टाचार पैर पसारता रहा। दरअसल भ्रष्टाचार सामूहिक अवचेतन का हिस्सा था और गांधी-नेहरू के प्रभाव में शुसुप्त अवस्था में गए ज्वालामुखी की तरह था। वर्तमान में फिर उससे ज्वालाएं निकल रही हैं। पंजाब के स्कूल शिक्षक सीताराम शर्मा मनोज कुमार को जानते थे। उन्होंने अपनी पटकथा 'शहीद' मनोज कुमार को सुनाई और यह भगत सिंह के जीवन से प्रेरित श्रेष्ठतम फिल्म है।
भगत सिंह प्रेरित अनेक फिल्में बनी हैं। परन्तु समाजवादी भगत सिंह की वैचारिक महानता अभी भी अनकही रही है। इंदौर के आनंद मोहन माथुर द्वारा संचालित भगत सिंह ब्रिगेड सामाजिक कार्य कर रही है। बहरहाल सीताराम शर्मा लिखित 'शहीद' ने मनोज कुमार का पथ प्रशस्त किया परन्तु उन्होंने छद्म देशप्रेम की फिल्में ही गढ़ीं। उनकी फिल्मों में महान नेताओं की तस्वीरें दिखाकर वे तालियां बटोरते रहे, कलदार गिनते रहे। फिल्मों में देशप्रेम का तीसरा दौर आया, जब सनी दओल अभिनीत 'गदर' का प्रदर्शन हुआ जिसमें पाकिस्तान में घुसकर वहां संहार करके अपनी पत्नी और बच्चे को बचाकर नायक अपने वतन आता है। इस दौर से प्रारंभ हुई यह सोच कि पाकिस्तान विरोध ही देशप्रेम है।
जुनून इस कदर बढ़ा है कि दो दिन पूर्व ही चीन ने कुछ और भारतीय जमीन पर कब्जा जमा लिया है परन्तु इसे अनदेखा किया जा रहा है। पाकिस्तान विरोध वोट बैंक को पुख्ता करता है। इस पक्ष पर नया दृष्टिकोण प्रस्तुत करती है आनंद एल. राय की फिल्म 'हैप्पी भाग जाएगी' जिसका अगला भाग 24 अगस्त को प्रदर्शित होने वाला है। वक्त की नजाकत देखकर इस बार 'हैप्पी' नामक पात्र अपनी सहेली सहित चीन भाग जाने में सफल होती है।
'गदर' के साथ ही आमिर खान की 'लगान' भी प्रदर्शित हुई ती जिसमें देशप्रेम एक अलग स्वरूप में अभिव्यक्त किया गया। दरअसल 'लगान' एक निहत्थे मनुष्य की साधन संपन्न वर्ग पर जीत की सर्वकालिक महान फिल्म है। आमिर खान अभिनीत 'रंग दे बसंती' एक विलक्षण फिल्म है जिसमें आधुनिक उद्देश्यहीन युवा भगत सिंह पर बनाई जा रही एक फिल्म में अपनी इच्छा के विरुद्ध होते हुए जुड़ जाते हैं और फिल्म बनते-बनते वे सच्चे देशप्रेमी हो जाते हैं। उनकी विचार शैली में फिल्म ही कैटेलिक एजेन्ट का काम करती है।
'रंग दे बसंती' देशप्रेम की फिल्मों में मील का पत्थर साबित हुई। आज छोटे परदे पर दिखाई जाने वाली फिल्म 'परमाणु' भी देशप्रेम की फिल्म है। पहला परमाणु बम परीक्षण पोखरण में इंदिरा गांधी के दौर में हुआ था परन्तु वक्त की नजाकत देखकर अटल बिहारी वाजपेयी दौर के परमाणु बम की कथा प्रस्तुत की गई है।